यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 27
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
108
अ॒ꣳशुना॑ ते अ॒ꣳशुः पृ॑च्यतां॒ परु॑षा॒ परुः॑।ग॒न्धस्ते॒ सोम॑मवतु॒ मदा॑य॒ रसो॒ऽअच्यु॑तः॥२७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ꣳशुना॑। ते॒। अ॒ꣳशुः। पृ॒च्य॒ता॒म्। परु॑षा। परुः॑। ग॒न्धः। ते॒। सोम॑म्। अ॒व॒तु॒। मदा॑य। रसः॑। अच्युतः॑ ॥२७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अँशुना तेऽअँशुः पृच्यताम्परुषा परुः । गन्धस्ते सोममवतु मदाय रसोऽअच्युतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अꣳशुना। ते। अꣳशुः। पृच्यताम्। परुषा। परुः। गन्धः। ते। सोमम्। अवतु। मदाय। रसः। अच्युतः॥२७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! ते तवांऽशुनांऽशुः परुषा परुः पृच्यताम्, तेऽच्युतो गन्धो रसश्च मदाय सोममवतु॥२७॥
पदार्थः
(अंशुना) भागेन (ते) तव (अंशुः) भागः (पृच्यताम्) सम्बध्यताम् (परुषा) मर्मणा (परुः) मर्म्म (गन्धः) (ते) तव (सोमम्) ऐश्वर्यम् (अवतु) (मदाय) आनन्दाय (रसः) सारः (अच्युतः) नाशरहितः॥२७॥
भावार्थः
यदा ध्यानावस्थितस्य मनुष्यस्य मनसा सहेन्द्रियाणि प्राणाश्च ब्रह्मणि स्थिरा भवन्ति, तदा स नित्यमानन्दति॥२७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान्! (ते) तेरे (अंशुना) भाग से (अंशुः) भाग और (परुषा) मर्म से (परुः) मर्म (पृच्यताम्) मिले तथा (ते) तेरा (अच्युतः) नाशरहित (गन्धः) गन्ध और (रसः) रस पदार्थ सार (मदाय) आनन्द के लिये (सोमम्) ऐश्वर्य की (अवतु) रक्षा करे॥२७॥
भावार्थ
जब ध्यानावस्थित मनुष्य के मन के साथ इन्द्रियां और प्राण ब्रह्म में स्थिर होते हैं, तभी वह नित्य आनन्द को प्राप्त होता है॥२७॥
विषय
सम्राट् को आशीर्वाद ।
भावार्थ
( ते अंशुना ) तेरे व्यापक सामर्थ्य से ( अंशुः ) राष्ट्र का व्यापक सामर्थ्य और ( परुपा परुः ) पोरू से पोरू ( पुच्यताम् ) जुड़ा रहे । (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध, शत्रुनाशक बल और (अच्युतः) कभी न्यून न होने वाला अटूट ( रस: ) रस, बल ( मदाय ) आनन्द सुख के लिये ( सोमम् ) सोम, ऐश्वर्य, राष्ट्र के राजपद की ( अवतु ) रक्षा करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्यो देवता । विराड् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
अंशुना अंशुः
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित पुण्यलोक के निवासियों के लिए ही कहते हैं कि (अंशुना) = ज्ञान की किरण के साथ (ते) = तेरी अंशु ज्ञान की किरण (पृच्यताम्) = संपृक्त हो, अर्थात् तेरा ज्ञान-प्राप्ति का तन्तु कभी विच्छिन्न न हो। ('हिरण्यमस्तृतम् भव') = तू अविच्छिन्न ज्ञानवाला बन, अर्थात् तेरा ज्ञान निरन्तर बढ़ता चले। २. शरीर में (परुषा) = जोड़ के साथ (परु:) = जोड़ (पृच्यताम्) = ठीक जुड़ा हो। अङ्गों का शरीर में सन्धान बिलकुल ठीक हो । जोड़ों के ढीले हो जाने पर जैसे एक गाड़ी पुराना छकड़ा-सा बन जाती है, उसी प्रकार तेरा यह शरीर - रथ जीर्णशीर्ण-सा न बन जाए। इसमें सब जोड़ ठीक से जुड़े हों। ३. 'तेरा ज्ञान अविच्छिन्न हो ' तथा 'तेरे शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग ठीक से सटे हुए हों' इन दोनों बातों के लिए ते-तेरा (गन्धः) = [सम्बन्धः] प्रभु के साथ सम्पर्क (सोमम्) = शरीर में सोमशक्ति को (अवतु) = सुरक्षित करे। सोम की रक्षा होने पर ही ज्ञान की अविच्छिन्नता व शरीर की दृढ़ता सम्भव है। ४. यह (अच्युतः) = न क्षरित हुआ (रसः) जीवन को रसमय बनानेवाला अथवा ओषधियों का सारभूत सोमरस तेरे उल्लास के लिए होता है। ओषधियों के सेवन से रसादि क्रम से उत्पन्न हुआ हुआ सोम जब प्रभु स्मरण के द्वारा शरीर में ही सुरक्षित किया जाता है तब यह एक अद्भुत मस्ती का कारण होता है। जीवन में इस सोम का पान [रक्षण] करनेवाला व्यक्ति उल्लास का अनुभव करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा ज्ञान अविच्छिन्न हो, शरीर सुदृढ़ हो । प्रभु स्मरण के द्वारा हम अपने सोम की रक्षा करें, न क्षरित हुआ हुआ यह सोम हमारे जीवन में उल्लास देनेवाला हो ।
मराठी (2)
भावार्थ
जेव्हा ध्यानावस्थित अवस्थेत माणसाच्या मनाबरोबरच इंद्रिये व प्राण ब्रह्मात स्थित होतात तेव्हाच तो नित्य आनंद प्राप्त करू शकतो.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, (ते) आपल्या (अशुना) (शरीराच्या एका) भागाशी (अंशुः) दुसरा भाग (मिळून असावा) तसेच आपल्या (परुषा) मर्मस्थानांशी (लिंग, गुदा, कंठ आदी) (परुः) दुसरे मर्मस्थान (पृच्यताम्) मिळून असावे (शरीरातील सर्व अवयव व्यवस्थितपणे असावेत की ज्यायोगे) (ते) आपले (अच्युतः) नाशरहित (गंधः) आणि (रसः) रस वा सार (मदाय) आनन्दप्राप्तीसाठी (सोमम्) ऐश्वर्याचे (अवतु) रक्षण करोत (आपल्या शरीरातील गंध, स्पर्श, रस आदी ज्ञान अखंड व अक्षत असावेत की ज्यायोगे आपल्या ज्ञानरूप संपत्तीची रक्षा होईल.) ॥27॥
भावार्थ
भावार्थ - जेव्हां ध्यानावस्थित मनुष्याचे मन आणि इतर इंद्रियें व प्राण परमेश्वरात (त्याच्या ध्यानात) स्थिर होतात, तेंव्हां तो साधक नित्यानंद अनुभवतो. ॥27॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Let thy soul be united with God. Let each joint of thine be full of vigour. Let thy noble nature guard thy wealth. Let the imperishable sap of Gods devotion be for thy joy.
Meaning
Soma is the Spirit of life, fragrance imperishable, inexhaustible, eternal. Let the filament of the soma plant stay joined to the branch, let the branch with the plant mature and be whole with the plant. May the knot of the cane grow out of the knot, stay joined to the knot, mature and be one and whole with the tree. Soma, Spirit of life, may your fragrance and eternal vitality protect the unity and wholeness of life among all its constituent parts.
Translation
May your shoot combine with its shoot; may your joint combine with its joint. May your scent mix with that of the cure-plant. May your unspilt juice be for our pleasure. (1)
Notes
This verse appears to be addressed to a husband and wife. Amśuḥ, भाग:, part. Paruh, पर्व, joint. Somam, सुखं, bliss. Acyutaḥ, अस्खलित:, unspilt.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! (তে) তোমার (অংশুনা) ভাগ হইতে (অংশু) ভাগ ও (পরুষা) মর্ম হইতে (পরুঃ) মর্ম (পৃচ্যতাম্) পাওয়া যায় তথা (তে) তোমার (অচ্যুতঃ) নাশরহিত (গন্ধ) গন্ধ ও (রসঃ) রস পদার্থ সার (মদায়) আনন্দ হেতু (সোমম্) ঐশ্বর্য্যের (অবতু) রক্ষা কর ॥ ২৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যখন ধ্যানাবস্থিত মনুষ্যের মনের সঙ্গে ইন্দ্রিয় ও প্রাণ ব্রহ্মে স্থির হয় তখনই সে নিত্য আনন্দকে প্রাপ্ত হয় ॥ ২৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒ꣳশুনা॑ তে অ॒ꣳশুঃ পৃ॑চ্যতাং॒ পর॑ুষা॒ পর॑ুঃ ।
গ॒ন্ধস্তে॒ সোম॑মবতু॒ মদা॑য়॒ রসো॒ऽঅচ্যু॑তঃ ॥ ২৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অꣳশুনেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সোমো দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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