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यजुर्वेद अध्याय - 21

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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 44
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - याजुषि त्रिष्टुप्, कृति स्वरः - धैवतः, षड्जः
    89

    होता॑ यक्ष॒त् सर॑स्वतीं॑ मे॒षस्य॑ ह॒विष॒ऽआव॑यद॒द्य म॑ध्य॒तो मेदः॒ उद्भृ॑तं पु॒रा द्वेषो॑भ्यः पु॒रा पौरु॑षेय्या गृ॒भो घस॑न्नू॒नं घा॒सेऽअ॑ज्राणां॒ यव॑सप्रथमाना सु॒मत्क्ष॑राणा शतरु॒द्रिया॑णामग्निष्वा॒त्तानां॒ पीवो॑पवसनानां पार्श्व॒तः श्रो॑णि॒तः शि॑ताम॒तऽउ॑त्साद॒तोऽङ्गा॑दङ्गा॒दव॑त्तानां॒ कर॑दे॒वꣳ सर॑स्वती जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। सर॑स्वतीम्। मे॒षस्य॑। ह॒विषः॑। आ। अ॒व॒य॒त्। अ॒द्य। म॒ध्य॒तः। मेदः॑। उद्भृ॑त॒मित्युत्ऽभृ॑तम्। पु॒रा। द्वेषो॑भ्य॒ इति॒ द्वेषः॑ऽभ्यः। पु॒रा। पौरु॑षेय्याः। गृ॒भः। घस॑त्। नू॒नम्। घा॒सेऽअ॑ज्राणा॒मिति॑ घा॒सेऽअ॑ज्राणाम्। यव॑सप्रथमाना॒मिति॒ यव॑सऽप्रथमानाम्। सु॒मत्क्ष॑राणा॒मिति॑ सु॒मत्ऽक्ष॑राणाम्। श॒त॒रु॒द्रिया॑णा॒मिति॑ शतऽरु॒द्रिया॑णाम्। अ॒ग्नि॒ष्वा॒त्ताना॑म्। अ॒ग्नि॒स्वा॒त्ताना॒मित्य॑ग्निऽस्वा॒त्ताना॑म्। पीवो॑पवसनाना॒मिति॒ पीवः॑ऽउपवसनानाम्। पा॒र्श्व॒तः श्रो॒णि॒तः। शि॒ता॒म॒तः। उ॒त्सा॒द॒त इत्यु॑त्ऽसाद॒तः। अङ्गा॑दङ्गा॒दित्यङ्गा॑त्ऽअङ्गात्। अव॑त्तानाम्। कर॑त्। ए॒वम्। सर॑स्वती। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षत्सरस्वतीम्मेषस्य हविषऽआवयदद्य मध्यतो मेदऽउद्भृतम्पुरा द्वेषोभ्यः पुरा पौरुषेय्या गृभो घसन्नूनङ्घासेऽअज्राणाँयवसप्रथमानाँ सुमत्क्षराणाँ शतरुद्रियाणामग्निष्वात्तानाम्पीवोपवसानाम्पार्श्वतः श्रोणितः शितामतऽउत्सादतोङ्गादङ्गादवत्तानाङ्करदेवँ सरस्वती जुषताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। सरस्वतीम्। मेषस्य। हविषः। आ। अवयत्। अद्य। मध्यतः। मेदः। उद्भृतमित्युत्ऽभृतम्। पुरा। द्वेषोभ्य इति द्वेषःऽभ्यः। पुरा। पौरुषेय्याः। गृभः। घसत्। नूनम्। घासेऽअज्राणामिति घासेऽअज्राणाम्। यवसप्रथमानामिति यवसऽप्रथमानाम्। सुमत्क्षराणामिति सुमत्ऽक्षराणाम्। शतरुद्रियाणामिति शतऽरुद्रियाणाम्। अग्निष्वात्तानाम्। अग्निस्वात्तानामित्यग्निऽस्वात्तानाम्। पीवोपवसनानामिति पीवःऽउपवसनानाम्। पार्श्वतः श्रोणितः। शितामतः। उत्सादत इत्युत्ऽसादतः। अङ्गादङ्गादित्यङ्गात्ऽअङ्गात्। अवत्तानाम्। करत्। एवम्। सरस्वती। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे होतर्यथा होताऽद्य मेषस्य शितामतो हविषो मध्यतो यन्मेद उद्भृतं तत् सरस्वतीं चावयत् यक्षत् द्वेषोभ्यः पुरा गृभः पौरुषेय्याः पुरा नूनं घसद् घासेअज्राणां यवसप्रथमानां सुमत्क्षराणां पीवोपवसनानामग्निष्वात्तानां शतरुद्रियाणां पार्श्वतः श्रोणित उत्सादतोऽङ्गादङ्गादवत्तानां सकाशाद् विद्यां करदेवमेतत् सरस्वती जुषतां तथा त्वं च हविर्यज॥४४॥

    पदार्थः

    (होता) दाता (यक्षत्) (सरस्वतीम्) वाचम् (मेषस्य) उपदिष्टस्य (हविषः) दातुमर्हस्य (आ) (अवयत्) वेति प्राप्नोति (अद्य) (मध्यतः) मध्ये भवात् (मेदः) स्निग्धम् (उद्भृतम्) उद्धृतम् (पुरा) (द्वेषोभ्यः) शत्रुभ्यः (पुरा) (पौरुषेय्याः) पुरुषसम्बन्धिन्याः (गृभः) ग्रहीतुं योग्यायाः (घसत्) (नूनम्) निश्चितम् (घासेअज्राणाम्) भोजने कमनीयानाम् (यवसप्रथमानाम्) मिश्रितामिश्रिताद्यानाम् (सुमत्क्षराणाम्) श्रेष्ठानन्दवर्षकराणाम् (शतरुद्रियाणाम्) बहूनां मध्ये विद्वदधिष्ठातॄणाम् (अग्निष्वात्तानाम्) सुसंगृहीताग्निविद्यानाम् (पीवोपवसनानाम्) स्थूलवस्त्रधारिणाम् (पार्श्वतः) समीपात् (श्रोणितः) कटिप्रदेशात् (शितामतः) तीक्ष्णस्वभावात् (उत्सादतः) गात्रोत्सादनात् (अङ्गादङ्गात्) (अवत्तानाम्) गृहीतानाम् (करत्) कुर्यात् (एवम्) अमुना प्रकारेण (सरस्वती) विदुषी स्त्री (जुषताम्) (हविः) आदातव्यम् (होतः) आदातः (यज)॥४४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सज्जनसंगेन दुष्टान् निवार्य युक्ताहारविहाराभ्यामारोग्यं प्राप्य धर्मं सेवन्ते, ते कृतकृत्या जायन्ते॥४४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (होतः) लेने हारे! जैसे (होता) देने वाला (अद्य) आज (मेषस्य) उपदेश को पाये हुए मनुष्य के (शितामतः) खरे स्वभाव से (हविषः) देने योग्य पदार्थ के (मध्यतः) बीच में प्रसिद्ध व्यवहार से जो (मेदः) चिकना पदार्थ (उद्भृतम्) उद्धार किया अर्थात् निकाला उसको (सरस्वतीम्) और वाणी को (आ, अवयत्) प्राप्त होता तथा (यक्षत्) सत्कार करता और (द्वेषोभ्यः) शत्रुओं से (पुरा) पहिले तथा (गृभः) ग्रहण करने योग्य (पौरुषेय्याः) पुरुषसम्बन्धिनी स्त्री के (पुरा) प्रथम (नूनम्) निश्चय से (घसत्) खावे वा (घासेअज्राणाम्) जो भोजन करने में सुन्दर (यवसप्रथमानाम्) मिले न मिले हुए आदि (सुमत्क्षराणाम्) श्रेष्ठ आनन्द की वर्षा कराने और (पीवोपवसनानाम्) मोटे कपड़े पहरने वाले तथा (अग्निष्वात्तानाम्) अग्निविद्या को भलीभांति ग्रहण किये हुए और (शतरुद्रियाणाम्) बहुतों के बीच विद्वानों का अभिप्राय रखने हारों के (पार्श्वतः) समीप और (श्रोणितः) कटिभाग से (उत्सादतः) शरीर से जो त्याग उससे वा (अङ्गादङ्गात्) अंग-अंग से (अवत्तानाम्) ग्रहण किये हुए व्यवहारों की विद्या को (करत्) ग्रहण करे (एवम्) ऐसे (सरस्वती) पण्डिता स्त्री उस का (जुषताम्) सेवन करें, वैसे तू भी (हविः) ग्रहण करने योग्य व्यवहार की (यज) संगति किया कर॥४४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सज्जनों के सङ्ग से दुष्टों का निवारण कर युक्त आहार-विहारों से आरोग्यपन को पाकर धर्म का सेवन करते, वे कृतकृत्य होते हैं॥४४॥

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    विषय

    अधिकारदान, उनके सहायकों के कर्तव्य । महीधर आदि के किये बकरे की बलिपरक अर्थ का सप्रमाण खण्डन । सरस्वती नाम विद्वत्सभा को अधिकार, उसके सहायकों का कर्तव्य । छाग, मेष, ऋषभ और उनके हवि, मद, तथा उनके पार्श्व, कटि, प्रजनन आदि अंगों के अवदान करने का रहस्य ।

    भावार्थ

    (होता) अधिकार प्रदाता अधिकारी ( सरस्वतीम् ) पूर्वोक्त विद्वत्सभा को ( यक्षत् ) संयोजित करे । वह (मेषस्य) ज्ञान और बल में प्रतिस्पर्द्धा करने वाले विद्वान् के ( हविः) ग्रहण करने योग्य ज्ञान बल को ( आवयत् ) प्राप्त करें। ( मध्यतः मेदः उद्भुतम् ) विद्वानों के बीच में से मेधा, ज्ञानवती वाणी का बल उत्पन्न होता है । वह भी पूर्वोक्त रीति से ही (पुरा द्वेषोभ्यः, पुरा पौरुषेय्याः गृभः) शत्रुओं के हाथ में जाने और उनके अपने उद्यमों में लगने से पहिले ही (घसत् नूनं ) उनको अवश्य प्राप्त कर ले | (घासे अज्राणां) अन्नादि वृत्ति पाने पर कभी जीर्ण न होने वाले, सदा विजयी, ( यवसप्रथमानम् ) सब से प्रथम उत्तम अन्न प्राप्त करने वाले, (सुमत्क्षराणां) उत्तम ज्ञान उत्पन्न करने वाले (शतरुद्रियाणां) सैकड़ों ज्ञान स्तुतियों को देने वाले ( अग्नि-स्वात्तानाम् ) ज्ञानवान् आचार्य द्वारा सुशिक्षित, (पीवोपवसनानाम् ) दृढ़ता से निवास करने वाले, (पार्श्वतः श्रोणितः शितामतः उत्सादतः अङ्गाद् अङ्गाद् अवत्तानाम् ) देश के समस्त भागों से प्राप्त, अथवा पार्श्व, कमर, लिंग और मर्म के अंगों में दृढ़, अर्थात् जितेन्द्रिय पुरुषों को ( करत् ) नियुक्त करे । ( सरस्वती एवं जुषताम् ) विद्वत् सभा इस प्रकार राष्ट्र के कार्य को स्वीकार करे । (होतः हविः यज) विद्वन् ! तू अधिकार और वेतन अन्न प्रदान कर ।

    टिप्पणी

    १'होता॑ २ ह॒विषा॒ऽआव॑यद॒द्य ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ( १ ) याजुषी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ ( २ ) स्वराड् उत्कृतिः । षड्जः ॥

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    विषय

    मेढ़ासिंगी का प्रयोग व यजन

    पदार्थ

    १. (होता) = यज्ञशील पुरुष सरस्वती ज्ञानाधिदवेता को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करे। इसी उद्देश्य से (मेषस्य) = मेढ़ासिंगी ओषधि का तथा (हविषः) = अग्निहोत्र में इसका हवन होने पर सूक्ष्मरूप में हुई हुई इस ओषधि का यह सरस्वती (आवयत्) = भक्षण करें, सेवन करे। २. (अद्य) = आज (मध्यतः) = इसके मध्य से (मेदः) = इसका औषध गुणयुक्त चिकना मध्य का भाग, अर्थात् गूदा (उद्धृतम्) = निकाला गया है। पुरा पूर्व इसके कि (द्वेषोभ्यः) = यह विकृत होकर अप्रीतिजनक हो जाए, और (पुरा) = पूर्व इसके कि (पौरुषेय्या गृभ:) = इसे कोई ऐसे कृमि पकड़ लें जो रोगों के कारण बन जाएँ, (घसत्) = सरस्वती इसका भक्षण करें। ३. (नूनम्) = निश्चय से (घासे अज्राणाम्) = भोजन में सबसे प्रथम प्रयोग करने योग्य, अथवा भोजन में रुचि को अधिकाधिक पैदा करनेवाली तथा खाने पर रोगों को दूर करनेवाली, (यवसप्रथमानाम्) = अन्नों में मुख्य, (सुमत् क्षराणाम्) = उत्तम आनन्दों को देनेवाली, (शतरुद्रियाणाम्) = शतश: रोगों को दूर करनेवाली, (अग्निष्वात्तानाम्) = अग्नि पर ठीक पकाई गई, (पीवोपवसनानाम्) = त्वचा के साथ-साथ स्थूल चर्बी के वस्त्र को प्राप्त करानेवाली, (पार्श्वतः) = पासों के दृष्टिकोण से, (श्रोणितः) = कटिप्रदेश के दृष्टिकोण से, (शितामतः) = बाहु के दृष्टिकोण से या आमाशय के दृष्टिकोण से, (उत्सादत:) = कटाव के दृष्टिकोण से, कटे हुए अङ्ग के भराव के विचार से, (अङ्गात् अङ्गात्) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग के दृष्टिकोण से (अवत्तानाम्) = काटी हुई इस मेढ़ासिंगी के (मेदस्) = का सरस्वती (करत्) = सेवन करती है। ४. (एवम्) = इस प्रकार (सरस्वती) = यह ज्ञानाधिदेवता (हविः) = अग्निहोत्र में डाली गई और अतएव हविरूप बची हुई इस ओषधि को (जुषताम्) = प्रीतिपूर्वक सेवन करे। ५. (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू भी (यज) = इसका यजन कर।

    भावार्थ

    भावार्थ-मस्तिष्क के उत्कर्ष के दृष्टिकोण से मेढ़ासिंगी ओषधि के मध्य से उद्धृत गूदे का ग्रहण करें। वह गूदा विकृत रसवाला न हो जाए और न ही मक्खियाँ उसपर बैठकर उसे रोगकृमियों से परिपूर्ण कर दें। इसके प्रयोग व हवन से हमारे सब अङ्ग सुन्दर व स्वस्थ होंगे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सज्जनाच्या संगतीत राहून दुष्टांचा नाश करतात व युक्त आहार, विहाराने निरागी राहून धर्माचे पालन करतात ते धन्य होतात.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (होतः) (गुण वा उपयोगी सवय ग्रहण करण्याचा स्वभाव असलेल्या) मनुष्या, ज्याप्रमाणे हा (होता) (ज्ञान व उपदेश) देणारा माणूस (अद्य) आज (मेषस्य) त्याने प्राप्त केलेले ज्ञान वा उपदेश (शितामतः) खऱ्या हेतूने (सरळभावनेने) (हविषः) (दूध, तीळ आदी) दातव्य पदार्थांच्या (मध्यतः) मधून योग्य त्या प्रक्रियेद्वारे काढतो, (मेदः) स्निग्ध (तूप, लोणी वा तेल आदी) जे पदार्थ (उद्भृतम्‌) काढले, ते सर्व पदार्थ (सरस्वतीम्‌) (मधुर) वाणीला (आ, अवयत्‌) प्रात होतात (त्या स्निग्ध पदार्थाने वाणी मधुर होते, शरिरात शक्ती येते) आणि (यक्षत्‌) ती व्यक्ती सत्काराला पात्र ठरते. (द्वेषोभ्यः) शत्रूंद्वारे (बळकावले जातील) याच्या (पुरा) आधीच (गृभः) ग्रहण व सेवन करण्याची अधिकारणी अशा (पौरुषेय्याः) पुरुषाशी संबंध येत असलेल्या स्त्रीने (गर्भधारणा इच्छूक वा संत्पनेच्छु पत्नीने) ते पौष्टिक पदार्थ (पुरा) सर्वप्रथम (नूनम्‌) निश्चयाने वा अवश्यमेव (घसत्‌) खावेत. तसेच (घासे अज्राणाम्‌) असे पदार्थ जे खाण्यासाठी अती स्वादिष्ट आहेत आणि (यवसप्रथमानाम्‌) मिश्रित वा अमिश्रित अशा धान्यापासून (जव, तीळ, गहू, तांदूळ आदी प्रत्येक धान्यापासून स्वतंत्रपणे तयार केलेले अथवा दोन-तीन धान्य मिसळून तयार केलेल्या पदार्थांचे (त्या स्त्रीने सेवन करावे) (या व्यतिरिक्त क्षेम व पुष्टी इच्छिणाऱ्या स्त्रीने (सुमत्क्षराणाम्‌) सात्त्विक आनंदाची वर्षा करणाऱ्या (पीवोपवसानानाम्‌) साधे, जाडे-भरडे वस्त्र नेसणाऱ्या (साधी राहणी असणाऱ्या) आणि (अग्निष्वात्तानाम्‌) अग्निविद्या (वा पाककला) उत्तमप्रकारे अवगत असणाऱ्या (शतरुद्रियाणाम्‌) शेकडो वा अनेक विद्वानांचे ज्ञान ग्रहण करणाऱ्या अशा विद्वज्जनांच्या (पार्श्वतः) जवळ राहून (श्रोणितः) त्यांच्याकडून (मानवी शरीरातील) कटिप्रदेशापासून होणाऱ्या (मल, मूत्र आदी त्यागा विषयीच्या रोगनिवारणाबाबत) अथवा शरीराच्या (अङ्गादङ्गात्‌) अंगा अंगा विषयी (अवत्तानाम्‌) प्राप्त केलेल्या अनुभवातून (त्या विदुषी स्त्रीने) ती विद्या (आयुर्वेद) (करत्‌) ग्रहण करावी. (एवम्‌) अशाप्रकारे ती (सरस्वती) पण्डिता स्त्री ज्याप्रमाणे वरील सर्व पदार्थांचे सेवन व ज्ञानाचे (जुषताम्‌) ग्रहण करते, त्याप्रमाणे (हे होतः) ग्रहण करण्याची इच्छा असणाऱ्या मनुष्या) तू देखील त्या (हविः) ग्रहणीय अशा ज्ञान आणि व्यवहार (यज) त्यांच्या संगतीत राहून शिकत जा. ॥44॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जो माणूस सज्जनांच्या साहाय्याने दुर्जनांचा नाश वा निवारण करीत योग्य आहार विहाराद्वारे आपले आरोग्य जपतो आणि धर्माप्रमाणे आचरण ठेवतो, तो कृतकृत्य होतो. (जीवनात यशस्वी होतो) ॥44॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a learned person, with the good nature of an instructed person, having extracted out of oblation the greasy substance, ever acquires it, develops speech, holds it in veneration, and surely eats it before enemies snatch it or a respectable married woman asks for it; just as persons beautiful to sit for dinner, individually or collectively, showerers of happiness, wearers of ungaudy clothes, having knowledge of electricity, conveyers of the opinion of the learned to the masses are freed by a skilled physician from physical ills from the sides, from the thighs, from the stomach, and from each limb causing pain, so shouldst an educated lady cherish him, so shouldst thou, o sacrificer perform yajna.

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    Meaning

    Let the man of yajna perform the yajna in honour of Sarasvati, divine voice and mother power of enlightenment, with the holy food of sheep’s milk and ghee. May Sarasvati partake of the holy food offered in yajna and raise the pranic vitality from the middle of body before the anti-system forces of ailments take hold of the body and make their home there. And may mother Sarasvati delight in protecting and promoting the subtle vitality of the pranas which are ever active in the digestion of food, first in assimilating the assimilable and throwing out the waste, exhilarating, creating a hundred forms of energy, vital fire of the system, essential strength of the body free from obesity. May Sarasvati protect and promote the vitality expressive and perceptible from the sides, the back, hyperactive vital parts, weaker and delicate parts, in short, from every vital part of the body system. Man of yajna, offer the holy food of yajna to the mother.

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    Translation

    Let the priest offer oblations to Sarasvati (the divine Doctress). May she enjoy today the sacred food prepared with the milk and butter taken from sheep, before the malicious people come and before the hordes of snatching men arrive. May she eat the delicious foods, in which the barley is the first and the foremost, so tasty that these slip down the gullet of their own, worthy of hundreds of praises, well-cooked in the fire, covered with a thick layer (of melted butter), taken from the side, from the middle, from the shoulders and from the deepest part as well. Thus with the portions, taken from each and every part, may the divine Doctress make her repast and enjoy the sacrificial food. О priest, offer oblations. (1)

    Notes

    Nearly same as verse 43; only Aśvins substituted by Sarasvati and chaga by meşa.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (হোতঃ) গ্রহীতা ! যেমন (হোতা) দাতা (অদ্য) আজ (মেষস্য) উপদেশ প্রাপ্ত মনুষ্যের (শিতামতঃ) তীক্ষ্ন স্বভাব হইতে (হবিষঃ) দেওয়ার যোগ্য পদার্থের (মধ্যতঃ) মধ্যে প্রসিদ্ধ ব্যবহার দ্বারা যে (মেদঃ) স্নিগ্ধ পদার্থ (উদ্ভূতম্) উদ্ধার করিয়াছে অর্থাৎ বাহির করিয়াছে তাহাকে (সরস্বতীম্) ও বাণীকে (আ, অবয়ৎ) প্রাপ্ত হইয়া তথা (য়ক্ষৎ) সৎকার করিয়া এবং (দ্বেষোভ্যঃ) শত্রুদিগের হইতে (পুরা) প্রথমে তথা (গৃভঃ) গ্রহণীয় (পৌরুষেয়্যাঃ) পুরুষসম্পর্কীয়া নারীর (পুরা) প্রথম (নূনম্) নিশ্চয়পূর্বক (ঘসৎ) খাইবে অথবা (ঘাসেঅজ্রাণাম্) যাহা ভোজন করিতে সুন্দর (য়বসপ্রথমানাম্) মিশ্রিতও অমিশ্রিতাদি (সুমৎক্ষরানাম্) শ্রেষ্ঠ আনন্দের বর্ষাকারী এবং (পীবোপবসনানাম্) স্থূলবস্ত্রধারীগণ তথা (অগ্নিষ্বাত্তানাম্) অগ্নিবিদ্যাকে ভালমত গৃহীত এবং (শতরুদ্রিয়াণাম্) বহুর মধ্যে বিদ্বান্দিগের অভিপ্রায় রক্ষাকারীদের (পার্শ্বতঃ) সমীপ ও (শ্রোণিতঃ) কটি ভাগ হইতে (উৎসাদতঃ) গাত্র হইতে যে ত্যাগ তাহা দ্বারা অথবা (অঙ্গাদঙ্গাৎ) অঙ্গ অঙ্গ দ্বারা (অবত্তানাম্) গৃহীত ব্যবহারের বিদ্যাকে (করৎ) গ্রহণ করিবে (এবম্) এমন (সরস্বতী) পন্ডিতা নারী তাহার (জুষতাম্) সেবন করিবে, সেইরূপ তুমিও (হবিঃ) গ্রহণীয় ব্যবহারের (য়জ) সংগতি করিতে থাক ॥ ৪৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য সজ্জনদিগের সঙ্গ দ্বারা দুষ্টদিগের নিবারণ করিয়া যুক্ত আহার-বিহার দ্বারা আরোগ্যতা লাভ করিয়া ধর্মের সেবন করে, তাহারা কৃতকৃত্য হয় ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    হোতা॑ য়ক্ষ॒ৎ সর॑স্বতীং॑ মে॒ষস্য॑ হ॒বিষ॒ऽআऽব॑য়দ॒দ্য ম॑ধ্য॒তো মেদঃ॒ উদ্ভৃ॑তং পু॒রা দ্বেষো॑ভ্যঃ পু॒রা পৌর॑ুষেয়্যা গৃ॒ভো ঘস॑ন্নূ॒নং ঘা॒সেऽঅ॑জ্রাণাং॒ য়ব॑সপ্রথমানাᳬं সু॒মৎক্ষ॑রাণাᳬं শতরু॒দ্রিয়া॑ণামগ্নিষ্বা॒ত্তানাং॒ পীবো॑পবসনানাং পার্শ্ব॒তঃ শ্রো॑ণি॒তঃ শি॑তাম॒তऽউ॑ৎসাদ॒তোऽঙ্গা॑দঙ্গা॒দব॑ত্তানাং॒ কর॑দে॒বꣳ সর॑স্বতী জু॒ষতা॑ᳬं হ॒বির্হোত॒র্য়জ॑ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    হোতেস্যস্য স্বস্ত্যাত্রেয় ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । পূর্বস্য য়াজুষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ । হবিষ ইত্যুত্তরস্য স্বরাডুৎকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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