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यजुर्वेद अध्याय - 22

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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 32
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - वाजादयो देवताः छन्दः - अत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
    100

    वाजा॑य॒ स्वाहा॑ प्रस॒वाय॒ स्वाहा॑पि॒जाय॒ स्वाहा॑ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ स्वः] स्वाहा॑ मू॒र्ध्ने स्वाहा॑ व्यश्नु॒विने॒ स्वाहान्त्या॑य॒ स्वाहान्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाजा॑य। स्वाहा॑। प्र॒स॒वायेति॑ प्रऽस॒वाय॑। स्वाहा॑। अ॒पि॒जाय॑। स्वाहा॑। क्रत॑वे। स्वाहा॑। स्व᳕रिति॒ स्वः᳕। स्वाहा॑। मू॒र्ध्ने। स्वाहा॑। व्य॒श्नु॒विन॒ इति॑ विऽअश्नु॒विने॑। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। भौ॒व॒नाय॑। स्वाहा॑। भुव॑नस्य। पत॑ये। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। स्वाहा॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहापिजाय स्वाहा क्रतवे स्वाहा स्वः स्वाहा मूर्ध्ने स्वाहा व्यश्नुविने स्वाहान्त्याय स्वाहान्त्याय भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये स्वाहाधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाजाय। स्वाहा। प्रसवायेति प्रऽसवाय। स्वाहा। अपिजाय। स्वाहा। क्रतवे। स्वाहा। स्वरिति स्वः। स्वाहा। मूर्ध्ने। स्वाहा। व्यश्नुविन इति विऽअश्नुविने। स्वाहा। आन्त्याय। स्वाहा। आन्त्याय। भौवनाय। स्वाहा। भुवनस्य। पतये। स्वाहा। अधिपतय इत्यधिऽपतये। स्वाहा। प्रजापतय इति प्रजाऽपतये। स्वाहा॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 32
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    भो मनुष्याः! यूयं वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहाऽपिजाय स्वाहा क्रतवे स्वाहा स्वः स्वाहा मूर्ध्ने स्वाहा व्यश्नुविने स्वाहाऽऽन्त्याय स्वाहान्त्याय भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये स्वाहाऽधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा च सदा प्रयुञ्जीध्वम्॥३२॥

    पदार्थः

    (वाजाय) अन्नाय (स्वाहा) (प्रसवाय) उत्पादकाय (स्वाहा) (अपिजाय) उत्पन्नाय (स्वाहा) (क्रतवे) प्रज्ञायै कर्मणे वा (स्वाहा) (स्वः) सुखाय (स्वाहा) (मूर्ध्ने) मस्तकशुद्धये (स्वाहा) (व्यश्नुविने) व्यापिने वीर्य्याय (स्वाहा) (आन्त्याय) (स्वाहा) (आन्त्याय) अन्ते भवाय (भौवनाय) भुवने भवाय (स्वाहा) (भुवनस्य, पतये) सर्वजगत्स्वामिने (स्वाहा) (अधिपतये) सर्वाधिष्ठात्रे (स्वाहा) (प्रजापतये) सर्वप्रजापालकाय (स्वाहा)॥३२॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या अन्नापत्यगृहप्रज्ञामूर्धादिशोधनेन सुखवर्द्धनाय सत्यां क्रियां कुर्वन्ति, ते परमात्मानमुपास्य प्रजाऽधिपतयो भवन्ति॥३२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम (वाजाय) अन्न के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (प्रसवाय) पदार्थों की उत्पत्ति करने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अपिजाय) घर के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (क्रतवे) बुद्धि वा कर्म के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (स्वः) अत्यन्त सुख के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (मूर्ध्ने) शिर की शुद्धि होने के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (व्यश्नुविने) व्याप्त होने वाले वीर्य के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आन्त्याय) व्यवहारों के अन्त में होने वाले व्यवहार के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (आन्त्याय) अन्त में होने वाले (भौवनाय) जो संसार में प्रसिद्ध होता उस के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (भुवनस्य) संसार की (पतये) पालना करने वाले स्वामी के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया (अधिपतये) सब के अधिष्ठाता अर्थात् सब पर जो एक शिक्षा देता है, उसके लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया तथा (प्रजापतये) सब प्रजाजनों की पालना करने वाले के लिये (स्वाहा) उत्तम क्रिया को सदा भलीभांति युक्त करो॥३२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अन्न, सन्तान, नर, बुद्धि और शिर आदि के शोधन से सुख बढ़ाने के लिये सत्यक्रिया को करते हैं, वे परमात्मा की उपासना करके प्रजा के अधिक पालना करने वाले होते हैं॥३२॥

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    विषय

    यज्ञ से भव, ज्ञान, बल आदि की उत्पत्ति ।

    भावार्थ

    ( ३२) की व्याख्या देखो क्रम से, अ० १८ मन्त्र २८॥ ( स्वः स्वाहा ), सुख और प्रकाश हमें उत्तम रीति से प्राप्त हों, (मूर्ध्न स्वाहा ) शिर उत्तम सुख प्राप्त करे, उसको हम शुद्ध, पवित्र, बलवान् करें । (व्यश्नुविने स्वाहा) विविध अंगों में व्यापक, वीर्य और उसके समान बलकारी पुरुष की वृद्धि हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आयुरादयो स्वाहा देवताः । प्रकृतिः । धैवतः ॥

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    विषय

    सात्त्विक अन्न व सात्त्विक बुद्धि

    पदार्थ

    १. (वाजाय स्वाहा) = [अन्नं वाज:- श० ५|१|१|१६] अन्न के लिए यज्ञक्रिया हो। [यज्ञाद् भवति पर्जन्यः, पर्जन्यादन्नसम्भवः' गीता] यज्ञ से बादल होकर अन्न होता है, अतः इस अन्न की प्राप्ति के लिए हमारी यज्ञक्रिया ठीक से होती रहे। २. (प्रसवाय स्वाहा) = 'प्रसव' का शब्दार्थ अन्न व अन्न का होना ही है। उस प्रसव के लिए यज्ञक्रिया हो । ३. (अपिजाय स्वाहा) = दुबारा उत्पन्न होनेवाले [Born again] अन्नों के लिए यज्ञक्रिया हो अथवा [अप्सु जायते] जलों में होनेवाले अन्नों के लिए यज्ञ हो। ४. (क्रतवे स्वाहा) = शक्ति के लिए यज्ञ हो । उत्तम अन्नों से ही शक्ति प्राप्त होगी। ५. (स्वः स्वाहा) = सुख प्राप्ति के लिए व प्रकाश के लिए यज्ञ हो । सात्त्विक अन्नों के सेवन से बुद्धि शुद्ध होगी और प्रकाश की प्राप्ति होगी । ६. (मूर्ध्न स्वाहा) = मस्तिष्क के लिए यज्ञ हो । सात्त्विक अन्न बुद्धि को भी निर्मल करेगा। ७. (व्यश्नुविने स्वाहा) = शरीर में व्याप्त होनेवाले वीर्य के लिए यज्ञ हो। ८. (आन्त्याय भौवनाय स्वाहा) = सबसे अन्त में होनेवाले, सब प्राणियों के लिए हितकर ओज के लिए यज्ञ हो । शरीर में रस- रुधिरादि क्रम से वीर्य उत्पन्न होता है। उसका भी सार यह ओज है। यह सबसे अन्त में होनेवाला है। प्राणिमात्र के लिए यह हितकर है। ९. (भुवनस्य पतये स्वाहा) = भुवन के पति के लिए यज्ञ हो, अर्थात् सब प्राणियों की रक्षा करनेवाले के लिए यज्ञ हो । यज्ञ होने की भावना होने पर ही कोई व्यक्ति सब प्राणियों का रक्षक बन सकता है। १०. (अधिपतये स्वाहा) = [मनो वै प्राणानामधिपतिः - श० १४।३।२।३] मन के लिए यज्ञ हो । वस्तुतः यज्ञिय भावना ही मन को स्वस्थ बनाती है। ११. (प्रजापतये स्वाहा) = प्रजापति के लिए यज्ञ हो। उस प्रभु को प्राप्त करने के लिए यह यज्ञ की भावना आवश्यक है। यज्ञिय भावना से हम भी प्रजापति का छोटारूप बन जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञ से ही हमें वह सात्त्विक अन्न प्राप्त होता है जो हमारी शक्ति के वर्धन के साथ हमारी बुद्धि का भी वर्धक होता है। यह अन्न हमें सौम्य वीर्य को प्राप्त कराकर जितेन्द्रिय व लोकहित के कर्मों में लगनेवाला बनाता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे अन्न, संतान, घर, बुद्धी व मस्तक इत्यादींची शुद्धी करून सत्य कर्म करतात ती सुख वाढवितात व प्रजेचे पालन करून परमेश्वराची उपासना करतात.

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    विषय

    तोच विषय पुढील मंत्रात सांगत आहेत -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही (वाजाय) अन्नासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा (प्रसवाय) पदार्थांची उत्पत्ती करण्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा (अपिजाय) घरासाठी (स्वाहा) आणि (क्रतने) बुद्धी वा कर्मासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा (स्वः) अत्यंत सुखासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा (यूर्द्धने) मस्तकाच्या शुद्धीसाठी (स्वाहा) आणि (व्यश्नुविने) शरीरात (स्वाहा) असणाऱ्या वीर्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा. (आन्त्याय) सर्व व्यवहारांच्या वा कार्यांच्या शेवटी होणाऱ्या व्यवहारासाठी (स्वाहा) आणि उत्तम क्रियेच्या नंतर होणाऱ्या (भौवनाय) जगात प्रसिद्ध असणाऱ्या व्यक्तीसाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा (भुवनस्य) (पतये) संसाराचे पालन करणाऱ्या स्वामी परमेश्वरासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा (अधिपतये) सर्वांवर ज्याचे शासन चालते, जो सर्वाधिष्ठाता आहे (राजा वा परमेश्वर) त्याच्यासाठी (स्वाहा) उत्तम क्रिया करा तसेच (प्रजापतये) सर्व प्रजाजनांचे पालक राजासाठी (स्वाहा) हे मनुष्यांनो, तुम्ही यथोचितपणे उत्तम क्रिया अवश्य करा.

    भावार्थ

    भावार्थ - जे लोक अन्न, संतती, घर, बुद्धी आणि मस्तकाच्या शोधनाद्वारे सुखप्राप्तीची इच्छा करतात व त्याप्रमाणे सत्य यज्ञादि क्रिया करतात, ते परमेश्वराची उपासना अवश्य करतात आणि प्रजेचे विशेषत्वाने पालन करतात. ॥32॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Produce good foodstuffs. Manufacture articles. Protect the foodstuffs produced. Develop intellect and perform noble deeds. Arrange for comforts. Purify your head. Dont waste your semen. Exert for final beatitude. Worship God, the final living entity in the universe. Adore God, the Protector of the world. Serve God, the Preacher of the Vedas to humanity. Pray to God, the Protector of all created beings.

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    Meaning

    Let us perform yajna for the sake of food and energy, procreation, children and family, intelligence and action, happiness, intellect and purity of thought, universal vitality, the ultimate lord of existence, the ultimate reduction of existence which is prakriti, the transcendent lord of creation, Brahma, and the father and guardian of the living beings, Prajapati. 33. (Life and vitality Devata, Prajapati Rshi)

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    Translation

    Svaha to strength. (1) Svaha to the progenitor. (2) Svaha to the born. (3) Svaha to action. (4) Svaha to bliss. (5) Svaha to top position. (6) Svaha to the enjoyer. (7) Svaha to the final. (8) Svaha to the worldly finality. (9) Svaha to the Lord of the world. (10) Svaha to the Over lord. (11) Svaha to the Lord of all creatures. (12)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (বাজায়) অন্নের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (প্রসবায়) পদার্থগুলির উৎপত্তি করিবার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (অপিজায়) গৃহের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (ক্রতবে) বুদ্ধি বা কর্মের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (স্বঃ) অত্যন্ত সুখের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (মূর্ধে্ন) মস্তকের শুদ্ধি হইবার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (ব্যশ্নুবিনে) ব্যাপ্ত হইবার বীর্যের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (আন্ত্যায়) ব্যবহারের শেষে হইবার ব্যবহারের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (আন্ত্যায়) অন্তে হইবার (ভৌবনায়) যাহা সংসারে প্রসিদ্ধ হয় তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া (ভুবনস্য) সংসারের (পতয়ে) পালক স্বামীর জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া, (অধিপতয়ে) সকলের অধিষ্ঠাতা অর্থাৎ সকলকে যে এক শিক্ষাপ্রদান করে তাহার জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া তথা (প্রজাপতয়ে) সব প্রজাগণদের পালকের জন্য (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়াকে তোমরা সকলে ভালমত যুক্ত কর ॥ ৩২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য অন্ন, সন্তান, গৃহ, বুদ্ধি ও শিরাদির শোধন দ্বারা সুখ বৃদ্ধি করিবার জন্য সত্যক্রিয়া করে, তাহারাই পরমাত্মার উপাসনা করিয়া প্রজার অধিক পালন করিয়া থাকে ॥ ৩২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বাজা॑য়॒ স্বাহা॑ প্রস॒বায়॒ স্বাহা॑পি॒জায়॒ স্বাহা॑ ক্রত॑বে॒ স্বাহা॒ স্বঃ᳕ স্বাহা॑ মূ॒র্ধ্নে স্বাহা॑ ব্যশ্নু॒বিনে॒ স্বাহান্ত্যা॑য়॒ স্বাহান্ত্যা॑য় ভৌব॒নায়॒ স্বাহা॒ ভুব॑নস্য॒ পত॑য়ে॒ স্বাহাধি॑পতয়ে॒ স্বাহা॑ প্র॒জাপ॑তয়ে॒ স্বাহা॑ ॥ ৩২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বাজায়েত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । বাজাদয়ো দেবতাঃ । অত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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