यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 20
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - राजप्रजे देवते
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1653
ताऽउ॒भौ च॒तुरः॑ प॒दः स॒म्प्रसा॑रयाव स्व॒र्गे लो॒के प्रोर्णु॑वाथां॒ वृषा॑ वा॒जी रे॑तो॒धा रेतो॑ दधातु॥२०॥
स्वर सहित पद पाठतौ। उ॒भौ। च॒तुरः॑। प॒दः। स॒म्प्रसा॑रया॒वेति॑ स॒म्ऽप्रसा॑रयाव। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। प्र। ऊ॒र्णु॒वा॒था॒म्। वृषा॑। वा॒जी। रे॒तो॒धा इति॑ रेतः॒ऽधाः। रेतः॑। द॒धा॒तु॒ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
ताऽउभौ चतुरः पदः सम्प्र सारयाव स्वर्गे लोके प्रोर्णुवाथाँवृषा वाजी रेतोधा रेतो दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठ
तौ। उभौ। चतुरः। पदः। सम्प्रसारयावेति सम्ऽप्रसारयाव। स्वर्ग इति स्वःऽगे। लोके। प्र। ऊर्णुवाथाम्। वृषा। वाजी। रेतोधा इति रेतःऽधाः। रेतः। दधातु॥२०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥
अन्वयः
हे राजप्रजे! युवां उभौ तौ यथा स्वर्गे लोके चतुरः पदः प्रोर्णुवाथां तथैतानावामध्यापकोपदेशकौ संप्रसारयाव, यथा रेतोधा वृषा वाजी राजा प्रजासु रेतो वीर्यं दध्यात् तथा प्रजापि दधातु॥२०॥
पदार्थः
(तौ) प्रजाराजानौ (उभौ) (चतुरः) धर्मार्थकाममोक्षान् (पदः) प्रातव्यान् (संप्रसारयाव) विस्तारयावः (स्वर्गे) सुखमये (लोके) द्रष्टव्ये (प्र) (ऊर्णुवाथाम्) प्राप्नुयाथाम् (वृषा) दुष्टानां शक्तिबन्धकः (वाजी) विज्ञानवान् (रेतोधाः) यो रेतः श्लेषमालिङ्गनं दधाति सः (रेतः) वीर्यं पराक्रमम् (दधातु)॥२०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजप्रजे पितापुत्रवद् वर्त्तेयातां तर्हि धर्मार्थकाममोक्षफल-सिद्धिं यथावत् प्राप्नुयातां, यथा राजा प्रजासुखबले वर्द्धयेत् तथा प्रजा अपि राज्ञः सुखबले उन्नयेत्॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा और प्रजाजन परस्पर कैसे वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे राजाप्रजाजनो! तुम (उभौ) दोनों (तौ) प्रजा राजाजन जैसे (स्वर्गे) सुख से भरे हुए (लोके) देखने योग्य व्यवहार वा पदार्थ में (चतुरः) चारों धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष (पदः) जो कि पाने योग्य हैं, उनको (प्रोर्णुवाथाम्) प्राप्त होओ, वैसे इन का हम अध्यापक और उपदेशक दोनों (संप्रसारयाव) विस्तार करें, जैसे (रेतोधाः) आलिङ्गन अर्थात् दूसरे से मिलने को धारण करने और (वृषा) दुष्टों के सामर्थ्य को बांधने अर्थात् उन की शक्ति को रोकने हारा (वाजी) विशेष ज्ञानवान् राजा प्रजाजनों में (रेतः) अपने पराक्रम को स्थापन करे, वैसे प्रजाजन (दधातु) स्थापना करें॥२०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा-प्रजा पिता और पुत्र के समान अपना वर्त्ताव वर्त्तें तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष फल की सिद्धि को यथावत् प्राप्त हों, जैसे राजा प्रजा के सुख और बल को बढ़ावें, वैसे प्रजा भी राजा के सुख और बल की उन्नति करे॥२०॥
विषय
राजा प्रजा की चतुवर्ग-साधना । गृहस्थ का चतुष्पाद स्वरूप । महीधर के अर्थों की असंगति । दुष्टों के प्रति राजा का व्यवहार । गृहस्थ पक्ष में चरकादि वैद्यक शास्त्रोक्त प्रजोत्पत्तिविद्या का मूल निदर्शन ।
भावार्थ
(तौ उभौ ) वे हम दोनों राजा और प्रजा (चतुरः पदः) चारों पद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थों को (सम्प्रसारयाव ) भली प्रकार विस्तृत करें, और (स्वर्गे लोके) सुखमय लोक में ( प्र ऊर्णुवाथाम् ) "एक दूसरे को अच्छी प्रकार ढांपें, रक्षा करें, अच्छा खावें, अच्छा पहने । (वृषा) राष्ट्र का प्रबन्ध करने वाला राजा और (रेतोधा:) वीर्य, बल, पराक्रम धारने हारा (रेतः) राष्ट्र में भी पराक्रम ( दधातु) धारण करावे । (२) पतिपत्नी पक्ष में - (तौ उभौ ) वे दोनों पति पत्नी (चतुरः पदः) चारों पद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को विस्तृत करें । सुखमय लोक, गृहस्थ आश्रय में उत्तम रीति से एक दूसरे की कवचवत् रक्षा करें । वृषा, वीर्यसेचन में समर्थ पुरुष (वाजी) बल वीर्यवान् (रेतोधा ) स्वयं वीर्य धारण करने और स्थापन करने में समर्थ होकर ( रेतः ) वीर्य धारण करे, करावे । महीधर और उवट ने इस मन्त्र का भ्रष्ट और असंगत अर्थ किया है, वह अमान्य है । 'सम्प्रोर्णुवाथाम् ' क्षौमं वस्त्रं सम्यगाच्छादयतम् । इति सायणः । तै० सं० भा० का० ७ । ४ । १९ ॥
टिप्पणी
तौ सह चतुरः पदः । संप्रसारयावहै । सुवर्गे लोके सं प्रोर्णवाम् । वृषांग रेतोधा रेतो दाधतुः । इति तै० सं० । काण्व ० च ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लिंगोक्ते राजप्रजे, पतिपत्नी च देवते । स्वराड् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
चार पुरुषार्थ
पदार्थ
१. गतमन्त्र के 'गणपति, प्रियपति व निधिपति' का उपासक प्रभु से कहता है कि (ता उभौ) = वे दोनों आप और मैं [ राजा व प्रजा] (चतुरः पद:) = चार पगों को (संप्रसारयाव) = फैलाएँ, अर्थात् चारों प्राप्तव्य पुरुषार्थों को, धर्मार्थ काम मोक्ष को विस्तृत करनेवाले बनें। २. आपकी कृपा से धर्मार्थ-काम-मोक्ष को सिद्ध करनेवाले बनें और स्वर्गे लोके स्वर्गलोक में, सुखमयलोक में (प्रोर्णुवाथाम्) = अपने को आच्छादित करें, अर्थात् सुखमयलोक में निवास करनेवाले बनें। आप तो सुखस्वरूप हैं ही, मैं भी आपकी कृपा से सुखमयलोक में रहनेवाला बनूँ। ३. आप (वृषा) = सबपर सुखों की वर्षा करनेवाले (वाजी) = शक्तिशाली व रेतोधावीर्यशक्ति का धारण करनेवाले हैं। हे प्रभो! आप कृपा करके (रेतः दधातु) राजा व प्रजा में शक्ति धारण कीजिए ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से मिलकर मैं, प्रभुकृपा से 'धर्मार्थकाम-मोक्ष' इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध करूँ। अपने को स्वर्गलोक में स्थापित करूँ। 'वृषा, वाजी, रेतोधा' प्रभु राजा व प्रजा में रेतस् का आधान करें, अर्थात् प्रभु राजा व प्रजा को शक्तिशाली बनाएँ।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा प्रजेबरोबर पिता व पुत्र यांच्याप्रमाणे आपली वागणूक ठेवतो तो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करतो. जसा राजा प्रजेचे सुख व बळ वाढवितो तसे प्रजेनेही राजाचे सुख व बल वाढवावे.
विषय
राजा आणि प्रजाजनांनी कसे वागावे, याविषयी .-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे राजा आणि हे प्रजाजनहो, तुम्ही (तौ) ते (उभा) दोघे म्हणजे राजा आणि प्रजाजन (स्वर्गे) सुखाने परिपूर्ण (लोके) या प्रत्यक्ष व्यवहारात अथवा पदार्थांविषयी (यशस्वी व्हा) (चतुरः) चार साधने म्हणजे धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष (पदः) या प्राप्तव्य अशा ध्येयांना (प्रोर्णुवाथाम्) प्राप्त करा. तसेच आम्ही अध्यापकगण आणि उपदेशक गण, (रेतोधाः) आलिंगन म्हणजे दुसर्याशी भेटण्यासाठी उत्सुक आणि (वृषा) दुष्टांच्या सामर्थ्याचा विनाश करणारा, त्यांना थोपवून धरणारा (वाजी) विशेष ज्ञानी राजा प्रजाजनांपुढे (रेतः) आपल्या पराक्रमाचा प्रभाव पडतो, तसे प्रजाजनांनीदेखील राजासमोर आदर्श आचरण ठेवावे. ॥20॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जर राजा आणि प्रजा एकमेकाशी पिता-पुत्राप्रमाणे वागतील तर धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष यांची यथावत प्राप्ती अवश्य होईल. जसे राजाने प्रजेचे सुख व शक्ती वाढविली पाहिजे, तसेच प्रजेने देखील राजाचे सुख आणि बळ वाढविले पाहिजे ॥20॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The King and his subjects in unison, magnify the four stages of Dharma, Arth, Kama, Moksha, wherewith they reside happily in their country. The King, the chastiser of the wicked, full of knowledge, the possessor of strength and prowess, lends valour to his subjects.
Meaning
Let both of them, the ruler and the people, protect and support each other. May both realise and extend the four values of life: Dharma, righteous living, Artha, worldly well-being, kama, self-fulfilment, and Moksha, ultimate freedom. May the ruler, wielder of power, swift in action and advancement, strengthen the people with power, and the people, in return, strengthen the ruler with power.
Translation
Let both the king and the subjects expand in all the four spheres (i. e. Dharma, Artha, Kama, Moksa). (1) May they be happy as if living in heaven. (2) May the showerer, full of speed, and bestower of strength, grant strength to us. (3)
Notes
Tā ubhau, these we two. Caturah padah, four feet. Yours two and mine two. तव द्वौ मम द्वौ Also, Dharma, Artha, Kama and Moksa. The commentators have strangely forgot that a horse has four feet and not two. Total should be six; two feet of the queen and four of the horse. There is not a word in the text to suggest that a horse is meant here. Still they have commented that the queen herself graboing the male organ of the horse introduces it in her vagina. महिपी स्वयमेवाश्वशिश्नमाकृष्य स्वयोनौ स्थापयति । Moreover, that of a dead horse. A very perverse interpretation. Prornuvathām, √ऊर्णुञ् आच्छादने, let them be well cov ered or well clothed. Vṛṣā, virile, full of manly vigour; showerer. Translation ofthese verses according to the commentators will be as under :Let both of us exert our four legs; may we be covered well in the heavenly world. Let the virile horse deposit his semen (in me).
बंगाली (1)
विषय
অথ রাজপ্রজাজনাঃ পরস্পরং কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
এখন রাজা ও প্রজা পরস্পরে কীভাবে ব্যবহার করিবে এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে রাজা ও প্রজা ! তোমরা (উভা) উভয়ে (তৌ) প্রজা-রাজা যেমন (স্বর্গে) সুখে পরিপূর্ণ (লোকে) দেখিবার যোগ্য ব্যবহার বা পদার্থে (চতুরঃ) চারি ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষ (পদঃ) যাহা পাওয়ার যোগ্য তাহাকে (প্রোর্ণুবাথাম্) প্রাপ্ত হও তদ্রূপ ইহাদের আমরা অধ্যাপক ও উপদেশক উভয়ে (সংপ্রসারয়াব) বিস্তার করি যেমন (রেতোধাঃ) আলিঙ্গন্ অর্থাৎ অপরের সহিত মিলনকে ধারণ করিবার এবং (বৃষা) দুষ্টদিগের সামর্থ্য বর্ষণ করিবার অর্থাৎ তাহাদের শক্তিকে প্রতিহতকারী (বাজী) বিশেষ জ্ঞানবান্ রাজা-প্রজাগণদের মধ্যে (রেতঃ) স্বীয় পরাক্রমকে স্থাপন করুক সেইরূপ প্রজা (দধাতু) স্থাপন করুক ॥ ২০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে রাজা তথা প্রজা ও পুত্রের সমান নিজের ব্যবহার বজায় রাখিবে, তাহা হইলে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষ ফলের সিদ্ধির যথাবৎ জ্ঞান হয় যেমন রাজা প্রজার সুখ ও বলকে বৃদ্ধি করাইবে সেইরূপ প্রজাও সুখও বলের উন্নতি করিবে ॥ ২০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তাऽউ॒ভৌ চ॒তুরঃ॑ প॒দঃ স॒ম্প্রসা॑রয়াব স্ব॒র্গে লো॒কে প্রোর্ণু॑বাথাং॒ বৃষা॑ বা॒জী রে॑তো॒ধা রেতো॑ দধাতু ॥ ২০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তা উভাবিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । রাজপ্রজে দেবতে । স্বরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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