यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 14
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृतज्जगती
स्वरः - निषादः
175
आ नो॑ भ॒द्राः क्रत॑वो यन्तु वि॒श्वतोऽद॑ब्धासो॒ऽअप॑रीतासऽउ॒द्भिदः॑।दे॒वा नो॒ यथा॒ सद॒मिद् वृ॒धेऽअस॒न्नप्रा॑युवो रक्षि॒तारो॑ दि॒वेदि॑वे॥१४॥
स्वर सहित पद पाठआ। नः॒। भ॒द्राः। क्रत॑वः। य॒न्तु॒। वि॒श्वतः॑। अद॑ब्धासः। अप॑रीतास॒ इत्यप॑रिऽइतासः। उ॒द्भिद॒ इत्यु॒त्ऽभिदः॑। दे॒वाः। नः॒। यथा॑। सद॑म्। इत्। वृ॒धे। अस॑न्। अप्रा॑युव॒ इत्यप्र॑ऽआयुवः। र॒क्षि॒तारः॑। दि॒वेदि॑व॒ऽइति॑ दि॒वेदि॑वे ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतो दब्धासोऽअपरीतासऽउद्भिदः । देवा नो यथा सदमिद्वृधेऽअसन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। नः। भद्राः। क्रतवः। यन्तु। विश्वतः। अदब्धासः। अपरीतास इत्यपरिऽइतासः। उद्भिद इत्युत्ऽभिदः। देवाः। नः। यथा। सदम्। इत्। वृधे। असन्। अप्रायुव इत्यप्रऽआयुवः। रक्षितारः। दिवेदिवऽइति दिवेदिवे॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वांसो! यथा नोस्माऽन् विश्वतो भद्रा अदब्धासोऽपरीतास उद्भिदः क्रतव आ यन्तु, यथा नः सदं प्राप्ता अप्रायुवो देवा इद् दिवेदिवे वृधे रक्षितारोऽसन् तथाऽनुतिष्ठन्तु॥१४॥
पदार्थः
(आ) (नः) अस्मान् (भद्राः) कल्याणकराः (क्रतवः) यज्ञाः प्रज्ञा वा (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (विश्वतः) सर्वतः (अदब्धासः) अहिंसिताः (अपरीतासः) अन्यैरव्याप्ताः (उद्भिदः) य उद्भिन्दन्ति (देवाः) पृथिव्यादय इव विद्वांसः (नः) अस्माकम् (यथा) (सदम्) सीदन्ति प्राप्नुवन्ति यस्यां ताम् (इत्) एव (वृधे) वृद्धये (असन्) भवन्तु (अप्रायुवः) अनष्टायुषः (रक्षितारः) रक्षकाः (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्॥१४॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्य विज्ञानाद् विदुषां सङ्गेन पुष्कलाः प्रज्ञाः प्राप्य सर्वतो धर्ममाचर्य नित्यं सर्वेषां रक्षकैर्भवितव्यम्॥१४॥
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किमेष्टव्यमित्याह॥
सपदार्थान्वयः
विद्वांसो यथा नोऽस्मान् विश्वतो भद्रा अदब्धासोऽपरीतास उद्भिदः क्रतव आ यन्तु यथा नः सदं प्राप्ता अप्रायुवो देवा इद्दिवेदिवे वृधे रक्षितारोऽसन् तथाऽनुतिष्ठन्तु ॥ १४ ॥ सपदार्थान्वयः-- हे विद्वांसः ! यथा नः=अस्मान् विश्वतः सर्वतः भद्राः कल्याणकराः, अदब्धासः अहिंसिताः, अपरीतासः अन्यैरव्याप्ताः, उद्भिदः य उद्भिन्दन्ति, क्रतवः यज्ञाः प्रज्ञा वा आ+यन्तु प्राप्नुवन्तु, यथा नः अस्माकं सदं सीदन्ति=प्राप्नुवन्ति यस्यां तां प्राप्ता अप्रायुव अनष्टायुषः, देवाः पृथिव्यादय इव विद्वांसः, इत् एव, दिवेदिवे प्रतिदिनं वृधे वृद्धये रक्षितार: रक्षका, असन् भवन्तु; तथानुतिष्ठन्तु॥ २५ । १४ ॥
पदार्थः
आ) (नः) अस्मान् (भद्राः) कल्याणकराः (क्रतवः) यज्ञाः प्रज्ञा वा (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (विश्वतः) सर्वतः (अदब्धासः) अहिंसिताः (अपरीतासः) अन्यैरव्याप्ताः (उद्भिदः) य उद्भिन्दन्ति (देवाः) पृथिव्यादय इव विद्वांसः (नः) अस्माकम् (यथा) (सदम्) सीदन्ति=प्राप्नुवन्ति यस्यां ताम् (इत्) एव (वृधे) वृद्धये (असन्) भवन्तु (अप्रायुवः) अनष्टायुष: (रक्षितारः) रक्षका (दिवेदिवे) प्रतिदिनम्॥१४॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्य विज्ञानाद् विदुषां सङ्गेन पुष्कलाः प्रज्ञाः प्राप्य सर्वतो धर्ममाचर्य सर्वेषां रक्षकैर्भवितव्यम् ॥ २५ । १४ ॥
भावार्थ पदार्थः
क्रतवः=पुष्कलाः प्रज्ञाः । रक्षितारः=सर्वेषां रक्षकाः॥
विशेषः
प्रजापतिः । यज्ञः=यज्ञः प्रजा वा । निचृज्जगती । निषादः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को किस की इच्छा करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वानो! जैसे (नः) हम लोगों को (विश्वतः) सब ओर से (भद्राः) कल्याण करने वाले (अदब्धासः) जो विनाश को न प्राप्त हुए (अपरीतासः) औरों ने जो न व्याप्त किये अर्थात् सब कामों से उत्तम (उद्भिदः) जो दुःखों को विनाश करते वे (क्रतवः) यज्ञ वा बुद्धि बल (आ, यन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त हों (यथा) जैसे (नः) हम लोगों की (सदम्) उस सभा को कि जिसमें स्थित होते हैं, प्राप्त हुए (अप्रायुवः) जिन की अवस्था नष्ट नहीं होती, वे (देवाः) पृथिवी आदि पदार्थों के समान विद्वान् जन (इत्) ही (दिवेदिवे) प्रतिदिन (वृधे) वृद्धि के लिये (रक्षितारः) पालना करने वाले (असन्) हों, वैसा आचरण करो॥१४॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को परमेश्वर के विज्ञान और विद्वानों के संग से बहुत बुद्धियों को प्राप्त होकर सब ओर से धर्म का आचरण कर नित्य सब की रक्षा करनेवाले होना चाहिये॥१४॥
विषय
विद्वानों से प्रार्थना ।
भावार्थ
(नः) हमें (विश्वतः ) सब प्रकार से, (अदब्धासः) अविनाशी, नित्य, (अपरीतासः) अविज्ञात, जिनको अभी तक किसी ने न पाया हो ऐसे, (उद्भिदः) नाना फलों को उत्पन्न करने वाले, (भद्राः) सुखकारी, (क्रतवः) विज्ञान और बल (नः) हमें (विश्वतः) सब ओर से, (आ यन्तु) प्राप्त हों। (यथा) जिससे (नः रक्षितारः) मृत्युरहित हमारे, रक्षक (देवाः) देव, दिव्य पदार्थ और विद्वान् पुरुष (अप्रायुब) दीर्घायु और अप्रमादी होकर (दिवे-दिवे) प्रतिदिन (वृधे) वृद्धि उन्नति के लिये (नः सदम् ) हमारी सभा में (असत् ) विद्यमान हों ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१४-२३] गोतम ऋषिः । विश्वेदेवा देवताः । [१४-१६] जगती । निषादः ॥
विषय
फिर मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिए, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे विद्वानो ! जैसे (नः) हमें (विश्वतः) सब ओर से (भद्राः) कल्याणकारी, (अदब्धास:) हिंसा रहित, (अपरीतासः) अन्यों से अव्याप्त (उद्भिदः) दुःखों का भेदन करने वाले (क्रतवः) यज्ञ वा प्रज्ञा=बुद्धि (आ+यन्तु) प्राप्त हों; और जैसे (नः) हमारी (सदम्) सभा में प्राप्त हुए (अप्रायुव:) अनष्ट आयु वाले अर्थात् युवक, (देवाः) पृथिवी आदि के तुल्य विद्वान् (इत्) ही (दिवे दिवे) प्रतिदिन (वृधे) वृद्धि के लिए (रक्षितारः) रक्षक (असन्) हों; वैसा आचरण करो ॥ २५ । १४ ॥
भावार्थ
सब मनुष्य परमेश्वर के विज्ञान से एवं विद्वानों के संग से पुष्कल=पर्याप्त प्रज्ञा को प्राप्त करके, सब ओर से धर्म का आचरण करके सबके रक्षक बनें ॥ २५ । १४ ॥ विनियोग– 'आ नो भद्राः०'महर्षि ने इस मन्त्र का विनियोग स्वस्तिवाचन में संस्कारविधि में किया है
भाष्यसार
मनुष्य किसकी इच्छा करें--सब मनुष्य परमेश्वर के विज्ञान एवं विद्वानों के संग में रहते हुए ऐसी कामना करें--सब ओर से कल्याणकारी, हिंसा रहित, अन्यों से अव्याप्त (स्वतन्त्र), दुःखों का भेदन करने वाले यज्ञ= शुभकर्म वा बुद्धि हमें प्राप्त हो। हमारे घर में प्राप्त हुए युवक विद्वान् लोग प्रतिदिन हमारी वृद्धि के लिए प्रयत्न करें एवं धर्माचरण से हमारे रक्षक बनें॥ २५ । १४ ॥
विषय
भद्र क्रतु
पदार्थ
१. (नः) = हमें (क्रतवः) = यज्ञ व सङ्कल्प आयन्तु सवर्था प्राप्त हों। कैसे यज्ञ व सङ्कल्प ? क. (भद्राः) = कल्याणकारी और सुख देनेवाले, ख. (विश्वतः अदब्धास:) = सब ओर से अहिंसित, अर्थात् पूर्णरूप से निर्विघ्न ग. (अपरीतासः) = [ न परीता अज्ञाता:], अर्थात् जो फलानुमेय हैं, पूर्ण हो जाने पर ही जिनका पता लगता है, पहले जिनका ढिंढोरा नहीं पीट दिया गया। घ. (उद्भिदः) = [उद्भिन्दन्ति यज्ञान्तराणि प्रकटयन्ति] अन्य यज्ञों को प्रकट करनेवाले, अर्थात् परस्पर अनुबन्धरूप से चलनेवाले एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा - इस प्रकार निरन्तर चलनेवाले अथवा विकास के कारणभूत। इस प्रकार के यज्ञ व सङ्कल्प हमें निरन्तर प्राप्त हों। २. क. हम इसलिए उल्लिखित प्रकार से उत्तम कर्मों में लगे रहें (यथा) = जिससे कि (देवाः) = सब देव, सब प्राकृतिक (शक्तियाँ: सदम्) = सदा (इत्) = ही (नः) = हमारी (वृधे) = वृद्धि के लिए (असन्) = हों। हमारे कर्मों के दूषित होने पर ही आधिदैविक आपत्तियाँ प्राप्त हुआ करती हैं। कर्म उत्तम होने पर सूर्य-चन्द्रादि सभी देव अनुकूल होते हैं [ख] 'देवा' शब्द का अभिप्राय 'दिव्य वृत्तिवाले विद्वान्' भी है। वे विद्वान् भी सदा हमारी वृद्धि का कारण बनें। ये देव, वे विद्वान् (अप्रायुवः) = [प्रकर्षेणायुवन्ति अमाषन्ति ] प्रमाद से रहित हों, जनहित के कार्यों में इन्हें किसी प्रकार का आलस्य न हो और वे (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (रक्षितार:) = सब प्रकार के अशुभों से हमारी रक्षा करनेवाले हों। सूर्यचन्द्र आदि हमारे शरीरों को नीरोग बनाएँ और विद्वान् लोग हमारे मनों व मस्तिष्कों को स्वस्थ बनाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें उत्तम कर्म व सङ्कल्प प्राप्त हों। देव हमारी वृद्धि का कारण बनें। आलस्य से ऊपर उठकर दिन-प्रतिदिन वे प्रजा रक्षण के कार्य में लगे रहें।
मराठी (2)
भावार्थ
या सर्व माणसांनी विद्वानांच्या संगतीने परमेश्वरासंबंधी विशेष ज्ञान प्राप्त करावे व प्रखर बुद्धी प्राप्त करून धर्माचे आचरण करावे व सर्वांचे रक्षण करावे.
विषय
मनुष्यांनी कशाची कामना करावी, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वज्जनहो, (विश्वतः) सर्वप्रकारे सर्वथा (भद्राः) कल्याणकारी, (अदब्धासः) ज्यांना दाळून टाकणे वा नष्ट करणे अशक्य म्हणून जे अविनाशी (अपरीतासः) इतर कोणत्या पदार्थापेक्षा कमी महत्व नसलेले म्हणजे सर्वोत्तम आणि (उद्भिदः) दुःखाचा नाश करणारे जे ( क्रतवः) यज्ञ, बुद्धी आणि बळ, या वस्तू वा गुण आहेत, ते (वः) आम्हा (इतर सर्व मनुष्यांना) इच्छेप्रमाणे प्राप्त व्हावेत. (यथा) ज्याप्रमाणे (नः) आमच्या (सदम्) सभेमधे येऊन, उपस्थित राहून (अप्रायुवः) सदा एक सारख्या (स्वभाव व वृत्तीचे) सदा उत्साही राहणारे (देवाः) पृथ्वी आदी पदार्थांप्रमाणे गुणवान विद्वज्जन (इत्) निश्चयाने (दिवेदिवे) प्रतिदिनी (वृधे) आमच्या वृद्धी करिता (रक्षितारः) यत्न करणारे व आमचे रक्षण करणारे (असन्) आहेत, तसे तुमच्या उन्नतीसाठीही ते यन्त करोत (अशी आमची कामना आहे) ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - सर्व लोकांनी परमेश्वराच्या ज्ञान व आदेशाखाली राहून, विद्वनांच्या संगतीत राहून अनेक प्रकारे बुद्धीचे सामर्थ्य वाढविले पाहिजे. तसेच सर्वथा धर्माचरण करीत सदा सर्वदा आपले इतरांचे रक्षण केले पाहिजे. ॥14॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May auspicious force of wisdom come to us from every side, continual, unhindered, and as remover of afflictions. May thereby the learned persons, our guardians, advanced in age, attend our assembly day by day for our gain.
Meaning
May thoughts of wisdom and acts of yajna come to us from all directions—thoughts and actions noble and auspicious, pure and free from violence, irresistible and unobstructed, bursting forth and fruitful, so that young, energetic and brilliant people of divinity may arise in this assembly of ours and be the protectors and promoters of our advancement.
Translation
May such auspicious, never-failing and elevating works, as are done without compulsion, be achieved by us in all spheres of activity. May the divines grant us protection day after day without any obstruction in our progress. (1)
Notes
Following ten verses constitute the Inviting and Offer ing verses to all the bounties of Nature (विश्वेदेवाः). Adabdhāsaḥ, never-failing. Udbhidaḥ, elevating; victorious. Aparītāsaḥ, done without compulsion; or not known to others.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কিমেষ্টব্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কাহার ইচ্ছা করা উচিত, এইবিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (নঃ) আমাদিগকে (বিশ্বতঃ) সকল দিক দিয়া (ভদ্রাঃ) কল্যাণকারীগণ (অদব্ধাসঃ) যাহা বিনাশ প্রাপ্ত হয় নাই (অপরীতাসঃ) অন্যেরা যাহা ব্যাপ্ত করে নাই অর্থাৎ সকল কর্ম্ম হইতে উত্তম (উদ্ভিদঃ) যাহারা দুঃখ বিনাশ করে তাহারা (ক্রতবঃ) যজ্ঞ বা বুদ্ধি বল (আ, য়ন্তু) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হউক (যথা) যেমন (নঃ) আমাদিগের (সদম্) সেই সভাকে যাহাতে স্থিত হয়, প্রাপ্ত হইয়াছে (অপ্রায়ুবঃ) যাহাদের অবস্থা নষ্ট হয় না তাহারা (দেবাঃ) পৃথিবী আদি পদার্থের সমান বিদ্বান ব্যক্তি (ইৎ) ই (দিবে দিবে) প্রতিদিন (বৃধে) বৃদ্ধি হেতু (রক্ষিতারঃ) পালক (অসন্) হউক তদ্রূপ আচরণ কর ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–সকল মনুষ্যদিগকে পরমেশ্বরের বিজ্ঞান এবং বিদ্বান্দিগের সঙ্গ দ্বারা বহু বুদ্ধি প্রাপ্ত হইয়া সকল দিক দিয়া ধর্মের আচরণ করিয়া নিত্য সকলের রক্ষক হওয়া উচিত ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আ নো॑ ভ॒দ্রাঃ ক্রত॑বো য়ন্তু বি॒শ্বতোऽদ॑ব্ধাসো॒ऽঅপ॑রীতাসऽউ॒দ্ভিদঃ॑ ।
দে॒বা নো॒ য়থা॒ সদ॒মিদ্ বৃ॒ধেऽঅস॒ন্নপ্রা॑য়ুবো রক্ষি॒তারো॑ দি॒বেদি॑বে ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আ ন ইত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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