यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 22
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
133
श॒तमिन्नु श॒रदो॒ऽअन्ति॑ देवा॒ यत्रा॑ नश्च॒क्रा ज॒रसं॑ त॒नूना॑म्।पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ मा नो॑ म॒ध्या री॑रिष॒तायु॒र्गन्तोः॑॥२२॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम्। इत्। नु। श॒रदः॑। अन्ति॑। दे॒वाः॒। यत्र॑। नः॒। च॒क्र। ज॒रस॑म्। त॒नूना॑म्। पु॒त्रासः॑। यत्र॑। पि॒तरः॑। भव॑न्ति। मा। नः॒। म॒ध्या। री॒रि॒ष॒त॒। रि॒रि॒ष॒तेति॑ रिरिषत। आयुः॑। गन्तोः॑ ॥२२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतमिन्नु शरदोऽअन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसन्तनूनाम् । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥
स्वर रहित पद पाठ
शतम्। इत्। नु। शरदः। अन्ति। देवाः। यत्र। नः। चक्र। जरसम्। तनूनाम्। पुत्रासः। यत्र। पितरः। भवन्ति। मा। नः। मध्या। रीरिषत। रिरिषतेति रिरिषत। आयुः। गन्तोः॥२२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरस्मदर्थं के किं कुर्युरित्याह॥
अन्वयः
हे देवा! भवदन्ति स्थितानां नोऽस्माकं यत्र तनूनां जरसं शतं शरदः स्युस्तन्नु चक्र। यत्र पुत्रास इत्पितरो भवन्ति तन्नो गन्तोरायुर्मध्या मा रीरिषत॥२२॥
पदार्थः
(शतम्) शतवार्षिकम् (इत्) एव (नु) सद्यः (शरदः) शरदृत्वन्तानि (अन्ति) अन्तिके (देवाः) विद्वांसः (यत्र) यस्मिन्। अत्र निपातस्य च [अ॰६.३.१३६] इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (चक्र) कुर्वन्तु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अ॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (जरसम्) जराः (तनूनाम्) शरीराणाम् (पुत्रासः) वृद्धावस्थाजन्यदुःखात् त्रातारः (यत्र) (पितरः) पितर इव वर्त्तमानाः (भवन्ति) (मा) (नः) अस्माकम् (मध्या) पूर्णायुषो भोगस्य मध्ये (रीरिषत) घ्नत (आयुः) जीवनम् (गन्तोः) गमनम्॥२२॥
भावार्थः
मनुष्यैर्दीर्घमष्टचत्वारिंशद्वर्षपरिमितं ब्रह्मचर्यं सदा सेवनीयम्। येन पितृषु विद्यमानेषु पुत्रा अपि पितरो भवेयुः। यदा शतवार्षिकमायुर्व्यतीयात् तदैव शरीराणां जराऽवस्था भवेत्। यदि ब्रह्मचर्येण सह न्यूनान्न्यूनानि पञ्चविंशतिर्वर्षाणि व्यतीतानि स्युस्ततः पश्चादप्यतिमैथुनेन ये वीर्यक्षयं कुर्वन्ति, तर्हि ते सरोगा निर्बुद्धयो भूत्वा दीर्घायुषः कदापि न भवन्ति॥२२॥
विषयः
पुनरस्मदर्थं किं कुर्युरित्याह ॥
सपदार्थान्वयः
हे देवाभवदन्ति स्थितानां नोऽस्माकं यत्र यस्मिन् तनूनां जरसंशतंशरदःस्युस्तन्नुचक्र ।यत्र पुत्रासइत्पितर: भवन्ति, तन्नःगन्तोरायुर्मध्यामा रीरिषत॥ २२ ॥ सपदार्थान्वयः--हे देवाः विद्वांसः ! भवदन्ति अन्तिके स्थितानांनः अस्माकं यत्र यस्मिन् तनूनां शरीराणां जरसं जराः शतं शतवार्षिकं शरदः शरदृत्वन्तानि स्युस्तन्नु सद्यः चक्र कुर्वन्तु । यत्र यस्मिन् पुत्रासः वृद्धावस्थाजन्यदुःखात् त्रातारः इत् एव पितरः पितर इव वर्त्तमाना: भवन्ति, तन्नः अस्माकं गन्तोः गमनम् आयुः जीवनं मध्या पूर्णायुषो भोगस्य मध्ये मा रीरिषत घ्नत ॥ २५ । २२ ॥
पदार्थः
(शतम्) शतवार्षिकम् (इत्) एव (नु) सद्यः (शरदः) शरदृत्वन्तानि (अन्ति) अन्तिके (देवाः) विद्वांसः (यत्र) यस्मिन् । अत्र निपातस्य चेति दीर्घः । (नः) अस्माकम् (चक्र) कुर्वन्तु । अत्र द्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः । (जरसम्) जराः (तनूनाम्) शरीराणाम् (पुत्रासः) वृद्धावस्थाजन्यदुःखात्त्रातारः (यत्र) (पितरः) पितर इव वर्त्तमानाः (भवन्ति) (मा) (नः) अस्माकम् (मध्या) पूर्णायुषो भोगस्य मध्ये (रीरिषत) घ्नत (आयुः) जीवनम् (गन्तोः) गमनम् ॥ २२ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्दीर्घमष्टचत्वारिंशद्वर्षपरिमितं ब्रह्मचर्यं सदा सेवनीयम् । यदा शतवार्षिकमायुर्व्यतीयात्तदैव शरीराणां जराऽवस्था भवेत् । येन पितृषु विद्यमानेषु पुत्रा अपि पितरो भवेयुः। यदि ब्रह्मचर्येण सह न्यूनान्न्यूनानि पञ्चविंशतिवर्षाणि व्यतीतानि स्युस्ततः पश्चादतिमैथुनेन ये वीर्यक्षयं कुर्वन्ति तर्हि ते सरोगा निर्बुद्धयो भूत्वा दीर्घायुषः कदापि न भवन्ति ॥ २५ । २२ ॥
विशेषः
गोतमः । विद्वांसः=स्पष्टम् । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर हमारे लिये कौन क्या करें? इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (देवाः) विद्वानो! आप के (अन्ति) समीप स्थित (नः) हम लोगों के (यत्र) जिस व्यवहार में (तनूनाम्) शरीरों की (जरसम्) वृद्धावस्था और (शतम्) सौ (शरदः) वर्ष पूरे हों, उस व्यवहार को (नु) शीघ्र (चक्र) करो (यत्र) जहां (पुत्रासः) बुढ़ापे के दुःखों से रक्षा करने वाले लड़के (इत्) ही (पितरः) पिता के समान वर्त्तमान (भवन्ति) होते हैं, उस (नः) हम लोगों की (गन्तोः) चाल और (आयुः) अवस्था को (मध्या) पूरी अवस्था भोगने के बीच (मा, रीरिषत) मत नष्ट करो॥२२॥
भावार्थ
मनुष्यों को सदा दीर्घ काल अर्थात् अड़तालीस वर्ष प्रमाणे ब्रह्मचर्य सेवना चाहिये। जिससे पिता आदि के विद्यमान होते ही लड़के भी पिता हो जावें अर्थात् उनके भी लड़के हो जावें और जब सौ वर्ष आयु बीते तभी शरीरों की वृद्धावस्था होवे। जो ब्रह्मचर्य के साथ कम से कम पच्चीस वर्ष व्यतीत होवें, उससे पीछे भी अतिमैथुन करके जो लोग वीर्य का नाश करते हैं तो वे रोगसहित निर्बुद्धि होके अधिक अवस्था वाले कभी नहीं होते॥२२॥
विषय
शत वर्ष के पूर्ण जीवन की कामना ।
भावार्थ
हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (अन्ति) आप लोगों के समीप (( यत्र ) जब, जिस काल में, ( शतम् शरदः ) सौ वर्ष (इत् नु) का ही जीवन कम से कम (नः) हमारे ( तनूनाम) शरीरों के ( जरसम् ) वृद्धावस्था को (चक्र) बनावे, अर्थात् विद्वानों के सत्संग से हम १०० वर्षों के वृद्ध हों और (यत्र ) जब ( पुत्रासः ) मनुष्यों को बुढ़ापे के कष्ट से बचाने वाले पुत्र और शिष्य लोग (पितरः ) बच्चों के मां, बाप और पालक (भवन्ति) हो जायं तब तक आप लोग (गन्तोः) गुजरते हुए (नः) हमारी (आयुः) को (मध्या) बीच में (मा रीरिषत) मत विनष्ट करो । वृद्धावस्था आदि बाह्य कष्टों को देखकर भी विद्वान् लोग जीवन को बीच ही में विनष्ट न किया करें। मनुष्यों को पूर्ण जीवन भोगने दिया करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमः । विद्वांसः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर हमारे लिए कौन क्या करें, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ
हे (देवा:) विद्वानो ! आपके (अन्ति) समीप में स्थित (नः) हमारे (यत्र) जिससे (तनूनाम्) शरीरों की (जरसम्) जरावस्थाएँऔर(शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतु पर्यन्त हों, उसे (नु) शीघ्र (चक्र) सिद्ध करें। (यत्र) जिससे (पुत्रासः) वृद्धावस्था जन्य दुःख से रक्षा करने वाले (इत्) ही (पितरः) पितरों के तुल्य होते हैं, उसे (नः) हमारे (गन्तोः) मार्ग, (आयु:) जीवन एवं (मध्या) पूर्ण आयु भोग के मध्य में (मा, रीरिषत) मत नष्ट करो ॥ २५ । २२ ॥
भावार्थ
मनुष्य–-दीर्घ, अड़तालीस वर्षप्रमाण के ब्रह्मचर्य का सदा सेवन करें। जब सौ वर्ष आयु व्यतीत हो जाए तभी शरीरों की जरा अवस्था हो। जिससे पितरों की विद्यमानता में पुत्र भी पितर हो जायें। यदि ब्रह्मचर्य के साथ न्यून से न्यून पच्चीस वर्ष व्यतीत हो जाएँ तत्पश्चात् अति मैथुन से जो वीर्य का क्षय करते हैं तो वे रोगी, निर्बुद्धि होकर दीर्घायु कभी नहीं होते ॥२२॥
प्रमाणार्थ
(यत्र) यहाँ 'निपातस्य च' (६ ।३ ।१३६) से संहिता में दीर्घ है [यत्रा] । (चक्र) यहाँ 'द्व्यचोऽतस्तिङ:' (६।३ ।१३५) से संहिता में दीर्घ है [चक्रा] ।
भाष्यसार
हमारे लिए कौन क्याकरें-- हमारे लिए विद्वान् लोग ऐसा करें कि उनके समीप रहते हुए हमारे शरीरों की जरा अवस्था सौ शरद् ऋतु के पश्चात् हो। तात्पर्य यह है कि मनुष्य ४८ अड़तालीस वर्ष पर्यन्त दीर्घ ब्रह्मचर्य का सेवन करें। जब सौ वर्ष की आयु व्यतीत हो जावे तभी शरीर की जरा अवस्था आवे। वृद्धावस्था से उत्पन्नदुःख से त्राण करने वाले पुत्र भी पितर बन जावें । वे हमारे जीवन काल में ही नष्ट न हों। जो मनुष्य कमसे कम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य सेवन करने के पश्चात् अति मैथुन से वीर्य का क्षय करते हैं वे रोगी निर्बुद्धि हो कर कभी दीर्घायु नहीं होते ॥ २५।२२ ॥
विषय
सौ वर्ष तक
पदार्थ
१. हे (देवाः) = देवो! (शतं शरदः इत्) = सौ वर्षों तक निश्चय से (अन्ति) = आप हमारे समीप होंवें, अर्थात् हमें आजीवन आपका सङ्ग प्राप्त होता रहे । २. उस समय तक हमें आपका सङ्ग प्राप्त रहे (यत्र) = जहाँ से ये सब सूर्यादि देव (नः तनूनाम्) = हमारे शरीरों के (जरसम्) = वार्धक्य को चक्र = कर देते हैं, अर्थात् वृद्धावस्था में भी हम आपके सत्संग में सदा उत्तम प्रेरणाओं को प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहें। उस समय भी हमें स्वयं पर्याप्त अनुभवी हो जाने का गर्व न हो जाए। ३. हम उस समय भी आपके सत्संग के अभिलाषी बने रहें (यत्र) = जबकि (पुत्रासः) = पुत्र भी (पितर:)= पिता (भवन्ति) = बन जाते हैं, अर्थात् पुत्रों की भी सन्तान हो जाने पर जब हम पौत्रोंवाले हो जाते हैं और पितामह कहलाते हैं, उस समय भी हमें आपके सङ्ग करने का सौभाग्य प्राप्त हो। उस समय आप देवों की प्रेरणा हमारे जीवन में ज्ञान व उत्साह को सञ्चरित करनेवाली होगी। ४. आपकी प्रेरणा व ज्ञानज्योति द्वारा मार्ग-प्रदर्शन से (नः आयुः) = हमारा जीवन (गन्तोः मध्याः) = लक्ष्य - स्थान के बीच में ही, अर्थात् लक्ष्य पर पहुँचे बिना ही मा रीरिषत मत नष्ट हो जाए। हम इसी जीवन में लक्ष्य तक पहुँच सकें और यात्रा को पूर्ण कर मोक्ष-लाभ करनेवाले हों।
भावार्थ
भावार्थ- जैसे वृद्धावस्था में भी शरीर के लिए भोजन आवश्यक होता है उसी प्रकार मानस पोषण के लिए देवों की प्रेरणाएँ भी आवश्यक होती हैं। इन प्रेरणाओं से हम मार्ग में नहीं रुक जाते, अपितु पूर्ण जीवन को प्राप्त करनेवाले होते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी दीर्घकाळ म्हणजे अट्टेचाळीस वर्षे ब्रह्मचर्य पाळावे. ज्यामुळे पिता इत्यादी जिवंत असेपर्यंत पुत्र ही पिता बनावा. अर्थात् त्यांनाही मुले व्हावीत. शंभर वर्षे वय झाल्यास वृद्धावस्था समजावी. जे कमीत कमी पंचवीस वर्षे ब्रह्मचर्य पाळतात व नंतरही अतिमैथुन करून वीर्याचा नाश करतात ते रोगी आणि निर्बुद्ध बनतात व अधिक काळ जगू शकत नाहीत.
विषय
आमच्या करिता कोणी काय केले पाहिजे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (देवाः) विद्वज्जनहो, तुमच्या (अन्ति) जवळ राहून (नः) आम्ही (यत्र) जे जे आचरण वा कर्में केल्यामुळे (तनूनाम्) शरीराची (जरसम्) वृद्धावस्था देणार नाही, आणि आम्ही (शतम्) शंभर (शरदः) वर्षाचे आयुष्य पूर्ण करू शकू, अशी कर्में, मार्गदर्शन, उपदेश आपण आम्हाला (तु) शीघ्रमेव (चक्र) करा तसेच (यत्र) जेथे (पुत्रासः) वार्धक्याच्या दुःखापासून आमचे रक्षण करणारे पुत्र (इत्) निश्चयाने आमच्याशी (पितरः) पिताप्रमाणे वागतील व म्हातारपणी आमचे रक्षक-पालक (भवन्ति) होतील होतील, असे करा. तसेच (नः) आम्ही आपल्या (गन्तोः) जीवन व्यवहार पूर्ण करू आमची आयूर्मर्यादा (मध्या) पूर्ण आयू पूर्वी मधेच (मा, रीरिषत) खंडित करू नका. (आम्ही ठरविलेली शंभर वर्षाची मर्यादा पूर्ण करू शकू, असे करा.॥22॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी सदा दीर्घकाळ म्हणजे अठ्ठेचाळीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य पालन केले पाहिजे. यामुळे पिता आदी जिवंत असतांना त्यांची मुलेंही पिता होतील म्हणजे मुलांनाही मुलें होतील आणि जेव्हां वय वर्षाचे होईल तेव्हाच वृद्धावस्था यावी. (त्याआधी नको) जर ब्रह्मचर्य धारण करीत कमीत कमी पंचेवीस वर्षे होतील (तेही बरे) पण जे त्यानंतर (पंचेवीस वर्ष वय नंतर) अतिमैथुनाद्वारे वीर्यनाश करतील, तर ते रोगिष्ट आणि निर्बुद्ध होतील, पण कदापी दीर्घायुषी होणार नाहीत. ॥22॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned persons, may we live in your company for a hundred years. Let not our bodies decay before that period, in which old age our sons become fathers in turn. Break ye not in the midst our course of fleeting life.
Meaning
Scholars of knowledge and wisdom, while we are close to you, help us to live a full life of hundred years in good health of body wherein our children too may grow to be fathers of their children. Let not our life be hurt or injured. Let it not perish on the way in the middle of the course.
Translation
Hundred autumns are assigned to us by God in the midst of our passing existence subject to old age and decay. Those, who are sons today, shall be fathers tomorrow, and therefore, may we have no afflictions or infirmities in the midst of our life-span. (1)
Notes
Satain śaradaḥ, a hundred autumns, i. e. a hundred years. Earlier the year was counted by winters, then by rains (Varṣā). A hundred years was considered a natural span of human life. May be that it was a desire only, which was rarely fulfilled. Gantoḥ, गमनशीलं, transient.
बंगाली (1)
विषय
পুনরস্মদর্থং কে কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
পুনঃ আমাদের জন্য কে কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ! আপনার (অন্তি) সমীপ স্থিত (নঃ) আমাদের (য়ত্র) যে ব্যবহারে (তনূনাম্) শরীর সকলের (জরসম্) বৃদ্ধাবস্থা এবং (শতম্) শত (শরদঃ) বর্ষ পূর্ণ হউক সেই ব্যবহারকে (নু) শীঘ্র (চক্র) কর (য়ত্র) যেখানে (পুত্রাসঃ) বৃদ্ধাবস্থাজন্য দুঃখ হইতে ত্রাতা পুত্রগণ (ইৎ) ই (পিতরঃ) পিতার সমান বর্ত্তমান (ভবন্তি) হইয়া থাকে সেই (নঃ) আমাদিগের (গন্তোঃ) চলন এবং (আয়ুঃ) জীবনকে (মধ্যা) পূর্ণ অবস্থা ভোগ করিবার মধ্যে (মা, রীরিষৎ) নষ্ট করিও না ॥ ২২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যগণকে সর্বদা দীর্ঘকাল অর্থাৎ আটচল্লিশ বর্ষ প্রমাণে ব্রহ্মচর্য্য সেবন করা উচিত । যাহাতে পিতা আদির বিদ্যমান থাকাকালীন পুত্র ও পিতা হইয়া যায় । অর্থাৎ তাহাদের ও সন্তান হইয়া যাইবে এবং যখন শতবর্ষ আয়ু ব্যতীত হইবে তখনই শরীরের বৃদ্ধাবস্থা হইবে । যদি ব্রহ্মচর্য্য সহ কমপক্ষে পঁচিশ বর্ষও ব্যতীত হয় তৎপশ্চাৎ অতিমৈথুন করিয়া যাহারা বীর্য্যের নাশ করে তাহারা রোগসহিত নির্বুদ্ধি হইয়া দীর্ঘায়ুসম্পন্ন কখনও হয় না ॥ ২২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শ॒তমিন্নু শ॒রদো॒ऽঅন্তি॑ দেবা॒ য়ত্রা॑ নশ্চ॒ক্রা জ॒রসং॑ ত॒নূনা॑ম্ ।
পু॒ত্রাসো॒ য়ত্র॑ পি॒তরো॒ ভব॑ন্তি॒ মা নো॑ ম॒ধ্যা রী॑রিষ॒তায়ু॒র্গন্তোঃ॑ ॥ ২২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শতমিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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