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यजुर्वेद अध्याय - 26

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  • यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 1
    ऋषिः - याज्ञवल्क्य ऋषिः देवता - अग्न्यादयो देवताः छन्दः - अभिकृतिः स्वरः - ऋषभः
    342

    अ॒ग्निश्च॑ पृथि॒वी च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दो वा॒युश्चा॒न्तरि॑क्षं च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दऽ आ॑दि॒त्यश्च॒ द्यौश्च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दऽआपश्च॒ वरु॑णश्च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दः। स॒प्त स॒ꣳस॒दो॑ऽ अष्ट॒मी भू॑त॒साध॑नी। सका॑माँ॒२॥ऽअध्व॑नस्कुरु सं॒ज्ञान॑मस्तु मे॒ऽमुना॑॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। च॒। पृ॒थि॒वी। च॒। सन्न॑ते॒ऽइति॒ सम्ऽनते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। वा॒युः। च॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। सन्न॑ते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। आ॒दि॒त्यः। च॒। द्यौः। च॒। सन्नते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। आपः॑। च॒। वरु॑णः। च॒। सन्न॑ते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। स॒प्त। स॒ꣳसद॒ इति स॒म्ऽसदः। अ॒ष्ट॒मी। भू॒त॒साध॒नीति॑ भू॒त॒ऽसाध॑नी। सका॑मा॒निति॒ सऽका॑मान्। अध्व॑नः। कु॒रु॒। सं॒ज्ञान॒मिति॑ स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒स्तु॒। मे॒। अ॒मुना॑ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निश्च पृथिवी च सन्नते ते मे सन्नमतामदः । वायुश्चान्तरिक्षञ्च सन्नते ते मे सन्नमतामदऽआदित्यश्च द्यौश्च सन्नते ते मे सन्नमतामदऽआपश्च वरुणश्च सन्नते ते मे सन्नमतामदः । सप्त सँसदोऽअष्टमी भूतसाधनी । सकामाँऽअध्वनस्कुरु सञ्ज्ञानमस्तु मे मुना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। च। पृथिवी। च। सन्नतेऽइति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। वायुः। च। अन्तरिक्षम्। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। आदित्यः। च। द्यौः। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। आपः। च। वरुणः। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। सप्त। सꣳसद इति सम्ऽसदः। अष्टमी। भूतसाधनीति भृतऽसाधनी। सकामानिति सऽकामान्। अध्वनः। कुरु। संज्ञानमिति सम्ऽज्ञानम्। अस्तु। मे। अमुना॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 26; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यैस्तत्त्वेभ्य उपकारा यथावत्संग्राह्या इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा ये मेऽग्निश्च पृथिवी च सन्नते ते अदः सन्नमतां ये मे वायुश्चान्तरिक्षं च सन्नते स्तस्ते अदः सन्नमताम्। ये मे आदित्यश्च द्यौश्च सन्नते ते अदः सन्नमतां ये म आपश्च वरुणश्च सन्नते स्तस्ते अदः सन्नमताम्। या अष्टमी भूतसाधनी सप्त संसदः सकामानध्वनः कुर्य्यात् तथा कुरु। अमुना मे संज्ञानमस्तु तथैतत्सर्वं युष्माकमप्यस्तु॥१॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावकः (च) (पृथिवी) (च) (सन्नते) (ते) (मे) मह्यम् (सम्) सम्यक् (नमताम्) अनुकूलं कुर्वाताम् (अदः) (वायुः) (च) (अन्तरिक्षम्) (च) (सन्नते) अनुकूले (ते) (मे) मह्यम् (सम्) (नमताम्) (अदः) (आदित्यः) सूर्यः (च) (द्यौः) तत्प्रकाशः (च) (सन्नते) (ते) (मे) मह्यम् (सम्) (नमताम्) (अदः) (आपः) जलानि (च) (वरुणः) तदवयवी (च) (सन्नते) (ते) (मे) मह्यम् (सम्) (नमताम्) (अदः) (सप्त) (संसदः) सम्यक् सीदन्ति यासु ताः (अष्टमी) अष्टानां पूरणा (भूतसाधनी) भूतानां साधिका (सकामान्) समानस्तुल्यः कामो येषां तान् (अध्वनः) मार्गान् (कुरु) (संज्ञानम्) सम्यग्ज्ञानम् (अस्तु) (मे) मह्यम् (अमुना) एवं प्रकारेण॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यद्यग्न्यादिपञ्चभूतानि यथावद्विज्ञाय कश्चित्प्रयुञ्जीत तर्हि तानि वर्त्तमानमदः सुखं प्रापयन्ति॥१॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब छब्बीसवें अध्याय का आरम्भ है उस के प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को तत्त्वों से यथावत् उपकार लेने चाहियें, इस विषय का वर्णन किया है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो जैसे (मे) मेरे लिए (अग्निः) अग्नि (च) और (पृथिवी) भूमि (च) भी (सन्नते) अनुकूल हैं (ते) वे (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (मे) मेरे लिये (वायुः) पवन (च) और (अन्तरिक्षम्) आकाश (च) भी (सन्नते) अनूकूल हैं (ते) वे (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (मे) मेरे लिये (आदित्यः) सूर्य (च) और (द्यौः) उसका प्रकाश (च) भी (सन्नते) अनुकूल हैं (ते) वे (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (मे) मेरे अर्थ (आपः) जल (च) और (वरुणः) जल जिस का अवयव है, वह (च) भी (सन्नते) अनुकूल हैं (ते) वे दोनों (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (अष्टमी) आठमी (भूतसाधनी) प्राणियों के कार्यों को सिद्ध करने हारी वा (सप्त) सात (संसदः) वे सभी जिन में अच्छे प्रकार स्थिर होते (सकामान्) समान कामना वाले (अध्वनः) मार्गों को करें, वैसे तुम (कुरु) करो (अमुना) इस प्रकार से (मे) मेरे लिये (संज्ञानम्) उत्तम ज्ञान (अस्तु) प्राप्त होवे, वैसे ही यह सब तुम लोगों के लिये भी प्राप्त होवे॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यदि अग्नि आदि पंचतत्त्वों को यथावत् जान के कोई उन का प्रयोग करे तो वे वर्त्तमान उस अत्युत्तम सुख की प्राप्ति कराते हैं॥१॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर अग्नी पंचतत्त्व यथावत जाणून कुणी त्याचा प्रयोग केल्यास ते उत्तम सुख भोगू शकतात.

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Fire and Earth are favourable to me ; may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Air and firmament are favourable to me ; may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Sun and his light are favourable to me ; may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Waters and clouds are favourable to me, may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Out of these seven forces are the mainstay of all beings, the eighth is Earth which keeps every one under its sway. O God make all our paths pleasant and comfortable. May I thus obtain true knowledge from these forces.

    Meaning

    Agni, vital heat, and Prithivi, earth, go together in harmony (for this side of life, for Dharma, righteous living, Artha, earthly prosperity, Kama, worldly fulfilment). May they be harmonious and favourable for me for the other side too (Moksha, ultimate freedom). Vayu, the air, and Antariksha, the sky, go together in harmony for this side of life. May they be favourable for me for the other side too. Aditya, the sun, and Dyau, heaven, go together in harmony for this side. May they be favourable for me for the other side too. Apah, spatial waters, and Varuna, the oceans, go together in harmony for me this side of life, may they be favourable for the other side too. Seven are the conjunctions between oceans, waters, sun, heaven, air, sky, heat and earth, which hold the world. The eighth, mother earth, sustains the forms of life. May all the conjunctions and the sustaining mother’s lap help us realise our aims of life. O ruler, act well so that our aims of life be fulfilled and the paths of life be straight and clear. By dedication to the other side, may I have full knowledge of existence and beyond.

    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    অথ ষড্বিংশোऽধ্যায় আরভ্যতে
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    অথ মনুষ্যৈস্তত্ত্বেভ্য উপকারা য়থাবৎসংগ্রাহ্যা ইত্যাহ ॥
    এখন ছাব্বিশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । তাহার প্রথম মন্ত্রে মনুষ্যদিগকে তত্ত্বসকল দ্বারা যথাবৎ উপকার লওয়া উচিত এই বিষয়ের বর্ণনা করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (মে) আমার জন্য (অগ্নিঃ) অগ্নি (চ) এবং (পৃথিবী) ভূমি (চ)(সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা (অদঃ) ইহাকে (সন্নমতাম্) অনুকূল করুক (মে) আমার জন্য (বায়ুঃ) পবন (চ) এবং (অন্তরিক্ষম্) আকাশ (চ)(সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা (অদঃ) ইহাকে(সন্নমতাম্) অনুকূল করুক, (মে) আমার জন্য (আদিত্যঃ) সূর্য্য (চ) এবং (দ্যৌঃ) তাহার প্রকাশ (চ)(সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা (অদঃ) ইহাকে (সন্নমতাম্) অনুকূল করুক, (মে) আমার জন্য (আপঃ) জল (চ) এবং (বরুণঃ) জল যাহার অবয়ব উহা (চ)(সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা উভয়ে (অদঃ) ইহাকে (সন্নমতাম্) অনুকূল করুক, (অষ্টমী) অষ্টমী (ভূতসাধনী) প্রাণীদের কার্য্যগুলির সাধিকা অথবা (সপ্ত) সাত (সংসদঃ) সেই সব সভা যাহাতে উত্তম প্রকার স্থির হয় (সকামান্) সমান কামনা যুক্ত (অধ্বনঃ) মার্গকে করুক সেইরূপ তুমি (কুরু) কর (অমুনা) এই প্রকারে (মে) আমার জন্য (সংজ্ঞানম্) উত্তম জ্ঞান (অস্তু) প্রাপ্ত হউক তদ্রূপ এই সব তোমাদিগেরও প্রাপ্ত হউক ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যদি অগ্নি আদি পঞ্চতত্ত্বকে যথাবৎ জানিয়া কেই উহার প্রয়োগ করে তাহা হইলে তাহারা বর্ত্তমান সেই অত্যুত্তম সুখের প্রাপ্তি করায় ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নিশ্চ॑ পৃথি॒বী চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দো বা॒য়ুশ্চা॒ন্তরি॑ক্ষং চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দऽ আ॑দি॒ত্যশ্চ॒ দ্যৌশ্চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দऽআপশ্চ॒ বর॑ুণশ্চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দঃ । স॒প্ত স॒ꣳস॒দো॑ऽ অষ্ট॒মী ভূ॑ত॒সাধ॑নী । সকা॑মাঁ॒২ ॥ ऽঅধ্ব॑নস্কুরু সং॒জ্ঞান॑মস্তু মে॒ऽমুনা॑ ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নিরিত্যস্য য়াজ্ঞবল্ক্য ঋষিঃ । অগ্ন্যাদয়ো দেবতাঃ । অভিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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