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यजुर्वेद अध्याय - 27

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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 24
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    63

    रा॒ये नु यं ज॒ज्ञतू॒ रोद॑सी॒मे रा॒ये दे॒वी धि॒षणा॑ धाति दे॒वम्।अध॑ वा॒युं नि॒युतः॑ सश्चत॒ स्वाऽ उ॒त श्वे॒तं वसु॑धितिं निरे॒के॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रा॒ये। नु। यम्। ज॒ज्ञतुः॑। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। इ॒मे इती॒मे। रा॒ये। दे॒वी। धि॒षणा॑। धा॒ति॒। दे॒वम्। अध॑। वा॒युम्। नि॒युत॒ इति॑ नि॒ऽयुतः॑। स॒श्च॒त॒। स्वाः। उ॒त। श्वे॒तम्। वसु॑धिति॒मिति॒ वसु॑ऽधितिम्। नि॒रे॒के ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राये नु यञ्जज्ञतू रोदसीमे राये देवी धिषणा धाति देवम् । अध वायुन्नियुतः सश्चत स्वाऽउत श्वेतँवसुधितिन्निरेके ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    राये। नु। यम्। जज्ञतुः। रोदसी इति रोदसी। इमे इतीमे। राये। देवी। धिषणा। धाति। देवम्। अध। वायुम्। नियुत इति निऽयुतः। सश्चत। स्वाः। उत। श्वेतम्। वसुधितिमिति वसुऽधितिम्। निरेके॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यै किं कार्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या! इमे रोदसी राये यं जज्ञतुर्देवी धिषणा यं देवं राये नु धाति। अध निरेके स्वा नियुतः श्वेतमुत वसुधितिं वायुं सश्चत, तं यूयं विजानीत॥२४॥

    पदार्थः

    (राये) धनाय (नु) सद्यः (यम्) (जज्ञतुः) जनयतः (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (इमे) प्रत्यक्षे। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति प्रकृतिभावाऽभावः (राये) धनाय (देवी) दिव्यगुणा (धिषणा) प्रज्ञेव वर्त्तमाना (धाति) दधाति (देवम्) दिव्यं पतिम् (अध) अथ (वायुम्) (नियुतः) निश्चयेन मिश्रणाऽमिश्रणकर्त्तारः (सश्चत) प्राप्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययः (स्वाः) सम्बन्धिनः (उत) (श्वेतम्) वृद्धम् (वसुधितिम्) पृथिव्यादिवसूनां धितिर्यस्मात् तम् (निरेके) निर्गतशङ्के स्थाने॥२४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या! भवन्तो बलादिगुणयुक्तं सर्वस्य धर्त्तारं वायुं विज्ञाय धनप्रज्ञे वर्धयन्तु, यद्येकान्ते स्थित्वाऽस्य प्राणस्य द्वारा स्वात्मानं परमात्मानं च ज्ञातुमिच्छेयुस्तर्ह्यनयोः साक्षात्कारो भवति॥२४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (इमे) ये (रोदसी) आकाश, भूमि (राये) धन के अर्थ (यम्) जिसको (जज्ञतुः) उत्पन्न करें (देवी) उत्तम गुण वाली (धिषणा) बुद्धि के समान वर्त्तमान स्त्री जिस (देवम्) उत्तम पति को (राये) धन के लिये (नु) शीघ्र (धाति) धारण करती है। (अध) इस के अनन्तर (निरेके) निश्शङ्क स्थान में (स्वाः) अपने सम्बन्धी (नियुतः) निश्चय कर मिलाने वा पृथक् करने वाले जन (श्वेतम्) वृद्ध (उत) और (वसुधितिम्) पृथिव्यादि वसुओं के धारण के हेतु (वायुम्) वायु को (सश्चत) प्राप्त होते हैं, उस को तुम लोग जानो॥२४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! आप लोग बल आदि गुणों से युक्त सब के धारण करने वाले वायु को जान के धन और बुद्धि को बढ़ावें। जो एकान्त में स्थित हो के इस प्राण के द्वारा अपने स्वरूप और परमात्मा को जानना चाहें तो इन दोनों आत्माओं का साक्षात्कार होता है॥२४॥

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    विषय

    वायु नाम सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( इमे रोदसी) पृथिवी और सूर्य के समान राजा और प्रजा - दोनों (यम् ) जिस मध्यस्थान अन्तरिक्ष में व्यापक वायु के समान, दोनों के धारक पोषक को (राये) ऐश्वर्य की रक्षा के लिये (जज्ञतुः ) प्रकट करते हैं । और (धिषणा) समस्त कर्म और विज्ञानों और अधिकारों को धारण करने वाली (देवी) स्त्री विद्वान् को पति स्वीकार करती है उसी प्रकार यह राजसभा ( देवम् ) विद्वान्, मार्गदर्शी पुरुष को (धाति) धारण करती या मुख्य पद पर स्थापित करती है । (अध) और जिस प्रकार (नियुतः) अश्वगण अपने 'वायु' अर्थात् प्रेरक सारथी को धारण करते हैं उसी प्रकार (नियुतः) नियुक्त हुए पदाधिकारी लोग जिस (वायुम्,) प्राण और जीवनवृत्ति के दाता स्वामी को ( स्वा: ) अभीष्ट बन्धुजनों के समान (सश्चत ) सेवन करते, उसका आश्रय लेते हैं (उत) और उस ( श्वेतम् ) परम वृद्ध, आदर योग्य पुरुष को (निरेके) निर्भय, बहुत से जनों से बले स्थान में, या (निरेके) अक्षय कोष पर (वसुधितिम् ) समस्त ऐश्वर्य की रक्षा करने वाला (सश्चत ) स्थापित करते हैं और स्वयं उसकी रक्षा करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वायुः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    धनार्जन व धन का दान

    पदार्थ

    १. (इमे रोदसी) = ये द्यावापृथिवी, मस्तिष्क तथा शरीर (नु) = अब (यम्) = जिसको (राये) = धन के लिए (जज्ञतुः) = [ उत्पादयामासतुः, म०] विकसित शक्तिवाला करते हैं, अर्थात् स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्क, इस वसिष्ठ को धन-उत्पादन के योग्य बनाते हैं । २. इस (देवम्) = [दिव-व्यवहार] व्यवहार को उचित प्रकार से करनेवाले पुरुष को (देवी) = प्रकाशमयी (धिषणा) = बुद्धि अथवा व्यवहारकुशल वाणी (राये) = ऐश्वर्य के लिए (धाति) = स्थापित करती है। यह बुद्धि से तथा वाणी के ठीक प्रयोग से उचित धन कमानेवाला बनता है। ३. (अध) = अब धन कमाने के बाद इसके (स्वाः) = आत्मा के वश में हुए हुए, अपने बने हुए ये (नियुतः) = इन्द्रियरूप घोड़े (वायुम्) = आत्मतत्त्व को (सश्चत्) = सेवित करते हैं, अर्थात् यह पुरुष धन में नहीं फँस जाता, धन कमाते हुए भी यह अध्यात्मवृत्ति का बना रहता है (उत) = और (निरेके) = निश्चितरूप से इस धन के विरेचन, दान करने पर उस (श्वतेम्) = गति के द्वारा वर्धन करनेवाले (वसुधितिम्) = सब वसुओं को धारण करनेवाले, सब धनों के देनेवाले उस प्रभु को ये सेवित करते हैं। संक्षेप में, यह 'वसिष्ठ' धन तो कमाते हैं, परन्तु धन को कमाते समय भी उसमें फँसते नहीं, कुछ अध्यात्मवृत्ति के बने रहते हैं और धन का दान करके प्रभु के सच्चे उपासक बन जाते है। इनको यह भूलता नहीं कि सब वसुओं का धारण करनेवाले वे प्रभु ही हैं, वे प्रभु ही श्वेत-गति द्वारा हमारा वर्धन करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'वसिष्ठ' अपने मस्तिष्क व शरीर दोनों को स्वस्थ बनाता है, अपनी बुद्धि व वाणी को व्यवहारकुशल करता है और इस प्रकार धन का अर्जन करता है, परन्तु इस धनार्जन को करते हुए भी अध्यात्मवृत्ति का बना रहता है और इस धन का दान करके प्रभु का ही बन जाता है। उस प्रभु को ही सब धनों का दाता व वर्धन करनेवाला मानता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! बलांनीयुक्त व सर्वांनी धारण करणाऱ्या वायूला जाणून धन व बुद्धी वाढवा. जे एकांतात बसून निश्चय करतात व प्राणाद्वारे आपले स्वरूप व परमेश्वराचे स्वरूप यांना जाणू इच्छितात त्यांना आत्मा व परमात्मा या दोघांचाही साक्षात्कार होतो.

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    विषय

    मनुष्यांनी काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (इमे) हे (रोदसी) आकाश आणि भूमी दोन्ही (राये) धनप्राप्तीसाठी (यम्) ज्या स्त्रीला (जज्ञतः) उत्पन्न करतात (भरपूर उद्यमशीला व कर्मवीरा, स्वकर्तृत्वाने धन अर्जित करणारी एखादीच स्त्री असते) ती (देवी) उत्तम गुणवती आणि (धिषणा) अतिबुद्धिमती स्त्री (देवम्) आपल्यासाठी अनुकूल अशा दिव्य पतीचा (राये) अधिकाधिक धनप्राप्तीसाठी (नु) शीघ्र (धाति) स्वीकार करते. (अध) या व्यतिरिक्त (ते दोघे पति-पत्नी) (निरेके) एखाद्या निःशंक निर्भय स्थानात (स्वाः) आपल्यासाठी (नियुतः) निश्‍चयाने मिश्रण वा संगती करणारे किंवा पृथक करणारे लोक (श्‍वेतम्) एखाद्या वृद्ध (अनुभवी व्यक्तीला आपला नेता म्हणून स्वीकारतात) (उत) आणि (वसुधितिम्) पृथ्वी आदी आठ वस्तूंना धरण करणार्‍या (वायुम्) वायूला (सश्‍चत) प्राप्त करतात (ते दोघे त्यांचा वृद्ध नायक सर्वजण वायूंविषयी अधिक ज्ञान मिळवतात आणि त्यापासून समाजाला लाभ देतात) हे मनुष्यांनो, तुम्ही त्या वायूचे ज्ञान मिळवा ॥24॥

    भावार्थ

    missing

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Whomsoever the Firmament and Earth give birth for the acquisition of wealth, and whom the wife accepts eagerly as a husband for wealths sake ; they, in a solitary place, unite and disunite their souls with and from God, and enjoy the vast air, the sustainer of the Earth and heavenly bodies.

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    Meaning

    The Heaven and the earth generate Vayu for the wealth of energy. The divine intelligence activates Vayu to reveal the wealth of the divine Word. And then, that same Vayu, pure treasure of energy, all the living beings in existence together seek, enjoy and pursue (for the sake of wealth and energy).

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    Translation

    Wherever there is poverty, the yoked steeds carry the Lord of motivation, white in complexion (i. e. flawlessly honest) and the dispenser of wealth, whom heaven and earth bear for the sake of riches, and whom the divine language of praise sustains as a deity for the sake of affluence and wealth. (1)

    Notes

    Dhişanā, a goddess of abundance and prosperity. Also, divine language of praise; धिषणा वाक् देवी ।

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যৈ কিং কার্য়মিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ– হে মনুষ্যগণ! (ইমে) এই (রোদসী) আকাশ, ভূমি (রায়ে) ধনের অর্থ (য়ম্) যাহাকে (জজ্ঞতুঃ) উৎপন্ন করে (দেবী) উত্তম গুণ সম্পন্না (ধিষণা) বুদ্ধির সমান বর্ত্তমান স্ত্রী যে (দেবম্) উত্তম পতি কে (রায়ে) ধন হেতু (নু) শীঘ্র (ধাতি) ধারণ করে (অধ) ইহার অনন্তর (নিরেকে) নিঃশঙ্ক স্থানে (স্বাঃ) নিজ সম্পর্কীয় (নিয়ুতঃ) নিশ্চয় করিয়া মিশ্রণ ও অমিশ্রণকারী ব্যক্তিগণ (শ্বেতম্) বৃদ্ধ (উত) এবং (বসুধিতিম্) পৃথিব্যাদি বসু ধারণের হেতু (বায়ুম্) বায়ুকে (সশ্চত) প্রাপ্ত হয় তাহাকে তোমরা অবগত হও ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ! তোমরা বলাদি গুণগুলি দ্বারা যুক্ত সকলকে ধারণকারী বায়ুকে জানিয়া ধন ও বুদ্ধিকে বৃদ্ধি করিবে । যে একান্তে স্থিত হইয়া এই প্রাণের দ্বারা নিজ স্বরূপ ও পরমাত্মাকে জানিতে চাহে তাহার এই দুইটি আত্মার সাক্ষাৎকার হইয়া থাকে ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    রা॒য়ে নু য়ং জ॒জ্ঞতূ॒ রোদ॑সী॒মে রা॒য়ে দে॒বী ধি॒ষণা॑ ধাতি দে॒বম্ ।
    অধ॑ বা॒য়ুং নি॒য়ুতঃ॑ সশ্চত॒ স্বাऽ উ॒ত শ্বে॒তং বসু॑ধিতিং নিরে॒কে ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    রায় ইত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বায়ুর্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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