यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 26
ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
74
यश्चि॒दापो॑ महि॒ना प॒र्यप॑श्य॒द् दक्षं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर्य॒ज्ञम्। यो दे॒वेष्वधि॑ दे॒वऽ एक॒ऽ आसी॒त् कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥२६॥
स्वर सहित पद पाठयः। चि॒त्। आपः॑। म॒हि॒ना। प॒र्यप॑श्य॒दिति॑ परि॒ऽअप॑श्यत्। दक्ष॑म्। दधा॑नाः। ज॒नय॑न्तीः। य॒ज्ञम्। यः। दे॒वेषु॑। अधि॑। दे॒वः। एकः॑। आसी॑त्। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद्दक्षन्दधाना जनयन्तीर्यज्ञम् । यो देवेष्वधि देवऽएकऽआसीत्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। चित्। आपः। महिना। पर्यपश्यदिति परिऽअपश्यत्। दक्षम्। दधानाः। जनयन्तीः। यज्ञम्। यः। देवेषु। अधि। देवः। एकः। आसीत्। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥२६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के जना मोदन्त इत्याह॥
अन्वयः
यो महिना दक्षं दधाना यज्ञं जनयन्तीरापः सन्ति ताः पर्यपश्यद् यो देवेष्वेकोऽधि देव आसीत् तस्मै चित् कस्मै देवाय वयं हविषा विधेम॥२६॥
पदार्थः
(यः) परमेश्वरः (चित्) (आपः) व्याप्तिशीलाः सूक्ष्मास्तन्मात्राः (महिना) स्वस्य महिम्ना व्यापकत्वेन (पर्यपश्यत्) सर्वतः पश्यति (दक्षम्) बलम् (दधानाः) धरन्त्यः (जनयन्तीः) उत्पादयन्त्यः (यज्ञम्) सङ्गतं संसारम् (यः) (देवेषु) प्रकृत्यादिजीवेषु (अधि) उपरिभावे (देवः) दिव्यगुणकर्मस्वभावः (एकः) अद्वितीयः (आसीत्) अस्ति (कस्मै) सुखस्वरूपाय (देवाय) सर्वसुखप्रदाय (हविषा) तदाज्ञायोगाभ्यासधारणेन (विधेम) सेवेमहि॥२६॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! ये भवन्तः सर्वस्य द्रष्टारं धर्त्तारमद्वितीयमधिष्ठातारं परमात्मानं ज्ञातुं योगं नित्यमभ्यस्यन्ति त आनन्दिता भवन्ति॥२६॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन मनुष्य आनन्दित होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(यः) जो परमेश्वर (महिना) अपने व्यापकपन के महिमा से (दक्षम्) बल को (दधानाः) धारण करती (यज्ञम्) सङ्गत संसार को (जनयन्तीः) उत्पन्न करती हुई (आपः) व्याप्तिशील सूक्ष्म जल की मात्रा हैं, उनको (पर्यपश्यत्) सब ओर से देखता है, (यः) जो ईश्वर (देवेषु) उत्तम गुण वाले प्रकृति आदि और जीवों में (एकः) एक (अधि, देवः) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव वाला (आसीत्) है, उस (चित्) ही (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सब सुखों के दाता ईश्वर की हम लोग (हविषा) आज्ञापालन और योगाभ्यास के धारण से (विधेम) सेवा करें॥२६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो आप लोग सब के द्रष्टा, धर्त्ता, कर्त्ता, अद्वितीय अधिष्ठाता परमात्मा के जानने को नित्य योगाभ्यास करते हैं, वे आनन्दित होते हैं॥२६॥
विषय
'क' प्रजापति का वर्णन ।
भावार्थ
( यः चित् ) और जो (महिना) अपने महान् सामर्थ्य से ((दक्षं दधानाः) बल और क्रियावेग को धारण करती हुई (यज्ञं जनयन्तीः) - सुसंगत, नियमबद्ध संसार को प्रकट करती हुई (आपः) प्रकृति की सूक्ष्म तन्मात्राओं को ( परि अपश्यत् ) साक्षात् देखता, उन पर साक्षी रूप से विद्यमान रहता है और (यः) जो (देवेषु) समस्त क्रीड़ाशील, फलाकांक्षी भोक्ता जीवों और पृथिव्यादि लोकों पर (एकः देवः) एक अद्वितीय सर्व- `प्रकाशक सुखदाता परमेश्वर ( अधि आसीत् ) अधिष्ठाता है, (कस्मै) उस विश्व के कर्त्ता सुखकारक परमेश्वर को हम (हविषा ) ज्ञान और क्रियायोग से (विधेम) परिचर्या करें। राजा - अपने महान् सामर्थ्य से बल को धारण करते हुए, (यज्ञम् ) राष्ट्र को और राष्ट्रपति को प्रकट करते हुए (आपः) प्रजाओं को अध्यक्ष- रूप से देखता है और (य: देवेषु अधिदेवः एकः ) जो एक ही सब विद्वानों और शासकों पर भी शासक है उसका हम अन्नादि से सत्कार करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यगर्भ ऋषिः। प्रजापतिर्देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
प्रभु की अध्यक्षता में
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णित सृष्टि का मूलतत्त्वभूत व्यापक प्रकृति प्रभु की अध्यक्षता में इस संसार को जन्म देती है। (यः चित्) = जो निश्चय से महिना अपनी महिमा से (आप:) = उस व्यापक मूलतत्त्व का (पर्यपश्यत्) = सम्यक्तया Supervise देखता है, जो तत्त्व (दक्षं दधानाः) = अपने अन्दर उस शक्ति के पुञ्ज प्रजापति प्रभु को धारण कर रहे हैं और (यज्ञम्) = इस संगत [not disunited] संसार को (जनयन्ती:) = जन्म दे रहे हैं। प्रकृतिगर्भ में प्रभु का निवास न हो तो प्रकृति इन चराचर पदार्थों को जन्म नहीं दे सकती, उस समय प्रकृति एक जड़ तत्त्व [Inert matter] के रूप में ही पड़ी रह जाएगी, संसार न बनेगा। उस चेतन प्रभु की सर्वव्यापकता का ही यह परिणाम है कि यह सारा संसार एक संगत सृष्टि के रूप में उत्पन्न होता है, २. परमात्मा वह है (यः) = जो (देवेषु) = इन सूर्यादि देवों में (एक:) = अद्वितीय (अधिदेवः) = अधिष्ठातृ देव आसीत् है। इन देवों को उसी से तो देवत्व प्राप्त हो रहा है ('तेन देवा देवतामग्र आयन्') । ३. उस (कस्मै) = अनिर्वचनीय आनन्दस्वरूप (देवाय) = द्युतिमय प्रभु के लिए हम (हविषा) = समर्पण द्वारा (विधेम) = पूजा करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की अध्यक्षता में प्रकृति से सम्बद्ध यह सृष्टि होती है। प्रभु देवों के भी देव हैं, उस प्रभु के प्रति समर्पण से हम प्रभु की पूजा करनेवाले हों।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! तुमच्यामधील जे लोक, सर्वांचा द्रष्टा, धर्मा, कर्ता, अद्वितीय अधिष्ठाता असलेल्या परमेश्वराला जाणण्यासाठी नित्य योगाभ्यास करतात ते आनंदी असतात.
विषय
कोण लोक आनंदित होतात, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (यः) जो परमेश्वर (महिमा ) आपल्या व्यापकत्व गुणाच्या महिमे (दक्षम्) शक्ती (दधाना) धारण करणार्या आणि (यज्ञम्) संगतीयुक्त संसाराला (जनयन्तीः) जन्म देणार्या (आपः) व्याप्तिशील सुक्ष्म जलाची तन्मात्रा आहे, (पाच तन्मात्रा आहेत) त्या सर्वांना (पर्यपश्यत्) सर्वदृष्ट्या पाहत आहे. (जो सर्व जगात आपल्या व्यापकत्वगुणामुळे जाणत व पाहात आहे) (त्याची आम्ही सेवा-उपासना करतो) तसेच (यः) जो ईश्वर (देवेषू) (उत्तम गुणधारक प्रकृति तत्त्वात आणि जीवांत (एकः) एकमेव (अधि, देवः) उत्तमगुण, कर्म, स्वभाव असलेल्या (आसीत्) आहे, त्याच (वत्) (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सर्वसुखदाता ईश्वराची आम्ही (हविषा) आज्ञापालन व योगाभ्यासाद्वारे (विधेम) सेवा करू व करतो ॥26॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जे लोक सर्वांचा द्रष्टा (सर्वाना सर्वक्षणीं पाहणारा) सृष्टिधर्त्ता, सृष्टिकर्ता, अद्वितीय, सर्वाधिष्ठाता परमात्म्याला जाणण्यासाठी नित्य योगाभ्यास करतात, ते अवश्य आनंदित होतात ॥26॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God with His Might sees fully the subtle and primary elements, full of potency, and generators of the universe. He amongst all souls and material objects is the one supreme Lord. Let us adore with knowledge and yoga, Him, Who is the Embodiment and Giver of pleasure.
Meaning
The One Supreme Lord over all the divine forms of Prakriti, who overwatches the cosmic waters with His own might of immanence and omniscience — waters (tanmatras) conducting the great yajna of evolution and producing various forms of life, to that One Lord of Bliss let us pay homage and offer worship with acts of love and faith in yajna.
Translation
Who in His greatness oversees the waters containing the creative vital force and initiating sacrifice, and who is the only God over all the bounties of Nature; Him we worship with our oblations, (1)
Notes
Dakşam, बलं, creative vital force.
बंगाली (1)
विषय
কে জনা মোদন্ত ইত্যাহ ॥
কে মনুষ্য আনন্দিত হয়, সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–(য়ঃ) যে পরমেশ্বর (মহিনা) স্বীয় ব্যাপকত্বের মহিমা বলে (দক্ষম্) বলকে (দধানাঃ) ধারণ করিয়া (য়জ্ঞম্) সঙ্গত সংসারকে (জনয়ন্তী) উৎপন্ন করিয়া (আপঃ) ব্যাপ্তিশীল সূক্ষ্ম জলের মাত্রা তাহাকে (পর্য়পশ্যৎ) সকল দিক দিয়া লক্ষ্য করে (য়ঃ) যে ঈশ্বর (দেবেষু) উত্তম গুণযুক্ত প্রকৃতি আদি এবং জীবসকলের মধ্যে (একঃ) এক (অধি, দেবঃ) উত্তম গুণ কর্ম্ম স্বভাব যুক্ত (আসীৎ) আছে সে (চিৎ) ই (কস্মৈ) সুখস্বরূপ (দেবায়) সকল সুখের দাতা ঈশ্বরকে আমরা (হবিষা) আজ্ঞাপালন এবং যোগাভ্যাসের ধারণ দ্বারা (বিধেম) সেবা করি ॥ ২৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! আপনারা যে সকলের দ্রষ্টা ধর্ত্তা কর্ত্তা অদ্বিতীয় অধিষ্ঠাতা পরমাত্মাকে জানিতে নিত্য যোগাভ্যাস করেন তাহারা আনন্দিত হইয়া থাকেন ॥ ২৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়শ্চি॒দাপো॑ মহি॒না প॒র্য়প॑শ্য॒দ্ দক্ষং॒ দধা॑না জ॒নয়॑ন্তীর্য়॒জ্ঞম্ ।
য়ো দে॒বেষ্বধি॑ দে॒বऽ এক॒ऽ আসী॒ৎ কস্মৈ॑ দে॒বায়॑ হ॒বিষা॑ বিধেম ॥ ২৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়শ্চিদিত্যস্য হিরণ্যগর্ভ ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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