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यजुर्वेद अध्याय - 27

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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 28
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - वायुर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    69

    आ नो॑ नि॒युद्भिः॑ श॒तिनी॑भिरध्व॒रꣳ स॑ह॒स्रिणी॑भि॒रुप॑ याहि य॒ज्ञम्। वायो॑ऽ अ॒स्मिन्त्सव॑ने मादयस्व यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। नः॒। नि॒युद्भि॒रिति॑ नि॒युत्ऽभिः॑। श॒तिनी॑भिः। अ॒ध्व॒रम्। स॒ह॒स्रिणी॑भिः। उप॑। या॒हि॒। य॒ज्ञम्। वायो॒ इति॒ वायो॑। अ॒स्मिन्। सव॑ने। मा॒द॒य॒स्व॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिभि॒रिति॑ स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वरँ सहस्रिणीभिरुप याहि यज्ञम् । वायोऽअस्मिन्सवने मादयस्व यूयम्पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। नियुद्भिरिति नियुत्ऽभिः। शतिनीभिः। अध्वरम्। सहस्रिणीभिः। उप। याहि। यज्ञम्। वायो इति वायो। अस्मिन्। सवने। मादयस्व। यूयम्। पात। स्वस्तिभिरिति स्वस्तिऽभिः। सदा। नः॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे वायो! यथा वायुर्नियुद्भिश्शतिनीभिः सहस्रिणीभिर्गतिभिरस्मिन् सवने नोऽध्वरं यज्ञमुपगच्छति तथा त्वमेतमायाहि मादयस्व। हे विद्वांसो! यूयमेतद्विद्यया स्वस्तिभिर्नः सदा पात॥२८॥

    पदार्थः

    (आ) (नः) अस्माकम् (नियुद्भिः) निश्चितैर्मिश्रणामिश्रणैर्गमनागमनैः (शतिनीभिः) शतं बहूनि कर्माणि विद्यन्ते यासु ताभिः (अध्वरम्) अहिंसनीयम् (सहस्रिणीभिः) सहस्राण्यसंख्या वेगा विद्यन्ते यासु गतिषु ताभिः (उप) (याहि) प्राप्नुहि (यज्ञम्) सङ्गगन्तव्यं व्यवहारम् (वायो) वायुरिव बलवन् विद्वन्! (अस्मिन्) (सवने) उत्पत्त्यधिकरणे जगति (मादयस्व) आनन्दयस्व (यूयम्) (पात) रक्षत (स्वस्तिभिः) सुखैः सह (सदा) सर्वस्मिन् काले (नः) अस्मान्॥२८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वांसो यथा वायवो विविधाभिर्गतिभिः सर्वान् पुष्णन्ति तथैव सुशिक्षया सर्वान् पोषयन्तु॥२८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (वायो) वायु के तुल्य बलवान् विद्वन्! जैसे वायु (नियुद्भिः) निश्चित मिली वा पृथक् जाने-आने रूप (शतिनीभिः) बहुत कर्मों वाली (सहस्रिणीभिः) बहुत वेगों वाली गतियों से (अस्मिन्) इस (सवने) उत्पत्ति के आधार जगत् में (नः) हमारे (अध्वरम्) न बिगाड़ने योग्य (यज्ञम्) सङ्गति के योग्य व्यवहार को (उप) निकट प्राप्त होता है, वैसे आप (आयाहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये (मादयस्व) और आनन्दित कीजिये। हे विद्वानो! (यूयम्) आप लोग इस विद्या से (स्वस्तिभिः) सुखों के साथ (नः) हम लोगों की (सदा) सब काल में (पात) रक्षा कीजिये॥२८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोग, जैसे वायु विविध प्रकार की चालों से सब पदार्थों को पुष्ट करते हैं, वैसे ही अच्छी शिक्षा से सब को पुष्ट करें॥२८॥

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    विषय

    नियुत्वान् वायु, सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (वायो ) वायु के समान प्राणरक्षक ! और प्रचण्डता से' शत्रुओं को उखाड़ देने हारे वीर ! सेनापते ! तू (शतिनीभिः) सैकड़ों पुरुर्षो और (सहस्रिणीभि:) हजारों से बनी (नियुद्भिः) शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करने हारी सेनाओं के साथ (नः) हमारे (अध्वरम् ) रक्षा करने योग्य (यज्ञम् )- प्रजापति, सबके व्यवस्थापक राष्ट्रपति को (उपयाहि) प्राप्त हो । तू ( अस्मिन् सबने ) उस राज्याभिषेक काल में (मादयस्व ) सबको प्रसन्न कर । ( यूयम् ) आप सब लोग (स्वस्तिभिः) कल्याणकारी उपायों से (नः) हमारी सदा (पात) रक्षा करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । वायुः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    शतिनी - सहस्रिणी [नियुत् ]

    पदार्थ

    १. हे (वायो) = संसार के सञ्चालक प्रभो! आप (शतिनीभिः) = सौ वर्षपर्यन्त अपने कार्य को उत्तमता से करनेवाली तथा (सहस्रिणीभिः) = सदा प्रसन्नता [स+हस्] के साथ रहनेवाली (नियुद्भिः) = इन अश्वरूप इन्द्रियों के साथ (नः) = हमारे (अध्वरम्) = कुटिलता व हिंसा से रहित जीवन-यज्ञ को (उपयाहि) = समीपता से प्राप्त होओ, अर्थात् प्रभुकृपा से हमें इस जीवन-यज्ञ को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए वे इन्द्रियाँ प्राप्त हों जो सौ वर्ष तक कार्य करनेवाली हों तथा सदा आनन्द के साथ अपने कार्य में लगी रहनेवाली हों। इन इन्द्रियों को प्राप्त करके हम अपने इस जीवन-यज्ञ को सचमुच 'अध्वर' कुटिलता व हिंसा से रहित बना सकें । २. (हे) वायो ! (अस्मिन् सवने) = इस यज्ञात्मक जीवन में (मादयस्व) = हमें हर्ष को प्राप्त कराइए। आपकी कृपा से यज्ञों में हम आनन्द का अनुभव करें। ३. (यूयम्) = आप (नः) = हमें (सदा) = सर्वदा (स्वस्तिभिः) = इन यज्ञों से सिद्ध होनेवाले अविनाशों व उत्तम स्थितियों द्वारा (पात) = पालित करो।

    भावार्थ

    भावार्थ-[क] हे प्रभो! आपकी कृपा से हम जीवनयज्ञ में शतवर्षपर्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कार्य की क्षमतावाली इन्द्रियों को प्राप्त करें। [ख] आप हमें यज्ञ में आनन्द को अनुभव करनेवाला बनाइए, हमारी रुचि यज्ञप्रवण हो, [ग] यज्ञों से हमारी स्थिति उत्तम हो और हम सचमुच 'वसिष्ठ' बनें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू विविध प्रकारे सर्व पदार्थांना बलवान करतो, तसेच विद्वान लोकांनी चांगल्या शिक्षणाने सर्वांना बलवान करावे.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (वायो) वायू प्रमाणे शक्तिमान (तर्क व पांडित्याने विरोधकांची शक्ती भंग करणारे असे) हे विद्वान, ज्याप्रमाणे वायू (नियुद्भिः) पदार्थांना मिश्रित करते, येते-जाते अथवा सर्वांना सहजपणे उपलब्ध आहे आणि वायू आपल्या (शतीनिभिः) अनेक कार्यांद्वारे (सहस्रिणीभिः) आणि आपल्या हजारों गती वा प्रवाहाद्वारे (वाहतो) आणि (अस्मिन्) आमच्या (सवने) उत्पत्तीचा जो आधार, हे जग जगात (नः) आमच्या (अध्वरम्) विघ्न-बाधादीपासून दूर असलेल्या (यज्ञम्) या संगठन रूप कार्याच्या पूर्वतेसाठी (उप) आमच्याजवळ येतो, तसेच हे विद्वान, आपणही (आयाहि) अवश्य या आणि आम्हाला (मादयस्व) आनंदित करा. हे विद्वज्जनहो, (यूयम्) आपण आपल्या विद्या-ज्ञानाने (स्वस्तिभिः) समस्त कल्याणकारी कामनांसह (नः) आमची (सदा) सदा सर्वकाळी (पात) रक्षा करा ॥28॥

    भावार्थ

    भावार्त - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. - ज्याप्रमाणे वायू आपल्या विविध प्रकारच्या गती आदी कार्याने सर्व पदार्थांना पोषण देतो, तसे विद्वानांनी देखील सदुपदेशाद्वारा सर्वांना ज्ञानवान करावे. ॥28॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, powerful like the air, come to our non violent sacrifice with thy hundreds and thousands of instructions. Gladden us in this world. O sages, preserve us evermore with propitious advice.

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    Meaning

    Vayu, tempestuous power of divine nature, by a hundred modes of action and a thousand currents of energy in this mighty yajna of creative evolution, you come to our holy yajna of love and action in the world. Come, rejoice in this yajna and bless us too with joy. Sages of knowledge and yajna, you too protect us with your knowledge and your blessings for peace, prosperity and well-being.

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    Translation

    May you come, O wind divine, to our solemn worship with the yoked forces, which are in hundreds and thousands. May you be exhilarated at our ceremony, and may you all ever cherish us with blessings. (1)

    Notes

    Niyudbhiḥ, with horses or mares; yoked forces. First three pādas are addressed to Väyu and the fourth is addressed to all the bounties of Nature or gods.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (বায়ো) বায়ুতুল্য বলবান্ বিদ্বান্! যেমন বায়ু (নিয়ুদ্ভিঃ) নিশ্চিত মিশ্রণ বা অমিশ্রণ গমনাগমন রূপ (শতিনীভিঃ) বহু কর্ম্মযুক্তা (সহস্রিনীভিঃ) বহুবেগযুক্তা গতি দ্বারা (অস্মিন্) এই (সবনে) উৎপত্তির আধার জগতে (নঃ) আমাদের (অধ্বরম্) অহিংসনীয় (য়জ্ঞম্) সংগতিযোগ্য ব্যবহারকে (উপ) নিকটে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ আপনি (আয়াহি) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হউন (মাদয়স্ব) এবং আনন্দিত করুন । হে বিদ্বান্গণ! (য়ূয়ম্) আপনারা এই বিদ্যা দ্বারা (স্বস্তিভিঃ) সুখ সহ (নঃ) আমাদিগের (সদা) সকল কালে (পাত) রক্ষা করুন ॥ ২৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । বিদ্বান্গণ যেমন বায়ু বিবিধ গতি দ্বারা সকল পদার্থের পুষ্টি করে সেইরূপ উত্তম শিক্ষা দ্বারা সকলকে পুষ্টি করিবে ॥ ২৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ নো॑ নি॒য়ুদ্ভিঃ॑ শ॒তিনী॑ভিরধ্ব॒রꣳ স॑হ॒স্রিণী॑ভি॒রুপ॑ য়াহি য়॒জ্ঞম্ ।
    বায়ো॑ऽ অ॒স্মিন্ৎসব॑নে মাদয়স্ব য়ূ॒য়ং পা॑ত স্ব॒স্তিভিঃ॒ সদা॑ নঃ ॥ ২৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ ন ইত্যস্য বসিষ্ঠ ঋষিঃ । বায়ুর্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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