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यजुर्वेद अध्याय - 27

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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    128

    क्ष॒त्रेणा॑ग्ने॒ स्वायुः सꣳर॑भस्व मि॒त्रेणा॑ग्ने मित्र॒धेये॑ यतस्व।स॒जा॒तानां॑ मध्यम॒स्थाऽ ए॑धि॒ राज्ञा॑मग्ने विह॒व्यो दीदिही॒ह॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। स्वायु॒रिति॑ सु॒ऽआयुः॑। सम्। र॒भ॒स्व॒। मि॒त्रेण॑। अ॒ग्ने॒। मि॒त्र॒धेय॒ इति॑ मित्र॒ऽधेये॑। य॒त॒स्व॒ ॥ स॒जा॒ताना॒मिति॑ सऽजा॒ताना॑म्। म॒ध्य॒म॒स्था इति॑ मध्यम॒ऽस्थाः। ए॒धि॒। राज्ञा॑म्। अ॒ग्ने॒। वि॒ह॒व्य᳖ इति॑ विऽह॒व्यः᳖। दी॒दि॒हि॒। इ॒ह ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षत्रेणाग्ने स्वायुः सँ रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधेये यतस्व । सजातानाम्मध्यमस्थाऽएधि राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्षत्रेण। अग्ने। स्वायुरिति सुऽआयुः। सम्। रभस्व। मित्रेण। अग्ने। मित्रधेय इति मित्रऽधेये। यतस्व॥ सजातानामिति सऽजातानाम्। मध्यमस्था इति मध्यमऽस्थाः। एधि। राज्ञाम्। अग्ने। विहव्य इति विऽहव्यः। दीदिहि। इह॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वमिह क्षत्रेण सह स्वायुः संरभस्व। हे अग्ने! मित्रेण सह मित्रधेये यतस्व। हे अग्ने! सजातानां राज्ञां मध्ये मध्यमस्था एधि। विहव्यः सन् दीदिहि च॥५॥

    पदार्थः

    (क्षत्रेण) राज्येन धनेन वा (अग्ने) पावकवत् तेजस्विन् (स्वायुः) शोभनं च तदायुश्च (सम्) सम्यक् (रभस्व) आरम्भं कुरु (मित्रेण) धार्मिकैर्विद्वद्भिर्मित्रैः सह (अग्ने) विद्याविनयप्रकाशक (मित्रधेये) मित्रैर्धर्त्तव्ये व्यवहारे (यतस्व) (सजातानाम्) समानजन्मनाम् (मध्यमस्थाः) मध्ये भवा मध्यमा पक्षपातरहितास्तेषु तिष्ठतीति (एधि) भव (राज्ञाम्) धार्मिकाणां राजाधिराजानां मध्ये (अग्ने) न्यायप्रकाशक (विहव्यः) विशेषेण स्तोतुं योग्यः (दीदिहि) प्रकाशितो भव (इह) अस्मिन् संसारे राज्याधिकारे वा॥५॥

    भावार्थः

    राजा सदा ब्रह्मचर्येण दीर्घायुः सत्यधर्मप्रियैरमात्यैः सह मन्त्रयिताऽन्यैः राजभिः सह सुसन्धिः पक्षपातं विहाय न्यायाधीशः सर्वैः सुलक्षणैर्युक्तः सन् दुष्टव्यसनविरहो भूत्वा धर्मार्थकाममोक्षान् धैर्येण शान्त्याऽप्रमादेन च शनैश्शनैः साधयेत्॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि विद्वन्! आप (इह) इस जगत् में वा राज्याधिकार में (क्षत्रेण) राज्य व धन के साथ (स्वायुः) सुन्दर युवाऽवस्था का (सम्, रभस्व) अच्छे प्रकार आरम्भ कीजिये। हे (अग्ने) विद्या और विनय से शोभायमान राजन्! (मित्रेण) धर्मात्मा विद्वान् मित्रों के साथ (मित्रधेये) मित्रों से धारण करने योग्य व्यवहार में (यतस्व) प्रयत्न कीजिये। हे (अग्ने) न्याय का प्रकाश करने हारे सभापति! (सजातानाम्) एक साथ उत्पन्न हुए बराबर की अवस्था वाले (राज्ञाम्) धर्मात्मा राजाधिराजों के बीच (मध्यमस्थाः) मध्यस्थ-वादिप्रतिवादि के साक्षि (एधि) हूजिये और (विहव्यः) विशेष कर स्तुति के योग्य हुए (दीदिहि) प्रकाशित हूजिये॥५॥

    भावार्थ

    सभापति राजा सदा ब्रह्मचर्य से दीर्घायु, सत्य धर्म में प्रीति रखने वाले मन्त्रियों के साथ विचारकर्त्ता, अन्य राजाओं के साथ अच्छी सन्धि रखने वाला, पक्षपात को छोड़ न्यायाधीश सब शुभ लक्षणों से युक्त हुआ दुष्ट व्यसनों से पृथक् हो के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को धीरज, शान्ति, अप्रमाद से धीरे-धीरे सिद्ध करे॥५॥

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    विषय

    अग्नि नाम विद्वान् नायक के कर्तव्य और लक्षण ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! तेजस्विन् ! राजन् ! तू (क्षत्रेण) क्षात्रबल, क्षत अर्थात् त्रुटि के पूर्ण करने वाले, धन और प्रजा को क्षय होने से बचाने वाले राज्य से (सु - आयुः, स्व- आयुः) अपने उत्तम आयु को (संर- भस्व) प्राप्त कर, अपने जीवन को सुरक्षित रख । हे अग्ने ! राजन् ! (मित्रेण) स्नेही, मित्र राजा और धार्मिक विद्वान् पुरुषों से (मित्रधेये) मित्रता रखने का ( यतस्व ) यत्न कर। और ( सजातानाम् ) कुल, शील, राज्य , ऐश्वर्य और पद में समान प्रतिष्ठा वाले पुरुषों के बीच में (मध्यमस्थाः) मध्यम राजा के रूप में सबका बल तोलने में समर्थ (एधि) होकर रह । हे (अग्ने) विद्वन् ! राजन् ! तू ( राज्ञाम् ) राजाओं के बीच मैं ( विहन्यः) विशेष आदर से स्तुति योग्य और विशेष आदर से बुलाये जाने योग्य होकर ( इह ) इस राष्ट्र में ( दीदिहि ) प्रदीप्त, तेजस्वी होकर चमक ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । स्वराट् पंक्तिः । पंचमः ॥

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    विषय

    सबल कर्म

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्नि की भाँति शत्रुओं को भस्मसात् करनेवाले जीव ! (क्षत्रेण) = बल के साथ (स्व आयुः) = अपने जीवन को (संरभस्व) = समारब्ध कर, अर्थात् अपने जीवन में सबल कार्यों का करनेवाला बन। २. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (मित्रेण) = [मित्र = सूर्य] सूर्योदय के साथ ही, अर्थात् दिन के प्रारम्भ से ही (मित्रधेये यतस्व) = इस प्रकार यत्नशील हो कि तू अपने मित्रों का धारण करनेवाला बने ['यथा मित्राणि धार्यन्ते तथा यत्नं कुरु'- उ० ] । अपने लिए तो कौवा भी जीता है, तू केवल अपने लिए जीनेवाला न बन । ३. तू (सजातानाम्) = समान जन्मवालों का, हम उम्रवालों का, (मध्यमस्था एधि) = मध्यस्थ हो, अर्थात् यदि कभी किन्ही दो में संघर्ष हो जाए तो वे दानों तुझे मध्यस्थ बनाने के लिए सहर्ष उद्यत हों। यह होगा तभी जब तेरा जीवन यज्ञमय होगा । ४. हे अग्ने ! पथप्रदर्शक! तेरा जीवन ऐसा सुन्दर हो कि तू (राज्ञाम्) = राजाओं का भी (विहव्यः) = विशिष्टरूप से पुकारने योग्य बने । ५. हे अग्ने ! इस प्रकार के जीवनवाला बनकर तू (इह) = यहाँ मानव-जीवन में (दीदिहि) = खूब ही चमकनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे कार्य शक्तिशाली हों, हमारा सारा दिन ऐसे कार्यों में बीते जो मित्रों का धारण करनेवाले हों, उनके परस्पर के झगड़ों को हम निपटानेवाले बनें। राजाओं के भी पुकारने योग्य हों तथा देदीप्यमान जीवनवाले बनें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजाने नेहमी ब्रह्मचर्य पालन करून दीर्घायू बनावे. सत्य धर्म प्रेमी मंत्र्याबरोबर विचारविनिमय करावा, इतर राजांबरोबर मैत्री करावी. भेदभाव न करता न्याय करावा. शुभ लक्षणांनीयुक्त व्हावे. दुष्ट व्यसनांपासून दूर राहावे. धैर्यवान, शांतीयुक्त व प्रमादरहित बनून हळुहळू धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करावे.

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    विषय

    पुन्हा, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ- हे (अग्ने) अग्निवत तेजस्वी विद्वान, आपण (इह) या जगात वा राज्यात (क्षत्रेण) राज्य आणि धन यांच्या साहाय्याने (स्वायूः) सुंदर युवावस्थेत (सम्, रभस्व) राज्य कार्याचा सुंदर आरंभ करा हे (अग्ने) विद्येने आणि विदयानें शोभायमान हे राजा (मित्रेण) धर्मात्मा विद्वान मित्रांशी (मित्रधेये) मित्रत्वाने वागण्याच्या पद्धतीने (यतस्व) प्रवास करा. हे (अग्ने) न्यायाचा प्रकाश पाडणारे सभापती, (सजातानाम्) सोबत जन्माला आलेले, एका वयाचे (राज्ञाम्) धर्मात्मा राजधिराजांच्यामधे आपण (मध्यमस्थाः) मध्यस्थ अथवा वादी-प्रतिवादीमधे सलोखा घडवून आणणारे (एधि) व्हा आणि (विहव्यः) विशेषत्वाने स्तूत्य व प्रशंसनीय होऊन (दीदिहि) दीप्तिमान वा कीर्तिमंत व्हा. ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सभापती राजा याने ब्रह्मचर्यामुळे दीर्घायू व्हावे सत्य आणि धर्मा विषयी प्रेम असणार्‍या मंत्रीगणांशी चर्चा करावी, अन्य राजांशी सन्धी वा मैत्री करावी, पक्षपात सोडून न्यायाने निवाडा देणारा न्यायाधीश व्हावे, सुलक्षणी असून दुर्व्यसनांपासून दूर रहावे, तसेच धैर्यशांती आणि अप्रमाद या प्रयत्नांनी धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष यांची प्राप्ती करावी. ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person commence thy youth with wealth in this world. O king, flowing with the knowledge and humility, exert to maintain friendship with the religious, learned friends. O justice-loving head of the state, act as an umpire in the midst of your coequal virtuous kings. Be renowned as worthy of praise.

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    Meaning

    Agni, bright and blazing like light and fire, youthful and golden is your age. Take over and start well here with this world-order of humanity. Agni, mighty intelligent ruler, rule and work with the spirit of friendship in the world state which is a covenant of friends. Go forward, seated in the centre of an assembly of equals who are like brothers and sisters. Agni, elected, invited and installed in office by the sovereign nations of the world, rule, shine and illuminate the world here.

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    Translation

    O adorable leader, lead your life defending the weak; Behave with friends in a friendly manner, O adorable leader. Established in the midst of kinsmen and with abundant supplies, may you, adorable leader, shine out among kings brightly. (1)

    Notes

    Kşatreṇa sväyuḥ sainrabhasva, lead your praiseworthy life defending the weak. Mitradheye, helping your friends, or, in a friendly way. Vihavyaḥ, विशेषाणि हव्यानि यस्य, one who has got abun dant supplies. Also, one who is invited specially (by the kings).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনরায় সেই বিষয় কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) অগ্নিতুল্য তেজস্বী বিদ্বান্ ! আপনি (ইহ) এই জগতে বা রাজ্যাধিকারে (ক্ষত্রেণ) রাজ্য বা ধন সহ (স্বায়ুঃ) সুন্দর যুবাবস্থার (সম্, রভস্ব) উত্তম প্রকার আরম্ভ করুন । হে (অগ্নে) বিদ্যা ও বিনয় দ্বারা শোভায়মান রাজন! (মিত্রেণ) ধর্মাত্মা বিদ্বান্ মিত্র সহ (মিত্রধেয়ে) মিত্রসকল দ্বারা ধারণ করিবার যোগ্য ব্যবহারে (য়তস্ব) প্রযত্ন করুন । হে (অগ্নে) ন্যায়ের প্রকাশক সভাপতি! (সজাতানাম্) এক সঙ্গে উৎপন্ন সমান অবস্থাযুক্ত (রাজ্ঞাম্) ধর্মাত্মা রাজাধিরাজদিগের মধ্যে (মধ্যমস্থাঃ) মধ্যস্থ-বাদি প্রতিবাদির সাক্ষি (এধি) হউন এবং (বিহব্যঃ) বিশেষ করিয়া স্তুতিযোগ্য হইয়া (দীদিহি) প্রকাশিত হউন ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–সভাপতি রাজা সদা ব্রহ্মচর্য্য পূর্বক দীর্ঘায়ু, সত্য ধর্মে প্রীতি রক্ষাকারী মন্ত্রীদিগের সহ বিচারকর্ত্তা অন্য রাজাদের সহ উত্তম সন্ধি রক্ষাকারী, পক্ষপাতত্যাগ করিয়া ন্যায়াধীশ সকল শুভ লক্ষণ দ্বারা যুক্ত দুষ্ট ব্যসন হইতে পৃথক হইয়া ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষকে ধৈর্য্য, শান্তি, অপ্রমাদ দ্বারা ধীরে-ধীরে সিদ্ধ করিবে ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ক্ষ॒ত্রেণা॑গ্নে॒ স্বায়ুঃ॒ সꣳর॑ভস্ব মি॒ত্রেণা॑গ্নে মিত্র॒ধেয়ে॑ য়তস্ব ।
    স॒জা॒তানাং॑ মধ্যম॒স্থাऽ এ॑ধি॒ রাজ্ঞা॑মগ্নে বিহ॒ব্যো᳖ দীদিহী॒হ ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ক্ষত্রেণেত্যস্যাগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাট্পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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