यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 54
ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः
देवता - वीरो देवता
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
58
इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ म॒रुता॒मनी॑कं मि॒त्रस्य॒ गर्भो॒ वरु॑णस्य॒ नाभिः॑।सेमां नो॑ ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णो देव॑ रथ॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय॥५४॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रस्य। वज्रः॑। म॒रुता॑म्। अनी॑कम्। मि॒त्रस्य॑। गर्भः॑। वरु॑णस्य। नाभिः॑। सः। इ॒माम्। नः॒। ह॒व्यदा॑ति॒मिति॑ ह॒व्यऽदा॑तिम्। जु॒षा॒णः। देव॑। र॒थ॒। प्रति॑। ह॒व्या। गृ॒भा॒य॒ ॥५४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य वज्रो मरुतामनीकम्मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिः । सेमान्नो हव्यदातिञ्जुषाणो देव रथ प्रति हव्या गृभाय ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रस्य। वज्रः। मरुताम्। अनीकम्। मित्रस्य। गर्भः। वरुणास्य। नाभिः। सः। इमाम्। नः। हव्यदातिमिति हव्यऽदातिम्। जुषाणः। देव। रथ। प्रति। हव्या। गृभाय॥५४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे देव! यथेमां हव्यदातिं जुषाणस्स त्वं य इन्द्रस्य वज्रो मरुतामनीकं मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिरस्य तं नोऽस्मान् हव्या च प्रति गृभाय॥५४॥
पदार्थः
(इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रः) निपातः (मरुताम्) मनुष्याणाम् (अनीकम्) सैन्यम् (मित्रस्य) सख्युः (गर्भः) अन्तस्थ आशयः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (नाभिः) आत्मनो मध्यवर्त्ती विचारः (सः) (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (नः) अस्मान् (हव्यदातिम्) दातव्यानां दानम् (जुषाणः) सेवमानः (देव) दिव्यविद्य (रथ) रमणीयस्वरूप (प्रति) (हव्या) आदातुमर्हाणि वस्तूनि (गृभाय) गृहाण॥५४॥
भावार्थः
येषां मनुष्याणां सेनाऽतिश्रेष्ठा विद्युद्विद्या मित्रााशय आप्तविचारो विद्यादिदानञ्च स्वीकृतानि सन्त्यन्येभ्यो देयानि च ते सर्वतो मङ्गलावृताः स्युः॥५४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (देव) उत्तम विद्या वाले (रथ) रमणीयस्वरूप विद्वन्! (इमाम्) इस (हव्यदातिम्) देने योग्य पदार्थों के दान को (जुषाणः) सेवते हुए (सः) पूर्वोक्त आप जो (इन्द्रस्य) बिजुली का (वज्रः) गिरना (मरुताम्) मनुष्यों की (अनीकम्) सेना (मित्रस्य) मित्र के (गर्भः) अन्तःकरण का आशय और (वरुणस्य) श्रेष्ठ जन के (नाभिः) आत्मा का मध्यवर्त्ती विचार है, उसको (नः) और हमको (हव्या) ग्रहण करने योग्य वस्तुओं को (प्रति गृभाय) प्रतिग्रह अर्थात् स्वीकार कीजिए॥५४॥
भावार्थ
जिन मनुष्यों की सेना अतिश्रेष्ठ, बिजुली की विद्या, मित्र का आशय, आप्त सत्यवक्ताओं का विचार और विद्यादि का दान स्वीकार किये तथा दूसरों को दिये हैं, वे सब ओर से मंगलयुक्त होवें॥५४॥
विषय
दुन्दुभि और वीर पुरुष का श्लिष्ट वर्णन।
भावार्थ
( इन्द्रस्य वज्रः) सेनापति या राजा का जलवर्षक मेघ के विद्युत् के समान प्रखर (वज्रः) शत्रुनिवारक शस्त्रास्त्र, सेना आदि बल वीर्य और ( मरुताम् ) प्रचण्ड वायुओं के समान तीव्र वेगवान् एवं शत्रु- मारक सेनापतियों का ( अनीकम् ) सैन्य है और (मित्रस्य गर्भः) सूर्य के समान तेजस्वी, स्नेही मित्र का ग्रहण- सामर्थ्य और ( वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष, दुष्टनिवारक, बलवान् स्वयंवृत राजा का ( नाभिः) प्रबन्धबल या संघबल है । (सः) वह सब हे (देव) राजन् ! तू ही है । हे (रथ) रथ के समान वेग से जाने वाले अंग प्रत्यग में दृढ़ एवं रमणीय गुणों से युक्त ! बह तु (नः) हमारे ( हव्यदातिम् ) अन्नादि के दान को (जुषाणः ) स्वीकार करता हुआ (हव्या) समस्त ग्राह्य पदार्थों को (प्रति गृभाय ) ग्रहण कर ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वीरः । निवृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
मित्रस्य गर्भः
पदार्थ
१. गतमन्त्र का यह शरीररूप रथ (इन्द्रस्य वज्रः) - इन्द्र का वज्र है, अर्थात् जितेन्द्रिय पुरुष का यह शरीर वज्रतुल्य दृढ़ होता है। २. यह शरीर (मरुताम्) = प्राणों की [अनीकम्] = तेजस्विता व दीप्तिवाला [splendour, brilliance] है, अर्थात् जहाँ जितेन्द्रियता से यह शरीर वज्रतुल्य दृढ़ता को प्राप्त होता है, वहाँ प्राणसाधना से यह तेज व दीप्तिवाला होता है । ३. जितेन्द्रिय पुरुष का यह शरीर प्राणसाधना करने पर (मित्रस्य गर्भः) = स्नेह की देवता का गर्भ होता है, अर्थात् स्नेह से परिपूर्ण होता है । ४. (वरुणस्य नाभिः) = द्वेष के निवारण की देवता का केन्द्र व बन्धन- [नह बन्धने] - वाला होता है। इस इन्द्र के शरीर में द्वेष के लिए स्थान नहीं रहता। यहाँ प्रेम ही प्रेम होता है । ५. हे (देवरथ) = इन्द्र, मरुत्, मित्र व वरुण आदि देवों के निवासस्थान बने हुए रथ ! (सः) = वह तू (नः) = हमारी (इमाम्) = इस (हव्यदातिम् जुषाण:) = यज्ञशेष के रूप में दिये गये भोजन को सेवन करता हुआ (प्रति) = प्रतिदिन (हव्या) = हवियों को ही (गृभाय) = ग्रहण कर, अर्थात् तू सदा हवि का सेवन करनेवाला बन । वस्तुतः देवता हविर्भुक् हैं, हवि के सेवन से ही हममें देवों की व दिव्य गुणों की वृद्धि होगी।
भावार्थ
भावार्थ- हम हवि के सेवन से, यज्ञशेष के भोजन से अपने में शरीर की दृढ़ता प्राणों की तेजस्विता, स्नेहभाव व द्वेष निवारण को स्थिर करें।
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे अतिश्रेष्ठ सेना, विद्युत विद्या, मित्रांचा अभिप्राय, श्रेष्ठ लोकांचे विचार व विद्या यांचा अंगीकार करतात व इतरांनाही स्वीकार करावयास लावतात त्यांचे सर्व प्रकारे कल्याण होते.
विषय
पुन्हा, त्या विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (देव) उत्तम विद्यावान आणि (रथ) रमणीय रूप असलेले विद्वान, आपण (इमाम्) या (हव्यदातिम्) दातव्य पदार्थाचे (आम्ही देत असलेले दान वा आमची भेट)(जुषाणः) सेवन वा स्वीकार करा. (सः) ते आपण (इनद्रस्य) विजेचा (वज्रः) प्रहार (आकाशातील वीज पडणे यासारखा अतिभयंकर प्रसंगाला आनंदाने सामोरे जा. आपण (मरूताम्) मनुष्यांची (अनीकम्) सेना आणि (मित्रस्य) मित्राच्या (गर्भः) मनातील (कुठिल वा उत्तम दोन्ही प्रकारच्या) विचार जाणणारे असे ??? विद्वान आहात. तसेच (वरुणस्य) श्रेष्ठ जनाच्या (नाभिः) आत्माच्या मध्यवर्ती विचार (ओळखणारे आहात) म्हणून (नः) आम्हाला आणि (हव्या) ग्रहणीय पदार्थांचे (प्रति, गृभाय) प्रतिग्रह करा. वस्तूंचा स्वीकार करा (आम्हास अभय द्या व आमची भेट स्वीकारा) ॥54॥
भावार्थ
भावार्थ - ज्या लोकांची वा ज्या राष्ट्राची सेना अतिश्रेष्ठ असते, जे विद्युतशास्त्र जाणतात आणि मित्राचे मनोगत ओळखतात आप्त सत्यवादी जनांचे विचार ऐकतात, तसेच विद्यादान करतात आणि दान स्वीकारतात, त्यांचे कल्याण होते. ॥54॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O beautiful, highly educated person, accepting gifts we offer, know the significance of the fall of lightning, realise the force of the army of men, the inner feelings of friends, the promptings of the soul of the virtuous, and enjoy our company, and all acceptable objects.
Meaning
Brilliant leader and warrior, devoted to the thunderbolt of Indra, army of the winds, light of the sun and depth of the sky and the ocean as ideals, in love with the power of lightning, inner thoughts of friends, and conscience of the best man, and enjoying our love and trust, may now receive our gifts and homage for further growth and development.
Translation
O all pervading Lord of the celestial chariot, your vehicle is as powerful as the bolt of justice of the resplendent Lord. It is the precursor of vital principles, and is as vast as our ocean. It is bright as sun-rays. May you accept it, offered with prayers and oblation. (1)
Notes
The chariot is addressed to here. Anikam, मुखं, front; vanguard. Mitrasya garbhaḥ, सूर्यस्य केंद्रस्थानं इव, bright as the cen tre of the sun. Nabhih, नभ्यते हन्यते अरिः येन, शत्रुहननसाधनं, weapon to kill the enemy; weapon of Varuņa.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (দেব) উত্তম বিদ্যা সম্পন্ন (রথ) রমণীয়স্বরূপ বিদ্বন্! (ইমাম্) এই (হব্যদাতিম্) দেওয়ার যোগ্য পদার্থগুলির দানকে (জুষাণঃ) সেবন করিতে থাকিয়া (সঃ) পূর্বোক্ত আপনি যিনি (ইন্দ্রস্য) বিদ্যুতের (বজ্রঃ) পতন (মরুতাম্) মনুষ্যদিগের (অনীকম্) সেনা (মিত্রস্য) মিত্রের (গর্ভঃ) অন্তঃকরণের আশয় এবং (বরুণস্য) শ্রেষ্ঠ ব্যক্তির (নাভিঃ) আত্মার মধ্যবর্ত্তী বিচার তাহাকে (নঃ) এবং আমাকে (হব্যা) গ্রহণীয় বস্তুসকলকে (প্রতিগৃভায়) প্রতিগ্রহ অর্থাৎ স্বীকার করুন ॥ ৫৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–যে মনুষ্যদিগের সেনা অতিশ্রেষ্ঠ, বিদ্যুতের বিদ্যা, মিত্রের আশয়, আপ্ত সত্যবক্তাদের বিচার ও বিদ্যাদির দান স্বীকার করিয়াছে তথা অপরকে দিয়াছে, তাহারা সকল দিক দিয়া মঙ্গলযুক্ত হয় ॥ ৫৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ইন্দ্র॑স্য॒ বজ্রো॑ ম॒রুতা॒মনী॑কং মি॒ত্রস্য॒ গর্ভো॒ বর॑ুণস্য॒ নাভিঃ॑ ।
সেমাং নো॑ হ॒ব্যদা॑তিং জুষা॒ণো দেব॑ রথ॒ প্রতি॑ হ॒ব্যা গৃ॑ভায় ॥ ৫৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইন্দ্রস্যেত্যস্য ভারদ্বাজ ঋষিঃ । বীরো দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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