यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 12
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
114
अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽअ॒यम्। अ॒पा रेता॑सि जिन्वति॥१२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। मू॒र्द्धा। दि॒वः। क॒कुत्। पतिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। अ॒पाम्। रेता॑सि। जि॒न्व॒ति॒ ॥१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपाँ रेताँसि जिन्वति ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। मूर्द्धा। दिवः। ककुत्। पतिः। पृथिव्याः। अयम्। अपाम्। रेतासि। जिन्वति॥१२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकावुपदिश्येते॥
अन्वयः
हे मनुष्या! यूयं योऽयं ककुन्मूर्द्धाग्निर्जगदीश्वरो दिवः पृथिव्याश्च पतिः पालकः सन्नपां रेतांसि जिन्वति स्रष्टुं जानाति, तमेव पूज्यं मन्यध्वमित्येकः॥ योऽयमग्निः ककुद्दिवो मूर्द्धा पृथिव्याश्च पतिः पालनहेतुः सन्नपां रेतांसि जिन्वति, स सुखं प्रापयतीति द्वितीयः॥१२॥
पदार्थः
(अग्निः) सर्वस्वामीश्वरः। प्रकाशादिगुणवान् भौतिको वा (मूर्द्धा) सर्वोपरि विराजमानः (दिवः) प्रकाशवतः सूर्यादेर्जगतः (ककुत्) महान्। ककुह इति महन्नामसु पठितम्। (निघं॰३.३) ककुहशब्दस्य स्थाने ककुत्। पृषोदराद्याकृतिगणान्तर्गतत्वात् सिद्धः (पतिः) पालयिता, पालनहेतुर्वा (पृथिव्याः) प्रकाशरहितस्य पृथिव्यादेर्जगतः (अयम्) निरूपितपूर्वः (अपाम्) प्राणानां जलानां वा। आप इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५.३) अनेन चेष्टादिव्यवहारप्रापकाः प्राणा गृह्यन्ते। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१.१२) (रेतांसि) वीर्याणि (जिन्वति) रचयितुं जानाति, प्रापयति वा। जिन्वतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निरु॰२.१४)। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.११) व्याख्यातः॥१२॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यो जगदीश्वरः प्रकाशाप्रकाशवद्विविधं जगदर्थात् प्रकाशवत् सूर्यादिकम-प्रकाशवत् पृथिव्यादिकं च रचयित्वा पालयित्वा प्राणेषु बलं च दधाति, तथा योऽयमग्निः पृथिव्यादिजगतः पालनहेतुर्भूत्वा विद्युज्जाठरादिरूपः प्राणानां जलानां वीर्याणि जनयति, स एव सुखसाधको भवतीति॥१२॥
हिन्दी (2)
विषय
अब अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का प्रकाश किया है॥
पदार्थ
(अयम्) जो यह कार्य कारण से प्रत्यक्ष (ककुत्) सब से बड़ा (मूर्द्धा) सब के ऊपर विराजमान (अग्निः) जगदीश्वर (दिवः) प्रकाशमान सूर्य आदि लोक और (पृथिव्याः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोकों का (पतिः) पालन करता हुआ (अपाम्) प्राणों के (रेतांसि) वीर्यों की (जिन्वति) रचना को जानता है, उसी को पूज्य मानो॥१॥१२॥ (अयम्) यह अग्नि (ककुत्) सब पदार्थों से बड़ा (दिवः) प्रकाशमान पदार्थों के (मूर्द्धा) ऊपर विराजमान (पृथिव्याः) प्रकाश रहित पृथिवी आदि लोकों के (पतिः) पालन का हेतु होकर (अपाम्) जलों के (रेतांसि) वीर्यों को (जिन्वति) प्राप्त करता है॥२॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो जगदीश्वर प्रकाश वा अप्रकाशरूप दो प्रकार का जगत् अर्थात् प्रकाशवान् सूर्य आदि और प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोकों को रच कर पालन करके प्राणों में बल को धारण करता है तथा जो भौतिक अग्नि पृथिवी आदि जगत् के पालन का हेतु होकर बिजुली जाठर आदि रूप से प्राण वा जलों के वीर्यों को उत्पन्न करता है॥१२॥
विषय
शिखर पर
पदार्थ
गत मन्त्र के ‘अध्वर व मन्त्र हमें कैसा बनाएँगे ?’ इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में देखिए— १. ( अग्निः मूर्द्धा ) = यह निरन्तर आगे बढ़नेवाला होता है, अतः उन्नत होते हुए सर्वोच्च स्थान में पहुँचता है।
२. ( ककुत् दिवः ) = यह ज्ञान के शिखर पर पहुँचता है। प्रतिदिन मन्त्रों का उच्चारण व दर्शन करनेवाला व्यक्ति ज्ञानी तो बनेगा ही।
३. ( अयम् ) = यह ( पृथिव्याः ) = इस शरीर का ( पतिः ) = स्वामी होता है। यह शरीररूप रथ पूर्णरूप से इसके वश में होता है। इस शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों का ठीक विकास होने से इसका शरीर ‘पृथिवी’ इस अन्वर्थक नामवाला ही होता है [ प्रथ विस्तारे ]।
४. यह आगे बढ़ा [ अग्नि ], शिखर तक पहुँचा [ मूर्द्धा ], ज्ञानी बना [ दिवः ककुत् ], सुन्दर शरीरवाला बना [ पतिः पृथिव्या अयम् ]। इन सब बातों का रहस्य इसमें है कि ( अपाम् ) = जल-सम्बन्धी जो ( रेतांसि ) = रेतस् ‘शक्तियाँ’ हैं—वीर्यकण हैं, उनको यह ( जिन्वति ) = अपने अन्दर बढ़ाता [ promote करता ] है। वीर्यकणों का अपने अन्दर वर्धन करता है, अपने शरीर में ही उनकी ऊर्ध्वगति करता है। यह ऊर्ध्वगति ही इनकी वृद्धि है। इनकी रक्षा से ‘अध्वरम्’ की भावना बढ़ती है और मन्त्रों का तत्त्वार्थ दर्शन भी होता है।
५. इस प्रकार वीर्य की ऊर्ध्वगति से अत्यन्त तेजस्वी बना हुआ यह ‘वि-रूप’ = विशिष्ट रूपवाला होता है। सामान्य मनुष्यों में यह ऐसे चमकता है जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा।
भावार्थ
भावार्थ — हम आगे बढ़ते हुए उन्नति के शिखर पर पहुँचने का निश्चय करें। ऊँचे-से-ऊँचा ज्ञान प्राप्त करें। शरीर को पूर्ण नीरोग रक्खें। इन सब बातों के लिए संयमी बन ऊर्ध्वरेतस् हों।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जो जगदीश्वर प्रकाशस्वरूप व प्रकाशहीन असे दोन प्रकारचे जग अर्थात प्रकाशस्वरूप सूर्य व प्रकाशहीन पृथ्वी इत्यादी गोलांची रचना करून त्यांचे पालन करतो व प्राणशक्तीrला धारण करतो तसेच जो भौतिक अग्नी जगाच्या पालनाचे कारण असून विद्युत व जठराग्नी इत्यादी रूपाने प्राण व जल (वीर्य) इत्यादींनाही उत्पन्न करतो. त्याच्यापासूनच सर्व सुख प्राप्त होते.
इंग्लिश (2)
Meaning
Men should worship God alone, who is the Great and Supreme Lord, who sustains the luminous Sun, and the non-luminous Earth, who knows the formation of the vitality of waters.
Meaning
This Lord of the earth, Agni, who rules on high on top of heaven, constantly refreshes the generative powers of the waters for the earth.
बंगाली (1)
विषय
অথাগ্নিশব্দেনেশ্বরভৌতিকাবুপদিশ্যেতে ॥
এখন পরবর্ত্তী মন্ত্রে অগ্নি শব্দ দ্বারা ঈশ্বর ও ভৌতিক অগ্নির প্রকাশ করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ- (অয়ম্) এই কার্য্য কারণ হইতে প্রত্যক্ষ (ককুৎ) সর্ববৃহৎ (মূর্দ্ধা) সর্বোপরি বিরাজমান (অগ্নিঃ) জগদীশ্বর (দিবঃ) প্রকাশমান সূর্য্যাদি লোক এবং (পৃথিব্যাঃ) প্রকাশরহিত পৃথিবী ইত্যাদি লোকান্তরের (পতিঃ) পালয়িতা (অপাম্) প্রাণিদিগের (রেতাংসি) বীর্য্যের (জিন্বাত) রচনাকে জানেন তাঁহাকেই পূজ্য মানিবে ॥ ১ ॥ (অয়ম্) এই অগ্নি (ককুৎ) সর্ব পদার্থ হইতে বৃহৎ (দিবঃ) প্রকাশমান পদার্থগুলির (মূর্দ্ধা) ঊপর বিরাজমান (পৃথিব্যাঃ) প্রকাশরহিত পৃথিবী ইত্যাদি লোক লোকান্তরের (পতিঃ) পালনের হেতু হইয়া (অপাম্) জলের (রেতাংসি) বীর্য্যকে (জিন্বতি) প্রাপ্ত করে ॥ ২ ॥ ১২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । যে জগদীশ্বর প্রকাশ বা অপ্রকাশরূপ দুই প্রকারের জগৎ অর্থাৎ প্রকাশবান্ সূর্য্য ইত্যাদি এবং প্রকাশ রহিত পৃথিবী ইত্যাদি লোকসমূহের রচনা করিয়া পালন করতঃ প্রাণে বল ধারণ করেন এবং যিনি ভৌতিক অগ্নি পৃথিবী ইত্যাদি জগতের পালনের হেতু হইয়া বিদ্যুৎ জঠরাদি রূপে প্রাণ বা জল সমূহের বীর্যকে উৎপন্ন করেন ॥ ১২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নির্মূ॒র্দ্ধা দি॒বঃ ক॒কুৎপতিঃ॑ পৃথি॒ব্যাऽঅ॒য়ম্ ।
অ॒পাᳬं রেতা॑ᳬंসি জিন্বতি ॥ ১২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নির্মূর্দ্ধেত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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