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यजुर्वेद अध्याय - 3

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  • यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 13
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    124

    उ॒भा वा॑मिन्द्राग्नीऽआहु॒वध्या॑ऽउ॒भा राध॑सः स॒ह मा॑द॒यध्यै॑। उ॒भा दा॒तारा॑वि॒षा र॑यी॒णामु॒भा वाज॑स्य सा॒तये॑ हुवे वाम्॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भा। वा॒म्। इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ऽइती॑न्द्राग्नी। आ॒हु॒वध्या॒ऽइत्या॑ऽहु॒वध्यै॑। उ॒भा। राध॑सः। स॒ह। मा॒द॒यध्यै॑। उ॒भा। दा॒तारौ॑। इ॒षाम्। र॒यी॒णाम्। उ॒भा। वाज॑स्य। सा॒तये॑। हु॒वे। वा॒म् ॥१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभा वामिन्द्राग्नीऽआहुवध्याऽउभा राधसः सह मादयध्यै । उभा दाताराविषाँ रयीणामुभा वाजस्य सातये हुवे वाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उभा। वाम्। इन्द्राग्नीऽइतीन्द्राग्नी। आहुवध्याऽइत्याऽहुवध्यै। उभा। राधसः। सह। मादयध्यै। उभा। दातारौ। इषाम्। रयीणाम्। उभा। वाजस्य। सातये। हुवे। वाम्॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 3; मन्त्र » 13
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथेश्वरभौतिकावग्निवायू उपदिश्येते॥

    अन्वयः

    अहं यावुभौ दातारौ सुखदानहेतू वर्तेते, ताविन्द्राग्नी आहुवध्यै शब्दयितुं हुवे गृह्णामि राधसो भोगेन सह मादयध्यै मोदयितुमुभौ वां तौ हुव इषां रयीणां वाजस्य च सातय उभौ वां तौ हुवे गृह्णामि॥१३॥

    पदार्थः

    (उभा) द्वौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुग् [अष्टा॰७.१.३९] इत्याकारादेशः। (वाम्) तौ। अत्र व्यत्ययः (इन्द्राग्नी) इन्द्रो वायुर्विद्युदादिरूपोऽग्निश्च तौ (आहुवध्यै) शब्दयितुमुपदेष्टुं श्रोतुं वा। अत्र ह्वेञित्यस्मात् तुमर्थे सेसे॰ [अष्टा॰३.४.९] इति कध्यै प्रत्ययः। (उभा) उभौ (राधसः) राध्नुवन्ति सम्यङ् निर्वर्तयन्ति सुखानि येभ्यः साधनेभ्यस्तानि धनानि। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं॰२.१०) (सह) परस्परम् (मादयध्यै) मोदयितुम्। अत्र मदी हर्षग्लेपनयोरिति णिजन्ताच्छध्यै प्रत्ययः। (उभा) उभौ (दातारौ) सुखदानहेतू (इषाम्) सर्वैर्जनैर्यानीष्यन्ते तेषाम् (रयीणाम्) परमोत्तमानां चक्रवर्तिराज्यादिधनानाम् (उभा) द्वौ (वाजस्य) अत्युत्तमस्यान्नस्य। वाज इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं॰२.७) (सातये) संभोगाय (हुवे) गृह्णामि। अत्र हु दानादनयोरित्यस्माद् बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७५] इति शपो लुक्, व्यत्ययेनात्मनेपदं च। (वाम्) तौ। अत्रापि पूर्ववद् व्यत्ययः। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.१२) व्याख्यातः॥१३॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। ये मनुष्या ईश्वरसृष्टौ सुष्ठु किलाग्निवायुगुणान् विदित्वैतौ संप्रयुज्य कार्याणि साधयन्ति, ते सर्वाणि सार्वभौमराज्यादिधनानि प्राप्य नित्यं मोदन्ते नेतर इति॥१३॥

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    विषयः

    अथेश्वरभौतिकावग्निवायू उपदिश्येते ॥

    सपदार्थान्वयः

    अहं यौ [उभा] उभौ द्वौ दातारौ=सुखदानहेतू वर्तेते [वाम्] तौ इन्द्राग्नी इन्द्रो वायुविद्युदादिरूपौऽग्निश्च तौ आहुवध्यै=शब्दयितुम् उपदेष्टुं श्रोतुं वा हुवे= गृह्णामि

    राधसः राघ्नुवन्ति=सम्यङ् निर्वर्तयन्ति सुखानि येभ्यः साधनेभ्यस्तानि धनानि भोगेन सह मादयध्यै=मोदयितुम्[उभा ] =उभौ वां तौ हुवे गृह्णामि ।

    इषां सर्वैर्जनैर्यानीष्यन्ते तेषां रयीणां परमोत्तमानां चक्रवर्तिराज्यादिधनानां वाजस्य अत्युत्तमस्यान्नस्य च सातये सम्भोगाय [उभा]=उभौ द्वौ  वां=तौ  हुवे=गृह्णामि ॥ ३ । १३ ।।

    [अहं.........इन्द्राग्नी.......हुवे,......इषां  रयीणां....... सातये........वां=तौ  हुवे=गृह्णामि ]

    पदार्थः

    ( उभा) द्वौ । अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः (वाम्) तौ । अत्र व्यत्ययः (इन्द्राग्नी) इन्द्रो वायुर्विद्युदादिरूपोऽग्निश्च तौ (आहुवध्यै) शब्दयितुमुपदेष्टुं श्रोतुं वा । अत्र ह्वेञित्यस्मात्तुमर्थे सेसे० इति कध्यै प्रत्ययः ( उभा) उभौ (राधसः) राध्नुवन्ति=सम्यङ् निर्वर्तयन्ति सुखानि येभ्य: साधनेभ्यस्तानि धनानि । राध इति धननामसु पठितम् ॥ निघं० २।१०॥ (सह) परस्परम् (मादयध्यै) मोदयितुम् । अत्र मदी हर्षग्लेपनयोरिति णिजन्ताच्छध्यै प्रत्ययः ( उभा) उभौ (दातारौ) सुखदानहेतू ( इषान्) सर्वैर्जनैर्यानीष्यन्ते तेषाम् (रयीणाम्) परमोत्तमानां चक्रवर्तिराज्यादिधनानाम् ( उभा) द्वौ (वाजस्य) अत्युत्तमस्यान्नस्य । वाज इत्यन्ननामसु पठितम् ॥ निघं० २ ।७ ॥  (सातये) संभोगाय (हुवे) गृह्णामि । अत्र हु दानादनयोरित्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यत्ययेनात्मनेपदं च (वाम्) तौ । अत्रापि पूर्ववद्व्यत्ययः ॥ अयं मंत्रः शत० २ ।३ ।२ ।१२ व्याख्यातः ॥ १३ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः ।। ये मनुष्या ईश्वरसृष्टौ सुष्ठु किलाग्निवायुगुणान् विदित्वैतौ संप्रयुज्य कार्याणि साधयन्ति, ते सर्वाणि सार्वभौमराज्यधनानि प्राप्य नित्यं मोदन्ते; नेतर इति ।। ३ । १३ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    भा० पदार्थः- रयीणाम् = सार्वभौम राज्यधनानाम् ।।

    विशेषः

    भरद्वाजः । इन्द्राग्नीः=ईश्वरो वायुविद्युदादिरूपोऽग्रिः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में भौतिक अग्नि और वायु का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    मैं जो (उभा) दो (दातारौ) सुख देने के हेतु (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं (वाम्) उनको (आहुवध्यै) गुण जानने के लिये (हुवे) ग्रहण करता हूँ (राधसः) उत्तम सुखयुक्त राज्यादि धनों के भोग के (सह) साथ (मादयध्यै) आनन्द के लिये (वाम्) उन (उभा) दोनों को (हुवे) ग्रहण करता हूँ तथा (इषाम्) सब को इष्ट (रयीणाम्) अत्यन्त उत्तम चक्रवर्ति राज्य आदि धन वा (वाजस्य) अत्यन्त उत्तम अन्न के (सातये) अच्छे प्रकार भोग करने के लिये (उभा) उन दोनों को (हुवे) ग्रहण करता हूँ॥१३॥

    भावार्थ

    (इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है।) जो मनुष्य ईश्वर की सृष्टि में अग्नि और वायु के गुणों को जान कर कार्यों में संप्रयुक्त करके अपने-अपने कार्यों को सिद्ध करते हैं, वे सब भूगोल के राज्य आदि धनों को प्राप्त होकर आनन्द करते हैं, इन से भिन्न मनुष्य नहीं॥१३॥

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    विषय

    पति-पत्नी के मौलिक गुण

    पदार्थ

    गत मन्त्र की भावनावाले व्यक्ति जब ‘पति-पत्नी’ बनते हैं तब उनके अन्दर जो बातें विशेषरूप से दिखती हैं, वे ये हैं— १. पति इन्द्रियों का अधिष्ठाता—जितेन्द्रिय होने से बल-सम्पन्न होकर ‘इन्द्र’ नामवाला होता है। घर की उन्नति का कारण होने से पत्नी को यहाँ ‘अग्नि’ कहा गया है। पति ‘बल’ का प्रतीक है तो पत्नी ‘प्रकाश’ की। ( इन्द्राग्नी ) = हे पति-पत्नी! ( वाम् उभा ) = आप दोनों ( आहुवध्या ) = प्रभु को पुकारनेवाले [ भवतम् ] होते हो। उत्तम जीवनवाले पति-पत्नी मिलकर प्रभु की उपासना करते हैं। यह प्रभुभक्ति ही इनके सारे जीवन-सौन्दर्य का कारण है। 

    २. ( उभा ) = दोनों ही ( राधसः ) = सफलता व सम्पत्ति का ( सह ) = मिलकर ( मादयध्यै ) = आनन्द लेनेवाले [ भवतम् ] होते हो। घर में होनेवाली सफलताओं व सम्पत्तियों को इनमें से कोई एक अपनी महिमा की सूचक नहीं मानता। ‘इनको प्राप्त करने में दोनों का भाग है’, ऐसा वे समझते हैं। यह समझना ही उन्हें परस्पर प्रेमवाला बनाये रखता है और वे एक-दूसरे को छोटा नहीं समझते। 

    ३. ( उभा ) = दोनों ( इषाम् ) = अन्नों के व ( रयीणाम् ) = धनों के ( दातारौ ) = देनेवाले होते हैं। इनके घर से कोई याचक कभी निराश नहीं लौटता। 

    ४. इस प्रकार [ क ] प्रभु के पुजारी [ ख ] मिलकर धन-सम्पत्ति का आनन्द उठानेवाले [ ग ] अन्नों व धनों के देनेवाले ये पति-पत्नी ( उभा ) = दोनों ( वाजस्य ) = शक्ति की ( सातये ) = प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं। इनका जीवन विषय-वासनाओंवाला न होने से इनकी शक्ति स्थिर रहती है। विषय ही इन्द्रिय-शक्तियों को जीर्ण करते हैं। अपने अन्दर शक्ति को भरनेवाले ये सचमुच ‘भरद्वाज’ बनते हैं, प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि होते हैं।

    ५. इस प्रकार पति-पत्नी के चार मुख्य गुण हैं— ‘प्रभु-भजन’, ‘सम्पत्ति का सम्पादन’, ‘दान’ तथा ‘शक्तिसम्पन्न बने रहना’। इन गुणोंवाले पति-पत्नी का जीवन सचमुच सुन्दर होता है। मन्त्र का ऋषि कहता है कि ( वाम् हुवे ) = आप दोनों की मैं स्पर्धा करता हूँ [ ह्वेञ् = स्पर्धायाम् ]। मैं भी अपने जीवन को ऐसा बनाने का प्रयत्न करता हूँ, प्रभु से ऐसे ही जीवन के लिए प्रार्थना करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — पति-पत्नी के जीवन ‘प्रभु-पूजन, धन-सम्पादन, दानशीलता व शक्ति’ वाले हों। ऐसे ही जीवन अनुकरणीय व आकांक्षणीय हैं।

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    विषय

    अब ईश्वर तथा भौतिक अग्नि और वायु का उपदेश किया जाता है ।

    भाषार्थ

    मैं जो (उभा) दोनों (दातारौ) सुख देने वाले हैं (वाम्) उन दोनों (इन्दाग्नी) वायु और विद्युत् आदि अग्नि को (आहुवध्यै) उपदेश करने वा उसके गुणों को सुनने के लिये (हुवे) ग्रहण करता हूँ ।

      तथा (राधसः) सब सुखों को सिद्ध करने वाले धनों के उपभोग से (सह) आपस में (मादयध्यै) आनन्द करने के लिये [उभा] दोनों (वाम् ) उन वायु अग्नियों को (हुवे) ग्रहण करता हूँ।

      (इषाम्) सब जनों से कमनीय (रयीणाम्) अति उत्तम चक्रवर्ती राज्य आदि धन और (वाजस्य) अत्युत्तम अन्न के (सातये) उपभोग के लिये (उभा) दोनों (वाम्) उन वायु-अग्नियों को (हुवे ) ग्रहण करता हूँ ।। ३ । १३ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है ।।

     जो मनुष्य ईश्वर की सृष्टि में उत्तम रीति से निश्चय पूर्वक अग्नि और वायु के गुणों को जानकर और इनका ठीक-ठीक प्रयोग करके कार्य को सिद्ध करते हैं, वे सब सार्वभौम राज्यधनों को प्राप्त कर सदा आनन्द में रहते हैं, दूसरे नहीं ॥ ३ ॥ १३ ॥

    प्रमाणार्थ

    (उभा) उभौ । इस मन्त्र में सर्वत्र 'उभा' पद पर 'सुपां सुलुक्०' [अ० ७ । १ । ३९] सूत्र से आकार आदेश है। (वाम्) तो यहाँ व्यत्यय हैं। (आहुवध्यै) यह पद 'हेञ्' धातु से तुमर्थे से से० [अ० ३ ।४ ] से 'कध्यै' प्रत्यय करने पर सिद्ध है। (राधसः) 'राध:' शब्द निघं० ( २ । १० ) में धन-नामों में पढ़ा है। (मादयध्यै) यह पद 'हर्ष' और 'ग्लेपन' अर्थ वाली णिजन्त 'मद' धातु से 'राध्यै' प्रत्यय करने पर सिद्ध है। (वाजस्य) 'वाज' शब्द निघं० ( २ । ७) में अन्न नामों में पढ़ा है। (हुवे) यह रूप 'दान' और 'अदन' (भक्षण) अर्थ वाली 'हु' धातु से 'बहुलं छन्दसि' [अ० २ ।४।७३ ] से 'शप' का लुक् होने से सिद्ध है तथा यहाँ व्यत्यय से आत्मनेपद भी है। (वाम्) तौ । यहाँ व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ ।३ ।२ ।१२ ) में की गई है ।। ३ । १३ ।।

    भाष्यसार

    १. वायु और अग्नि-- ईश्वर की सृष्टि में वायु और अग्नि सुख के देने वाले हैं, इसलिए वायुविद्या और अग्निविद्या का उपदेश और श्रवण करें। इनसे सब सुखों को सिद्ध करने वाले धनों के उपभोग से आनन्दित रहने के लिये इन्हें ग्रहण करें, सब जनों के प्रिय अत्युत्तम चक्रवर्ती राज्य तथा अन्न की प्राप्ति के लिये भी वायुविद्या और अग्निविद्या को सीखें |

    . ईश्वर–इन्द्र और अग्नि रूप ईश्वर सब सुखों का दाता है, उपदेश एवं श्रवण करने योग्य है, सब सुखों के साधनों के प्रदान से आनन्दित करने वाला है, सब को प्यारे लगने वाले सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य आदि धनों तथा उतम अन्नों को प्राप्त कराने वाला है।

    ३. अलङ्कार--यहाँश्लेष अलङ्कार से इन्द्र और अग्नि शब्द से भौतिक वायु तथा भौतिक अग्नि और ईश्वर का ग्रहण किया जाता है ।

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    विषय

    विद्युत् अग्नि तथा राजा और सेना नायक दोनों का वर्णन।

    भावार्थ

    -हे ( इन्द्र-अग्नी ) इन्द्र और अग्ने ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! हे (अग्ने) शत्रुसंतापक अग्ने !अग्रणी ! सेना नायक ! (वाम् उभा ) तुम दोनों को ( आहुवध्यै ) अपने पास बुलाने के लिये और ( उभा ) दोनों को ( राधसः ) नाना ऐश्वर्य के द्वारा ( सह ) एकत्र ( मादयध्यै ) आनन्द लाभ करने के लिये ( हुवे ) मैं बुलाता हूं। ( उभा ) तुम दोनों (इषाम्) अन्नों और ( रयीणाम् ) ऐश्वर्यो के ( दातारौ ) प्रदान करने वाले हैं । ( उभौ आप दोनों को ( वाजस्य ) उत्तम अन्न के ( सातये ) प्राप्ति और भोग के लिये ( वाम् ) तुम दोनों के ( हुवे ) बुलाता हूं। दोनों को आदरपूर्वक स्वीकार करता हूं । विद्युत् अग्नि के पक्ष में- परस्पर के बुलाने, वार्तालाप, दूरस्थ देश से सन्देश आदि देने और धनैश्वर्य के परस्पर मिलकर भोग करने के लिये समस्त कामनाओं और ऐश्वर्यों के प्रदाता वीर्यवान्, या बलयुक्त कार्यों की सिद्धि के लिये अग्नि और विद्युत् शक्तियों को मैं ( हुवे ) स्वयं अपने वश करता हूं ॥ शत० २ | ३ | ४ | १२ ॥ अथवा, इन्द्र = सूर्य और अग्नि ॥ 

    टिप्पणी

    १३ – ० दातारा इषां' इति काण्व० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः । इन्द्राग्नी देवते । स्वराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे ईश्वराच्या सृष्टीत अग्नी व वायूच्या गुणांना जाणतात व त्यांना उपयोगात आणून आपापले काम सिद्ध करतात त्यांना सर्व भूगोलाचे राज्य वगैरे धन प्राप्त होते व ती आनंदात राहतात. जी माणसे हे जाणत नाहीत ती हे कार्य सिद्ध करू शकत नाहीत.

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    विषय

    पुढील मंत्रात अग्नी आणि वायूविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - जे (उभा) दोघे (दातारौ) सुख देणारे आहेत त्या (इन्द्राग्नी वायु आणि अग्नी (वायू) या दोन्हींना मी (आठुवध्यै) त्यांच्यातील गुणांचा शोध घेण्यासाठी (हुवे) ग्रहण करतो. (राधस:) उत्तम सुखादींनी युक्त अशा राज्यादी धनांचा उपयोग घेण्यासाठी (सह) त्यांच्या सह (माददध्यै) आनंद प्राप्त करण्यासाठी (वाम्) त्या दोन्हीना (वायू आणि अग्नीला) (हूले) ग्रहण करतो. तसेच (इषाम्) सर्वांना इष्ट वाटणार्‍या (रयीणाम्) अत्यंत उत्तम अशा चक्रवर्ती राज्यादी धनाचा व (वाअस्य) उत्तम अन्नाचा (सातये) उपभोग घेण्यासाठी (उभौ) त्या दोन्हीचा (हुवे) मी ग्रहण करतो. (वायू आणि अग्नी या दोन्हीमधील अदृष्ट व अज्ञात गुणांचा शोध करून त्या द्वारे उत्तम राजा, अन्नादी धनाची प्राप्ती करतो) ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जी माणसे ईश्‍वरनिर्मित या सृष्टीतील अग्नी आणि वायू यांच्यातील गुणांचे ज्ञान प्राप्त करून योग्य कार्यात त्यांचा वापर करून कार्यसिद्धी करतात, तीच माणसें पृथ्वीवर राज्य आदी धन प्राप्त करून आनंदात राहतात, असे न करणारे जे आहेत, त्यांच्या हाती काही लागत नाही. ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Oh Electricity and Fire, I invoke Ye both for knowing your attributes, for enjoying the pleasures of riches. Ye both are the givers of desired sovereignty. Ye twain I invoke for consuming excellent food.

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    Meaning

    Indra (wind and electric energy) and Agni (heat and fire), givers of energy, food, power and wealth, I call upon you both and invoke you for the gift of knowledge, energy, and food for joy and well-being.

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    Translation

    О resplendent Lord and O adorable Lord, I invoke both of you for performing the sacrifice and for feasting together on the offerings. Both of you are bestowers of food and riches; I invoke both of you, to gain vigour. (1)

    Notes

    Ahuvadhyai, in the sense of आहयामि; I invoke you. Vajasya sataye, to gain hindi, i. e. vigour, or food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথেশ্বরভৌতিকাবগ্নিবায়ূ উপদিশ্যেতে ॥
    পরবর্ত্তী মন্ত্রে ভৌতিক অগ্নি ও বায়ুর উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে (উভা) দুই (দাতারৌ) সুখ দেওয়ার হেতু (ইন্দ্রাগ্নী) বায়ু ও অগ্নি (বাম্) তাহাদিগকে (আহুবধ্যৈ) গুণ জানিবার জন্য আমি (হুবে) গ্রহণ করি । (রাধসঃ) উত্তম সুখযুক্ত রাজ্যাদি ধনের ভোগ (সহ) সহ (মাদয়ধ্যৈ) আনন্দের জন্য (বাম্) সেই (উভা) উভয়কে (হুবে) গ্রহণ করি এবং (ইষাম্) সকলকে ইষ্ট (রয়ীণাম্) অত্যন্ত উত্তম চক্রবর্তী রাজ্যাদি ধন অথবা (বাজস্য) অত্যন্ত উত্তম অন্নের (সাতয়ে) ভাল প্রকার ভোগ করিবার জন্য (উভৌ) সেই দুইকে (হুবে) গ্রহণ করি ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে মনুষ্যগণ ঈশ্বরের সৃষ্টিতে অগ্নি ও বায়ুর গুণ জ্ঞাত হইয়া কার্য্যে সংপ্রযুক্ত করিয়া নিজ নিজ কার্য্যকে সিদ্ধি করে তাহারা সকলে ভূগোলের রাজ্যাদি ধন প্রাপ্ত হইয়া আনন্দ করে, অন্য মনুষ্য নহে ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒ভা বা॑মিন্দ্রাগ্নীऽআহু॒বধ্যা॑ऽউ॒ভা রাধ॑সঃ স॒হ মা॑দ॒য়ধ্যৈ॑ ।
    উ॒ভা দা॒তারা॑বি॒ষাᳬं র॑য়ী॒ণামু॒ভা বাজ॑স্য সা॒তয়ে॑ হুবে বাম্ ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উভা বামিন্দ্রাগ্নী ইত্যস্য ভরদ্বাজ ঋষিঃ । ইন্দ্রাগ্নী দেবতে । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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