यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 17
ऋषि: - अवत्सार ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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त॒नू॒पाऽअ॑ग्नेऽसि त॒न्वं मे पाह्यायु॑र्दाऽअ॑ग्ने॒ऽस्यायु॑र्मे देहि वर्चो॒दाऽअ॑ग्नेऽसि॒ वर्चो॑ मे देहि। अग्ने॒ यन्मे॑ त॒न्वाऽऊ॒नं तन्म॒ऽआपृ॑ण॥१७॥
स्वर सहित पद पाठत॒नू॒पा इति॑ तनू॒ऽपाः। अ॒ग्ने॒। अ॒सि॒। त॒न्व᳖म्। मे॒। पा॒हि॒। आ॒यु॒र्दा इत्यायुः॒दाः। अ॒ग्ने॒। अ॒सि॒। आयुः॑। मे॒। दे॒हि॒। व॒र्च्चो॒दा इति॑ वर्च्चः॒ऽदाः। अ॒ग्ने॒। अ॒सि॒। वर्च्चः॑। मे॒। दे॒हि॒। अग्ने॑। यत्। मे॒। त॒न्वाः᳖ ऊ॒नम्। तत्। मे॒। आ। पृ॒ण॒ ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
तनूपाऽअग्नेसि तन्वम्मे पाह्यायुर्दा अग्ने स्यायुर्मे देहि वर्चादाऽअग्ने सि वर्चा मे देहि । अग्ने यन्मे तन्वाऽऊनन्तन्मे आ पृण ॥
स्वर रहित पद पाठ
तनूपा इति तनूऽपाः। अग्ने। असि। तन्वम्। मे। पाहि। आयुर्दा इत्यायुःदाः। अग्ने। असि। आयुः। मे। देहि। वर्च्चोदा इति वर्च्चःऽदाः। अग्ने। असि। वर्च्चः। मे। देहि। अग्ने। यत्। मे। तन्वाः ऊनम्। तत्। मे। आ। पृण॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथैश्वरभौतिकौ किं कुरुत इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे अग्ने जगदीश्वर! यद्यस्मात् त्वं तनूपा असि, तत् तस्मान्मे मम तन्वं पाहि। हे अग्ने! यद्यस्मात् त्वमायुर्दा असि, तत् तस्मान्मे मह्यं पूर्णमायुर्देहि। हे अग्ने! यद्यस्मात् त्वं वर्च्चोदा असि, तत् तस्मान्मे मह्यं वर्चः पूर्णविद्यां देहि। हे अग्ने! मे मम तन्वा यद्यावदूनं बुद्धिबलशौर्यादिकमपर्याप्तमस्ति तत् तावदापृण समन्तात् प्रपूरयेत्येकः॥१७॥ अयमग्निर्यद्यस्मात् तनूपा अस्ति, तत् तस्मान्मे मम जाठररूपेण तन्वं पाति। यद्यस्मादयमग्निरायुर्दा आयुर्निमित्तमस्ति, तत् तस्मान्मे मह्यमायुर्ददाति। यद्यस्मादयमग्निर्वर्च्चोदा अस्ति, तत् तस्माद् वर्च्चो दीप्तिं ददाति। अयमग्निर्यद्यावन्मे मम तन्वा ऊनमपर्याप्तं तत् तावत् समन्तात् प्रपूरयतीति द्वितीयः॥१७॥
पदार्थः
(तनूपाः) यस्तनूः सर्वपदार्थदेहान् पाति रक्षति स जगदीश्वरः, पालनहेतुर्भौतिको वा। (अग्ने) सर्वाभिरक्षकेश्वर, रक्षाहेतुर्भौतिको वा। (असि) अस्ति वा। अत्र सर्वत्र पक्षे व्यत्ययः। (तन्वम्) शरीरम्। अत्र वाच्छन्दसि [अष्टा॰६.१.१०६] इत्यमिपूर्व इत्यत्रानुवर्तनात् पूर्वरूपादेशो न भवति। (मे) मम (पाहि) पाति वा (आयुर्दाः) आयुःप्रदः (असि) भवति वा (आयुः) जीवनम् (मे) मह्यम् (देहि) ददाति वा (वर्च्चोदाः) यो वर्च्चो विज्ञानं ददातीति तत्प्राप्तिहेतुर्वा (अग्ने) सर्वविद्यामयेश्वर विद्याहेतुर्वा (असि) भवति वा (वर्च्चः) विद्याप्राप्तिं दीप्तिं वा (मे) मह्यम् (देहि) ददाति वा (अग्ने) कामानां प्रपूरकेश्वर, कामपूर्तिहेतुर्वा (यत्) यावद्यस्माद्वा (मे) मम (तन्वाः) अन्तःकरणाख्यस्य बाह्यस्य शरीरस्य वा (ऊनम्) अपर्याप्तम् (तत्) तावत् तस्माद्वा (मे) मम (आ) समन्तात् (पृण) पूरयति वा। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.१९-२०) व्याख्यातः॥१७॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। परमेश्वरेणास्मिञ्जगति यतः सर्वेभ्यः प्राणिभ्यः शरीरायुर्निमित्तविद्याप्रकाश-सर्वाङ्गपूर्तिर्निर्मिता, तस्मात् सर्वे पदार्थाः स्वस्वरूपं धारयन्ति। तथैवास्य सृष्टौ प्रकाशादिगुणवत्त्वादयमग्निरेतेषां मुख्यः साधकोऽस्तीति सर्वैर्वेदितव्यम्॥१७॥
हिन्दी (1)
विषय
अब ईश्वर और भौतिक अग्नि क्या करते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे (अग्ने) जगदीश्वर! (यत्) जिस कारण आप (तनूपाः) सब मूर्तिमान् पदार्थों के शरीरों की रक्षा करने वाले (असि) हैं इससे आप (मे) मेरे (तन्वम्) शरीर की (पाहि) रक्षा कीजिये। हे (अग्ने) परमेश्वर! आप (आयुर्दाः) सब को आयु के देने वाले (असि) हैं, वैसे (मे) मेरे लिये (आयुः) पूर्ण आयु अर्थात् सौ वर्ष तक जीवन (देहि) दीजिये। हे (अग्ने) सर्वविद्यामय ईश्वर! जैसे आप (वर्च्चोदाः) सब मनुष्यों को विज्ञान देने वाले (असि) हैं, वैसे (मे) मेरे लिये भी ठीक-ठीक गुण ज्ञानपूर्वक (वर्च्चः) पूर्ण विद्या को (देहि) दीजिये। हे (अग्ने) सब कामों को पूरण करने वाले परमेश्वर! (मे) मेरे (तन्वाः) शरीर में (यत्) जितना (ऊनम्) बुद्धि बल और शौर्य आदि गुण कर्म हैं (तत्) उतना अङ्ग (मे) मेरा (आपृण) अच्छे प्रकार पूरण कीजिये॥१॥१७॥ (अग्ने) यह भौतिक अग्नि (यत्) जैसे (तनूपाः) पदार्थों की रक्षा का हेतु (असि) है, वैसे जाठराग्नि रूप से (मे) मेरे (तन्वम्) शरीर की (पाहि) रक्षा करता है (अग्ने) जैसे ज्ञान का निमित्त यह अग्नि (आयुर्दाः) सब के जीवन का हेतु (असि) है वैसे (मे) मेरे लिये भी (आयुः) जीवन के हेतु क्षुधा आदि गुणों को (देहि) देता है। (अग्ने) यह अग्नि जैसे (वर्च्चोदाः) विज्ञानप्राप्ति का हेतु (असि) है, वैसे (मे) मेरे लिये भी (वर्च्चः) विद्याप्राप्ति के निमित्त बुद्धिबलादि को (देहि) देता है तथा (अग्ने) जो कामना के पूरण करने में हेतु भौतिक अग्नि है, वह (यत्) जितना (मे) मेरे (तन्वाः) शरीर में बुद्धि आदि सामर्थ्य (ऊनम्) कम है (तत्) उतना गुण (आपृण) पूरण करता है॥२॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस कारण परमेश्वर ने इस संसार में सब प्राणियों के लिये शरीर के आयुनिमित्त विद्या का प्रकाश और सब अङ्गों की पूर्णता रची है, इसी से सब पदार्थ अपने-अपने स्वरूप को धारण करते हैं। इसी प्रकार परमेश्वर की सृष्टि में प्रकाश आदि गुणवान् होने से यह अग्नि भी सब पदार्थों के पालन का मुख्य साधन है॥१७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या कारणामुळे परमेश्वराने या जगात सर्व प्राण्यांना सर्वांगपूर्ण शरीर व आयुष्य देऊन त्यासंबंधी ज्ञानही दिलेले आहे. त्यामुळेच सर्व पदार्थ आपापले स्वरूप धारण करतात तसेच परमेश्वराने या सृष्टीत प्रकाशस्वरूप अग्नीलाही सर्व पदार्थांचे पालन करण्याचे साधन म्हणून निर्माण केलेले आहे.
English (2)
Meaning
Thou. God, art our bodies’ protector. Protect Thou my body. Giver of longevity art Thou, O God, Give me longevity. Giver of splendour art Thou, O God, Give me splendour. Remove, O God, all the defects of my body and soul.
Meaning
Agni, you are protector of the body with health and nourishment. Protect my body. You are the giver of life. Give me full life. You are the giver of lustre and glory. Give me lustre and glory. Whatever is short and wanting in me, that, I pray, fulfil and complete and perfect.
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