यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 29
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - बृहस्पतिर्देवता
छन्दः - गायत्री,
स्वरः - षड्जः
102
यो रे॒वान् योऽअ॑मीव॒हा व॑सु॒वित् पु॑ष्टि॒वर्द्ध॑नः। स नः॑ सिषक्तु॒ यस्तु॒रः॥२९॥
स्वर सहित पद पाठयः। रे॒वान्। यः। अ॒मी॒व॒हेत्य॑मीऽव॒हा। व॒सु॒विदिति॑ वसु॒ऽवित्। पु॒ष्टि॒वर्द्ध॑न॒ इति॑ पुष्टि॒ऽवर्द्ध॑नः। सः। नः॒। सि॒ष॒क्त्विति सिषक्तुः। यः। तु॒रः ॥२९॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रेवान्यो अमीवहा वसुवित्पुष्टिवर्धनः । स नः सिषक्तु यस्तुरः ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। रेवान्। यः। अमीवहेत्यमीऽवहा। वसुविदिति वसुऽवित्। पुष्टिवर्द्धन इति पुष्टिऽवर्द्धनः। सः। नः। सिषक्त्विति सिषक्तुः। यः। तुरः॥२९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यो रेवानमीवहा वसुवित् पुष्टिवर्द्धनस्तुरो ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरोऽस्ति, स नोऽस्मान् शुभैर्गुणैः कर्मभिश्च सह सिषक्तु संयोजयतु॥२९॥
पदार्थः
(यः) ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरः (रेवान्) विद्याधनवान्। अत्र रयिशब्दान्मतुप्। छन्दसीरः (अष्टा॰८.२.१५) इति मकारस्थाने वकारादेशः। रयेर्मतौ सम्प्रसारणं बहुलं वक्तव्यम् (अष्टा॰६.१.३७) इति वार्तिकेन यकारस्थाने सम्प्रसारणादेशश्च। (यः) महान् (अमीवहा) योऽमावानविद्यादिरोगान् हन्ति सः (वसुवित्) यो वसूनि सर्वाणि वस्तूनि यथावद् वेत्ति वेदयति वा सः (पुष्टिवर्द्धनः) पुष्टिं शरीरात्मबलं धातुसाम्यं च वर्द्धयतीति (सः) परमात्मा (नः) अस्मान् (सिषक्तु) संयोजयतु। षच समवय इत्यस्माच्छपः स्थाने बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७६] इति श्लुर्बहुलं छन्दसि [अष्टा॰७.४.७८] इत्यभ्यासस्येकारादेशश्च। (यः) उक्तो वक्ष्यमाणश्च (तुरः) शीघ्रकारी। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.३५) व्याख्यातः॥२९॥
भावार्थः
यदिदं विश्वस्मिन् धनमस्ति तदिदं सर्वं जगदीश्वरस्यैव वर्तते। मनुष्यैर्यादृशी प्रार्थनेश्वरस्य क्रियते, स्वैरपि तादृश एव पुरुषार्थः कर्तव्यः। यथा नैव रेवानितीश्वरस्य विशेषणमुक्त्त्वा श्रुत्वा च कश्चित्कृतकृत्यो भवति, किं तर्हि स्वेनापि परमपुरुषार्थेन धनवृद्धिरक्षणे सततं कार्ये। यथा सोऽमीवहास्ति, तथैव मनुष्यैरपि रोगा नित्यं हन्तव्याः। यथा स वसुविदस्ति, तथैव यथाशक्ति पदार्थविद्या कार्या। यथा स सर्वेषां पुष्टिवर्द्धनस्तथैव सर्वेषां नित्यं पुष्टिर्वर्द्धनीया। यथा स शीघ्रकारी तथैवेष्टानि कार्याणि शीघ्रं कर्तव्यानि। यथा तस्य शुभगुणकर्मप्राप्त्यर्था प्रार्थना क्रियते, तथैव सर्वान् मनुष्यान् परमप्रयत्नेन शुभगुणकर्माचरणेन सह वर्त्तमानान् नित्यं संयोजयत्विति॥२९॥
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
यो महान् रेवान् विद्याधनवान् अमीवहा योऽमीवानविद्यादिरोगान् हन्ति स वसुवित् यो वसूनि=सर्वाणि वस्तूनि यथावद्वेत्ति वेदयति वा स पुष्टिवर्द्धनः पुष्टिं=शरीरात्मबलं धातुसाम्यं च वर्द्धयतीति [यः] उक्तो वक्ष्यमाणश्च तुरः शीघ्रकारी [यः]=ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरोऽस्ति सः परमात्मा नः=अस्मान् शुभैर्गुणैः कर्मभिश्च सह सिषक्तु=संयोजयतु ॥ ३ ।२९ ॥
[रेवान्]
पदार्थः
(यः) ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरः (रेवान्) विद्याधनवान् । अत्र रविशब्दान्मतुप्। छन्दसीरः ।।अ० ८ । २ । १५ ।। इति मकारस्थाने वकारादेशः । रयेर्मतौ संप्रसारणं बहुलं वक्तव्यम् ॥ अ॰ ६ ।१ ।३७ ।। इति वार्तिकेन यकारस्थाने संप्रसारणादेशश्च (यः) महान् (अमीवहा) योऽमीवानविद्यादिरोगान् हन्ति सः (वसुवित्) यो वसूनि=सर्वाणि वस्तूनि यथावद्वेत्ति वेदयति वा सः (पुष्टिऽवर्द्धनः) पुष्टिं=शरीरात्मबलं धातुसाम्यं च वर्द्धयतीति (सः) परमात्मा (नः) अस्मान् (सिषक्तु) संयोजयतु । षच समवाय इत्यस्माच्छपः स्थाने बहुलं छन्दसीति श्लुर्बहुलं छन्दसीत्यभ्यासस्येकारादेशश्च (यः) उक्तो वक्ष्यमाणश्च (तुरः) शीघ्रकारी ॥ अयं मंत्रः शत० २।३।४ । ३५ व्याख्यातः ॥ २९॥
भावार्थः
यदिदं विश्वस्मिन् धनमस्ति तदिदं सर्वं जगदीश्वरस्यैव वर्तते । मनुष्यैर्यादृशी प्रार्थनेश्वरस्य क्रियते स्वैरपि तादृश एव पुरुषार्थ: कर्त्तव्यः। यथा--नैव रेवानितीश्वरस्य विशेषणमुक्त्वा श्रुत्वा च कश्चित् कृतकृत्यो भवति, किं तर्हि--स्वेनापि परमपुरुषार्थेन धनवृद्धिरक्षणे सततं कार्ये ।
[अमीवहा]
यथा सोऽमीवहाऽस्ति, तथैव मनुष्यैरपि रोगा नित्यं हन्तव्याः ।
[वसुवित्]
यथा स वसुविदस्ति तथैव यथाशक्ति पदार्थविद्या कार्या ।
[पुष्टिवर्द्धनः]
यथा स सर्वेषां पुष्टिवर्द्धनस्तथैव सर्वेषां नित्यं पुष्टिवर्द्धनीया ।
[तुरः]
यथा स शीघ्रकारी तथैवेष्टानि कार्याणि शीघ्रं कर्त्तव्यानि ।
[ ब्रह्मणस्पतिर्जगदीश्वरः......नः=अस्मान् शुभैर्गुणैः कर्मभिश्च सह=सिषक्तु=संयोजयतु ]
यथा तस्य शुभगुणकर्मप्राप्त्यर्था प्रार्थना क्रियते तथैव सर्वान् मनुष्यान् परमप्रयत्नेन शुभगुणकर्माचरणेन सह वर्तमानान् नित्यं संयोजयत्विति ।। ३ । २९ ।।
विशेषः
मेधातिथि: । बृहस्पतिः=ईश्वरः ॥ गायत्री । षड्जः ।।
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(यः) जो वेदशास्त्र का पालन करने (रेवान्) विद्या आदि अनन्त धनवान् (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों को दूर करने वा कराने (वसुवित्) सब वस्तुओं को यथावत् जानने (पुष्टिवर्द्धनः) पुष्टि अर्थात् शरीर वा आत्मा के बल को बढ़ाने और (तुरः) अच्छे कामों में जल्दी प्रवेश करने वा कराने वाला जगदीश्वर है (सः) वह (नः) हम लोगों को उत्तम-उत्तम कर्म वा गुणों के साथ (सिषक्तु) संयुक्त करे॥२९॥
भावार्थ
जो इस संसार में धन है सो सब जगदीश्वर का ही है। मनुष्य लोग जैसी परमेश्वर की प्रार्थना करें, वैसा ही उनको पुरुषार्थ भी करना चाहिये। जैसे विद्या आदि धन वाला परमेश्वर है, ऐसा विशेषण ईश्वर का कह वा सुन कर कोई मनुष्य कृतकृत्य अर्थात् विद्या आदि धन वाला नहीं हो सकता, किन्तु अपने पुरुषार्थ से विद्या आदि धन की वृद्धि वा रक्षा निरन्तर करनी चाहिये। जैसे परमेश्वर अविद्या आदि रोगों को दूर करने वाला है, वैसे मनुष्यों को भी उचित है कि आप भी अविद्या आदि रोगों को निरन्तर दूर करें। जैसे वह वस्तुओं को यथावत् जानता है, वैसे मनुष्यों को भी उचित है कि अपने सामर्थ्य के अनुसार सब पदार्थविद्याओं को यथावत् जानें। जैसे वह सब की पुष्टि को बढ़ाता है, वैसे मनुष्य भी सब के पुष्टि आदि गुणों को निरन्तर बढ़ावें। जैसे वह अच्छे-अच्छे कार्यों को बनाने में शीघ्रता करता है, वैसे मनुष्य भी उत्तम-उत्तम कार्यों को त्वरा से करें और जैसे हम लोग उस परमेश्वर की उत्तम कर्मों के लिये प्रार्थना निरन्तर करते हैं, वैसे परमेश्वर भी हम सब मनुष्यों को उत्तम पुरुषार्थ से उत्तम-उत्तम गुण वा कर्मों के आचरण के साथ निरन्तर संयुक्त करे॥२९॥
विषय
पुष्टि-वर्धन
पदार्थ
१. ( नः ) = हमें ( सः ) = वह ( सिषक्तु ) = प्राप्त हो ( यः ) = जो ( रेवान् ) = ज्ञानरूप धनवाला है, ( यः ) = जो ( अमीवहा ) = रोगों को नष्ट करनेवाला है, ( वसुवित् ) = निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला है। ( पुष्टिवर्धनः ) = वस्तुओं को प्राप्त कराके हमारी पुष्टि को बढ़ानेवाला है और ( यः ) = जो ( तुरः ) = शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला—निरालस्य है अथवा काम-क्रोधादि का संहार करनेवाला है।
२. इस मन्त्र में गत मन्त्र के ब्रह्मणस्पति = वेदज्ञानी आचार्य की विशेषताओं का उल्लेख है। [ क ] वह ज्ञान का धनी होना चाहिए। कम ज्ञानवाला अध्यापक कभी विद्यार्थी के आदर का पात्र नहीं बन पाता। [ ख ] वह रोगों को नष्ट करनेवाला हो, नीरोग हो। बीमार आचार्य भी विद्यार्थी को प्रभावित नहीं कर पाता। [ ग ] सब वसुओं को स्वयं प्राप्त करनेवाला ही विद्यार्थी को इन वसुओं को प्राप्त करानेवाला होता है। [ घ ] आचार्य विद्यार्थी की पुष्टि का वर्धन करनेवाला हो। [ ङ ] और अन्त में वह क्रियाशील व कामादि शत्रुओं का संहारक हो।
३. ऐसे आचार्य को प्राप्त करके विद्यार्थी निरन्तर मेधा की ओर चलनेवाला प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘मेधातिथि’ बनता है। इसकी बुद्धि निरन्तर बढ़ती चलती है।
भावार्थ
भावार्थ — आचार्यों में ये विशेष गुण होने चाहिएँ— वह १. ज्ञानधनी हो, २. नीरोग हो, ३. निवास के लिए सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करानेवाला, ४. पुष्टिवर्धन तथा ५. शीघ्रकारी व कामादि का संहारक हो।
विषय
फिर वह ईश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
(यः) जो महान् (रेवान्) विद्या का धनी है एवं (अमीवहा) अविद्या आदि रोगों का नाशक है तथा (वसुवित्) जो सब वस्तुओं को यथावत् जानता एवं जनाता है और (पुष्टिवर्द्धन:) शारीरिक, आत्मिक बलों और धातुओं की साम्य अवस्था को बढ़ाने वाला और (तुरः) शीघ्रकारी है (यः) वह वेदपति जगदीश्वर है सो (नः) हमें शुभ गुणों से और शुभ कर्मों से (सिषक्तु) संयुक्त करे ।। ३ । २९ ।।
भावार्थ
जो यह विश्व में धन है वह सब ईश्वर का ही है। मनुष्य जैसी ईश्वर से प्रार्थना करें, स्वयं भी वैसा ही पुरुषार्थ करें। जैसा 'रेवान्' इस ईश्वर के विशेषण को कह कर और सुन कर कोई भी कृतार्थ (फलवान्) नहीं होता किन्तु अपने परम पुरुषार्थ से भी धन की वृद्धि और रक्षा नित्य करनी योग्य है।
जैसे वह ईश्वर अमीवहा=रोगहन्ता है वैसे ही मनुष्य भी रोगों का नित्य हनन करें ।
जैसे वह ईश्वर वसुवित् वस्तुओं को जानने वाला है वैसे ही यथाशक्ति पदार्थ विद्या को जानें ।
जैसे वह ईश्वर सबका पुष्टि-वर्द्धक है, वैसे ही मनुष्यों को सबकी पुष्टि नित्य बढ़ानी चाहिये ।
जैसे वह ईश्वर तुर=शीघ्रकारी है वैसे ही सब मनुष्यों को अभीष्ट कार्य शीघ्र करने चाहिये।
जैसे हम उस ईश्वर से शुभ गुण, कर्म प्राप्ति के लिये प्रार्थना करें वैसे ही सब मनुष्यों को परम प्रयत्न से शुभ गुण कर्म आचरण से वह नित्य युक्त करे ।। ३ । २९ ।।
प्रमाणार्थ
(रेवान्) यहाँ 'रवि' शब्द से मतुप् प्रत्यय है तथा 'छन्दसीर:' (अ० ८ । २।१५) सूत्र से मकार को वकार आदेश हो गया है। 'रयेर्मतौ सम्प्रसारणं बहुलं वक्तव्यम्' (अ० ६ । १ । ३७) वार्त्तिक से यकार को सम्प्रसारण हो गया है। (सिषक्तु) यहाँ समवाय अर्थ वाली 'षच्' धातु से परे 'शप्' के स्थान में 'बहुलं छन्दसि' [अ० २ । ४ । ७३] सूत्र से श्लु और 'बहुलं छन्दसि' [अ० ७ । ४ । ७८] सूत्र से अभ्यास का इकार आदेश है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (२ । ३ । ४ । ३५ ) में की गई है ।। ३ । २९ ।।
भाष्यसार
१. ईश्वर कैसा है-- जगदीश्वर महान्, विद्या का धनी, अविद्यादि रोगों का हन्ता, पदार्थ विद्या का वेत्ता तथा ज्ञापक, शारीरिक, आात्मिक बल का तथा धातुसाम्य का वर्द्धक, शीघ्रकारी है।
२. ईश्वर-प्रार्थना--उक्त गुणों वाला ब्रह्मणस्पति=जगदीश्वर हमें शुभ गुण-कर्मों से युक्त करें ।। ३ । २९।।
विषय
राजा का कर्तव्य।
भावार्थ
हे ब्रह्मणस्पते ! ( यः ) जो ( देवान् ) धनवान्, ऐश्वर्यवान्, (अमीवहा ) रोगों और शरीर और मानस दोषों को दूर करने हारा, ( वसुवित् ) धनों, रत्नों का ज्ञाता अथवा ( वसुवित् ) राष्ट्र के वासी समस्त प्रजाजनों का ज्ञाता या प्राप्त करने वाला, उनको अपनाने वाला या वसुवित् वासस्थान नगर ग्रामादि एवं लोक लोकान्तरों का ज्ञाता प्रातकर्त्ता, उन पर वशी, ( पुष्टिवर्धनः ) शरीरों की पुष्टि को बढ़ाने वाला, ईश्वर राजा, वैद्य या हितकारी पुत्र मित्र है और ( यः ) जो (तुः ) शीघ्रकारी, बिना विलम्ब के यथोचित काल में कार्य सम्पादन करता है ( सः ) वह (न: ) हमें (सिषक्तु ) प्राप्त हो, वह हमें संयोजित करे, संगठित करे, वह हमें मिलाये रखने में समर्थ है। धनादिसम्पन्न, रोग, दोष अपराधों को दूर करने में समर्थ प्रजापोषक प्रजारंजक, तुरन्त कार्यकर्त्ता अप्रमादी राजा हो वही प्रजा को संगठित कर सकता है। ईश्वर के प्रति विशेषण स्पष्ट हैं । उव्वट के मत में, उक्त विशेषणों वाला पुत्र हमें प्राप्त हो ॥ शत० २ । ३ । ४ । ३५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मखस्पतिर्मेधातिथिर्वाऋषिः । ब्रह्मणस्पतिर्देवता । गायत्री । षड्जः ।
मराठी (2)
भावार्थ
या जगात जी संपत्ती आहे ती सर्व ईश्वराची आहे. माणसांनी परमेश्वराची जशी प्रार्थना केली पाहिजे. तसाच पुरुषार्थही केला पाहिजे. परमेश्वर विद्या इत्यादींनी ऐश्वर्यवान आहे हे केवळ ऐकून किंवा म्हणून कोणी विद्वान किंवा धनवान होऊ शकत नाही. त्यासाठी पुरुषार्थानेच विद्या इत्यादी धनाची वृद्धी व रक्षण केले पाहिजे. परमेश्वर जसा अविद्या वगैरे रोगांना दूर करणारा आहे तसेच माणसांनीही अविद्या इत्यादी रोगांपासून दूर राहावे. जसा परमेश्वर सर्व पदार्थांना यथायोग्य जाणतो तसेच सर्व माणसांनी सर्व पदार्थविद्या आपल्या सामर्थ्यानुसार यथायोग्यरीत्या जाणावी. जसा तो सर्वांना बलवान करतो तसेच माणसांनी सर्वांना बलवान करावे. जसे तो चांगले कार्य लवकर करतो तसेच सर्व माणसांनी लवकरात लवकर उत्तम कार्य करावे. आपण जसे उत्तम कर्म करताना परमेश्वराची प्रार्थना करतो तसेच परमेश्वरानेही सर्व माणसांना उत्तम पुरुषार्थाने उत्तम गुण व कर्माचे आचरण करण्यासाठी प्रेरित करावे (ही प्रार्थना होय) .
विषय
तो ईश्वर कसा आहे, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - तो परमेश्वर की (य:) जो वेदशास्त्राचा पालनकर्ता व (रेवान्) विद्या आदी धनांनी अनंत समृद्धीमान आहे, (अमीवहा) अविद्या आदी रोगांचा नाश करणारा व करविणारा आहे (वसुवित्) सर्व वस्तूंना यथावत जाणणारा आहे, (पुष्टिवर्द्धन:) पुष्टि म्हणजे शरीर आणि आत्म्याची शक्ती वाढविणारा आहे, तसेच जो (तुर:) शीघ्र उत्तम कर्म करणारा किंवा आम्हांस चांगल्या कर्माकडे शीघ्र प्रवृत्त करणारा आणि उत्तम कर्म करविणारा आहे, (स:) तो परमेश्वर (न:) आम्हांला उत्तम कर्मांशी व सद्गुणांशी (सिषक्तु) संयुक्त करो (आम्हांस सदैव श्रेष्ठ कर्म करण्याची व सद्गुण शिकण्याची प्रेरणा देवो, देत राहो) ॥29॥
भावार्थ
भावार्थ - या जगात जे जेवढे धन आहे, ते सर्व जगदीश्वराचेच आहे. मुनष्यांनी परमेश्वराची प्रार्थना करावी, पण त्या प्रार्थनेप्रमाणे त्यांनी पुरूषार्थ (श्रम आणि प्रयत्न ही) केला पाहिजे. कोणी मनुष्य परमेश्वर विद्यादी स्वामी आहे, असे म्हणून वा इतरांचे ऐकून वा परमेश्वराचे विशेषण सांगून कृतकृत्य होऊ शकत नाही अथवा विद्या आदी धनांचा अधिपती होऊ शकत नाही. प्रत्येकाने स्वपुरूषार्थाने सतत विद्यादी धनांची वृद्धी आणि सुरक्षा केली पाहिजे. ज्याप्रमाणे परमेश्वर अविद्याआदी रोगांचा नाश करणारा आहे, त्याप्रमाणे माणसांनी देखील रोग (दोष) निरंतर दूर केले पाहिजेत, ज्याप्रमाणे परमेश्वर वस्तू यथावत जाणतो, त्याप्रमाणे मनुष्यांकरिता हेच योग्य आहे की त्यांनी देखील स्वस्वामर्थ्याप्रमाणे सर्व पदार्थ व पदार्थ-विद्या यथावत जाणाव्या. जसे तो परमेश्वर सर्वांना पुष्टी देतो, तसेच मनुष्यांनी देखील सर्वांच्या पुष्टी आदी गुणांना निरंतर वाढवावे (सर्वांना पोषण देऊन सर्वांना निरोगी ठेवण्यासाठी यत्न करावेत) जसे तो जगदीश्वर (जीवांच्या कल्याणासाठी उपकारक असे) श्रेष्ठ कर्म शीघ्र व अवश्य करतो, तद्वत मनुष्यांनी उत्तम कर्म करण्यात त्वरा करावी. जसे आम्ही उत्तम कर्म करण्याकरीता परमेश्वराची प्रार्थना करतो, तसेच परमेश्वर देखील आम्हां सर्व मनुष्यांना श्रेष्ठ पुरूषार्थाद्वारे उत्तम कर्म करण्याची उत्तम गुण धारण करण्याची व श्रेष्ठ आचरणाची प्रेरणा देवो. (आम्ही सदैव उत्तम कर्म, गुण व आचरण करीत राहू, अशी कृपा करो) ॥29॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God is rich and the dispeller of ignorance. He knows the true nature of all things, and grants us physical and spiritual strength. He is prompt. May he goad us to noble deeds.
Meaning
May He who is Lord of wealth and knowledge, who destroys pain, grief and disease, who is the knower of all the good things of the world, who gives all physical and spiritual strength, who is keen and instant in doing and having things done, may He bless us with all virtues and good actions.
Translation
May He, who is opulent, the healer of the weekminded, and acquirer of riches, augmenter of nourishment, the prompt bestower of rewards, be favourable to us. (1)
Notes
Revan, opulent; rich. Amivaha, healer of weak-minded. Turah, prompt bestower of
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সে ঈশ্বর কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়ঃ) যিনি বেদ শাস্ত্র পালন করিবার (রেবাণ্) বিদ্যাদি অনন্ত ধনবান (অমীবহা) অবিদ্যাদি রোগ দূর করিবার বা করাইবার (বসুবিৎ) সকল বস্তুকে যথাবৎ জানিবার (পুষ্টিবর্ধনঃ) পুষ্টি অর্থাৎ শরীর বা আত্মার বল বৃদ্ধি করিবার এবং (তুরঃ) ভাল কার্য্যে শীঘ্র প্রবেশ করিবার বা করাইবার পাত্র জগদীশ্বর (সঃ) তিনি (নঃ) আমাদিগকে উত্তম উত্তম কর্ম বা গুণের সহিত (সিষবতু) সংযুক্ত করুন ॥ ২ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই সংসারে যে ধন আছে সেই ধন পরমেশ্বরেরই । মনুষ্যগণ যেমন পরমেশ্বরের প্রার্থনা করিবে সেইরূপই তাহার পুরুষকার করা উচিত । যেমন বিদ্যাদি ধনযুক্ত পরমেশ্বর, ঈশ্বরের এমন বিশেষণ বলিয়া বা শুনিয়া কোনও মনুষ্য কৃতকৃত্য অর্থাৎ বিদ্যাদি ধনযুক্ত হইতে পারে না, কিন্তু স্বীয় পুরুষকারের বলে বিদ্যাদি ধনের বৃদ্ধি অথবা রক্ষা নিরন্তর করা উচিত যেমন পরমেশ্বর অবিদ্যাদি রোগের অপনয়নকারী সেইরূপ মনুষ্যদিগেরও উচিত যে, স্বয়ংও অবিদ্যাদি রোগকে নিরন্তর দূর করুক । যেমন তিনি বস্তু সকলকে যথাবৎ জানেন সেইরূপ মনুষ্যদিগেরও উচিত যে, নিজ সামর্থ্য অনুযায়ী সকল পদার্থসমূহকে যথাবৎ জানুক । যেমন তিনি সকলের পুষ্টি বৃদ্ধি করেন, সেইরূপ মনুষ্যও সকলের পুষ্টি ইত্যাদি গুণকে নিরন্তর বৃদ্ধি করুক । যেমন তিনি ভাল-ভাল কার্য্য করিতে শীঘ্রতা করেন সেইরূপ মনুষ্যও উত্তম উত্তম কার্য্যগুলিকে ত্বরা সম্পন্ন করুক । এবং যেমন আমরা সেই পরমেশ্বরের উত্তম কর্মহেতু প্রার্থনা নিরন্তর করিয়া থাকি, সেইরূপ পরমেশ্বরও আমাদিগের সব মনুষ্যকে উত্তম পুরুষার্থপূর্বক উত্তম উত্তম গুণ বা কর্মের আচরণ সহ নিরন্তর সংযুক্ত করুক ॥ ২ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ো রে॒বান্ য়োऽঅ॑মীব॒হা ব॑সু॒বিৎ পু॑ষ্টি॒বর্দ্ধ॑নঃ ।
স নঃ॑ সিষক্তু॒ য়স্তু॒রঃ ॥ ২ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ো রেবানিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বৃহস্পতির্দেবতা । গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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