यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 35
ऋषि: - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - निचृत् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
59
तत् स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥३५॥
स्वर सहित पद पाठतत्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यम्। भर्गः॑। दे॒वस्य॑। धी॒म॒हि॒। धि॒यः॑। यः। नः॒। प्र॒। चो॒द॒या॒त् ॥३५॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तत्। सवितुः। वरेण्यम्। भर्गः। देवस्य। धीमहि। धियः। यः। नः। प्र। चोदयात्॥३५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तस्य जगदीश्वरस्य कीदृश्यः स्तुतिप्रार्थनोपासनाः कार्या इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
वयं सवितुर्देवस्य परमेश्वरस्य यद्वरेण्यं भर्गः स्वरूपमस्ति तद्धीमहि। यः सविता देवोऽन्तर्यामी परमेश्वरः स नोऽस्माकं धियः प्रचोदयात् प्रेरयेत्॥३५॥
पदार्थः
(तत्) वक्ष्यमाणम् (सवितुः) सर्वस्य जगतः प्रसवितुः। सविता वै देवानां प्रसविता तथो हास्माऽ एते सवितृप्रसूता एव सर्वे कामाः समृध्यन्ते (शत॰२.३.४.३९) (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठम्। अत्र वृञ एण्यः (उणा॰३.९८) अनेन वृञ्धातोरेण्यप्रत्ययः। (भर्गः) भृज्जन्ति पापानि दुःखमूलानि येन तत्। अञ्च्यञ्जियुजि॰ (उणा॰४.२१६) इति भ्रस्जधातोरसुन् प्रत्ययः कवर्गादेशश्च। (देवस्य) प्रकाशमयस्य शुद्धस्य सर्वसुखप्रदातुः परमेश्वरस्य (धीमहि) दधीमहि। अत्र डुधाञ् धातोः प्रार्थनायां लिङ् छन्दस्युभयथा [अष्टा॰३.४.११७] इत्यार्धधातुकत्वाच्छब् न, आतो लोप इटि च [अष्टा॰६.४.६४] इत्याकारलोपश्च। (धियः) प्रज्ञा बुद्धीः। धीरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं॰३.९) (यः) सविता देवः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (चोदयात्) प्रेरयेत्। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.३९) व्याख्यातः॥३५॥
भावार्थः
मनुष्यैः सकलजगदुत्पादकस्य सर्वोत्कृष्टस्य सकलदोषनाशकस्य शुद्धस्य परमेश्वरस्यैवोपासना नित्यं कार्या। कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह स स्तुतो धारितः प्रार्थित उपासितः सन्नस्मान् सर्वेभ्यो दुष्टगुणकर्मस्वभावेभ्यः पृथक्कृत्य सर्वेषु गुणकर्मस्वभावेषु नित्यं प्रवर्तयेदित्यस्मै। अयमेव प्रार्थनाया मुख्यः सिद्धान्तः। यादृशीं प्रार्थनां कुर्यात् तादृशमेव कर्माचरेदिति॥३५॥
हिन्दी (1)
विषय
उस जगदीश्वर की कैसी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हम लोग (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने वा (देवस्य) प्रकाशमय शुद्ध वा सुख देने वाले परमेश्वर का जो (वरेण्यम्) अति श्रेष्ठ (भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करने वाला तेजःस्वरूप है (तत्) उसको (धीमहि) धारण करें और (यः) जो अन्तर्यामी सब सुखों का देने वाला है, वह अपनी करुणा करके (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को उत्तम-उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे॥३५॥
भावार्थ
मनुष्यों को अत्यन्त उचित है कि इस सब जगत् के उत्पन्न करने वा सब से उत्तम सब दोषों के नाश करने तथा अत्यन्त शुद्ध परमेश्वर ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें। किस प्रयोजन के लिये, जिससे वह धारण वा प्रार्थना किया हुआ हम लोगों को खोटे-खोटे गुण और कर्मों से अलग करके अच्छे-अच्छे गुण, कर्म और स्वभावों में प्रवृत्त करे, इसलिये। और प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त यही है कि जैसी प्रार्थना करनी, वैसा ही पुरुषार्थ से कर्म का आचरण करना चाहिये॥३५॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सृष्टिकर्ता, सर्वोत्कृष्ट, सर्व दोष नाहीसे करणारा, शुद्ध अशा परमेश्वराचीच स्तुती, प्रार्थना व उपासना करावी. परमेश्वराची प्रार्थना करण्याचा हाच उद्देश आहे की दुष्ट गुणांचा त्याग करून चांगल्या गुण, कर्म स्वभावाचा स्वीकार करावा. प्रार्थनेचे मुख्य तत्त्व हेच आहे की, जशी प्रार्थना करावयाची असेल तसाच पुरुषार्थ करून कर्मही करावे.
English (2)
Meaning
O Creator of the Universe I O All holy and worthy of adoration ! May we meditate on Thy adorable self. May Thou guide our understanding.
Meaning
Let us meditate on the blazing glory of Savita, Lord Creator, pure and generous giver of light and happiness — glory which is magnificent, most worthy of our choice. And may the Lord with His grace inspire our mind and will to dedicate ourselves to noble actions.
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