यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 36
ऋषिः - वामदेव ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत् गायत्री,
स्वरः - षड्जः
144
परि॑ ते दू॒डभो॒ रथो॒ऽस्माँ२ऽअ॑श्नोतु वि॒श्वतः॑। येन॒ रक्ष॑सि दा॒शुषः॑॥३६॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑। ते॒। दू॒डभः॑। दु॒र्दभ॒ऽइति॑ दुः॒ऽदभः॑। रथः॑। अ॒स्मान्। अ॒श्नो॒तु॒। वि॒श्वतः॑। येन॑। रक्ष॑सि। दा॒शुषः॑ ॥३६॥
स्वर रहित मन्त्र
परि ते दूडभो रथो स्माँ अश्नोतु विश्वतः । येन रक्षसि दाशुषः ॥
स्वर रहित पद पाठ
परि। ते। दूडभः। दुर्दभऽइति दुःऽदभः। रथः। अस्मान्। अश्नोतु। विश्वतः। येन। रक्षसि। दाशुषः॥३६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
स जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे जगदीश्वर! त्वं येन रथेन दाशुषो विश्वतो रक्षसि, स ते तव दूडभो रथो विज्ञानं विश्वतो रक्षितुमस्मान् पर्यश्नोतु सर्वतः प्राप्नोतु॥३६॥
पदार्थः
(परि) सर्वतः (ते) तव व्यापकेश्वरस्य (दूडभः) दुःखेन दम्भितुं हिंसितुं योग्यः। अत्र दम्भुधातोः खल् प्रत्ययः। दुरोदाशनाशदभध्येषु ऊत्वं वक्तव्यमुत्तरपदादेश्च ष्टुत्वम् (अष्टा॰६.३.१०९) एतत्सूत्रभाष्योक्तवार्तिकेन नकारलोपेन चास्य सिद्धिः। (रथः) रयते जानाति येन स रथः। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य, रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति, वा रपतेर्वा रसतेर्वा। (निरु॰९.११) (अस्मान्) भवदाज्ञासेवकान् (अश्नोतु) अश्नुताम् व्याप्नोतु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (विश्वतः) सर्वतः (येन) ज्ञानेन (रक्षसि) पालयसि (दाशुषः) विद्यादिदानकर्तॄन्। अयं मन्त्रः (शत॰२.३.४.४०-४१) व्याख्यातः॥३६॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वाभिरक्षकस्य परमेश्वरस्य विज्ञानस्य च प्राप्तये प्रार्थनापुरुषार्थौ नित्यं कर्तव्यौ। यतो रक्षिताः सन्तो वयमसद्विद्याऽधर्मादिदोषांस्त्यक्त्वा सद्विद्याधर्मादिशुभगुणान् प्राप्य सदा सुखिनः स्यामेति॥३६॥
विषयः
स जगदीश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे जगदीश्वर ! त्वं येन=रथेन ज्ञानेन दाशुषः विद्यादिदानकर्तृन् विश्वतः सर्वतः रक्षसि पालयसि ।
स ते=तव (तव) व्यापकेश्वरस्य दूडभः दुःखेन दम्भितुं=हिंसितुं योग्यः रथः=विज्ञानंरयते=जानाति येन स रथः विश्वतः सर्वतः रक्षितुमस्मान् भवदाज्ञा सेवकान् पर्यश्नोतु=सर्वतः प्राप्नोतु सर्वत अश्नुतां=व्याप्नोतु ॥ ३ । ३६ ।।
[हे जगदीश्वर ! त्वं येन रथेन दाशुषो विश्वतो रक्षसि, स ते=तव......रथो=विज्ञानं विश्वतो रक्षितुमस्मान् पर्यश्नोतु=सर्वतः प्राप्नोतु]
पदार्थः
(परि) सर्वतः (ते) तव व्यापकेश्वरस्य (दूडभः) दुखेन दम्भितुं=हिंसितुं योग्यः । अत्र दंभुधातोः खल् प्रत्ययः । दुरोदाशनाशदभध्येषु ऊत्वं वक्तव्यमुत्तरपदादेश्च ष्टुत्वम् ।।अ० ६ ।३ ।१०९ ।। एतत्सूत्रभाष्योक्तवार्तिकेन नकारलोपेन चास्य सिद्धिः (रथः) रयते=जानाति येन स रथः । रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोस्मिंस्तिष्ठतीति वा स्पतेर्वारसतेर्वा ।।नि० ९ ।११ ।(अस्मान्) भवदाज्ञासेवकान् (अश्नोतु) अश्नुताम्=व्याप्नोतु । अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (विश्वतः) सर्वतः (येन) ज्ञानेन (रक्षसि) पालयसि (दाशुषः) विद्यादिदानकर्तॄन् ॥ अयं मंत्रः शत० २ ।३ ।४ ।४०-४१ ।व्याख्यातः ॥ ३६ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वाभिरक्षकस्य परमेश्वरस्य विज्ञानस्य च प्राप्तये प्रार्थना पुरुषार्थो नित्यं कर्त्तव्यो, यतो रक्षिताः सन्तो वयमसद्विद्याऽधर्मादिदोषांस्त्यक्त्वा सद्विद्याधर्मादिशुभगुणान् प्राप्य सदा सुखिनः स्यामेति ॥ ३ । ३६ ।।
विशेषः
वामदेवः । अग्नि=ईश्वरः॥ निचृद् गायत्री ।षड्जः ॥
हिन्दी (4)
विषय
वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे जगदीश्वर! आप (येन) जिस ज्ञान से (दाशुषः) विद्यादि दान करने वाले विद्वानों को (विश्वतः) सब ओर से (रक्षसि) रक्षा करते और जो (ते) आपका (दूडभः) दुःख से भी नहीं नष्ट होने योग्य (रथः) सब को जानने योग्य विज्ञान सब ओर से रक्षा करने के लिये है, वह (अस्मान्) आपकी आज्ञा के सेवन करने वाले हम लोगों को (परि) सब प्रकार (अश्नोतु) प्राप्त हो॥३६॥
भावार्थ
मनुष्यों को सब की रक्षा करने वाले परमेश्वर वा विज्ञानों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना और अपना पुरुषार्थ नित्य करना चाहिये, जिससे हम लोग अविद्या, अधर्म आदि दोषों को त्याग करके उत्तम-उत्तम विद्या, धर्म आदि शुभगुणों को प्राप्त होके सदा सुखी होवें॥३६॥
विषय
ज्ञानरूप रथ
पदार्थ
१. गत मन्त्र में प्रभु के तेज को धारण करनेवाला व्यक्ति प्राणिमात्र का मित्र बनता है तो ‘विश्वामित्र’ कहलाता है। इस स्नेह की भावना से सब दिव्य गुणों का विकास होता है और यह ‘वामदेव’ बन जाता है। यह वामदेव प्रभु से प्रार्थना करता है कि ( ते ) = आपका ( दूडभः ) = [ दुःखेन दम्भितुं हिंसितुं योग्यः ] न नष्ट करने योग्य ( रथः ) = विज्ञानरूप रथ [ रथो रंहतेर्गतिकर्मणः, स्थिरतेर्वा, रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठति, रपतेर्वा रसतेर्वा—नि० ९।११ ] ( अस्मान् ) = हमें ( विश्वतः ) = सब ओर से ( परि अश्नोतु ) = व्याप्त करे। ‘ज्ञान का परिणाम गति व क्रिया होती है’— ‘क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः’, ज्ञानी पुरुष स्थिर मनोवृत्ति का बनता है, ज्ञान में मनुष्य अन्ततः अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करता है, यह ऋषियों के हृदयों में प्रभु से व्यक्त रूप में उच्चारण किया जाता है। यह जीवन को रसमय बनाता है। इन कारणों से ज्ञान यहाँ ‘रथ’ शब्द से कहा गया है।
२. हे प्रभो ! आपका यह ज्ञान हमें सर्वतः व्याप्त करे। ( येन ) = जिस ज्ञान से ( दाशुषः ) = दाश्वान् की—आत्मसमर्पण करनेवाले की ( रक्षसि ) = आप रक्षा करते हो। वस्तुतः देव ज्ञान देकर की मनुष्य की रक्षा करते हैं। जो व्यक्ति प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता है—प्रभु उसे यह ज्ञानरूप रथ देते हैं जिससे वह इस दुर्गम भवकान्तार को पार कर जाता है।
भावार्थ
भावार्थ — ज्ञान प्रभु का न हिंसित होनेवाला रथ है। यह हमें प्राप्त हो। इस ज्ञान से ही हम अपनी रक्षा कर पाएँगे।
विषय
वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
हे जगदीश्वर ! आप (येन ) जिस रथ अर्थात् ज्ञान से (दाशुषः) विद्या आदि के दान करने वालों की (विश्वतः) सब ओर से (रक्षसि ) पालना करते हो।
वह (ते) आप व्यापक ईश्वर का (दूडभः) सुदृढ़ (रथः) विज्ञान (विश्वतः) सब ओर से रक्षा करने के लिए हम आपके आज्ञा-पालकों को (पर्यश्नोतु) सब ओर से प्राप्त हो ।। ३ । ३६ ।।
भावार्थ
मनुष्य, सबके रक्षक परमेश्वर की और विज्ञान की प्राप्ति के लिये ईश्वर-प्रार्थना और पुरुषार्थ नित्य करें, जिससे रक्षा को प्राप्त हुए हम लोग असद्-विद्या और अधर्म आदि दोषों को छोड़कर सद्-विद्या और धर्म आदि शुभ गुणों को प्राप्त करके सदा सुखी रहें ।। ३ । ३६ ।।
प्रमाणार्थ
(दूङभः) यहाँ 'दम्भु' धातु से 'खल्' प्रत्यय है। 'दुरो दाशनाशदभध्येषु ऊत्वं वक्तव्यमुत्तरपदादेश्च ष्टुत्वम्' अ० (६ । ३ । १०९) इस भाष्योक्त वार्त्तिक से नकार लोप होने से इस शब्द की सिद्धि समझनी चाहिए। (रथः) 'रथ' शब्द की व्याख्या निरु० (९ । ११ ) में इस प्रकार की गई है--गत्यर्थक 'रह्' धातु से रथ शब्द बनता है, अथवा 'स्थिर' शब्द का वर्ण विपर्यय करने से यह शब्द सिद्ध होता है, अथवा इस पर रमणीय व्यक्ति ही बैठता है, इसलिये इसे रथ कहते हैं, अथवा 'रप्' या 'रस' धातु से 'रथ' शब्द की सिद्धि जाननी चाहिए। (अश्नोतु) अश्नुताम् । यहाँ व्यत्यय से परस्मैपद है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( २ । ३ । ४ । ४०-४१ ) में की गई है ।। ३ । ३६ ।।
भाष्यसार
ईश्वर कैसा है --जगदीश्वर सबका रक्षक है, जो अपने विज्ञान से विद्यादि शुभ गुणों के दाता जनों की सब ओर से रक्षा करता है। उस व्यापक ईश्वर का विज्ञान ऐसा है कि उसे कोई दबा नहीं सकता, नष्ट नहीं कर सकता किन्तु वह विज्ञान उसके आज्ञापालक, प्रार्थी एवं पुरुषार्थी जनों को ही प्राप्त होता है ।। ३ । ३६ ।।
विषय
राजा का अपराजित रथ।
भावार्थ
( येन ) जिससे हे राजन् ! ( दाशुषः ) दानशील, करप्रद प्रजा जनों की ( रक्षसि ) रक्षा करता है, वह ( ते ) तेरा ( दूडभः ) अपराजित, अविनाशी, अजेय ( रथः ) रथ, युद्ध का साधन रथ, वज्र, बल और ज्ञान है, वह (अस्मान् ) हमें ( विश्वतः ) सब ओर से ( अश्नोतु ) व्याप्त रहे.
सब ओर से प्राप्त हो, हमारी रक्षा करे |
ईश्वर पक्ष में -- जिस ज्ञान और वीर्य से वह समस्त उपासकों की रक्षा करता है वह उसका ज्ञान और बल हमें सब ओर से प्राप्त हो ॥ शत० २ । ३।४।४० ॥
टिप्पणी
३६ – ० विश्वतः | समिद्धो मासमर्थय प्रजया च धनेन च ॥ इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः॥
मराठी (2)
भावार्थ
विज्ञान प्राप्त व्हावे यासाठी माणसांनी सर्वांचा रक्षणकर्ता व विज्ञानदाता अशा परमेश्वराची प्रार्थना करून सदैव पुरुषार्थ करावा, ज्यामुळे माणसांची अविद्या, अधर्म इत्यादी दोष नष्ट होऊन उत्तम विद्या, धर्म इत्यादी शुभ गुण प्राप्त होऊन सदैव सुख मिळेल.
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वर कसा आहे, हे सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे जगदीश्वरा, (येन) ज्या ज्ञानाद्वारे तू (दाशुषः) विद्यादींचे दान करणार्या विद्वानांची (विश्वत:) सर्वदिशांकडून किंवा सर्वत्र (रक्षसि) रक्षा करतोस (ते) तुझे (दूडभ:) दु:ख किंवा आपत्तीनेही नाश पावणारे व (रथ:) सर्वांनी जाणावे असे जे विज्ञान आहे, ते विज्ञान आमचे सर्वथा रक्षण करण्यासाठी (अस्मान्) तुझ्या आज्ञेप्रमाणे वागणार्या आम्हां उपासकांना (परि) सर्व प्रकारे (अश्नोतु) प्राप्त होवो । (तुझ्याकडून ज्ञान आणि विज्ञान मिळण्यासाठी आम्ही याचना करीत आहोत) ॥36॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी विज्ञानाच्या प्राप्तीकरिता सर्वांचे रक्षण करणार्या परमेश्वराची प्रार्थना करावी आणि त्याचबरोबर नित्य पुरूषार्थ व श्रम केला पाहिजे. यासाठी की ज्यायोगे आम्ही अविद्या, अधर्म आदी दोषांचा त्याग करून उत्तमोत्तम विद्या, धर्म आदी शुभगुणांची प्राप्ती करून सदा आनंदी राहू शकू. ॥36॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh God, may Thine immortal knowledge, wherewith Thou guardest the learned in all directions, come close from all sides.
Meaning
That formidable chariot of knowledge by which you protect and redeem the man of charity in all ways from all sides, by that very chariot protect us too, Lord of the Universe, and let us cross the panorama of existence.
Translation
O adorable Lord, may your indestructible chariot, with which you guard donors, offer us protection from all the sides. (1)
Notes
Dudabhah, indestructible.
बंगाली (1)
विषय
স জগদীশ্বরঃ কীদৃশ ইত্যুপদিশ্যতে ॥
সেই পরমেশ্বর কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে জগদীশ্বর ! আপনি (য়েন) যে জ্ঞান দ্বারা (দাশুষঃ) বিদ্যাদি দানকারী বিদ্বান্দিগের (বিশ্বতঃ) সব দিক দিয়া (রক্ষসি) রক্ষা করেন এবং যাহা (তে) আপনার (দূডভঃ) দুঃখ হইতে নষ্ট না হওয়ার যোগ্য (রথঃ) সকলের জানিবার যজ্ঞ বিজ্ঞান সব দিক দিয়া রক্ষা করিবার জন্য তাহা (অস্মান্) আপনার আজ্ঞা সেবনকারী আমাদিগের (পরি) সর্বপ্রকার (অশ্নোতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ৩৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগকে সকলের রক্ষাকর্ত্তা পরমেশ্বর অর্থাৎ বিজ্ঞানের প্রাপ্তি হেতু প্রার্থনা এবং পুরুষকার নিত্য করা উচিত যাহাতে আমরা অবিদ্যা অধর্ম ইত্যাদি দোষ ত্যাগ করিয়া উত্তম-উত্তম বিদ্যা, ধর্মাদি শুভগুণকে প্রাপ্ত হইয়া সর্বদা সুখী হই ॥ ৩৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
পরি॑ তে দূ॒ডভো॒ রথো॒ऽস্মাঁ২ऽঅ॑শ্নোতু বি॒শ্বতঃ॑ ।
য়েন॒ রক্ষ॑সি দা॒শুষঃ॑ ॥ ৩৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পরি ত ইত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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