यजुर्वेद - अध्याय 3/ मन्त्र 45
ऋषि: - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - मरुतो देवताः
छन्दः - स्वराट् अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
36
यद् ग्रामे॒ यदर॑ण्ये॒ यत् स॒भायां॒ यदि॑न्द्रि॒ये। यदेन॑श्चकृ॒मा व॒यमि॒दं तदव॑यजामहे॒ स्वाहा॑॥४५॥
स्वर सहित पद पाठयत्। ग्रामे॑। यत्। अर॑ण्ये। यत्। स॒भाया॑म्। यत्। इन्द्रि॒ये। यत्। एनः॑। च॒कृ॒म। व॒यम्। इ॒दम्। तत्। अव॑। य॒जा॒म॒हे॒। स्वाहा॑ ॥४५॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्ग्रामे यदरण्ये यत्सभायाँ यदिन्द्रिये । यदेनश्चकृमा वयमिदन्तदव यजामहे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। ग्रामे। यत्। अरण्ये। यत्। सभायाम्। यत्। इन्द्रिये। यत्। एनः। चकृम। वयम्। इदम्। तत्। अव। यजामहे। स्वाहा।४५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्गृहस्थकृत्यमुपदिश्यते॥
अन्वयः
वयं यद् ग्रामे यदरण्ये सत्सभायां यदिन्द्रिये यद्यत्रैनश्चकृमस्तदव यजामहे दूरीकुर्मः। यद्यत्र तत्र स्वाहा सत्यवाचा पुण्यकर्म चकृम तत्तत्सर्वं सङ्गच्छामहे॥४५॥
पदार्थः
(यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (ग्रामे) शालासमुदाये, गृहस्थैः सेविते। ग्राम इत्युपलक्षणं नगरादीनाम् (यत्) यस्मिन् वक्ष्यमाणे (अरण्ये) वानप्रस्थैः सेवित एकान्तदेशे वने (यत्) यस्यां वक्ष्यमाणायाम् (सभायाम्) विद्वत्समूहशोभितायाम् (यत्) यस्मिँश्च्छ्रेष्ठे (इन्द्रिये) मनसि श्रोत्रादौ वा (यत्) वक्ष्यमाणम् (एनः) पापम् (चकृम) कुर्महे करिष्यामो वा। अत्र लड्लृटोरर्थे लिट्। अन्येषामपि॰ [अष्टा॰६.३.१३७] इति दीर्घश्च। (वयम्) कर्मानुष्ठातारो गृहस्थाः (इदम्) प्रत्यक्षमनुष्ठीयमानं करिष्यमाणं वा (तत्) कर्म (अव) दूरीकरणे (यजामहे) सङ्गच्छामहे (स्वाहा) सत्यवाचा। स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१.११)। अयं मन्त्रः (शत॰२.५.२.२५) व्याख्यातः॥४५॥
भावार्थः
चतुराश्रमस्थैर्मनुष्यैर्मनसा वाचा कर्मणा सदा सत्यं कर्माचर्यं पापं च त्यक्त्वा सभाविद्याशिक्षाप्रचारेण प्रजायाः सुखोन्नतिः कार्येति॥४५॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर अगले मन्त्र में गृहस्थों के कर्मों का उपदेश किया है॥
पदार्थ
(वयम्) कर्म के अनुष्ठान करने वाले हम लोग (यत्) ग्रामे) जो गृहस्थों से सेवित ग्राम (यत्) (अरण्ये) वानप्रस्थों ने जिस वन की सेवा की हो (यत्सभायाम्) विद्वान् लोग जिस सभा की सेवा करते हों और (यत्) (इन्द्रिये) योगी लोग जिस मन वा श्रोत्रादिकों की सेवा करते हों, उसमें स्थिर हो के जो (एनः) पाप वा अधर्म (चकृम) करा वा करेंगे सब (अवयजामहे) दूर करते रहें तथा जो-जो उन-उन उक्त स्थानों में (स्वाहा) सत्यवाणी से पुण्य वा धर्माचरण (चकृम) करना योग्य है (तत्) उस-उस को (यजामहे) प्राप्त होते रहें॥४५॥
भावार्थ
चारों आश्रमों में रहने वाले मनुष्यों को मन, वाणी और कर्मों से सत्य कर्मों का आचरण कर पाप वा अधर्मों का त्याग करके विद्वानों की सभा, विद्या तथा उत्तम-उत्तम शिक्षा का प्रचार करके प्रजा के सुखों की उन्नति करनी चाहिये॥४५॥
मराठी (1)
भावार्थ
चारही आश्रमांत राहणाऱ्या माणसांनी मन, वाणी, कर्म यांनी सत्याचरण करावे. पापाचा, अधर्माचा त्याग करावा व विद्वानांच्या सभा आयोजित कराव्यात. विद्या व उत्तम शिक्षणाचा प्रचार करून प्रजेचे सुख वाढवावे.
English (2)
Meaning
May we forsake each sinful act that we have committed in village or solitude, in an assembly or corporeal sense. Let every man so resolve.
Meaning
Whatever wrong we have done or might do in our village community, in the forest among the foresters (Vanaprasthis), in the assembly or in the mind with our senses, that we abjure and give up, and whatever is true and good, to that we commit ourselves and dedicate.
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