यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 14
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
250
यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत।व॒स॒न्तोऽस्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्मऽइ॒ध्मः श॒रद्ध॒विः॥१४॥
स्वर सहित पद पाठयत्। पुरु॑षेण। ह॒विषा॑। दे॒वाः। य॒ज्ञम्। अत॑न्वत ॥ व॒स॒न्तः। अ॒स्य॒। आ॒सी॒त्। आज्य॑म्। ग्री॒ष्मः। इ॒ध्मः। श॒रत्। ह॒विः ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत । वसन्तोस्यासीदाज्यङ्ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। पुरुषेण। हविषा। देवाः। यज्ञम्। अतन्वत॥ वसन्तः। अस्य। आसीत्। आज्यम्। ग्रीष्मः। इध्मः। शरत्। हविः॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यद्धविषा पुरुषेण सह देवा यज्ञमतन्वत तदाऽस्य वसन्त आज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविरासीदिति यूयमपि विजानीत॥१४॥
पदार्थः
(यत्) यदा (पुरुषेण) पूर्णेन परमात्मना (हविषा) होतुमादातुमर्हेण (देवाः) विद्वांसः (यज्ञम्) मानसं ज्ञानमयम् (अतन्वत) तन्वते विस्तृणन्ति (वसन्तः) पूर्वाह्णः (अस्य) यज्ञस्य (आसीत्) अस्ति (आज्यम्) (ग्रीष्मः) मध्याह्नः (इध्मः) प्रदीपकः (शरत्) अर्द्धरात्रः (हविः) होतव्यं द्रव्यम्॥१४॥
भावार्थः
यदा बाह्यसामग्र्यभावे विद्वांसो सृष्टिकर्त्तुरीश्वरस्योपासनाख्यं मानसं ज्ञानयज्ञं विस्तारयेयुस्तदा पूर्वाह्णादिकाल एव साधनरूपेण कल्पनीयः॥१४॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यत्) जब (हविषा) ग्रहण करने योग्य (पुरुषेण) पूर्ण परमात्मा के साथ (देवाः) विद्वान् लोग (यज्ञम्) मानसज्ञान यज्ञ को (अतन्वत) विस्तृत करते हैं, (अस्य) इस यज्ञ के (वसन्तः) पूर्वाह्ण काल ही (आज्यम्) घी (ग्रीष्मः) मध्याह्न काल (इध्मः) इन्धन प्रकाशक और (शरत्) आधी रात (हविः) होमने योग्य पदार्थ (आसीत्) है, ऐसा जानो॥१४॥
भावार्थ
जब बाह्य सामग्री के अभाव में विद्वान् लोग सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की उपासनारूप मानसज्ञान यज्ञ को विस्तृत करें, तब पूर्वाह्ण आदि काल ही साधनरूप से कल्पना करना चाहिये॥१४॥
पदार्थ
पदार्थ = ( यत् ) = जब ( हविषा ) = ग्रहण करने योग्य वा जानने योग्य ( पुरुषेण ) = पूर्ण परमात्मा के साथ ( देवा: ) = विद्वान् लोग ( यज्ञम् ) = उपासना रूप ज्ञान यज्ञ को ( अतन्वत ) = सम्पादन करते हैं, तब ( अस्य ) = इस यज्ञ के ( वसन्त ) = वर्ष के आरम्भ काल वसन्त ऋतु के समान, सौम्यभाग दिन का पूर्वाह्न काल ही ( आज्यम् ) = घृत ( ग्रीष्मः ) = ऋतु मध्याह्न काल ( इध्मः ) = ईंधन प्रकाशक और ( शरत् ) = शरद् ऋतु रात्रि ( हविः ) = होमने योग्य पदार्थ ( आसीत् ) = है।
भावार्थ
भावार्थ = जब बाह्य सामग्री के अभाव में संन्यासी विद्वान् महात्मा लोग, संसार कर्ता ईश्वर की उपासना रूप मानस ज्ञान यज्ञ को विस्तृत करें, तब पूर्वाह्णादि काल ही साधनरूप से कल्पना करने चाहिएँ ।
विषय
संवत्सर यज्ञ का स्वरूप ।
भावार्थ
(यत्) जब (हविषा ) स्वीकार व साक्षात् करने योग्य, परम वेद्य, ( पुरुषेण) पूर्ण परमेश्वर से (देवाः) विद्वान् गण ( यज्ञम् ) उपासनामय ज्ञानयज्ञ का (अतन्बत) सम्पादन करते हैं तब (अस्य) इस यज्ञ का ( वसन्तः ) वर्ष के प्रारम्भ काल, वसन्त के समान सौम्य पूर्वी भाग (आज्यम् ) अग्नि को घृत के समान आत्मा के बल वीर्य की प्राप्ति कराता है । (ग्रीष्मःइध्मः) वर्ष में ग्रीष्म ऋतु के समान मध्य भाग, अग्नि को ईंधन के समान आत्मा की ज्ञानाग्नि प्रखर कर देता है । ( शरत् हविः) वर्ष के शरत् के समान शीतल, शान्तिदायक रात्रिवत् समस्त प्राणों को पुनः आत्मा में आहुति होने से वह भी यज्ञ में हवि के समान है । इसी प्रकार प्रारम्भ में बाल्यकाल वसन्त, यौवन ग्रीष्म और वृद्धता शरत् है । उवटाचार्य के मत में — वसन्त सत्व, ग्रीष्म रजस् और शरत् तमोगुण है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ।
विषय
सौन्दर्य, तेजस्विता, त्याग - एक महान् यज्ञ [संगम]
पदार्थ
१. (यत्) = जब (हविषा) [हु = दान] = हविरूप त्याग के पुञ्ज पुरुषेण ब्राह्मण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले प्रभु से (देवा:) = देवलोक - दैवीवृत्ति को धारण करनेवाले व्यक्ति (यज्ञम्) = संगतिकरण को सम्बन्ध को (अतन्वत) = विस्तृत करते हैं तब (अस्य) = इस प्रभु से मेल करनेवाले व्यक्ति के लिए (वसन्तः) = वसन्तऋतु (आज्यम्) = आज्य (आसीत्) = हो जाती है (ग्रीष्मः) = ग्रीष्मऋतु (इध्मः) = समिधाएँ और (शरत् हविः) = शरऋतु हवि हो जाती है। २. दैवीवृत्तिवाले मनुष्य त्याग के पुञ्ज प्रभु से अपना मेल करते हैं। प्रभु से मेल बढ़ाने का परिणाम यह होता है कि इनका जीवन भी त्यागमय बनता है। इस अभौतिक वृत्ति का ही परिणाम होता है कि वसन्तऋतु इस त्यागमय जीवनवाले के लिए 'आज्य' हो जाती है। आज्य शब्द 'अञ्ज' धातु से बनता है, जिसका अर्थ है 'व्यक्त करना' । वसन्तऋतु इस प्रभु के उपासक के लिए प्रभु की महिमा को व्यक्त करनेवाली बन जाती है। चारों ओर वनस्पतियों के नवपल्लव, पुष्प व फल इस प्रभु के उपासक के लिए प्रभु-दर्शन के द्वार बन जाते हैं। इसे ये सब प्रभु का गुणगान करते प्रतीत होते हैं । ४. ग्रीष्मऋतु इस त्यागी भक्त के लिए 'इध्मं ' = दीप्ति का प्रतीक हो जाती है। जैसे ग्रीष्म में सूर्य अपने पूरे बल से प्रचण्डरूप में चमक रहा होता है, उसी प्रकार यह उपासक प्रभु की अत्यन्त ज्योतिर्मय ज्ञानदीप्ति की कल्पना करता है। सूर्यकिरणें कृमियों की ध्वंसक बनती हैं तो प्रभु की ज्योति की किरणें हृदयान्धकार को नष्ट करनेवाली होती हैं ५. इस प्रभु के संगी के लिए सब पत्तों को शीर्ण करती हुई शरद् भी हवि का संकेत बन जाती है। शरद् [ autumn] में पत्ते शीर्ण हो जाते है। यह प्रभु-भक्त भी सर्वस्व का त्याग करता हुआ, शरत् से हविरूप बनना सीखता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुभक्त के लिए वसन्त प्रभु की महिमा को दिखाती है तो ग्रीष्म ज्ञानदीप्ति को और शरत् त्यागशीलता को । वसन्त सौन्दर्य को ग्रीष्म ज्योति को, शरत् त्याग को संकेतित करती है। '
मन्त्रार्थ
(यत्) जब (देवाः) आरम्भ सृष्टि के वेदप्रकाशक अग्नि आदि महर्षि विद्वानों ने (पुरुषेण हविषा यज्ञम्-अतन्वत) पुरुष हवि अर्थात् निज आत्मा में होमने योग्य-आदान करने योग्यधारण करने योग्य पूर्ण परमात्मा द्वारा मानस यज्ञ का अनुष्ठान किया तब (अस्य) इस यज्ञ का (वसन्तः-आज्यम्-आसीत्) वसन्त ऋतु घृत था अर्थात् वसन्त ऋतु में ओषधियों की उत्पत्ति होने से वह श्रध्यात्म यज्ञ को घृत बनकर प्रबुद्ध करता है (ग्रीष्मः-इध्मः) ग्रीष्म ऋतु ईन्धन था- अर्थात् ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतियों की वृद्धि होने से वह अध्यात्म यज्ञ को ईन्धन बनाकर प्रदीप्त करता है (शरत्-हविः) शरद ऋतु हव्य द्रव्य था अर्थात् शरद ऋतु में वनस्पतियां समृद्ध होने से वह अध्यात्म यज्ञः को हव्य द्रव्य बनकर देदीप्यमान- पूर्ण सम्पन्न करता है ॥१४॥
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (2)
भावार्थ
जेव्हा बाह्य साधनांच्याअभावी विद्वान लोक सृष्टिकर्त्या ईश्वराचा उपासनारूपी मानसयज्ञ विस्तृत करतात. तेव्हा पूर्वान्हकाळ हे घृत मध्यान्हकाळ हे इंधन प्रकाशक व मध्यरात्र म्हणजे होमात घालण्याचे पदार्थ अशी साधनरूपाने कल्पना करावी.
विषय
पुनश्च, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यत्) जेव्हां (हविषा) ग्रहणीय, वरणीय (पुरूषेण) परमपूर्ण ईश्वरासह (देवाः) विद्वान लोकांनी (यज्ञम्) मानस्वरूप यज्ञ (अतन्वत) निस्ताराने केला (विद्वज्जनांनी मनामधे ईश्वराच्या रचना वैशिष्ट्यांचे मनन केले. सृष्टीला समजून घेण्याचा यत्न केला) (अस्य) या यज्ञाचा (वसन्तः) पूर्वाह्णकाल (सकाळ ते दुपारपर्यंत चा काळ) (आज्यम्) घृत होते, (ग्रीष्मः) मध्याह्णकाळ (दुपार) (इध्मः) त्या यज्ञाची समिधा वा इंधन होता, प्रकाशक होता आणि (शरत्) अर्धरात्र (हविः) इतर हवनीय पदार्थ (आसीत्) होते, असे जाणा. (म्हणजे हवनीय पदार्थांच्या अभावात विद्वानांनी सकाळ, दुपार, संध्याकाळ मानस यज्ञ केला आणि परमेश्वराने त्या सृष्टिनिर्मिती यज्ञात वसंत, ग्रीष्म, शरद आदी ऋतु उत्पन्न केले) ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - जेव्हां बाह्य सामग्री (समिधा, घृत आदी पदार्थांचा अभाव होईल वा असेल तेंव्हा विद्वज्जनांनी सृष्टिकर्ता ईश्वराचा उपासनारूप मानस ज्ञानरूप करावा (संध्या वा ब्रह्मयज्ञ करावा)
इंग्लिश (3)
Meaning
When the learned perform, meditating upon the Adorable God, the sacrifice of mental worship, then morning is its butter, mid-day its fuel, and mid-night its oblation.
Meaning
When the saints and sages visualise the universal yajna in terms of nature and enact it in the mind with universal materials in communion with the Cosmic Soul in meditation, then the spring season is the ghrita (clarified butter), summer is the fuel of fire and winter is the havi (fragrant materials) for oblations.
Translation
In the cosmic sacrifice arranged by the Nature's bounties with the Cosmic Man as an oblation, Spring is the melted butter, Summer the fire-wood and Autumn is the offering. (1)
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়ৎ) যখন (হবিষা) গ্রহণ করিবার যোগ্য (পুরুষেণ) পূর্ণ পরমাত্মা সহ (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (য়জ্ঞম্) মানসজ্ঞানকে (আতন্বত) বিস্তৃত করেন, (অস্য) এই যজ্ঞের (বসন্তঃ) পূর্বাহ্ন কালেই (আজ্যম্) ঘৃত (গ্রীষ্মঃ) মধ্যাহ্ন কাল (ইধ্মঃ) ইন্ধন প্রকাশক এবং (শরৎ) অর্ধ রাত্র (হবিঃ) হোম করিবার যোগ্য পদার্থ (আসীৎ) আছে, এইরকম জানিবে ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যখন বাহ্য সামগ্রীর অভাবে বিদ্বান্গণ সৃষ্টিকর্ত্তা ঈশ্বরের উপাসনা রূপ মানসজ্ঞান যজ্ঞকে বিস্তৃত করে তখন পূর্বাহ্ন আদি কালই সাধনরূপে কল্পনা করা উচিত ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ৎপুর॑ুষেণ হ॒বিষা॑ দে॒বা য়॒জ্ঞমত॑ন্বত ।
ব॒স॒ন্তো᳖ऽস্যাসী॒দাজ্যং॑ গ্রী॒ষ্মऽই॒ধ্মঃ শ॒রদ্ধ॒বিঃ ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ৎপুরুষেণেত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
যৎপুরুষেণ হবিষা দেবা যজ্ঞমতন্বত ।
বসন্তোঽস্যাসীদাজ্যং গ্রীষ্ম ইধ্মঃ শরদ্ধবি।।৭৫।।
(যজু ৩১।১৪)
পদার্থঃ (যৎ) যখন (হবিষা) গ্রহণযোগ্য বা জানার যোগ্য (পুরুষেণ) পূর্ণ পরমাত্মার সাথে (দেবাঃ) বিদ্বানগণ তথা ঋষিগণ (যজ্ঞম্) উপাসনারূপ জ্ঞানযজ্ঞকে (অতন্বত) সম্পাদন করতে উদ্যত হন, তখন (অস্য) এই যজ্ঞের (বসন্তঃ) বর্ষের আরম্ভকাল বসন্ত ঋতুর তুল্য দিনের পূর্বাহ্নকালই (আজ্যম্) ঘৃত, (গ্রীষ্মঃ) গ্রীষ্ম ঋতুরূপ মধ্যাহ্ন কাল (ইধ্ম) ইন্ধন প্রকাশক এবং (শরৎ) শরৎ ঋতু (হবিঃ) যজ্ঞের হবন পদার্থরূপে (আসীৎ) হয়।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যখন ঋষিগণ জ্ঞাতযোগ্য পূর্ণ-পরমাত্মার উপাসনারূপ জ্ঞানযজ্ঞ করতে গিয়ে সমগ্র জগৎ প্রকৃতিকে যজ্ঞ হিসেবে দেখেন, তখন বসন্ত ঋতু হয় যেন যজ্ঞের ঘৃতের তুল্য, গ্রীষ্ম হয় ইন্ধনরূপ অগ্নি আর শরৎ হয় যজ্ঞের হবির ন্যায়।।৭৫।।
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