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यजुर्वेद अध्याय - 31

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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 16
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    441

    य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्।ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञेन॑। य॒ज्ञम्। अ॒य॒ज॒न्त॒। दे॒वाः। तानि॑। धर्मा॑णि। प्र॒थ॒मानि॑। आ॒स॒न् ॥ ते। ह॒। नाक॑म्। म॒हि॒मानः॑। स॒च॒न्त॒। यत्र॑। पूर्वे॑। सा॒ध्याः। सन्ति॑। दे॒वाः ॥१६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकम्महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञेन। यज्ञम्। अयजन्त। देवाः। तानि। धर्माणि। प्रथमानि। आसन्॥ ते। ह। नाकम्। महिमानः। सचन्त। यत्र। पूर्वे। साध्याः। सन्ति। देवाः॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 16
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! ये देवा यज्ञेन यज्ञमयजन्त तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ते महिमानः सन्तो यत्र पूर्वे साध्या देवाः सन्ति तन्नाकं ह सचन्त तद्यूयमप्याप्नुत॥१६॥

    पदार्थः

    (यज्ञेन) उक्तेन ज्ञानेन (यज्ञम्) पूजनीयं सर्वरक्षकमग्निवत्तपनम् (अयजन्त) पूजयन्ति (देवाः) विद्वांसः (तानि) ईश्वरपूजनादीनि (धर्माणि) धारणात्मकानि (प्रथमानि) अनादिभूतानि मुख्यानि (आसन्) सन्ति (ते) (ह) एव (नाकम्) अविद्यमानदुःखं मुक्तिसुखम् (महिमानः) महत्त्वयुक्ताः (सचन्त) समवयन्ति प्राप्नुवन्ति (यत्र) यस्मिन् सुखे (पूर्वे) इतः पूर्वसम्भवाः (साध्याः) कृतसाधनाः (सन्ति) (देवाः) देदीप्यमाना विद्वांसः॥१६॥ निरुक्तकार इमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे-यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा अग्निनाग्निमयजन्त देवा अग्निः पशुरासीत्तमालभन्त तेनायजन्तेति च ब्राह्मणम्। तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ते ह नाकं महिमानः समसेवन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः साधना द्युस्थाने देवगणा इति नैरुक्ताः॥नि॰ अ॰ १२। खं॰ ४१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्योगाभ्यासादिना सदा परमेश्वर उपासनीयः। अनेनानादिकालीनधर्मेण मुक्तिसुखं प्राप्य पूर्वविद्वद्वदानन्दितव्यम्॥१६॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो (देवाः) विद्वान् लोग (यज्ञेन) पूर्वोक्त ज्ञानयज्ञ से (यज्ञम्) पूजनीय सर्वरक्षक अग्निवत् तेजस्वि ईश्वर की (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे ईश्वर की पूजा आदि (धर्माणि) धारणरूप धर्म (प्रथमानि) अनादि रूप से मुख्य (आसन्) हैं (ते) वे विद्वान् (महिमानः) महत्त्व से युक्त हुए (यत्र) जिस सुख में (पूर्वे) इस समय से पूर्व हुए (साध्याः) साधनों को किये हुए (देवाः) प्रकाशमान विद्वान् (सन्ति) हैं, उस (नाकम्) सब दुःखरहित मुक्तिसुख को (ह) ही (सचन्त) प्राप्त होते हैं, उसको तुम लोग भी प्राप्त होओ॥१६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि योगाभ्यास आदि से सदा ईश्वर की उपासना कर इस अनादिकाल से प्रवृत्त धर्म से मुक्तिसुख को पाके पहिले मुक्त हुए विद्वानों के समान आनन्द भोगें॥१६॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = जो  ( देवाः ) = विद्वान् लोग  ( यज्ञेन ) = ज्ञान यज्ञ से  ( यज्ञम् ) = पूजनीय परमात्मा की  ( अयजन्त ) = भक्ति से पूजा करते हैं  ( तानि ) = वह पूजादि  ( धर्माणि ) = धारणा रूप धर्म  ( प्रथमानि ) = अनादि रूप से मुख्य  ( आसन् ) = हैं,  ( ते ) = वे विद्वान्  ( महिमान: ) = महत्त्व से युक्त हुए  ( यत्र ) = जिस सुख में  ( पूर्वे ) = इस समय से पूर्व हुए  ( साध्याः ) = साधनों को किये हुए   ( देवा: ) = प्रकाशमान विद्वान्  ( सन्ति ) = हैं उस  ( नाकम् ) =   सब दुखों से रहित सुख को  ( ह ) = ही  ( सचन्त ) = प्राप्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = सब मनुष्यों को चाहिये कि विवेक वैराग्य, शम दमादि साधनों से युक्त होकर उस दयामय परमात्मा की उपासना करें। इस संसार में अनादि काल से, इस भक्ति उपासना रूप धर्म से जैसे पहले मुक्त हुए विद्वान, सदा आनन्द को प्राप्त हो रहे हैं, ऐसे ही हम सब लोग भी, उस जगत्पति जगदीश की श्रद्धा, भक्ति और प्रेम से उपासना करके, सब दुखों से रहित सदा आनन्द धाम मुक्ति को प्राप्त होवें ।

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    विषय

    यज्ञपुरुष से यज्ञकाण्ड का यजन । साध्य विद्वानों की परम सुख प्राप्ति ।

    भावार्थ

    (यज्ञेन) पूर्वोक्त मानस यज्ञ से (देवा) विद्वान् जन ( यज्ञम् ) उस प्रजापति पुरुष की (अयजन्त ) उपासना करते हैं । (तानि धर्माणि) वे सब धारक सामर्थ्य ( प्रथमानि आसन् ) प्रथम ही विद्यमान रहे । (ते ह) वे (महिमानः) महान् सामर्थ्य वाले ईश्वरोपासक जन, (नाकम् ) उस सुखमय परमेश्वर को ही (सचन्त ) प्राप्त होते हैं, उसी में विराजते हैं, ( यत्र) जिसमें (पूर्व) पूर्व के (साध्याः) साधनाशील, (देवा:) विद्वान् ब्रह्मात्म-ज्ञान के साक्षात् द्रष्टा लोग (सन्ति) विराजते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    मुख्य धर्म

    पदार्थ

    १. (यज्ञो वै विष्णु:) = इन शब्दों में ब्राह्मणों ने विष्णु = सर्वव्यापक प्रभु को 'यज्ञ' कहा है। मनुष्य में भी जब 'देवपूजा, संगतिकरण तथा दान की भावनाएँ आ जाती हैं तब यह भी यज्ञ को अपना रहा होता है। मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है कि [क] वह 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व प्रभु' इनको देव जानकर उनकी पूजा करे। इनके कथनों का आदर करता हुआ तदनुसार अपना आचरण बनाये । [ख] संसार में सदा सबके साथ मेल से चले। उसकी जिह्वा का माधुर्य सभी को उसकी ओर आकृष्ट करनेवाला हो। [ग] वह सदा दान देनेवाला बने। यज्ञशेष को खाये । त्यागपूर्वक उपभोग करे। ये तीन बातें ही मिलकर यज्ञ कहलाती हैं। यज्ञनामक विष्णु की उपासना इस यज्ञ से ही होती है। (देवा:) = देवलोग (यज्ञेन) = देवपूजा, संगतिकरण व दान से (यज्ञम्) = पूजनीय, संगतिकरणीय, समर्पणीय प्रभु को अयजन्त पूजते हैं, उसके साथ अपना मेल बढ़ाते हैं । ३. (तानि) = ये देवपूजा, संगतिकरण और दान ही (धर्माणि) = धारणात्मक उत्तम कर्म हैं। ये (प्रथमानि) = मुख्य हैं और जीव का 'प्रथ-विस्तारे' विस्तार करनेवाले हैं । ३. (ते) = ये (महिमानः) = [मह पूजायाम्] प्रभु के सच्चे उपासक (ह) = ही (नाकम्) = जहाँ दुःख है ही नहीं [न अकं यत्र] उस आनन्दघन प्रभु को (सचन्त) = प्राप्त होते हैं, सेवन करते हैं। प्रभु ही मोक्षलोक है, मुक्त जीव प्रभु में ही विचरते हैं [सह ब्रह्मणा विपश्चिता] । यह मोक्ष - लोक वह है (यत्र) = जहाँ (पूर्वे) = सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले 'अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा' आदि ऋषि, इन ऋषियों के ही समान अपने में ज्ञान का पूरण करनेवाले [पृ= पूरण] ज्ञानीलोग, (साध्याः) = सदा उत्तम कार्यों के द्वारा लोकहित का साधन करनेवाले कर्मठ लोग तथा (देवा:) = अपने मन में 'अद्रोह', अनुग्रह व दान' की दिव्य भावनाओं को जगानेवाले भक्त लोग (सन्ति) = निवास करते हैं, विद्यमान रहते हैं। इस नाकलोक के अधिकारी ये 'पूर्वे, साध्याः और देवा:' ही हैं। [क] देवपूजा से - माता-पिता व आचार्य आदि के आदर से इन्होंने अपने मस्तिष्क में ज्ञान व पूरण किया है अतएव (पूर्व) = पूरण करनेवाले कहलाये हैं। [ख] सबके साथ संगति व मेल से चलते हुए इन्होंने सर्वहितकारी यज्ञों का साधन किया है, अत: साध्य बने हैं, और [ग] अन्त में सदा दान-धर्म को अपनाने से ये [देवो दानात्] देव नामवाले हुए हैं। ये ही प्रभु-प्राप्ति के सच्चे अधिकारी हैं और इस जीवन के अन्त में परामुक्ति को प्राप्त करके प्रभु में स्थित होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-‘देवपूजा, संगतिकरण व दान' ही मुख्य धर्म हैं, इन्हें अपनानेवाला प्रभु को अपना पाता है।

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    मन्त्रार्थ

    फल-परम्परा प्रदर्शनपूर्वक मानस यज्ञ वा अध्यात्म यज्ञ का (देवा:) आदि विद्वान् महर्षि जन (यज्ञेन यज्ञम्-अयजन्त) मानस या अध्यात्म यज्ञ से यजनीय सङ्गमनीय परमात्मा का समागम करते रहे हैं (तानि धर्माणि प्रथमानि-आसन्) वे ध्यान समाधिरूप धर्म यथार्थ अनुष्ठान प्रथम के हैं- प्राथमिक हैं अथवा श्रेष्ठ हैं (ते ह नाकं महिमानः सचन्ते) वे ये जीव-न्मुक्तात्माएं नितान्त सुख स्वरूप मोक्ष का सेवन करते हैं (यत्र साध्याः-देवाः सन्ति) जहां अन्य साधनसिद्ध महानुभाव आत्माएं हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    "इमे वै लोकाः परिधयः" (तै० ३।८।१८।४) "प्राणा वै समिधः" (शत० ६।२।३।४४)"प्राणा इन्द्रियाणि" (ता० २।१४।२) “अथ ह प्राणा ग्रहं श्रेयसि व्यूदिरे-सा वागुच्चक्राम" (छान्दो० ४।१।६।७) "बन्ध बन्धने" (क्रयादि०)

    विशेष

    (ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी योगाभ्यास वगैरेनी सदैव ईश्वराची उपासना करावी व अनादी काळापासून धर्मात प्रवृत्त होऊन मुक्तिसुख प्राप्त झालेल्या विद्वानांप्रमाणे आनंद भोगावा. ॥ १६ ॥

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    विषय

    पुन्हा, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (देवाः) विद्वज्जन (यज्ञेन) पूर्वोक्त ज्ञानयज्ञाद्वारे (यज्ञम्) पूजनीय, सर्वरक्षक, अग्निवत्) तेजस्वी परमेश्‍वराची (अयजन्त) पूजा करतात (तानि) ते ईश्‍वरपूजा आदी कर्म त्यांच्यासाठी (श्रर्माणि) धारण करण्यास योग्य असे आणि (प्रथमामि) अनादिरूपेण सर्वप्रथम करणीय वा मुख्य धर्म, कम; (आसन्) होते. (ते) ते विद्वान (महिमानः) महत्त्वपूर्ण (यत्र) अशा ज्या सुखात (पूर्वे) त्यांच्या आधी होऊन गेलेले (देवाः) विशेष प्रशंसनीय विद्वान (साध्याः) ज्या साधनांसह (सन्ति) होते (म्हणजे ज्ञानयज्ञात साधनें नसतात) तेव्हां ज्ञानाद्वारे (ह) च विद्वज्जन त्या (नाकम्) दुःखरहित मुक्ति-सुखाला (ह)(सचन्त) प्राप्त करतात. (पूर्वी होऊन गेलेल्या विद्वानांप्रमाणे तेही ज्ञानयज्ञ करतात त्यासाठी सामग्री आदी आवश्यक नाहीत) ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी योगाभ्यासाद्वारे सदा ईश्‍वराची उपासना केली पाहिजे. अनादीकाळापासून सुरू असलेल्या या (ज्ञानयज्ञरूप) धर्माद्वारे मुक्तिसुख प्राप्त करावे आणि पूर्वज विद्वानांप्रमाणे आनंद उपभोगावा. ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The learned worship God through mental contemplation. Their holy ordinances for the worship of God are immemorial. Such noble souls in particular enjoy the happiness of final beatitude, in which dwell the ancient yogis and learned devotees.

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    Meaning

    By that yajna of the mind the sages worship the master of cosmic yajna and realise the eternal and original Dharmas of existence. Blest with the light of the Divine they experience that heaven of freedom which the primeval sages of the world enjoyed at the dawn of creation.

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    Translation

    Enlightened ones worshipped the Supreme Lord with the sacrifice. These have been the earliest ordinances. They, the great ones, thus attain heaven, where the earlier realized ones dwell in their resplendence. (1)

    Notes

    Prathamani dharmāṇi, the earliest ordinances; the rules made for the governance of the creation.

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (য়জ্ঞেন) পূর্বোক্ত জ্ঞানযজ্ঞ দ্বারা (য়জ্ঞম্) পূজনীয় সর্বরক্ষক অগ্নিবৎ তেজস্বী ঈশ্বরের (অয়জন্ত) পূজা করে (তানি) তাহারা ঈশ্বরের পূজাদি (ধর্মাণি) ধারণরূপ ধর্ম (প্রথমানি) অনাদি রূপে মুখ্য (আসন্) আছেন (তে) তাহারা বিদ্বান্ (মহিমানঃ) মহিমা যুক্ত (য়ত্র) যে সুখে (পূর্বে) এই সময় হইতে পূর্ব ঘটিত (সাধ্যাঃ) সাধনগুলি কৃত (দেবাঃ) প্রকাশমান বিদ্বান্ (সন্তি) আছেন, সেই (নাকম্) সকল দুঃখরহিত মুক্তিসুখকে (হ)(সচন্ত) প্রাপ্ত হয়, তাহাকে তোমরাও প্রাপ্ত হও ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যোগাভ্যাসাদি দ্বারা সর্বদা ঈশ্বরের উপাসনা কর । এই অনাদিকাল হইতে প্রবৃত্ত ধর্ম দ্বারা মুক্তিসুখ পাইয়া প্রথমে মুক্ত বিদ্বান্দিগের সমান আনন্দ ভোগ কর ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়॒জ্ঞেন॑ য়॒জ্ঞম॑য়জন্ত দে॒বাস্তানি॒ ধর্মা॑ণি প্রথ॒মান্যা॑সন্ ।
    তে হ॒ নাকং॑ মহি॒মানঃ॑ সচন্ত॒ য়ত্র॒ পূর্বে॑ সা॒ধ্যাঃ সন্তি॑ দে॒বাঃ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়জ্ঞেনেত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    যজ্ঞেন যজ্ঞময়জন্ত দেবাস্তানি ধর্মাণি প্রথমান্যাসন্ ।

    তে হ নাকং মহিমানঃ সচন্ত যত্র পূর্বে সাধ্যা সন্তি দেবাঃ।।৭৭।।

    (যজু ৩১।১৬)

    পদার্থঃ যে (দেবাঃ) বিদ্বান ব্যক্তি (যজ্ঞেন) এই জ্ঞানযজ্ঞের মাধ্যমে (যজ্ঞম্) পূজনীয় পরমাত্মাকে (অযজন্ত) ভক্তিভরে আরাধনা করেন, (তানি) সেই আরাধনা (ধর্মাণি) ধারণরূপ ধর্ম (প্রথমানি আসন) অনাদিরূপে মুখ্য হয়। (তে) ওই বিদ্বান (মহিমানঃ) মহত্ত¦ময় হন এবং (যত্র) যে সুখে (পূর্বে) এই সময়ের পূর্বে (সাধ্যাঃ) সাধনা করে (দেবাঃ) প্রকাশমান বিদ্বান (সন্তি) হয়েছেন, তারা  (নাকম্) সকল দুঃখ হতে রহিত হয়ে সেই মুক্তি সুখকে (হ)(সচন্ত) প্রাপ্ত হন।

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ সকল মনুষ্যের উচিৎ যে, বিবেক বৈরাগ্য শম দমাদি সাধনযুক্ত হয়ে সেই দয়াময় পরমাত্মার উপাসনা করা। এই সংসারে অনাদি কাল থেকে এই ভক্তি উপাসনারূপ ধর্ম দ্বারা প্রথমে মুক্ত বিদ্বান সদা আনন্দকে প্রাপ্ত হয়ে থাকেন। তেমনি আমরা সেই জগৎপতি জগদীশকে শ্রদ্ধা, ভক্তি এবং প্রেম দ্বারা উপাসনা করে দুঃখ রহিত সদা আনন্দ ধাম মুক্তিকে প্রাপ্ত হই।।৭৭।।

     

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