यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 7
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - स्त्रष्टश्वरो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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तस्मा॑द्य॒ज्ञात् स॑र्व॒हुत॒ऽऋचः॒ सामा॑नि जज्ञिरे।छन्दा॑सि जज्ञिरे॒ तस्मा॒द्यजु॒स्तस्मा॑दजायत॥७॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त्। य॒ज्ञात्। स॒र्व॒हुत॒ इति॑ सर्व॒ऽहुतः॑। ऋचः॑। सामा॑नि। ज॒ज्ञि॒रे॒ ॥ छन्दा॑सि। ज॒ज्ञि॒रे॒। तस्मा॑त्। यजुः॑। तस्मा॑त्। अ॒जा॒य॒त॒ ॥७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे । छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥
स्वर रहित पद पाठ
तस्मात्। यज्ञात्। सर्वहुत इति सर्वऽहुतः। ऋचः। सामानि। जज्ञिरे॥ छन्दासि। जज्ञिरे। तस्मात्। यजुः। तस्मात्। अजायत॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! युष्माभिस्तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः परमात्मनः ऋचः सामानि जज्ञिरे तस्माच्छन्दासि जज्ञिरे तस्माद्यजुरजायत स विज्ञातव्यः॥७॥
पदार्थः
(तस्मात्) पूर्णात् (यज्ञात्) पूजनीयतमात् (सर्वहुतः) सर्वे जुह्वति सर्वं समर्पयन्ति वा यस्मै (ऋचः) ऋग्वेदः (सामानि) सामवेदः (जज्ञिरे) जायन्ते (छन्दांसि) अथर्ववेदः (जज्ञिरे) (तस्मात्) परमात्मनः (यजुः) यजुर्वेदः (तस्मात्) (अजायत) जायते॥७॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! भवन्तो यस्मात् सर्वे वेदा जायन्ते तं परमात्मानमुपासीरन् वेदाँश्चाधीयीरन् तदाज्ञानुकूलं च वर्त्तित्वा सुखिनो भवन्तु॥७॥
विषयः
वेदोत्पत्तिविषयः
व्याख्यानम्
( तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ) तस्मात् यज्ञात् सच्चिदानन्दादिलक्षणात् पूर्णात् पुरुषात् सर्वहुतात् सर्वपूज्यात् सर्वोपास्यात् सर्वशक्तिमतः परब्रह्मणः ( ऋचः ) ऋग्वेदः, ( यजुः ) यजुर्वेदः, ( सामानि ) सामवेदः, ( छन्दाँसि ) अथर्ववेदश्च ( जज्ञिरे ) चत्वारो वेदास्तेनैव प्रकाशिता इति वेद्यम्। सर्वहुत इति वेदानामपि विशेषणं भवितुमर्हति, वेदाः सर्वहुतः। यतः सर्वमनुष्यैर्होतुमादातुं ग्रहीतुं योग्याः सन्त्यतः। जज्ञिरे अजायतेति क्रियाद्वयं वेदानामनेकविद्यावत्त्वद्योतनार्थम्। तथा [तस्मात्] तस्मादिति पदद्वयमीश्वरादेव वेदा जाता इत्यवधारणार्थम्। वेदानां गायत्र्यादिच्छन्दोन्वितत्वात् पुनश्छन्दांसीति पदं चतुर्थस्याथर्ववेदस्योत्पत्तिं ज्ञापयतीत्यवधेयम्। ‘यज्ञो वै विष्णुः’ [श॰ब्रा॰१.१.२.१३] ‘इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्।’ [यजु॰ ५.१५] इति सर्वजगत्कर्त्तृत्वं विष्णौ परमेश्वर एव घटते, नान्यत्र। वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स विष्णुः परमेश्वरः।
हिन्दी (7)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुमको चाहिये कि (तस्मात्) उस पूर्ण (यज्ञात्) अत्यन्त पूजनीय (सर्वहुतः) जिसके अर्थ सब लोग समस्त पदार्थों को देते वा समर्पण करते उस परमात्मा से (ऋचः) ऋग्वेद (सामानि) सामवेद (जज्ञिरे) उत्पन्न होते (तस्मात्) उस परमात्मा से (छन्दांसि) अथर्ववेद (जज्ञिरे) उत्पन्न होता और (तस्मात्) उस पुरुष से (यजुः) यजुर्वेद (अजायत) उत्पन्न होता है, उसको जानो॥७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! आप लोग जिससे सब वेद उत्पन्न हुए हैं, उस परमात्मा की उपासना करो, वेदों को पढ़ो और उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्त के सुखी होओ॥७॥
पदार्थ
पदार्थ = ( तस्मात् ) = उस पूर्ण और ( यज्ञात् ) = अत्यन्त पूजनीय ( सर्वहुत: ) = जिसके अर्थ सब लोग समस्त पदार्थों को देते वा समर्पण करते हैं, उसी परमात्मा से ( ऋचः ) = ऋग्वेद ( सामानि ) = सामवेद ( जज्ञिरे ) = उत्पन्न होते ( तस्मात् ) = उस परमात्मा से ( छन्दांसि ) = अथर्ववेद ( जज्ञिरे ) = उत्पन्न होता ( तस्मात् ) = उस प्रभु से ही ( यजुः ) = यजुर्वेद ( अजायत ) = उत्पन्न होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = उस परम कृपालु जगत्पिता ने, हमारे इस लोक और परलोक के अनन्त सुखों की प्राप्ति के लिए चार वेद बनाये, उन को पढ़ सुन के हम, लोक परलोक के सब सुखों को प्राप्त हो सकते हैं। परमात्मा के ज्ञान और उपासना के बिना मुक्ति सुख नहीं प्राप्त हो सकता और उसका ज्ञान और उपासना बिना वेदों के पढ़े सुने नहीं हो सकता। महर्षि लोगों का वचन है “नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्' वेदों को न जाननेवाला कोई पुरुष भी उस व्यापक प्रभु को नहीं जान सकता । ऐसे लोक परलोक के सुख की प्राप्ति के लिए, हम सबको वेदों का पढ़ना, पढ़ाना, सुनना, सुनाना आवश्यक है। बिना वेदों के न कोई ईश्वर का ज्ञानी हो सकता है न ही भक्त । जिसका ज्ञान नहीं हुआ उसकी भक्ति कैसे ? "
विषय
वेदोत्पत्तिविषयः
व्याख्यान
प्रथम ईश्वर को नमस्कार और प्रार्थना करके पश्चात् वेदों की उत्पत्ति का विषय लिखा जाता है, कि वेद किसने उत्पन्न किये हैं। ( तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः ) सत् जिसका कभी नाश नहीं होता, आनन्द जो सदा सुखस्वरूप और सबको सुख देनेवाला है, इत्यादि लक्षणों से युक्त पुरुष जो सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, जो सब मनुष्यों के उपासना के योग्य इष्टदेव और सब सामर्थ्य से युक्त है, उसी परब्रह्म से ( ऋचः ) ऋग्वेद, ( यजुः ) यजुर्वेद ( सामानि ) सामवेद और ( छन्दांसि ) इस शब्द से अथर्ववेद भी, ये चारों वेद उत्पन्न हुए हैं। इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि वेदों का ग्रहण करें और वेदोक्त रीति से ही चलें। ‘जज्ञिरे’ और ‘अजायत’ इन दोनों क्रियाओं के अधिक होने से वेद अनेक विद्याओं से युक्त है, ऐसा जाना जाता है। वैसे ही ‘तस्मात्’ इन दोनों पदों के अधिक होने से यह निश्चय जानना चाहिये कि ईश्वर से ही वेद उत्पन्न हुए हैं, किसी मनुष्य से नहीं। वेदों में सब मन्त्र गायत्र्यादि छन्दों से युक्त ही हैं। फिर ‘छन्दांसि’ इस पद के कहने से चौथा जो अथर्ववेद है, उसकी उत्पत्ति का प्रकाश होता है। शतपथ आदि ब्राह्मण और वेदमन्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ‘यज्ञ’ शब्द से ‘विष्णु’ का और विष्णु शब्द सर्वव्यापक जो परमेश्वर है, उसीका ग्रहण होता है, क्योंकि सब जगत् की उत्पत्ति करनी परमेश्वर में ही घटती है, अन्यत्र नहीं।
विषय
चार वेद
शब्दार्थ
(तस्मात् ) उस ( सर्वहुत:) सर्वदाता (यज्ञात् ) पूजनीय, सर्वोपास्य परमेश्वर से (ऋच:) ऋचाएँ, ऋग्वेद (सामानि) सामवेद (जज्ञिरे) उत्पन्न हुए । (तस्मात् ) उस परमेश्वर से ही (छन्दांसि ) छन्द, अथर्ववेद (जज्ञिरे) उत्पन्न हुआ । (तस्मात्) उसी जगदीश्वर से (यजुः) यजुर्वेद (अजायत) प्रकट हुआ ।
भावार्थ
यह मन्त्र पुरुष सूक्त का है । इस अध्याय में यज्ञ शब्द पुरुष का पर्यायवाची है। पुरुष का अर्थ है पूर्ण परमेश्वर । यज्ञ का अर्थ हुआ पूजनीय परमेश्वर । जब सृष्टि-रूपी यज्ञ प्रारम्भ हुआ तब परमेश्वर ने मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए चारों वेदों का ज्ञान दिया। उस यज्ञपुरुष से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद - ये चार वेद प्रकट हुए । पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं कि अथर्ववेद पीछे से बनाया गया परन्तु उक्त मन्त्र से इस निराधार कल्पना का खण्डन हो जाता है। प्रभु ने सर्गारम्भ में ही चार ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान दिया था। वेदों में अन्यत्र भी अनेक स्थानों पर चारों वेदों का वर्णन मिलता है। अत: 'छन्दांसि' का अर्थ अथर्ववेद ही ठीक है । यहाँ 'छन्दांसि ' विशेषण नहीं है ।
विषय
यज्ञ परमेश्वर से समस्त वेदों की उत्पत्ति । उससे अश्वों और गवादि पशुओं की उत्पत्ति ।
भावार्थ
(तस्मात् ) उस ( यज्ञात् ) पूजनीय, सर्वोपास्य एवं सबके दाता, (सर्वहुतः) सर्वसम्मत, सब कुछ त्यागने के पात्र अथवा समस्त संसार को प्रलय काल में अपने भीतर लेने हारे उस परमात्मा से ही( ऋचः ) ऋग्वेद, ऋचाएं, मन्त्र, ( सामानि ) सामवेद, साम के समस्त गायनों के ज्ञान (जज्ञिरे) उत्पन्न होते हैं । (तस्मात् ) उससे ही (छन्दः ह) 'छन्द' अर्थात् अथर्ववेद के मन्त्र ( जज्ञिरे ) उत्पन्न होते हैं । ( तस्मात् ) उससे ही (यजुः अजायत ) यजुर्वेद उत्पन्न होता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्रष्टेश्वरः । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
'वेद-ज्ञान' का प्रादुर्भाव
पदार्थ
१. (तस्मात्) = उस यज्ञात् ज्ञान का दान करनेवाले अथवा हमारे साथ ज्ञान का सम्पर्क करनेवाले (सर्वहुतः) = सबके लिए ज्ञान देनेवाले प्रभु से (ऋच:) = ऋचाएँ या ऋग्वेद के मन्त्र तथा (सामानि) = साम, अर्थात् सामवेद के मन्त्र जज्ञिरे उत्पन्न हो गये । (तस्मात्) = उसी से (छन्दांसि) = रोगों व युद्धों से बचानेवाले अथर्व के छन्द (जज्ञिरे) = प्रादुर्भूत हुए। (तस्मात्) = उसी से (यजुः) = यजुर्वेद के मन्त्र अजायत हो गये । २. [क] सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु से दिया गया वेदज्ञान चार भागों में विभक्त है। प्रथम ऋग्वेद है, इसमें तृण से लेकर ब्रह्मपर्यन्त सभी पदार्थों के गुण-धर्मों का स्तवन [कथन] है। इसी से इनका नाम 'ऋग्वेद' [ऋच स्तुतौ] हो गया है। [ख] इस प्रकृति का ज्ञान करते हुए हम प्रसंगवश कण-कण में प्रभु की महिमा का भी अनुभव करते हैं और उस प्रभु के प्रति नतमस्तक होते हैं। इसी नमन व उपासना का विषय 'सामवेद' में वर्णित है। [ग] यदि प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करके उसका ठीक उपयोग करेंगे और प्रभु के अविस्मरण से विलास में न फँसेंगे तथा परस्पर प्रेम से चलेंगे तो रोगों व युद्धों से बचे रहेंगे, परन्तु मनुष्य की अल्पज्ञता के कारण वे युद्ध व रोगों से आक्रान्त हो जाते हैं, 'उनसे अपना छादन [रक्षण] कैसे करना' यही विषय अथर्व-मन्त्रों का है, इसी से उन्हें यहाँ 'छन्दांसि' शब्द से स्मरण किया है। [घ] अब स्वस्थ व शान्त बनकर हमने अपना जीवन जिन श्रेष्ठतम कर्मों में बिताना है, उन्हीं कर्मों का प्रतिपादन 'यजुर्वेद' में है। यह यजुर्वेद इसीलिए 'कर्मवेद' कहलाता है। मनुष्य को अपना जीवन इन्हीं यज्ञात्मक कर्मों में लगाना है। इनको करता हुआ ही वह 'यज्ञ' बनता है और 'यज्ञ' नामवाले उस प्रभु को पाता है। ३. मानव - उन्नति के लिए ज्ञान देना आवश्यक था । ज्ञान के बिना किसी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं, अतः प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में यह वेद - ज्ञान दिया।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु- प्रदत्त वेद - ज्ञान से हम प्रतिदिन उन्नति करते हुए प्रभु को प्राप्त करने का प्रयत्न करें।
मन्त्रार्थ
(तस्मात्-सर्वहुतः-यज्ञात्) उस सर्वहुत-समष्टि को विकसित करने वाले तथा सबके द्वारा हूयमान-ग्रहण किये जाने वाले सङ्गमनीय परमात्मा से (ऋच:-सामानि जज्ञिरे) ऋचाएँ और साममन्त्र उत्पन्न हुए (तस्मात्-छन्दांसि जज्ञिरे) उससे अथर्ववेद के मंन्त्र उत्पन्न हुए (तस्मात्-यजुः-अजायत)उससे यजुर्वेद उत्पन्न हुआ ॥७॥
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (3)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्याच्यापासून सर्व वेद उत्पन्न झलेले आहेत त्या परमेश्वराची उपासना करा व वेदांचे अध्ययन करा. वेदातील आज्ञेप्रमाणे वागून सुखी व्हा.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही जाणून घ्या की (तस्मात्) त्यापूर्ण (यज्ञात्) अत्यंत पूजनीय (सर्वहुतः) आणि ज्याला सर्वजण सर्व काही समर्पित करतात त्या परमेश्वरापासूनच (ऋचः) ऋग्वेद (सामानि) सामदेव (जज्ञिरे) उत्पन्न झाले आहेत (तस्मात्) त्याच्यापासूनच (छन्दांसि) अथर्ववेद (जज्ञिरे) उत्पन्न झाला आणि (वस्मात्) त्याच्यापासूनच (यजुः) यजुर्वेद (अजायत) उत्पन्न होतो वा झाला आहे. ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्यापासून सर्व वेद उत्पन्न झाले आहेत, त्या परमेश्वराची तुम्ही उपासना करा. वेदांचे अध्ययन करा आणि त्याच्या आज्ञेप्रमाणे आचरण करून सुखी व्हा. ॥7॥
व्याख्यान
प्रथम ईश्वराला नमस्कार करून व प्रार्थना करून वेदाच्या उत्पत्तीचा विषय लिहिला जात आहे. वेद कुणी उत्पन्न केलेले आहेत? (तस्मात् यज्ञात्स.) सत् ज्याचा कधी नाश होत नाही, चित् जो सदैव ज्ञानरूप असून, ज्याच्यात अज्ञानाचा लवलेशही नसतो, जो सदैव आनंदमय व सुखस्वरूप असून, सर्वांना सुख देणारा असतो. या लक्षणांनी युक्त पुरुष सर्वत्र व्याप्त आहे, परिपूर्ण आहे. जो सर्व माणसांनी उपासना करण्यायोग्य इष्टदेव व सर्व सामर्थ्याने युक्त आहे. त्याच परब्रह्मापासून (ऋच:) ऋग्वेद, (यजु:) यजुर्वेद, (सामानि) सामवेद व (छन्दांसि) अथर्ववेद हे चार वेद उत्पन्न झालेले आहेत. त्यासाठी सर्व माणसांनी वेदांचे ग्रहण करावे व वेदोक्त रीतीने आचरण करावे. ‘जज्ञिरे’ व ‘अजायत’ या दोन क्रियांच्या अधिकतेमुळे वेद अनेक विद्यांनी युक्त आहेत, असे म्हटले जाते, तसेच ‘तस्मात्’ ही दोन पदे अधिक असल्यामुळे हे निश्चित जाणले पाहिजे, की ईश्वरापासूनच वेद निर्माण झालेले आहेत. एखाद्या माणसापासून नव्हे. वेदात सर्व मंत्र गायत्री इत्यादी छंदांनीच युक्त आहेत. त्यामुळे ‘छन्दांसि’ या पदाने अथर्ववेदाच्या उत्पत्तीवर प्रकाश पडतो. शतपथ इत्यादी ब्राह्मण व वेदमंत्रांच्या प्रमाणाने हे सिद्ध होते, की यज्ञ शब्दाने विष्णू व विष्णू शब्दाने सर्वव्यापक परमेश्वराचे ग्रहण होते. कारण सर्व जगाची उत्पत्ती करणारा परमेश्वरच आहे, इतर कोणी नाही. ॥१॥ (यस्मादृचो अपा.) जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर आहे. त्याच्यापासूनच (ऋच:) ऋग्वेद, (यजु:) यजुर्वेद, (सामानि) सामवेद व (आङ्गिरस:) अथर्ववेद, हे चारही वेद उत्पन्न झालेले आहेत. याच प्रकारे रूपकालंकाराने वेदाची उत्पत्ती ईश्वरच करतो. अथर्ववेद माझ्या मुखाप्रमाणे, सामवेद लोमाप्रमाणे, यजुर्वेद हृदयाप्रमाणे व ऋग्वेद प्राणाप्रमाणे आहे. (ब्रूहि कतम: स्विदेव स:) चारही वेद ज्याच्याद्वारे उत्पन्न झालेले आहेत, तो कोणता देव आहे? ते मला सांगा. या प्रश्नाचे उत्तर असे आहे, की (स्कम्भंतं.) जो सर्व जगाचा धारणकर्ता परमेश्वर आहे, त्याचे नाव स्कम्भ आहे. त्यालाच तुम्ही वेदांचा कर्ता जाणा व हेही जाणा, की त्याला सोडून माणसांनी उपासना करण्यायोग्य दुसरा कोणी इष्टदेव नाही. असा दुर्दैवी मनुष्य कोण असेल जो वेदकर्त्या सर्वशक्तिमान परमेश्वराला सोडून दुसऱ्याला परमेश्वर मानून उपासना करील? ॥२॥ (एवं वा अरेऽस्य.) महाविद्वान महर्षी याज्ञवल्क्यांनी आपल्या पंडिता पत्नी मैत्रेयीला उपदेश केलेला आहे, की हे मैत्रेयी! जो आकाशापेक्षा मोठा परमेश्वर आहे त्याच्यापासनूच ऋक्, यजु:, साम व अथर्व, हे चार वेद उत्पन्न झालेले आहेत. जसा माणसाच्या शरीरातून श्वास बाहेर जातो व पुन्हा आत जातो त्याच प्रकारे सृष्टीच्या आरंभी ईश्वर वेद उत्पन्न करून जगात प्रकाश पसरवतो. प्रलयामध्ये वेद नसतात; परंतु त्याच्या ज्ञानात ते सदैव असतात. बीजांकुराप्रमाणे असतात. जसे बीजात अंकुर, प्रथमच असतो, तोच वृक्षरूप बनून बीजात असतो, याच प्रकारे वेद हे ईश्वराच्या ज्ञानात सदैव असतात. त्यांचा कधी नाश होत नाही. कारण ती ईश्वराची विद्या आहे, त्यामुळे ती नित्य आहे, हे जाणावे. ॥३॥
इंग्लिश (3)
Meaning
From that Adorable God unto Whom people make every kind of sacrifice, were created the Rig Veda. From Him was created the Atharva Veda and also the Yajur Veda.
Meaning
From that Lord of universal yajna were born the Riks and the Samans. From Him were born the Chhandas, and from Him were born the Yajus.
Translation
From that cosmic sacrifice in which everything has been offered as oblations, the Rks (verses) and the Samans (songs) are born. The Chandas (metres) of the Atharva, and the Yajuhs are also born from that sacrifice. (1)
Notes
Chandas, mantras of the Atharva Veda. Rk, Sāma, Yajuḥ and Atharva, all the four Vedas.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদের উচিত যে, (তস্মাৎ) সেই পূর্ণ, (য়জ্ঞাৎ) অত্যন্ত পূজনীয় (সর্বহুতঃ) যাহার জন্য সকলে সমস্ত পদার্থ প্রদান করে বা সমর্পণ করে সেই পরমাত্মা হইতে (ঋচঃ) ঋগ্বেদ, (সামানি) সামবেদ (জজ্ঞিরে) উৎপন্ন হয় (তস্মাৎ) সেই পরমাত্মা হইতে (ছন্দাংসি) অথর্ববেদ (জজ্ঞিরে) উৎপন্ন হয় এবং (তস্মাৎ) সেই পুরুষ হইতে (য়জুঃ) যজুর্বেদ (অজায়ত) উৎপন্ন হয়, তাহাকে জানো ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যাহা হইতে সকল বেদ উৎপন্ন হইয়াছে, তোমরা সেই পরমাত্মার উপাসনা কর, বেদ পড় এবং তাহার আজ্ঞা অনুযায়ী আচরণ করিয়া সুখী হও ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তস্মা॑দ্য॒জ্ঞাৎ স॑র্ব॒হুত॒ऽঋচঃ॒ সামা॑নি জজ্ঞিরে ।
ছন্দা॑ᳬंসি জজ্ঞিরে॒ তস্মা॒দ্যজু॒স্তস্মা॑দজায়ত ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তস্মাদিত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । স্রষ্টেশ্বরো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
তস্মাদ্যজ্ঞাৎ সর্বহুতঽঋচঃ সামানি জজ্ঞিরে।
ছন্দাংসি জজ্ঞিরে তস্মাদ্যজুস্তস্মাদজায়ত।।৬৮।।
(যজু ৩১।৭)
পদার্থঃ (তস্মাৎ) সেই পূর্ণ এবং (যজ্ঞাৎ) অত্যন্ত পূজনীয় (সর্বহুতঃ) যাঁকে সকল মনুষ্য সমস্ত পদার্থ সমর্পণ করেন, সেই পরমাত্মা হতে (ঋচঃ) ঋগ্বেদ ও (সামানি) সামবেদ (জজ্ঞিরে) উৎপন্ন হয়েছে। (তস্মাৎ) সে পরমাত্মা থেকেই (ছন্দাংসি) অর্থববেদ (জজ্ঞিরে) উৎপন্ন হয়েছে, (তস্মাৎ) সেই পরমাত্মা থেকে (যজুঃ) যজুর্বেদ (অজায়ত) উৎপন্ন হয়েছে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যাঁর কখনো নাশ হয় না, যিনি সদা জ্ঞান স্বরূপ , যাঁর কখনো লেশমাত্র অজ্ঞান নাই, আনন্দঘন যিনি, যিনি সদা সুখস্বরূপ এবং সকলের সুখদাতা, সর্বত্র পরিপূর্ণ, সকলের উপাসনার যোগ্য ও সর্বশক্তিমান; সেই পরমব্রহ্ম হতে (ঋচঃ) ঋগ্বেদ, (য়জু) যজুর্বেদ, (সামানি) সামবেদ এবং (ছন্দাংসি) অথর্ববেদ প্রকাশিত হয়েছে । এজন্য সকলেরই বেদশাস্ত্র গ্রহণ ও তদনুযায়ী আচরণ করা কর্তব্য । এই বেদ সকল সত্য বিদ্যার আধার।।৬৮।।
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