यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 3
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - हिरण्यगर्भः परमात्मा देवता
छन्दः - निचृत् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
7252
न तस्य॑ प्रति॒माऽअस्ति॒ यस्य॒ नाम॑ म॒हद्यशः॑।हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भऽइत्ये॒ष मा मा॑ हिꣳसी॒दित्ये॒षा यस्मा॒न्न जा॒तऽइत्ये॒षः॥३॥
स्वर सहित पद पाठन। तस्य॑। प्र॒ति॒मेति॑ प्रति॒ऽमा। अ॒स्ति॒। यस्य॑। नाम॑। म॒हत्। यशः॑ ॥ हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भ इति॑ हिरण्यऽग॒र्भः। इति॑। ए॒षः। मा। मा॑। हि॒ꣳसी॒त्। इति॑। ए॒षा। यस्मा॑त्। न। जा॒तः। इति॑। ए॒षः ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः।हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिꣳसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः॥३॥
स्वर रहित पद पाठ
न। तस्य। प्रतिमेति प्रतिऽमा। अस्ति। यस्य। नाम। महत्। यशः॥ हिरण्यगर्भ इति हिरण्यऽगर्भः। इति। एषः। मा। मा। हिꣳसीत्। इति। एषा। यस्मात्। न। जातः। इति। एषः॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यस्य महद्यशो नामास्ति यो हिरण्यगर्भ इत्येषो यस्य मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येष उपासनीयोऽस्ति तस्य प्रतिमा नास्ति। यद्वा पक्षान्तरम्-हिरण्यगर्भ इत्येष (२५.१०-१३) उक्तोऽनुवाको मा मा हिंसीदित्येषोक्ता (१२.१०२) ऋग् यस्मान्न जात इत्येष (८.३६-३७) उक्तोऽनुवाकश्च। यस्य भगवतो नाम महद्यशोऽस्ति तस्य प्रतिमा नास्ति॥३॥
पदार्थः
(न) निषेधे (तस्य) परमेश्वरस्य (प्रतिमा) प्रतिमीयते यया तत्परिमापकं सदृशं तोलनसाधनं प्रतिकृतिराकृतिर्वा (अस्ति) वर्त्तते (यस्य) (नाम) नामस्मरणम् (महत्) पूज्यं बृहत् (यशः) कीर्त्तिकरं धर्म्यकर्म्मचरणम् (हिरण्यगर्भः) सूर्यविद्युदादिपदाधिकरणः (इति) (एषः) अन्तर्यामितया प्रत्यक्षः (मा) निषेधे (मा) मां जीवात्मानम् (हिंसीत्) हन्यात् ताडयेद् विमुखं कुर्यात् (इति) (एषा) प्रार्थना प्रज्ञा वा (यस्मात्) कारणात् (न) निषेधे (जातः) उत्पन्नः (इति) (एषः) परमात्मा॥३॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यः कदाचिद्देहधारी न भवति यस्य किञ्चिदपि परिमाणं नास्ति, यस्याज्ञापालनमेव नामस्मरणमस्ति, य उपासितः सन्नुपासकाननुह्णाति वेदानामनेकस्थलेषु यस्य महत्त्वं प्रतिपाद्यते यो न म्रियते न विक्रियते न क्षीयते तस्यैवोपासानां सततं कुरुत, यद्यस्माद्भिन्नस्योपासनां करिष्यन्ति तर्ह्यनेन महता पापेन युक्ताः सन्तो भवन्तो दुःखक्लेशैर्हता भविष्यन्ति॥३॥
हिन्दी (6)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (यस्य) जिसका (महत्) पूज्य बड़ा (यशः)कीर्त्ति करनेहारा धर्मयुक्त कर्म का आचरण ही (नाम) नामस्मरण है, जो (हिरण्यगर्भः) सूर्य बिजुली आदि पदार्थों का आधार (इति) इस प्रकार (एषः) अन्तर्यामी होने से प्रत्यक्ष जिसकी (मा) मुझको (मा, हिंसीत्) मत ताड़ना दे वा वह अपने से मुझ को विमुख मत करे, (इति) इस प्रकार (एषा) यह प्रार्थना वा बुद्धि और (यस्मात्) जिस कारण (न) नहीं (जातः) उत्पन्न हुआ (इति) इस प्रकार (एषः) यह परमात्मा उपासना के योग्य है। (तस्य) उस परमेश्वर की (प्रतिमा) प्रतिमा-परिमाण उसके तुल्य अवधि का साधन प्रतिकृति, मूर्ति वा आकृति (न, अस्ति) नहीं है। अथवा द्वितीय पक्ष यह है कि (हिरण्यगर्भः॰) इस पच्चीसवें अध्याय में १० मन्त्र से १३ मन्त्र तक का (इति, एषः) यह कहा हुआ अनुवाक (मा, मा, हिंसीत्) (इति) इसी प्रकार (एषा) यह ऋचा बारहवें अध्याय की १०२ (वां) मन्त्र है और (यस्मान्न जातः—इत्येषः॰) यह आठवें अध्याय के ३६, ३७ दो मन्त्र का अनुवाक (यस्य) जिस परमेश्वर की (नाम) प्रसिद्ध (महत्) महती (यशः) कीर्ति है, (तस्य) उसका (प्रतिमा) प्रतिबिम्ब (तस्वीर) (न, अस्ति) नहीं है॥३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो कभी देहधारी नहीं होता, जिसका कुछ भी परिमाण सीमा का कारण नहीं है, जिसकी आज्ञा का पालन ही नामस्मरण है, जो उपासना किया हुआ अपने उपासकों पर अनुग्रह करता है, वेदों के अनेक स्थलों में जिसका महत्त्व कहा गया है, जो नहीं मरता, न विकृत होता, न नष्ट होता उसी की उपासना निरन्तर करो। जो इससे भिन्न की उपासना करोगे तो इस महान् पाप से युक्त हुए आप लोग दुःख-क्लेशों से नष्ट होओगे॥३॥
विषय
ईश्वर की कोई प्रतिमा नही
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
पूज्य महानन्द जीः जब दुराचार होने लगा तो भगवन्! आज से २२०० वर्ष या कुछ अधिक वर्ष हो गए जब महात्मा शङ्कराचार्य आ पधारे। जिस समय वह १२ वर्ष के थे, अपनी माता से कहा मैं तो इस संसार को जगाना चाहता हूँ। यह संसार मुझे अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है। महात्मा शङ्कराचार्य पूर्व जन्म के कुटली मुनि महाराज थे। उनकी आत्मा ने यहाँ आकार जन्म धारण किया। परमात्मा के अनुकूल ऐसी ऐसी महान आत्मा, यौगिक आत्मा संसार में आती रहती हैं और आ करके धर्म का कुछ न कुछ पालन करा ही देती हैं। देखो, उसकी माता ने कहा, हे बेटा! तुझे धन्य है, जो तूने ऐसे महान विचारों का सङ्कल्प किया है। इन विचारों को संसार के समक्ष नियुक्त करो, जिससे यह संसार अन्धकार से पृथक हो जाए। तो हे गुरुदेव! उस महात्मा शङ्कराचार्य ने आ करके, इस संसार का निर्माण करना प्रारम्भ कर दिया। महात्मा बुद्ध और महात्मा महावीर के मानने वाले जो अनुयायी थे उनसे शास्त्रार्थ किया। मूर्ति पूजा के विषय में शास्त्रार्थ करते थे। उनका यह कथन था, कि मेरा यह नियम है, कि मैं शास्त्रार्थ में हार जाऊँगा तो मैं मूर्ति पूजक बन जाऊंगा और यदि नहीं हारा, तो तुम्हारी इन मूर्तियों को नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा। हे गुरुदेव! हमने महात्मा शङ्कराचार्य को देखा। वह शास्त्रार्थ करते थे और आत्मा, परमात्मा के विषय में और जब विपक्षी थकित हो जाते थे, तो अपने खांडे को लेकर, मूर्तियों पर आक्रमण करते थे। उनको, उनके स्थान से पृथक कर दिया जाता था। महात्मा शङ्कराचार्य ने बहुत कुछ उपकार किया था। धर्म का बहुत बड़ा कल्याण किया था। आत्मा परमात्मा को पृथक मान करके, उन्होंने और बौद्धमत के अनुयायियों को चकित कर दिया। एक समय अभाव में आ करके, उन्होंने वेदान्त का पाठ किया, और वेदान्त कही महान ऊँची गहराई में जा करके, उन्होंने कहा कि भाई! आत्मा और परमात्मा का भाव एक ही प्रतीत होता है। परन्तु फिर भी उन्होंने यह नही कहा, यहाँ भाव तो एक ही है। जैसे माता का बालक है, और माता के गर्भ में रहता है, माता के समक्ष नहीं होता, न माता को ही दिखता और न संसार को दिखता, ऐसे ही हम आत्मा जब मोक्ष में जाते हैं तो परमात्मा के गर्भ में चले जाते है परमात्मा के गुण हममें प्रविष्ट हो जाते हैं उस समय हम अपने को परमात्मा मान लेवें तो कोई हानि नहीं। परन्तु वास्तव में हम परमात्मा तो नही है। हम किसी को तभी पावेगें जब उनके गुण में रमण करेंगे, उसके गुणों की वार्ता उच्चारण करेंगे, अन्यथा हम किसी प्रकार भी रमण नहीं करेंगे।
जैसे शङ्कराचार्य ने पूर्व महान आत्माओं के कथन को अपनाया, ऐसे ही इस महान दयानन्द ने यहाँ आ करके संसार में ज्ञान का प्रसार किया। वह नाना मूर्तिपूजकों के समक्ष पहुँचे, शास्त्रार्थ किया। जैसे शङ्कराचार्य के ऊपर बड़ी बड़ी महान आपत्तियां आयी, इसी प्रकार दयानन्द के समक्ष आयी, परन्तु पूर्वजन्म के ऋषि होने के नाते, इस संसार का उत्थान करने के लिए, परमात्मा के नियमों का पालन करने के लिए वह संसार में आए और वेद की विद्या को खोजा और जहां भी वेद की विद्या मिली ग्रहण किया। ग्रहण करके, नाना पर्वतों में भ्रमण कर, उन्होंने वेद की विद्या का प्रसार किया। उन्होंने उन शास्त्रों की वार्त्ताओं को अपनाया, जिन्हें हमारे जैमिनि मुनि ने, हमारे गुरु ब्रह्मा आदि सबने अपनाया। स्वामी शङ्कराचार्य ने जिस मत को माना और जिस दार्शनिक विषय को माना, वह उन्होंने मान करके, इस संसार में प्रसार प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने बड़ी ऊँची वेद की विद्या को समक्ष कर दिया, परन्तु जो मानव समझ नहीं पाते, वे न समझें। परन्तु वह वेद की विद्या के एक बहुत ही ऊँचे महान माने गए हैं।
तो आज मैं बेटा! विशेष नहीं मानो आलंकारिक यह वार्ता बन जाती है क्या वह जो नाग था, कालीदह में रहने वाला नाग, मानो देखो, उसको उन्होंने छेदन्य कर दिया, उसको जब नाख दिया तो मेरे प्यारे! देखो, उसके पांच फनों पर नृत्त कर रहे हैं। मेरे प्यारे! देखो, यह योग का विषय बन जाता है। जब योगी, मुनिवरों! मन और प्राण को विवेक में परणित हो करके और योगेश्वर बेटा! देखो, अपने में अपनेपन को दृष्टिपात करके, वह जो मुनिवरों! देखो, हमारे यहाँ दोषों का एक पांच फन बन जाते हैं, बेटा! काम, लोभ, मोह, मद, क्रोध इनको बेटा! योगी अपने में छेदन्य कर देता है और जब यह छेदन्य हो जाते हैं, तो मेरे प्यारे! देखो, योगी उस प्रभु का दर्शन करता है।
प्रभु दर्शन
पूज्यपाद गुरुदेवः तो मेरे प्यारे! एक विचार तो तुम्हें गम्भीरता के सूत्र में नही धारण कराना चाहता हूँ। केवल यह है कि क्या मानो देखो, सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण यह तीन गुण कहलाते हैं, मानो देखो, तीन गुण एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे के पूरक होने से, इसीलिए जो साधक हैं, विवेकी है उग्र क्रियावादी है सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण सबको त्याग करके मोक्ष की पगडण्डी को ग्रहण करता है। मानो देखो, वह तीनों को त्याग देता है रजोगुण, सतोगुण, तमोगुण इन सबको त्याग करके, वह उपरामता को प्राप्त हो करके शून्य बिन्दु पर अपने को ले जाता है। प्रभु का दर्शन करता है, वह आनन्दमयी दर्शनां ब्रह्मे तो प्रभु दर्शन क्या है? प्रत्येक मानव दर्शनों का पिपासी रहता है, प्रत्येक मानव के हृदय में दर्शन की बड़ी पिपासी रहती है क्या मैं प्रभु का दर्शन कर रहा हूँ, मैं प्रभु के दर्शन करना चाहता हूँ।
तो मेरे प्यारे! देखो, वेद का वाक कहता है, दर्शनं ब्रह्मा दर्शनं देवत्वं विष्णु दर्शनं ममं ब्रह्मे लोकाम् मानो देखो, दर्शन उसके कहते हैं, जो मेरे प्यारे! देखो, मानव समाधिष्ट हो जाता है, जिस प्रवृत्ति में मानव समाधिष्ट हो जाएं, और उसके उपरामता में परणित हो जाएं, उसका नाम दर्शन कहा जाता है, और विवेचना हो सकती है, एक मानो दर्शनों की विवेचना है, क्या यह जो प्रभु का रचाया हुआ अनुपम जगत है मानो देखो, इस जगत में जब प्रभु एक चेतना का भान करता है, एक चेतना का अनुभव करता है, तो मुनिवरों! देखो, वह भी दर्शन कहलाता है। मानो देखो, इसके ऊपर और भी विवेचना की जाती है, मानो जब मानव समाधिष्ट होता है, देखो, योग में परणित होता हुआ, रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण को त्याग करके, जब मानव देखो, एक ही रस हो करके वह मानो देखो, रहस्यमयी जीवन बना हुआ है वह भी बेटा! एक दर्शन कहलाता है। मैं भी दर्शन कर रहा हूँ, मेरे प्यारे! देखो, इसका और भी, इसकी विवेचना की जाती है, क्या मानो देखो, एक कणक से ले करके और पर्वतों तक, हिमालय तक मानो देखो, जो भान कर रहा है इसमें मानो देखो, पिण्ड के रूप में भी प्रभु है, और जो गतिवान है, वह उसमें भी प्रभु है, तो मानो देखो, जिस प्रकार दोनों का समन्वय हो जाता है, प्रभु और यह ब्रह्माण्ड जब एक सूत्र में पिरोएं जाते हैं। तो देखो, वह भी हमारे यहाँ चैतन्यं ब्रह्मा कृतं लोकां मेरे प्यारे! देखो, एक उसकी विवेचना यह भी की जा सकती है, क्या मैं दर्शन कर रहा हूँ, मैं पिण्ड में भी दर्शन कर रहा हूँ, इस पिण्ड में देखो, मैं एक पिण्ड में मानो देखो, आपो का दर्शन कर रहा हूँ, यह अग्नि का दर्शन कर रहा हूँ, मैं गुरूतव का दर्शन कर रहा हूँ, और गुरूतव में मानो जो प्रतिक्रियाओं को देने वाला है, वह परमपिता परमात्मा है। तो मैं उसका दर्शन कर रहा हूँ।
आओ, मेरे प्यारे! देखो, एक यहाँ हमारे यहाँ पुरातन काल में नाना प्रकार में नाना प्रकार की अग्नियों का चयन करने वाले बुद्धिमान पुरूष हुए हैं, मुनिवरों! देखो, वह अग्नि कौन सी है? जो प्राण रूपी अग्नि है मानो देखो, यह स्वरों में निहित रहने वाली हैं जो प्राण मेरे प्यारे! देखो, जो प्राणों को जान लेता है, वह संसार की प्रतिक्रिया को जान लेता है। मेरे प्यारे! देखो, पृथ्वी में प्राण बह रहा है, और नाना वनस्पतियों को रस प्रदान कर रहा हैं, सत्ता दे रहा है, वही मुनिवरों! देखो, प्राण, मानव के शरीर में विद्यमान हैं, योगी जन विचारता है, क्या इस शरीर में तो आत्मा की छाया का नाम प्राण है, और मुनिवरों! देखो, विचारवेत्ता, विचारता विचारता निर्णय पर चला जाता है। क्या जो पृथ्वी में प्राण बह रहा है, जो प्राण वायु में गमन कर रहा है, जो प्राण मानो देखो, जो प्राण शब्दों के लिए गमन कर रहा हैं, वह प्राण विश्वभान होता हैं, विश्वभान प्राण मेरे प्यारे! देखो, वह प्रभु की छाया कहलाता हैं मेरे पुत्रों! देखो, अन्त में योगी योगाभ्यास करता हुआ वह आत्मा की छाया परमात्मा की छाया से जब व्यष्टि को समष्टि में प्रवेश कर देता है तो बेटा! वह योगेश्वर बन जाता हैं तो मेरे प्यारे! विचार विनिमय क्या मैं विशेष चर्चा तुम्हें देने नही आया हूँ क्योंकि मैं इसका व्याख्याता इतना नही हूँ क्योंकि परिचय देने के लिए मैं आया हूँ, और परिचय क्या है कि हम इस अग्नि का अपने मे चयन करते चले जाएं यह अग्नि बेटा! देखो, योगियो से जब योगी इसको दमन कर लेता है अग्नि को मेरे प्यारे! प्राण सूत्र में अग्नि को पिरो देता है और मुनिवरों! देखो, प्राण को आत्मा में पिरो देता है तो बेटा! प्रभु का दर्शन हो जाता है।
विषय
(सिद्धान्त खण्ड) मूर्ति पूजा
शब्दार्थ
(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति, प्रतिकृति, प्रतिनिधि, मापक, परिमाण (न अस्ति) नहीं है (एष: हिरण्यगर्भ: इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से वह हिरण्यगर्भ है । (मा मा हिंसीत् इति एषा) ‘मेरी हिंसा मत कर’ ऐसी प्रार्थना उसी से की जाती है (यस्मात् न जातः इति एष:) ‘जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ’ ऐसा जो प्रसिद्ध है - उस परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है।
भावार्थ
ईश्वर का सामर्थ्य महान् व उसका यश भी महान् है । ‘हिरण्यगर्भ:’ यजु० २५ । १०-१३ में जिसका वर्णन है । ‘यस्मान्न जात:’ यजु० ८। ३६ में जिसका गुण-गान है । ‘मा मा हिंसीत् ‘ यजु० १२ । १०२ में जिसका चित्रण है । वह प्रभु बहुत महान् है । वह संसार के सभी चमकीले पदार्थों को अपने गर्भ में धारण कर रहा है। संसार में उस जैसा कोई न आज तक उत्पन्न हुआ है और न भविष्य में होगा । विपत्ति और कष्टों में मनुष्य उसी परमात्मा को पुकारते हैं । ऐसे गुणागार, कृपासिन्धु, महान् एवं व्यापक परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है। जब परमात्मा की कोई मूर्ति नहीं है तब मूर्तिपूजा अवैदिक है। भागवत १० । ८४ । १३ के अनुसार मूर्तिपूजक ‘गोखर’ गौओं का चारा ढोनेवाला गधा है ।
विषय
उसका कोई परिणाम नहीं ।
भावार्थ
(यस्य) जिसका ( महत् ) बड़ा भारी (नाम) नाम, स्वरूप और जगत् को वश करने का सामर्थ्य है और जिसका (महद् यश:) बड़ा भारी यश है । (तस्य) उसकी ( प्रतिमा न अस्ति ) कोई मापक साधन, परिमाण, प्रतिकृति नहीं है । ( हिरण्यगर्भः इति ) 'हिरण्यगर्भः सम- वर्तताग्रे० ' यह अनुवाक (अ० २५ । १०-१३) (यस्मान्न जातः इति एषा ) 'यस्मान्न जातः ० [अ० ८।३६ ] इत्यादि ऋचा और (मा मा हिंसीदित्येषा) ' मा मा हिंसीत् ० ' इत्यादि अनुवाक में (१२/१०२ ) ( यस्य महत् यश:) जिसका बड़ा यशोगान है । अथवा - ( एषः हिरण्यगर्भः इति ) वह परमेश्वर ही अपने भीतर सूर्यादि लोकों को धारण करने हारा 'हिरण्यगर्भ' कहाता है । ( मा मा हिंसीत् इति एषा ) मुझे मत मार इस प्रकार की प्रार्थना उसी से की जाती है । (यस्मात् न जातः) जिससे बढ़ कर कोई नहीं पैदा हुआ है । (२) राजा के पक्ष में- जिसका मननकारी बल और यश बड़ा हो उसका (प्रतिमा) मुकाबले का कोई नहीं । उसका 'हिरण्यगर्भ' इत्यादि सूक्तों से भी वर्णन किया जाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यगर्भः परमात्मा । निचृत् पंक्तिः । पंचमः ॥
विषय
प्रभु का प्रतिरूप - विनीतता + नामस्मरण
पदार्थ
(तस्य) = उस प्रभु की (प्रतिमा:) = मूर्ति, नाप, सादृश्य, तुल्यता (न अस्ति) = नहीं है। २. प्रभु वे हैं (यस्य) = जिनका (नाम) = नामस्मरण व जिनके प्रति नमन जीव के लिए (महद्यशः) = महान् यश का कारण है। नमन से जीव का जीवन यशस्वी बनता है। नामस्मरण से वैसा बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है, एक लक्ष्यदृष्टि उत्पन्न होती है जो हमें अत्यधिक उत्थान पर पहुँचाती है। सच्चा नामस्मरण तो है ही तदनुरूप बनना ।
भावार्थ
भावार्थ - ईश्वर की मूर्ति नहीं है। हम निराकार प्रभु का स्मरण करें, जिससे हमारा जीवन बड़ा यशस्वी हो।
मन्त्रार्थ
(यस्य नाम महत्-यशः) जिस परमात्मदेव का यश-गुणवर्णन महान् है (तस्य प्रतिमा न अस्ति) उसकी प्रतिमा-प्रतिरूपक नहीं है (हिरण्यगर्भः-इति-एषः) हां वह हिरण्यगर्भ-सूर्य आदि सुनहरे पिण्डों को गर्भ में अपने अन्दर रखे हुए है यह ऐसा प्रसिद्धि प्राप्त नाम वाला है (मा मा हिंसीत्-इति-एषा) मुझ जीवात्मा या उपासक को हिंसित नहीं करता है यह भी प्रसिद्धि है (यस्मात्-एष-न जात:-इति-एषः) क्योंकि यह उत्पन्न नहीं हुआ अपितु यह उत्पादक है इससे भी परमात्मा यशोभाकः है यह प्रसिद्ध ॥३॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो कधी देह धारण करत नाही. ज्याच्या परिमाणाला कोणतीही सीमा नसते. ज्याच्या आज्ञेचे पालन म्हणजेच नामस्मरण असते व जो उपासकांवर अनुग्रह करतो त्याचे वेदामध्ये महत्त्व प्रतिपादित केलेले आहे. जो मर्त्य नाही, विकृत नाही, नष्ट होत नाही त्याचीच उपासना करा. यापेक्षा भिन्न असलेल्यांची उपासना कराल तर महापापाचे दुःख व क्लेश भोगून नष्ट व्हाल.
विषय
पुन्हा, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (यशः) कीर्तिकारक धर्ममय आचरण करणे हेच (यस्य) ज्या (महत्) पूजनीय परमेश्वराचे (नाम) श्रेष्ठ नामस्मरण आहे, तो (हिरण्यगर्भः) सूर्य, विद्युत आदी पदार्थांचा आधार (इति) असा आहे. (एषः) अंतर्यामी असल्यामुळे (मा) त्याने मला (मा, हिंसीत्) ताडना करू नये अथवा त्याने आपल्यापासून मला कधी विमुख करू नये (अशी मी इच्छा करतो) (इति) अशी (एषा) ही प्रार्थना करतो. (यस्मात्) ज्या अर्थी तो (न) (जातः) कधी जन्मला नाही, त्याअर्थी (इति) अर्थ असा की (एषः) हा परमात्माच उपासनीय आहे. (जन्मणार्या मरणार्या अनित्य मनुष्याची उपासना, करू नये) (तस्य) त्या परमेश्वराची (प्रतिमा) प्रतिमा, परिमाण नाही. त्याच्या समान कोणी नाही, तो अवधि वा आकारात येणार नाही. त्याची प्रतिकृती, मुर्ती वा आकृती (न, अस्ति) नाही. (नित्य निराकाराची प्रतिमा वा मूर्ती नाही व करताही येत नाही) ^अथवा - या मंत्राचा दुसरा पक्ष असा की (हिरण्यगर्भः) या वेदाच्या पंचेविसाव्या अध्यायातील 10 ते 13 मंत्रापर्यंत म्हणलेला अनुवाक (मा, मा, हिंसीत्) (इति) याचप्रमाणे (एषा) यह ऋचा बाराव्या अध्यायाचा 102 वा मंत्र आहे, आणि (यस्मान्न जातःइत्येषः) या आठव्या अध्यायाच्या 36/37 या दोन मंत्राचा अनुवाक (यस्य) ज्या परमेश्वराचे (नाम) प्रख्यात (महत्) महती (यशः) कीर्ति आहे, (तस्य) त्याची (प्रतिमा) प्रतिबिम्ब (चित्र) नाहीं ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जो कधी शरीर धारण करीत नाही, ज्याचे कुठलेही वा कोणतेही परिणाम (मोजमाप) नाही, ज्याची सीमा नाही, ज्याच्या आज्ञेचे पालनही नामस्मरण आहे, उपासना करणार्यावर जो आग्रह करतो, वेदांच्या अनेक मंत्रात ज्याचे महत्त्व प्रतिसादले आहे, जे कधी मरत नाही, ज्याच्यात कोणतीही विकृती वा विनाश होत नाही, हे मनुष्यांनो, तुम्ही त्या परमेश्वराची उपासना निरंतर करा. जर अशा परमेश्वरापासून भिन्न अशा (देवी-देवतांची) उपासना कराल, तर या अशा पापकृत्यामुळे तुम्ही महान दुःख, क्लेशादी भोगाल व नष्ट व्हाल. ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
There is no image of Him whose glory verily is great. He sustains within Himself all luminous objects like the Sun etc. May He not harm me, this is my prayer. As He is unborn, He deserves our worship.
Meaning
There is none and nothing like Him, no picture, no icon, no simile, no metaphor. Great is His Name, mighty His glory. “He is the Golden Seed of the universe”, it is apparent. “No, no, do not kill me, do not punish, I pray”, such is the prayer of humanity to Him. “No one ever born is greater than He or beyond Him”, such is clearly the voice of the Veda.
Translation
There is no image to compare with Him, who is the greatest glory and who is mentioned in the Vedic verses beginning with Hiranyagarbhah (XXV. 10), and Ma ma himsit (XII. 102) and Yasmanna jatah (VIII. 36). (1)
Notes
Pratima, पर्तिमानभूतं, something that resembles Him or is like or similar to Him. Also, an image. There is nothing to compare Him with. Hiranyagarbhaḥ etc. these six verses of the Yajurveda XXV. 10-13, XII. 102 and VIII. 36-37 are to be repeated here to make the meaning of this verse complete.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ– হে মনুষ্যগণ! (য়স্য) যাহার (মহৎ) পূজ্য বৃহৎ (য়শঃ) কীর্ত্তিকর ধর্ম্মকর্ম্ম আচরণই (নাম) নামস্মরণ, যিনি (হিরণ্যগর্ভঃ) সূর্য্য, বিদ্যুৎ আদি পদার্থের আধার (ইতি) এই প্রকার (এষঃ) অন্তর্য্যামী হওয়ায় প্রত্যক্ষ, যিনি (মা) আমাকে (মা, হিংসীৎ) তাড়না না করেন অথবা তিনি নিজের হইতে আমাকে বিমুখ না করেন (ইতি) এই প্রকার (এষা) এই প্রার্থনা বা বুদ্ধি এবং (য়স্মাৎ) সে কারণে (ন) না (জাতঃ) উৎপন্ন হইয়াছে (ইতি) এই প্রকার (এষঃ) এই পরমাত্মা উপাসনার যোগ্য । (তস্য) সেই পরমেশ্বরের (প্রতিমা) প্রতিমা-পরিমাণ, তাহার তুল্য অবধির সাধন প্রতিকৃতি, মূর্ত্তি বা আকৃতি (ন, অস্তি) নাই । অথবা দ্বিতীয় পক্ষ এই যে, (হিরণ্যগর্ভঃ) এই পঁচিশতম অধ্যায়ে ১০ মন্ত্র হইতে ১৩ মন্ত্র পর্য্যন্তর (ইতি) এই প্রকার (এষা) এই ঋচা দ্বাদশতম অধ্যায়ের ১০২ তম মন্ত্র এবং (য়স্মান্ন জাতঃ – ইত্যেষঃ) এই অষ্টম অধ্যায়ের ১৬, ৩৭ দুইটি মন্ত্রের অনুবাক (য়স্য) যে পরমেশ্বরের (নাম) প্রসিদ্ধ (মহৎ) মহতী (য়শঃ) কীর্ত্তি, (তস্য) তাহার (প্রতিমা) প্রতিবিম্ব (ন, অস্তি) নাই ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যিনি কখনও দেহধারী হন্ না, যাহার কোনও পরিমাণ সীমার কারণ নহে, যাহার আজ্ঞাপালনই নামস্মরণ, যিনি উপাসনা করা হইলে, নিজ উপাসকদের প্রতি অনুগ্রহ করেন, বেদের অনেক স্থলে যাহার মহত্ত্ব বলা হইয়াছে, যিনি মৃত্যু প্রাপ্ত হন না, বিকৃত হন্ না, না নষ্ট হন্, তাঁহারই উপাসনা নিরন্তর কর । ইহার ভিন্ন অন্য কাহারও উপাসনা করিলে, মহান্ পাপ দ্বারা যুক্ত হইয়া তোমরা দুঃখ-ক্লেশ দ্বারা নষ্ট হইয়া যাইবে ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ন তস্য॑ প্রতি॒মাऽঅস্তি॒ য়স্য॒ নাম॑ ম॒হদ্যশঃ॑ ।
হি॒র॒ণ্য॒গ॒র্ভऽইত্যে॒ষ মা মা॑ হিꣳসী॒দিত্যে॒ষা য়স্মা॒ন্ন জা॒তऽইত্যে॒ষঃ ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ন তস্যেত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । হিরণ্যগর্ভঃ পরমাত্মা দেবতা । নিচৃৎ পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal