यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 6
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - निचृत त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1177
येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी च॑ द्य्॒ढा येन॒ स्व स्तभि॒तं येन॒ नाकः॑।योऽ अ॒न्तरि॑क्षे॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥६॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑। द्यौः। उ॒ग्रा। पृ॒थि॒वी। च॒। दृ॒ढा। येन॑। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। स्त॒भि॒तम्। येन॑। नाकः॑ ॥ यः। अ॒न्तरि॑क्षे। रज॑सः। विमान॒ इति॑ वि॒ऽ मानः॑। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्व स्तभितँयेन नाकः । यो अन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
येन। द्यौः। उग्रा। पृथिवी। च। द्य्ढा। येन। स्वरिति स्वः। स्तभितम्। येन। नाकः॥ यः। अन्तरिक्षे। रजसः। विमान इति विऽ मानः। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! येनोग्रा द्यौः पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः स्तभितो योऽन्तरिक्षे वर्त्तमानस्य रजसो विमानोऽस्ति, तस्मै कस्मै देवाय वयं हविषा विधेमैवं यूयमप्येनं सेवध्वम्॥६॥
पदार्थः
(येन) जगदीश्वरेण (द्यौः) सूर्यादिप्रकाशवान् पदार्थः (उग्रा) तीव्रतेजस्का (पृथिवी) भूमिः (च) (दृढा) दृढीकृता (येन) (स्वः) सुखम् (स्तभितम्) धृतम् (येन) (नाकः) अविद्यमानदुःखो मोक्षः (यः) (अन्तरिक्षे) मध्यवर्त्तिन्याकाशे (रजसः) लोकसमूहस्य। लोका रजांस्युच्यन्त इति निरुक्तम्। (विमानः) विविधं मानं यस्मिन् सः (कस्मै) सुखस्वरूपाय (देवाय) स्वप्रकाशाय सकलसुखदात्रे (हविषा) प्रेमभक्तिभावेन (विधेम) परिचरेम प्राप्नुयाम वा॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यः सकलस्य जगतो धर्त्ता सर्वसुखप्रदाता मोक्षसाधक आकाश इव व्याप्तः परमेश्वरोऽस्ति तस्यैव भक्तिं कुरुत॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (येन) जिस जगदीश्वर ने (उग्रा) तीव्र तेजवाले (द्यौः) प्रकाशयुक्त सूर्य्यादि पदार्थ (च) और (पृथिवी) भूमि (दृढा) द्य्ढ़ की है, (येन) जिसने (स्वः) सुख को (स्तभितम्) धारण किया, (येन) जिसने (नाकः) सब दुःखों से रहित मोक्ष को धारण किया, (यः) जो (अन्तरिक्षे) मध्यवर्ती आकाश में वर्त्तमान (रजसः) लोकसमूह का (विमानः) विविध मान करने वाला है, उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) स्वयं प्रकाशमान, सकल सुखदाता ईश्वर के लिये हम लोग (हविषा) प्रेम भक्ति से (विधेम) सेवाकारी वा प्राप्त होवें॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो समस्त जगत् का धर्त्ता, सब सुखों का दाता, मुक्ति का साधक, आकाश के तुल्य व्यापक परमेश्वर है, उसी की भक्ति करो॥६॥
विषय
सबका धारक प्रभु।
भावार्थ
(येन) जिस परमेश्वर ने ( द्यौः ) आकाश को (उग्रा) विशेष बलशालिनी और वृष्टिदायिनी बनाकर उसको धारण किया और (येन) जिसने (दृढा च पृथिवी) पृथिवी को दृढ बना कर धारण किया । (येन ) जिसने (स्व: स्तभितम् ) समस्त सुख या तेजोमय आदित्य को धारण किया है, (येन नाक: ) जिसने आनन्दमय, सर्वदुःखरहित मोक्ष को धारण किया है । (यः) जो (अन्तरिक्षे ) अन्तरिक्ष में विद्यमान (रजसः) समस्त लोकों को और ( विमानः ) विशेष रूप से बनाने और जानने हारा है (कस्मै) उस प्रजापति स्वरूप, आनन्दमय, परमेश्वर की (हविषा) भक्ति से ( विधेम ) स्तुति अर्चना करें।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमात्मा । निवृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
उग्रता व दृढ़ता, कर्म, अकर्म, विकर्म
पदार्थ
१. (येन) = जिसने (द्यौः) = द्युलोक को उग्रा बड़ा तेजस्वी बनाया है। द्युलोक में सूर्य व सितारे चमक रहे हैं। उनकी ज्योति से यह जगमगा रहा है। शरीर में मस्तिष्क ही द्युलोक है। इसे भी ब्रह्मज्ञान के सूर्य से तथा विविध विज्ञानों के नक्षत्रों से दीप्त करना है। २. (च) = और जिसने (पृथिवी) = पृथिवीलोक को दृढा दृढ़ बनाया है। ('पृथिवी शरीरम्') = यह शरीर ही पृथिवीलोक है। जैसे पृथिवी दृढ़ है, इतने आघातों को सहती हुई यह पृथिवी कम्पित नहीं हो उठती, आकाश से होनेवाली बूँदों व ओलों के आघातों को शान्तिपूर्वक सहनेवाली यह 'क्षमा' है, 'धरा' है, सहनेवाली है, धारण करनेवाली है। ठीक इसीप्रकार हमारा शरीर पत्थर के समान दृढ़ हो। ३. (येन) = जिस प्रभु ने (स्वः) = स्वर्गलोक को (स्तभितम्) = थामा है, आधार दिया है। 'स्वर्गकामो यजेत' = इस स्वर्ग को शास्त्रनिष्ठ लोग वेदविहित यज्ञों के द्वारा प्राप्त किया करते है। इन यज्ञों के द्वारा ('यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म') = श्रेष्ठतम कर्मों के द्वारा कर्मकाण्डी स्वर्ग प्राप्त करते है। 'आयुः प्राणम्, प्रजाम्, पशुम्, कीर्तिम्, द्रविणम्, ब्रह्मवर्चसम्= ब्रह्मवेद के मन्त्र के अनुसार वहाँ स्वर्ग में दीर्घायुष्य है, प्राणशक्ति है, उत्तम गवादि पशु हैं, उत्तम प्रजा है, कीर्ति है, सम्पत्ति है, ब्रह्मतेज है। इन सब वस्तुओं के होने पर घर सचमुच स्वर्ग बन जाता है। ४. (येन) = जिस प्रभु ने (नाक:) = मोक्षलोक को (स्तभितम्) = थामा है। उन्हीं यज्ञों को जब ये लोग निष्काम होकर करते हैं तब ये यज्ञादि कर्म ही अकर्म हो जाते हैं। सङ्ग व फल को छोड़कर किये गये ये यज्ञ मनुष्य को मोक्ष का अधिकारी बनाते हैं। (ब्रह्म) = अथर्ववेद की समाप्ति पर कहा है कि इन 'आयुप्राण' आदि को ('मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्') = मुझे लौटाकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करलो । कामना से ऊपर उठकर किये गये कर्म ही अकर्म हो जाते हैं और इनसे मनुष्य मोक्ष-नाकलोक का लाभ करता है। ५. (यः) = जो प्रभु (अन्तरिक्षे) = इस अन्तरिक्ष में (रजसः) = लोकलोकोन्तरों को (विमानः) = विविध उद्देश्यों से बना रहे हैं। शास्त्रविरुद्ध कर्म ही विकर्म हैं, इन विकर्मियों के लिए ही विविध लोकों का निर्माण किया गया है। कर्मानुसार उस-उस लोक में जीव को वे प्रभु जन्म देते हैं । ६. उस (कस्मै) = आनन्दस्वरूप (देवाय) दिव्य गुणों के पुञ्ज व देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करें। प्रभु आनन्दमय हैं, चूँकि देनेवाले हैं और दिव्य गुणों के पुञ्ज हैं। आनन्द प्राप्ति का उपाय दान व दिव्य गुणों को अपनाना ही है। उस प्रभु की पूजा का प्रकार भी उस प्रभु की भाँति देनेवाला बनना है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा मस्तिष्क दीप्त हो, शरीर दृढ़ हो, हम यज्ञादि कर्मों से स्वर्ग का लाभ करें, कामना से ऊपर उठकर मोक्ष को प्राप्त करें। कभी भी विकर्मों में फँसकर लोकलोकान्तरों में भटकें नहीं। प्रभु की भाँति दानशील बनकर प्रभु के उपासक बनें।
मन्त्रार्थ
(येन-उग्रा द्यौः पृथिवी च दृढा) जिस परमात्मा ने तेजोमय लोक को और पृथिवी लोक को दृढ किया (येन स्वः स्तभितं येन नाक:) जिसने सुख तथा नितान्त दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है (यः-अन्तरिक्षे रजसः-विमानः) जो अन्तरिक्ष में लोकमात्र को सम्भालने वाला है (कस्मै देवाय हविषा विधेम) उस सुख स्वरूप प्रजापति परमात्मा के लिए प्रेम श्रद्वा भेंट समर्पित कर स्वागत करें ॥६॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो सर्व जगाचा धारणकर्ता, सर्व सुखाचा दाता, मुक्ती प्रदाता, आकाशाप्रमाणे व्यापक असतो अशा परमेश्वराची भक्ती करा.
विषय
पुनश्च, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (येन) ज्या जगदीश्वराने (उग्रा) तीव्र तेजधारी (द्यौः) अति प्रकाशमान सूर्य आदी पदार्थ (च) आणि (पृथिवी) भूमी (दृढा) दृढ (वा कक्षेत स्थिर) केली आहे, (येन) ज्याने (वचः) (सर्व प्राण्यांसाठी) सुख (स्तभितम्) धारण केले वा सर्वांना दिले आहे, (येन) ज्याने (नाकः) दुःखहित मोक्ष धारण केले (जीवांना मोक्ष प्राप्तीनंतर जो आपल्या आनंद स्वरूपात सामावून घेतो (तुम्ही व आम्ही मोठ्या प्रेमाने त्याची भक्ती करूया. (तसेच (यः) जो परमेश्वर (अन्तरिक्षे) मध्यवर्ती आकाशातील सर्व (रजसः) ग्रह. नक्षत्रादी लोकसमूहाची (विमानः) निर्मिती करणारा आहे, त्या (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) स्वयंप्रकाशमान, सकलसुखदाता ईश्वराची (आम्ही) (हविषा) प्रेमाने, भक्तिभावाने (विधेम) सेवा करतो आणि त्याच्या प्राप्तीसाठी यत्न करतो ॥ (तसेच तुम्हीही करा) ॥6॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जो समस्त जगाचा धर्ता सर्वसुखदाता, युक्तिसाधक आणि आकाशवत व्यापक परमेश्वर आहे, तुम्ही त्याची भक्ती करा, अन्य कोणाची नको ॥6॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May we realise with love and devotion, God, the Embodiment of happiness; who has made the heavens strong, and the beautiful Earth firm, is full of pleasure, and being free from all miseries is all Bliss and is the Maker of all worlds in the space.
Meaning
By Him the heavens blaze, by Him the earth is firm, by Him the heaven of bliss is sustained, by Him the ecstasy of Moksha is constant, and He is the creator of the worlds in space. Let us worship that lord of glory and eternal bliss, and let us sing in honour of Him with the fragrance of yajna.
Translation
He who makes the sky blazing and the earth steady; who supports the realm of light and the heaven; and who is the measurer of the regions in the mid-space; to that Lord we offer our oblations. (1)
Notes
Dyauḥ ugra, (He made) the sky blazing (with the light and heat). Also, उद्पूर्णा वृष्टिदायिनी कृता, feat, made to shower rains. Svaḥ, the realm of light. Also, आदित्यमंडलं, the disc of the sun. Stabhitam, supports; makes steady. Nakaḥ, स्वर्ग:, heaven; an imaginary world free from sor row and pain. Rajaso vimānaḥ, measurer of the regions in the inter-space. Also, वृष्टिरूपस्य जलस्य निर्माता, maker of rains. Kasmai devāya, to which god or deity? Also, to , Prajāpati, the Lord of all creatures.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (য়েন) যে জগদীশ্বর (উগ্রা) তীব্র তেজযুক্ত (দ্যৌঃ) প্রকাশযুক্ত সূর্য্যাদি পদার্থ (চ) এবং (পৃথিবী) ভূমি (দৃঢা) দৃঢ় করিয়াছেন, (য়েন) যিনি (স্বঃ) সুখকে (স্তভিতম্) ধারণ করিয়াছেন, (য়েন) যিনি (নাকঃ) সকল দুঃখ হইতে রহিত মোক্ষ ধারণ করিয়াছেন, (য়ঃ) যিনি (অন্তরিক্ষে) মধ্যবর্ত্তী আকাশে বর্ত্তমান (রজসঃ) লোকসমূহের (বিমানঃ) বিবিধ মান করিয়া থাকেন সেই (কস্মৈ) সুখস্বরূপ (দেবায়) স্বয়ং প্রকাশমান, সকল সুখদাতা ঈশ্বরের জন্য আমরা (হবিষা) প্রেমভক্তিপূর্বক (বিধেম) সেবা করি বা প্রাপ্ত হই ॥ ৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যিনি সমস্ত জগতের ধর্ত্তা, সকল সুখদাতা, মুক্তির সাধক, আকাশের তুল্য ব্যাপক পরমেশ্বর, তাঁহারই ভক্তি কর ॥ ৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়েন॒ দ্যৌরু॒গ্রা পৃ॑থি॒বী চ॑ দ্য্ঢা॒ য়েন॒ স্ব᳖ স্তভি॒তং য়েন॒ নাকঃ॑ ।
য়োऽ অ॒ন্তরি॑ক্ষে॒ রজ॑সো বি॒মানঃ॒ কস্মৈ॑ দে॒বায়॑ হ॒বিষা॑ বিধেম ॥ ৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়েনেত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । পরমাত্মা দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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