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यजुर्वेद अध्याय - 34

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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    232

    पञ्च॑ न॒द्यः सर॑स्वती॒मपि॑ यन्ति॒ सस्रो॑तसः।सर॑स्वती॒ तु प॑ञ्च॒धा सो दे॒शेऽभ॑वत् स॒रित्॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पञ्च॑। न॒द्यः᳕। सर॑स्वतीम्। अपि॑। य॒न्ति॒। सस्रो॑तस॒ इति॒ सऽस्रो॑तसः ॥ सर॑स्वती। तु। प॒ञ्च॒धा। सा। उँ॒ इत्यूँ॑। दे॒शे। अ॒भ॒व॒त्। स॒रित् ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतसः । सरस्वती तु पञ्चधा सो देशे भवत्सरित् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्च। नद्यः। सरस्वतीम्। अपि। यन्ति। सस्रोतस इति सऽस्रोतसः॥ सरस्वती। तु। पञ्चधा। सा। उँ इत्यूँ। देशे। अभवत्। सरित्॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 11
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    मनुष्यैः सस्रोतसः पञ्चः नद्यः यां सरस्वतीमपि यन्ति, सा उ सरित् सरस्वती देशे पञ्चधा त्वभवदिति विज्ञेया॥११॥

    पदार्थः

    (पञ्च) पञ्चज्ञानेन्द्रियवृत्तयः (नद्यः) नदीवत्प्रवाहरूपाः (सरस्वतीम्) प्रशस्तविज्ञानवतीं वाचम् (अपि) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (सस्रोतसः) समानं मनो रूपं स्रोतः प्रवाहो यासान्ताः (सरस्वती) (तु) अवधारणे (पञ्चधा) पञ्चज्ञानेन्द्रियशब्दादिविषयप्रतिपादनेन पञ्चप्रकारः (सा) (उ) (देशे) स्वनिवासे स्थाने (अभवत्) भवति (सरित्) या सरति गच्छसि सा॥११॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्या वाणी पञ्चशब्दादिविषयाश्रिता सरिद्वर्त्तते, तां विज्ञाय यथावत् प्रसार्य मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोक्तव्या॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि (सस्रोतसः) एक मन रूप प्रवाहों वाली (पञ्च) पांच (नद्यः) नदी के तुल्य प्रवाहरूप ज्ञानेन्द्रियों की वृत्ति, जिस (सरस्वतीम्) प्रशस्त विज्ञानयुक्त वाणी को (अपि, यन्ति) प्राप्त होती हैं (सा, उ) वह भी (सरित्) चलनेवाली (सरस्वती) वाणी (देशे) अपने निवासस्थान में (पञ्चधा) पांच ज्ञानेन्द्रियों के शब्दादि पांच विषयों का प्रतिपादन करने से पांच प्रकार की (तु) ही (अभवत्) होती है, ऐसा जानें॥११॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो वाणी पांच शब्दादि विषयों के आश्रित हुई नदी के तुल्य प्रवाहयुक्त वर्त्तमान है, उसको जानके यथावत् प्रचार कर मधुर और श्लक्ष्ण प्रयुक्त करें॥११॥

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    विषय

    पञ्चनदी और सरस्वती का रहस्य ।

    भावार्थ

    ( सस्रोतसः) एक समान स्रोत वाली नदियां जैसे अधिक जल वाली, बड़ी नदी में मिलकर उसी में लीन हो जाती हैं उसी प्रकार (पञ्च) पांचों (नद्यः) समृद्ध प्रजाएं (सरस्वतीम् ) प्रशस्त वेद ज्ञान वाली विद्वत्सभा या विद्वान् को (सस्रोतसः) समान ज्ञानप्रवाह वाली होकर (अपियन्ति) आ मिलती हैं उसी में लीन हो जाती हैं । (सा उ) वह (सरस्वती) सरस्वती उत्तम वेद ज्ञान को धारण करने वाली विद्वत्सभा और विद्वान् (पञ्चधा) पांचों प्रकार के जनों को धारण करने वाला होकर (देशे) देश, राष्ट्र में ( सरित्) नदी के समान ज्ञान रूप जल को फैलाने वाला ( अभवत् ) हो जाता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद पांचों समृद्ध प्रजाएं हैं । वेदमयी वाणी पांचों को पालती पोषती है । वह नदी के समान सबके लिये समान रूप से उपयोगी, सुखजनक और पाप मलादि धोने वाली हो । वाणी के पक्ष में- (पञ्चनद्यः) नदियों के समान प्रवाहरूप से इन्द्रिय नालिकाओं से बहने वाली पांच प्रकार की वृत्तियां (सस्रोतसः) एक समान मनरूप स्रोत से ही बहती हैं । वे पांचों (सरस्वतीम् अपियन्ति) वाणी रूप में लीन होती हैं । अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियों का ज्ञान वाणी द्वारा प्रकट किया जाता है । (सा उ) वह वाणी (देशे ) स्व-स्थान, मुख में, ( सरित्) नदी के समान ही धारा रूप से निकलती ( अभवत् ) है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः । सरस्वती देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    सरस्वती का 'पंचधा सरित्' होना

    पदार्थ

    शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच ज्ञानवाहिनी नदियाँ है। चक्षु से प्रवाहित होनेवाली ज्ञाननदी रूप-जल से भरी है तो श्रोत्र से चलनेवाली शब्दरूप जल से एवं एक-एक ज्ञानेन्द्रिय से एक-एक विषय का ग्रहण होकर यह सम्पूर्ण पाँच भौतिक संसार हमारे ज्ञान का विषय बन जाता है और इस प्रकार ज्ञान जलवाहिनी सरस्वती नदी पूर्ण जलौघ के साथ बह चलती है। ज्ञानजलौघ से युक्त गृहिणी को भी यहाँ 'सरस्वती' ही नाम दिया गया है। और गतमन्त्र में यह सिनीवाली - अन्न से दोषों को दूर कर अपना पूरण करनेवाली थी, वस्तुतः उस सात्त्विक अन्न के सेवन ने ही इसे 'सरस्वती' बनने की क्षमता प्राप्त कराई है। (सरस्वतीम्) = इस सरस्वती को (पञ्च) = पाँच (सस्त्रोतसः) = समान स्रोतवाली (नद्यः) = ये ज्ञानजलवाहिनी नदियाँ (अपियन्ति) = प्राप्त होती हैं, अर्थात् यह उत्तम गृहिणी सदा अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्ति के प्रयत्न में लगी रहती है। वेद का यह उपदेश कि 'पंचौदनः पंचधा विक्रमताम्'-पञ्चौदन जीव पाँचों ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्ति में लगा रहे कभी उत्तम पत्नी भूलती नहीं तभी तो वस्तुतः वह सचमुच (सरस्वती) = ज्ञान की अधिदेवता बन पाई है। (सा तु) = यह पत्नी तो (सरस्वती) = ज्ञान की अधिदेवता बनकर (उ) = निश्चय से (देशे) = जिस गृह में व क्षेत्र में काम करती है उस प्रदेश में (सरित्) = कार्य को सुन्दर रूप से चलानेवाली [सृ-गतौ] (अभवत्) = होती है। अज्ञान में क्रिया गलत होती है, ज्ञान क्रिया में पवित्रता व कुशलता को ले आता है। एवं, 'सरस्वती' अपने घर का सञ्चालन ऐसे अच्छे ढंग से करती है कि (पञ्चधा) = पाँचों प्रकार से, अर्थात् अन्नमयादि पाँचों कोशों के दृष्टिकोण से (सरित्) = सब सन्तानों को आगे बढ़ानेवाली बनती है। अपने सन्तानों के अन्नमयकोश को नीरोग बनाती है, प्राणमय को सबल, मनोमय को निर्मल, विज्ञानमय को दीप्त और आनन्दमयकोश को सदा सोल्लास बनानेवाली होती है। यह है 'सरस्वती' का 'पञ्चधासरित्' होना = पाँच प्रकार से बच्चों को आगे बढ़ाना।

    भावार्थ

    भावार्थ- माताएँ सरस्वती हों, बच्चों की सर्वांगीण उन्नति की साधिका हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी वाणी पाच शब्द इत्यादी विषयांच्या आश्रित राहून नदीप्रमाणे प्रवाहयुक्त असते. पंचज्ञानेंद्रियांचे शब्दादी पाच विषयांचे प्रतिपादनही तिच्यामुळे होते हे जाणून माणसांनी तिचा यथायोग्य व मधुरतेने उपयोग करावा.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - मनुष्यांनी हे जाणून घ्यायला हवे की (सस्रोतसः) एका मनाच्या विविध प्रवाहात (पञ्च) पाच (नद्यः) नदीप्रमाणे वाहणार्‍या पाच ज्ञानेन्द्रियांची जी वृत्ती आहे, ती (सरस्वतीम्) प्रशंसनीय विज्ञानमय वाणी (अपि, यन्ति) प्राप्त करते (नेत्र, कर्ण आदी ज्ञानेंद्रियांचे कार्य वाणीद्वारे प्रकट होते) ( सा, उ) आणि ती (सरित्) वाहणारी (सरस्वती) वाणी (देशे) आपल्या निवासस्थानात (अर्थात् मुखात वा जिह्वते) (पञ्चधा) पाच ज्ञानेन्द्रियांच्या पाच विषय (शब्द, रूप, गंध, स्पर्श आणि रस) या पाच विषयांनुसार पाच प्रकारची (तु) निश्‍चयाने (अभवत्) होते. (वाणी ज्ञानेंद्रियांनी ग्रहण केलेले विषय अभिव्यक्त करते) ॥11॥

    भावार्थ

    भावार्थ -या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांनी हे जाणून घ्यावे की शब्द आदी पाच विषयांवर आश्रित वाणी नदीच्या प्रवाहाप्रमाणे (सतत वाहणारी) असते. तिचे हे वैशिष्ट्य जाणून घेऊन मनुष्यांनी तिचा यथोचित प्रचार व मधुर उपयोग करावा. ॥11॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Five organs of cognition, emanating from their common source, the mind, like five rivers speed onward to speech. The flowing speech, in its dwelling place, the mouth, becomes fivefold.

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    Meaning

    Five streams of sense experience with their perceptions flow into the one Sarasvati of the mind, and then the mind, converting the experience into language, flows out in five streams of expression. (This is the Vedic triangle of Shabda, Artha and Pratyaya, that is, the semantic triangle of language, reality and meaning, which is the mental association of word and object in an integrated mental picture. The mantra also draws the full circle of experience, interpretation and expression for communication of the experience. The central interpretive role is played by the soul through its consciousness, chetana, which is its essential property, senses and mind being its instruments. )

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    Translation

    Five channels of sense-organs, originating from a common source, flow to meet the divine speech. And the divine speech on the land, becomes a channel flowing in five branches. (1)

    Notes

    Sasrotasaḥ, originating from a common source. Also, flowing on their way. समानं स्रोत: प्रवाहो यासां, whose course is identical. Pancadhã, five fold; in five parts. Five rivers flow on an identical course; they join Sarasvati and (losing their identity) become five fold Sarasvati. Pañca nadyaḥ, five rivers. Also, five channels of sense organs. Sarasvatim, the river Sarasvati; also, divine speech. Sarit a channel.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, (সস্রোতসঃ) এক মন রূপী প্রবাহযুক্তা (পঞ্চ) পাঁচ (নদ্যঃ) নদীতুল্য প্রবাহরূপ জ্ঞানেন্দ্রিয় সমূহের বৃত্তি যে (সরস্বতীম্) প্রশস্ত বিজ্ঞানযুক্ত বাণীকে (অপি, য়ন্তি) প্রাপ্ত হয় (সা, উ) উহাও (সরিৎ) গমনরতা (সরস্বতী) বাণী (দেশে) স্বীয় নিবাসস্থলে (পঞ্চধা) পাঁচ জ্ঞানেন্দ্রিয়ের শব্দাদি পাঁচ বিষয়ের প্রতিপাদন করায় বলিয়া পাঁচ প্রকারের (তু)(অভবৎ) হয় এইরকম জানিবে ॥ ১১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, যে বাণী পাঁচ শব্দাদি বিষয়গুলির আশ্রিত নদীতুল্য প্রবাহযুক্ত বর্ত্তমান তাহাকে জানিয়া যথাবৎ প্রচার করিয়া মধুর ও শ্লক্ষ্ম প্রযুক্ত করুক ॥ ১১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পঞ্চ॑ ন॒দ্যঃ᳕ সর॑স্বতী॒মপি॑ য়ন্তি॒ সস্রো॑তসঃ ।
    সর॑স্বতী॒ তু প॑ঞ্চ॒ধা সো দে॒শেऽভ॑বৎ স॒রিৎ ॥ ১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পঞ্চেত্যস্য গৃৎসমদ ঋষিঃ । সরস্বতী দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ।

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