यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 3
ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः
देवता - मनो देवता
छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
291
यत्प्र॒ज्ञान॑मु॒त चेतो॒ धृति॑श्च॒ यज्ज्योति॑र॒न्तर॒मृतं॑ प्र॒जासु॑।यस्मा॒न्नऽऋ॒ते किं च॒न कर्म॑ क्रि॒यते॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥३॥
स्वर सहित पद पाठयत्। प्र॒ज्ञान॒मिति॑ प्र॒ऽज्ञान॑म्। उ॒त। चेतः॑। धृतिः॑। च॒। यत्। ज्योतिः॑। अ॒न्तः। अ॒मृत॑म्। प्र॒जास्विति॑ प्र॒ऽजासु॑ ॥ यस्मा॑त्। न। ऋ॒ते। किम्। च॒न। कर्म॑। क्रि॒यते॑। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतम्प्रजासु। यस्मान्नऽऋते किञ्चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। प्रज्ञानमिति प्रऽज्ञानम्। उत। चेतः। धृतिः। च। यत्। ज्योतिः। अन्तः। अमृतम्। प्रजास्विति प्रऽजासु॥ यस्मात्। न। ऋते। किम्। चन। कर्म। क्रियते। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे जगदीश्वर परमयोगिन् विद्वन् वा! भवज्ज्ञापनेन यत्प्रज्ञानं च ते उत चेतो धृतिर्यच्च प्रजास्वन्तरमृतं ज्योतिर्यस्मादृते किञ्चन कर्म न क्रियते, तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥३॥
पदार्थः
(यत्) (प्रज्ञानम्) प्रजानाति येन तद्बुद्घिस्वरूपम् (उत) अपि (चेतः) चेतति स्मरित येन तत् (धृतिः) धैर्यरूपम् (च) चकारल्लज्जादीन्यपि कर्माणि येन क्रियन्ते (यत्) (ज्योतिः) द्योतमानम् (अन्तः) अभ्यन्तरे (अमृतम्) नाशरहितम् (प्रजासु) जनेषु (यस्मात्) मनसः (नः) (ऋते) विना (किम्, चन) किञ्चिदपि (कर्म) (क्रियते) (तत्) (मे) जीवात्मनो मम (मनः) सर्वकर्मसाधनम् (शिवसङ्कल्पम्) शिवे कल्याणकरे परमात्मनि कल्प इच्छाऽस्य तत् (अस्तु) भवतु॥३॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यदन्तःकरणबुद्धिचित्तमनोऽहङ्कारवृत्तित्वाच्चतुर्विधमन्तःप्रकाशं प्रजानां सर्वकर्मसाधकं नाशरहितं मनोऽस्ति, तन्न्याये सत्याचरणे च प्रवर्त्य पक्षपाताऽन्यायाऽधर्माचरणाद् यूयं निवर्त्तयत॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे जगदीश्वर वा परमयोगिन् विद्वन्! आपके जताने से (यत्) जो (प्रज्ञानम्) विशेष कर ज्ञान का उत्पादक बुद्धिरूप (उत) और भी (चेतः) स्मृति का साधन (धृतिः) धैर्यस्वरूप (यत् च) और जो लज्जादि कर्मों का हेतु (प्रजासु) मनुष्यों के (अन्तः) अन्तःकरण में आत्मा का साथी होने से (अमृतम्) नाशरहित (ज्योतिः) प्रकाशकरूप (यस्मात्) जिससे (ऋते) विना (किम्, चन) कोई भी (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता, (तत्) वह (मे) मुझ जीवात्मा का (मनः) सब कर्मों का साधनरूप मन (शिवसङ्कल्पम्) कल्याणकारी परमात्मा में इच्छा रखनेवाला (अस्तु) हो॥३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो अन्तःकरण, बुद्धि, चित्त और अहंकाररूप वृत्तिवाला होने से चार प्रकार से भीतर प्रकाश करनेवाला, प्राणियों के सब कर्मों का साधक, अविनाशी मन है, उसको न्याय और सत्य आचरण में प्रवृत्त कर पक्षपात, अन्याय और अधर्माचरण से तुम लोग निवृत्त करो॥३॥
पदार्थ
पदार्थ = ( यत् ) = जो ( प्रज्ञानम् ) = विशेष कर उत्तम ज्ञान साधन ( चेतः ) = स्मरण करनेवाला ( धृतिः च ) = धैर्यस्वरूप और लज्जा आदि करनेवाला ( यत् प्रजासु ) = जो प्राणियों के भीतर ( अन्तः ) = अन्तःकरण में ( अमृतम् ) = नाशरहित ( ज्योति: ) = प्रकाश है, ( यस्मात् ऋते ) = जिसके बिना ( किम् चन ) = कोई भी ( कर्म ) = काम ( न क्रियते ) = नहीं किया जाता ( तत् मे मनः ) = वह सब कामों का साधन मेरा मन ( शिवसङ्कल्पम् ) = शुभ सङ्कल्पवाला और परमात्मा में इच्छा करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ = हे मनुष्यो ! जो अन्तःकरण, मन बुद्धि, चित्त और अहङ्काररूप वृत्तिवाला होने से चार प्रकार का है। मनन करने से मन, निश्चय करने से बुद्धि, स्मरण करने से चित्त और अहङ्कार करने से अहङ्कार कहलाता है। यह मन शरीर के भीतर प्रकाश, स्मरण, धैर्य और लज्जा आदि करनेवाला और सब प्राणियों के कर्मों का साधक अविनाशी है उसको अशुभ से हटाकर अच्छे कर्मों में लगाओ और परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करो कि, हे दयामय जगदीश! हमारा मन श्रेष्ठ मङ्गलमय सङ्कल्प करनेवाला और आप प्रभु परमपिता परमात्मा की प्राप्ति की इच्छा करनेवाला हो ।
विषय
शिवसंकल्पसूक्त ।
भावार्थ
( यत् ) जो मन ( प्रज्ञानम् ) सबसे उत्तम ज्ञान का साधन है जो (चेतः) यथार्थ ज्ञान और स्मरण करने का साधन है और जो (धृतिः च) धारण अर्थात् चिरकाल तक स्मरण रखने का साधन है और ( यत् ) जो (प्रयास) प्रजाओं, प्राणियों के भीतर ( अमृतम् ) कभी नष्ट न होने वाला (अन्तः) भीतर ही (ज्योतिः) सब पदार्थों का प्रकाशक गृह में दीपक के समान ज्योति भी है । ( यस्मात् ऋते) जिसके बिना ( किञ्चन कर्म) कुछ भी कर्म ( न क्रियते) नहीं किया जाता (तत् ते मनः) वह मेरा मन ( शिव संकल्पम् ) शिव, शुभ वाला, उत्तम विचारवान् (अस्तु) हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनः । स्वराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
अमृत मन
पदार्थ
१. वह मेरा मन (यत्) = जो (प्रज्ञानम्) = प्रकृष्ट ज्ञान का साधक है। लौकिक ज्ञान में आँख इत्यादि इन्द्रियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आँख रूप को देखती है तो कान शब्द को सुनता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियाँ अन्यान्य विषयों को ग्रहण करती हैं, परन्तु वे सब उस अन्तःस्थित आत्मतत्त्व का दर्शन नहीं कर पातीं। यह दर्शन तो मन से ही होता है। लौकिक ज्ञान में भी मन हो तो शीघ्र व सम्यक् ज्ञान होता है। मन की अनुपस्थिति में ज्ञान होता ही नहीं, उसकी विक्षिप्तावस्था में अधकचरा-सा ज्ञान होता हैं । २. (उत्) = और (चेत:) = यह मन स्मरण का साधन है। मन के ठीक होने पर 'मैं कौन हूँ' यह स्मृति बनी रहती है। पाठ में मन हो तो जल्दी याद होता है। ३. (च) = और यह मन (धृतिः) = धैर्य व दृढ़ता का साधन है। ४. यह मन वह है (यत्) = जो (प्रजासु) = प्रजाओं के अन्दर (अमृतम् ज्योतिः) = अमर ज्योति है। इन्द्रियाँ ज्योति हैं, परन्तु उनका भी प्रकाशक मन ही है, अतः यह मन ही वस्तुतः ज्योति है और चूँकि शरीर के नष्ट होने पर भी साथ ही जाता है, अतः इसकी मृत्यु नहीं होती । एवं, यह मन 'अ-मर' है । ५. (यस्मात् ऋते) = इस मन के बिना (किञ्चन कर्म) = कोई छोटासा भी कार्य न नहीं क्रियते किया जाता। (तत् मे मनः) = वह मेरा मन (शिवसङ्कल्पम्) = शिवसङ्कल्पवाला (अस्तु) = हो । प्रत्येक कार्य का सौन्दर्य व साफल्य मन के शिवसंकल्पमय होने पर ही निर्भर करता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा यह मन अमर ज्योति है। इसके महत्त्व को समझकर हम इसकी शक्ति के विकास के लिए प्रयत्नशील हों।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! अंतःकरण, बुद्धी, चित्त, अहंकार या चार वृत्तीने अंतःकरणात प्रकाश करणाऱ्या प्राण्यांच्या सर्व कर्मांचे साधक अशा अविनाशी मनाला न्याय व सत्य आचरणात प्रवृत्त करा व भेदभाव अन्याय, अधर्माचरण यापासून निवृत्त करा.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ- हे जगदीश्वर अथवा हे परमयोगी विद्वान महोदय, (यत्) जे (प्रज्ञानम्) विषेत्वाने ज्ञानाचे उत्पादक आणि बुद्धीरूप आहे (उत) आणखी (चेतः) स्मृतीचे साधन आहे, जे (दृतिः) धैर्यरूप (च) आणि लज्जा आदी कर्मांचे कारण असून (प्रजासु) मनुष्यांच्या (अन्तः) अंतःकरणात आत्म्याचा साथी आहे, त्यामुळे जे (अमृतम्) अविनाशी व (ज्योतिः) प्रकाशरूप आहे (ते माझे मन कल्याणकारी विचारांचे व्हावे.) (यस्मात्) ज्या मनाच्या (ऋते) शिवाय (किम्, मन) कोणतेही (कर्म) काम (न क्रियते) केले जात नाही (मनच सर्व कार्य व्यवहारादीचे साधन आहे) (तत्) ते (मे) माझे म्हणजे जीवात्म्याचे (मनः) सर्व कर्माचे जे साधन ते मन (शिवसंकल्पम्) कल्याणकारी परमेश्वराच्या उपासनेत रमणारे (अस्तु) व्हावे. ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जे मन अंतःकरण, बुद्धी, चित्त आणि अहंकाररूप वृत्तीचे आहे व त्यामुळे आत चार प्रकारे शरीरात प्रकाश करणारे आहे, तसेच जे मन सर्व प्राण्याच्या कर्मांच्या पूर्ततेचे साधन असून अविनाशी आहे, त्या मनाला न्याय्य आणि सत्य आचरणाकडे प्रवृत्त करा व पक्षपात, अन्याय आणि दुराचरणापासून दूर रहा. ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
That which is wisdom, intellect, and firmness, immortal light which creatures have within them. That without which men can do no single action, may that, my mind, hanker after God and be moved by noble resolve.
Meaning
The ‘Prajnana, Chitta and Dhriti mind’, instrument of awareness, memory and deeper retention, which is the internal light immortal of living beings, without which no action whatsoever is possible, may that mind of mine, I pray, be full of noble thoughts, intentions and resolutions.
Translation
The mind, which is the knowledge supreme, the awakening as well as the resolution, and which is the immortal light embedded within all the creatures; without which no action whatsoever is performed, may that mind of mine be always guided by the best of intentions. (1)
Notes
Prajñānam, the knowledge supreme. Cetaḥ, awakening; consciousness. Dhṛtiḥ, imperturbability. Amrtam antaḥ jyotiḥ, never-dying light embedded within (every creature); immortal inner light.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ- হে জগদীশ্বর বা পরমযোগিন্ বিদ্বান্ ! আপনার জ্ঞাপন দ্বারা (য়ৎ) যাহা (প্রজ্ঞানম্) বিশেষ করিয়া জ্ঞানের উৎপাদক বুদ্ধিরূপ (উত) আরও (চেতঃ) স্মৃতির সাধন (ধৃতিঃ) ধৈর্য্যস্বরূপ (য়ৎ, চ) এবং যাহা লজ্জাদি কর্ম্মের হেতু (প্রজাসু) মনুষ্যদিগের (অন্তঃ) অন্তঃকরণে আত্মার সঙ্গী হওয়ায় (অমৃতম্) নাশরহিত (জ্যোতিঃ) প্রকাশরূপ (য়স্মাৎ) যদ্দ্বারা (ঋতে) বিনা (কিম্, চন্) কোনও (কর্ম) কর্ম্ম (ন, ক্রিয়তে) করা হয় না (তৎ) সেই (মে) আমা জীবাত্মার (মনঃ) সকল কর্ম্মের সাধনরূপ মন (শিবসংকল্পম্) কল্যাণকারী পরমাত্মায় ইচ্ছাসম্পন্নকারী (অস্তু) হউক ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যাহা অন্তঃকরণ, বুদ্ধি, চিত্ত ও অহংকাররূপ বৃত্তিসম্পন্ন হওয়ায় চারি প্রকারে আন্তরিক প্রকাশক, প্রাণিদের সকল কর্ম্মের সাধক অবিনাশী মন আছে, তাহাকে ন্যায় ও সত্য আচরণে প্রবৃত্ত করিয়া পক্ষপাতিত্ব, অন্যায় ও অধর্মাচরণ হইতে তোমরা নিবৃত্ত কর ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ৎপ্র॒জ্ঞান॑মু॒ত চেতো॒ ধৃতি॑শ্চ॒ য়জ্জ্যোতি॑র॒ন্তর॒মৃতং॑ প্র॒জাসু॑ ।
য়স্মা॒ন্নऽঋ॒তে কিং চ॒ন কর্ম॑ ক্রি॒য়তে॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ৎ প্রজ্ঞানমিত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । স্বরাট্ ত্রিষ্টুপ্ছন্দ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ।
পদার্থ
যৎপ্রজ্ঞানমুত চেতো ধৃতিশ্চ যজ্জ্যোতিরন্তরমৃতং প্রজাসু ।
যস্মান্ন ঋতে কিঞ্চন কর্ম ক্রিয়তে, তন্মে মনঃ শিবসঙ্কল্পমস্তু।। ৪০।।
(যজু ৩৪।৩)
পদার্থঃ (যৎ) যিনি (প্রজ্ঞানম্) উত্তম জ্ঞানের সাধক, (চেতঃ) স্মরণকারী (উত) এবং (ধৃতিঃ চ) ধৈর্য এবং লজ্জার প্রকাশকারী, (প্রজাসু) প্রাণীদের (অন্তঃ) অন্তঃকরণে (যৎ) যে (অমৃতম্) নাশরহিত (জ্যোতিঃ) আত্মার প্রকাশ রয়েছে, (যস্মাৎ ঋতে) যার বিনা (কিম, চন) কোনো (কর্ম) কাজই (ন ক্রিয়তে) করা সম্ভব হয় না; (তৎ মে মনঃ) ওই সকল কর্মের সাধনকারী আমার এই মন (শিব সঙ্কল্পম্ অস্তু) শুভ সঙ্কল্পসম্পন্ন এবং পরমাত্মাকে প্রাপ্তির ইচ্ছাযুক্ত হোক ।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে মনুষ্য! অন্তুঃকরণ মন, বুদ্ধি, চিত্ত এবং অহংকাররূপ বৃত্তিসম্পন্ন হওয়ার কারণে চার প্রকারের হয়। মনন করার কারণে মন, নিশ্চিত করার কারণে বুদ্ধি, স্মরণ করার কারণে চিত্ত, অহংকার করার কারণে অহংকার বলে এবং এই মন শরীরের ভেতর প্রকাশ, স্মরণ, ধৈর্য এবং লজ্জা ইত্যাদি প্রত্যক্ষ করায়। সকল প্রাণির কর্মের সাধক হচ্ছে অবিনাশী মন। তাকে অশুভ কর্ম থেকে সরিয়ে শুভ কর্মে প্রযুক্ত করো এবং পরমপিতা পরমাত্মার নিকট প্রার্থনা করো যে, হে দয়াময় জগদীশ! আমাদের মন শ্রেষ্ঠ মঙ্গলময় সংকল্পকারী এবং তোমাকে প্রাপ্তির ইচ্ছাযুক্ত হোক।।৪০।।
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