Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 34

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    293

    सु॒षा॒र॒थिरश्वा॑निव॒ यन्म॑नु॒ष्यान्ने॑नी॒यते॒ऽभीशु॑भिर्वा॒जिन॑ऽइव।हृ॒त्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं जवि॑ष्ठं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒षा॒र॒थिः। सु॒सा॒र॒थिरिति॑ सुऽसार॒थिः। अश्वा॑नि॒वेत्यश्वा॑न्ऽइव। यत्। म॒नु॒ष्या᳖न्। ने॒नी॒यते॑। अ॒भीशु॑भि॒रित्य॒भीशु॑ऽभिः। वा॒जिन॑ऽइ॒वेति॑ वा॒जिनः॑ऽइव ॥ हृ॒त्प्रति॑ष्ठम्। हृ॒त्प्रतिस्थ॒मिति॑ हृ॒त्ऽप्रति॑स्थम्। यत्। अ॒जि॒रम्। जवि॑ष्ठम्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु॒ ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिनऽइव। हृत्प्रतिष्ठँयदजिरञ्जविष्ठन्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सुषारथिः। सुसारथिरिति सुऽसारथिः। अश्वानिवेत्यश्वान्ऽइव। यत्। मनुष्यान्। नेनीयते। अभीशुभिरित्यभीशुऽभिः। वाजिनऽइवेति वाजिनःऽइव॥ हृत्प्रतिष्ठम्। हृत्प्रतिस्थमिति हृत्ऽप्रतिस्थम्। यत्। अजिरम्। जविष्ठम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    यत् सुषारथिरश्वानिव मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव नियच्छति च बलात् सारथिरश्वानिव प्राणिनो नयति, यद्धृत्प्रतिष्ठमजिरं जविष्ठमस्ति, तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥६॥

    पदार्थः

    (सुषारथिः) शोभनश्चासौ सारथिर्यानचालयिता (अश्वानिव) यथाश्वान् कशया सर्वतश्चालयति तथा (यत्) (मनुष्यान्) मनुष्यग्रहणमुभयलक्षकं प्राणिमात्रस्य (नेनीयते) भृशमितस्ततो नयति गमयति (अभीशुभिः) रश्मिभिः। अभीशव इति रश्मिनामसु पठितम्॥ (निघं॰१।५) (वाजिन इव) सुशिक्षितानश्वानिव (हृत्प्रतिष्ठम्) हृदि प्रतिष्ठा स्थितिर्यस्य तत् (यत्) (अजिरम्) विषयादिषु प्रक्षेपकं जराद्यवस्थारहितं वा (जविष्ठम्) अतिशयेन वेगवत्तरम् (तत्) (मे) मम (मनः) (शिवसङ्कल्पम्) (अस्तु) भवति॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारौ। यत्रासक्तं तत्रैव प्रग्रहैः सारथिः तुरङ्गानिव वशे स्थापयति, सर्वेऽविद्वांसो यदनुवर्त्तन्ते विद्वांसश्च यत्स्ववशं कुर्वन्ति, यच्छुद्धं सत्सुखकार्य्यशुद्धं सद् दुःखकारि यज्जितं सिद्धिं यदजितमसिद्धिं प्रयच्छति, तन्मनो मनुष्यैः स्ववशं सदा रक्षणीयम्॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (यत्) जो मन (सुषारथिः) जैसे सुन्दर चतुर सारथि गाड़ीवान् (अश्वानिव) लगाम से घोड़ों को सब ओर से चलाता है, वैसे (मनुष्यान्) मनुष्यादि प्राणियों को (नेनीयते) शीघ्र-शीघ्र इधर-उधर घुमाता है और (अभीशुभिः) जैसे रस्सियों से (वाजिन इव) वेग वाले घोड़ों को सारथि वश में करता, वैसे नियम में रखता (यत्) जो (हृत्प्रतिष्ठम्) हृदय में स्थित (अजिरम्) विषयादि में प्रेरक वा वृद्धादि अवस्थारहित और (जविष्ठम्) अत्यन्त वेगवान् है, (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मन (शिवसङ्कल्पम्) मङ्गलमय नियम में इष्ट (अस्तु) होवे॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य जिस पदार्थ में आसक्त है, वहीं बल से सारथि घोड़ों को जैसे वैसे प्राणियों को ले जाता और लगाम से सारथि घोड़ों को जैसे वैसे वश में रखता, सब मूर्खजन जिसके अनुकूल वर्त्तते और विद्वान् अपने वश में करते हैं, जो शुद्ध हुआ सुखकारी और अशुद्ध हुआ दुःखदायी, जो जीता हुआ सिद्धि को और न जीता हुआ असिद्धि को देता है, वह मन मनुष्यों को अपने वश में रखना चाहिये॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

     पदार्थ = ( इव ) = जिस प्रकार  ( सुसारथिः ) = उत्तम सारथि  ( अश्वान् ) = घोड़ों को चलाता है  ( इव ) = इसी प्रकार  ( यत् ) = जो मन  ( मनुष्यान् ) = मनुष्यों के इन्द्रिय रूपी  ( वाजिनः ) = वेगवान् घोड़ों को  ( अभीशुभिः ) = लगामों द्वारा  ( नेनीयते ) = अनेक मार्गों पर ले जाता है, मन भी इन्द्रियों की अनेक प्रकार की प्रवृत्तिरूपी लगामों द्वारा मनुष्यों को अपने वश में करके अनेक प्रकार के शुभ-अशुभ मार्गों में ले जाता है,  ( हृत्प्रतिष्ठम् ) = जो मन हृदय में स्थित हुआ  ( अजिरम् ) = अजर बूढ़ा नहीं होता।  ( जविष्ठम् ) = बड़ा वेगवान् है।  ( तत् मे मनः ) = वह मेरा मन  ( शिवसङ्कल्पम् अस्तु ) = उत्तम कल्याण कारक संकल्पवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ = रथ का सारथी जैसे घोड़ों को चलाता है, ऐसे ही यह मन इन्द्रियों का संचालक है।  इस मन में सदा शुभ संकल्प होने चाहियें, जैसे उत्तम सारथी, घोड़ों को लगाम द्वारा अपने वश में करता हुआ अभिलषित स्थान को पहुँच जाता है। ऐसे ही मन आदि इन्द्रियों को अपने वश में करता हुआ मुमुक्षु पुरुष, मुक्तिरूपी अभिलषित धाम को पहुँच जाता है। मन भी बड़ा ही बलवान् , बूढ़ा न होनेवाला है, इसको अपने वश में करने के लिए मुमुक्षु पुरुष को बड़ा यत्न करना चाहिये ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शिवसंकल्पसूक्त ।

    भावार्थ

    (सुपारथिः = सु-सारथिः) उत्तम सारथि, कोचवान् (अभीशुभिः) बागों से ( वाजिनः ) वेगवान् (अश्वान् इव) अश्वों को जिस प्रकार (नेनीयते) ले जाता है उसी प्रकार ( यत् ) जो मन, (अभीपुभिः) शीघ्र: गतियों और प्रेरक वृत्तियों से ( वाजिनः) ज्ञान और बल से युक्त (मनुष्यान् ) मननशील प्राणियों को (नेनीयते) ले जाता है और ( यत् ) जो ( हृत्- प्रतिष्ठम् ) हृदय स्थान में स्थित और ( अजिरम् ) जरा आदि दशाओं से रहित, सदा बलवान्, अथवा विषयों के प्रति इन्द्रियों को ले जाने और स्वयं संकल्प द्वारा जाने में समर्थ है और जो ( जविष्ठम् ) सबसे अधिक वेगवान् है ( तत् ते मनः ) वह मेरा मन ( शिवसंकल्पम् अस्तु ) शुभ संकल्प वाला हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनः । स्वराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    हृदय में प्रतिष्ठित मन

    पदार्थ

    १. (इव) = जैसे (सुषारथिः) = उत्तम सारथि (वाजिनः) = शक्तिशाली अश्वान् घोड़ों को (अभीशुभिः इव) = जैसे लगामों से (नेनीयते) = खूब इधर-उधर ले जाता है, उसी प्रकार मन मनुष्यों को न जाने कहाँ-कहाँ ले जाता है। एक ही क्षण में पूर्व में है, तो अगले ही क्षण में पश्चिम में पहुँच जाता है, प्रथम क्षण में समुद्र तल में विचर रहा है तो अगले ही क्षण में पर्वत-शिखर पर पहुँचा होता है। चारों दिशाओं में भटकता है। यहाँ 'सु-सारथि' शब्द का उल्लेख बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उत्तम सारथि घोड़ों को लक्ष्य की ओर ले जाता है, इसी प्रकार यह उत्तम बना हुआ मन मनुष्य को अवश्य लक्ष्य तक पहुँचानेवाला होता है। २. (हृत् प्रतिष्ठम्) = यह मन हृदय में प्रतिष्ठित है। 'हृदय' श्रद्धा का निवासस्थान है और श्रद्धा होने पर ही मन स्थिर होता है। जिस विषय में श्रद्धा होगी, उसी विषय में मन स्थिर हो पाएगा। आत्मतत्त्व में श्रद्धा हुई तो मन वहीं एकाग्र होगा। वृक्ष जैसे भूमि में प्रतिष्ठित है, भूमि से जड़ बाहर हुई और वृक्ष गिरा, इसी प्रकार मन श्रद्धा में प्रतिष्ठित है, श्रद्धा से रहित हुआ कि भटका । ३. यह मन (यत्) = जो (अजिरम्) = [agile] अत्यन्त क्रियाशील है (जविष्ठम्) = अत्यन्त वेगवान् है (तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु) = वह मेरा मन शिवसंकल्पवाला हो । मन सचमुच 'चञ्चल'- अत्यन्त चञ्चल है 'वायोरिव सुदुष्करम्' इसका स्थिर करना वायु को मुट्ठी में पकड़ने के समान है, परन्तु श्रद्धा होने पर स्थिर हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने इस नितान्त चञ्चल मन को श्रद्धा द्वारा नियन्त्रित करनेवाले बनें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसा चतुर सारथी घोड्यांचा लगाम खेचून त्यांना योग्य तऱ्हेने चालवून वेगवान घोड्यांना आपल्या ताब्यत ठेवतो.

    टिप्पणी

    तसे मूर्ख लोक ज्या मनाच्या तंत्राने वागतात व विद्वान लोक त्या मनाला ताब्यत ठेवतात. असे मन पवित्र असेल तर सुखदायक व अपवित्र असेल तर दुःखदायक ठरते. त्यामुळे जिंकल्यास अजिंक्य नसता हार अशा या चिरतरुण मनाला (विषयाकडे न वळविता) माणसांनी आपल्या ताब्यात ठेवले पाहिजे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुन्हा, तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सुषारथिः) एक कुशल सारती (रथचालक) ज्याप्रमाणे (अश्‍वानिव) लगामाद्वारे घोड्यांना व्यवस्थितपणे चालवितो, त्याप्रमाणे (यत्) जे मन (मनुष्यान्) मनुष्य आदी प्राण्यांना (नेनीयते) इकडे-तिकडे नेतो (वा योग्य दिशेकडे चालवितो) आणि जसा तो सारथी (अभीशुभिः) दोरी, लगाम आदी साधनांद्वारे (वाजिनः) वेगवान घोड्यावरही नियंत्रण ठेवतो, तसेच (र्‍यत्) जे मन (हृत्प्रतिष्ठम्) हृदयात स्थित त्या (अजिरम्) विषयांकडे प्रेरित करणारे अथवा ज्याला म्हातारपण कधी येत नाही, आणि जे (जविष्ठम्) अत्यंत वेगवान आहे, (तत्) ते (मे) माझे मन (शिवसंकल्पम्) मंगलकारी नियमात राहणारे (अस्तु) असावे. ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात दोन उपमा अलंकार आहेत. (‘सुषारथिः अश्‍वानिव’ आणि ‘अभीशुभिर्वाजिन इव’) ज्या प्रमाणे एक सारथी घोड्यांना वश करून हवे तिकडे घेऊन जातो तद्वत जे मन आसक्तिमय पदार्थाकडे बलेन घेऊन जातो. सर्व मूर्ख माणसें मनाच्या म्हणण्याप्रमाणे वागतात आणि बूद्धिमान माणसे मात्र त्याला आपल्या वश करतात. मन शुद्ध असल्यास ते सुखकारी असते आणि अशुद्ध असल्यास दुःखदायी होते. मनाला जिंकले तर इच्छित सिद्धी प्रपात होते आणि न जिंकले तर इच्छित ध्येय प्राप्त होत नाही. यामुळे सर्व मनुष्यांनी मनाला आपले वशीभूत केले पाहिजे. ॥6॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    As a skilful charioteer drives with reins the fleet-foot horses, so does the mind control men. It dwells within the heart, is free from old age, drives men into sensuality, and is most rapid. May that, my mind, be moved by right intention.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    The mind which leads people by stimulation of the senses like a good driver controlling fast moving horses with bridle strings, which abides in the heart, which is unageing and fastest in motion, may that mind of mine, I pray, be full of noble thoughts, intentions and resolutions.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Which, like a skilful charioteer his speedy horses, leads and controls men as if holding them by the reins; which is well placed within the heart; which is free from decay, and is the speediest of all, may that mind of mine be always guided by the best of intentions. (1)

    Notes

    Suṣārathiḥ aśvan iva, just a good chariot-driver (drives) his horses. Neniyate, leads or guides (them); controls and guides, नयति नियच्छति च । Abhişubhiḥ, with the reins. Vajinaḥ, वेगवत:, speedy; fast running. Hrtpratistham, placed in the heart. Heart and mind are two different conceptions: Heart is concerned with emotions and mind with reasoning. A good person keeps his mind under the control of heart. Ajiram, जरारहितं, free from decay; never-old. Sense-or gans are subject to decay, but the mind is not so. Javiştham, speediest of all; nothing exceeds it in speed.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (য়ৎ) যে মন (সুষারথিঃ) যেমন সুন্দর চতুর সারথি চালক (অশ্বানিব) লাগাম দ্বারা অশ্বদিগকে সব দিকে চালনা করে সেইরূপ (মনুষ্যান্) মনুষ্যাদি প্রাণিসকলকে (নেনীয়তে) শীঘ্র ইতস্তুতঃ ভ্রমণ করায় এবং (অভীশুভিঃ) যেমন রজ্জু দ্বারা (বাজিন ইব) বেগবান্ অশ্বদিগকে সারথি বশ করে, সেই মত নিয়মে রাখে (য়ৎ) যাহা (হৃৎপ্রতিষ্ঠম্) হৃদয়ে স্থিত (অ জিরম্) বিষয়াদিতে প্রেরক বা বৃদ্ধাদি অবস্থারহিত এবং (জবিষ্ঠম্) অত্যন্ত বেগবান্ (তৎ) সেই (মে) আমার (মনঃ) মন (শিবসংকল্পম্) মঙ্গলময় নিয়মে ইষ্ট (অস্তু) হউক ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে দুইটি উপমালঙ্কার আছে, যে মনুষ্য যে পদার্থে আসক্ত সেই বল দ্বারা সারথি অশ্বসকলকে যেমন, সেইরূপ প্রাণিদেরকে লইয়া যায়, যেমন লাগাম দ্বারা সারথি অশ্বকে যেমন, সেইরকম বশে রাখে, সকল মূর্খগণ যাহার অনুকূল আচরণ করে এবং বিদ্বান্ স্বীয় বশে রাখে, যাহা শুদ্ধ হইয়া সুখকারী এবং অশুদ্ধ হইয়া দুঃখদায়ী, যাহা জিতিয়া সিদ্ধিকে এবং না জিতিয়া অসিদ্ধি প্রদান করে, সেই মন মনুষ্যদিগকে স্বীয় বশে রাখা উচিত ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সু॒ষা॒র॒থিরশ্বা॑নিব॒ য়ন্ম॑নু॒ষ্যা᳖ন্নে॑নী॒য়তে॒ऽভীশু॑ভির্বা॒জিন॑ऽইব ।
    হৃ॒ৎপ্রতি॑ষ্ঠং॒ য়দ॑জি॒রং জবি॑ষ্ঠং॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সুষারথিরিত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । স্বরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top