यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः
देवता - अनुमतिर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
123
अन्विद॑नुमते॒ त्वं मन्या॑सै॒ शं च॑ नस्कृधि।क्रत्वे॒ दक्षा॑य नो हिनु॒ प्र ण॒ऽआयू॑षि तारिषः॥८॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑। इत्। अ॒नु॒म॒त॒ इत्यनु॑ऽमते। त्वम्। मन्या॑सै। शम्। च॒। नः॒। कृ॒धि॒ ॥ क्रत्वे॒॑। दक्षा॑य। नः॒। हि॒नु॒। प्र। नः॒। आयू॑षि। ता॒रि॒षः॒ ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्विदनुमते त्वम्मन्यासै शञ्च नस्कृधि । क्रत्वे दक्षाय नो हिनु प्र ण आयूँषि तारिषः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अनु। इत्। अनुमत इत्यनुऽमते। त्वम्। मन्यासै। शम्। च। नः। कृधि॥ क्रत्वे। दक्षाय। नः। हिनु। प्र। नः। आयूषि। तारिषः॥८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे अनुमते सभापते विद्वंस्त्वं! यच्छमनुमन्यासै तेन युक्तान्नस्कृधि, क्रत्वे दक्षाय नो हिनु च न आयूंषि चेत्प्रतारिषः॥८॥
पदार्थः
(अनु) (इत्) एव (अनुमते) अनुकूला मतिर्यस्य तत्सम्बुद्धौ (त्वम्) (मन्यासै) मन्यस्व (शम्) सुखम् (च) (नः) अस्मान् (कृधि) कुरु (क्रत्वे) प्रज्ञायै (दक्षाय) बलाय चतुरत्वाय वा (नः) अस्मान् (हिनु) वर्द्धय (प्र) (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनादीनि (तारिषः) सन्तारयसि॥८॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यथा स्वार्थसिद्धये प्रयत्यते, तथैवान्यार्थेऽपि प्रयत्नो विधेयो यथा स्वस्य कल्याणवृद्धी अन्वेष्टव्ये, तथाऽन्येषामपि। एवं सर्वेषां पूर्णमायुः सम्पादनीयम्॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अनुमते) अनुकूल बुद्धिवाले सभापति विद्वन्! (त्वम्) आप जिसको (शम्) सुखकारी (अनु, मन्यासै) अनुकूल मानो, उससे युक्त (नः) हमको (कृधि) करो (क्रत्वे) बुद्धि (दक्षाय) बल वा चतुराई के लिये (नः) हमको (हिनु) बढ़ाओ (च) और (नः) हमारी (आयूंषि) अवस्थाओं को (इत्) निश्चय कर (प्र, तारिषः) अच्छे प्रकार पूर्ण कीजिये॥८॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जैसे स्वार्थसिद्धि के अर्थ प्रयत्न किया जाता, वैसे अन्यार्थ में भी प्रयत्न करें, जैसे आप अपने कल्याण और वृद्धि चाहते हैं, वैसे औरों की भी चाहें। इस प्रकार सबकी पूर्ण अवस्था सिद्ध करें॥८॥
विषय
अनुमति नाम पुरुष और संस्था ।
भावार्थ
हे (अनुमते ) अनुकूल मति से युक्त, सब कार्यों की अनुमति, अर्थात् ( स्वीकृति) देने वाले सभापते ! अथवा राजसभे ! तू (नः) हमें ( अनु मन्या सै) अनुमति, स्वीकृति दिया कर । तू ( शं च कृधि ) सुख कल्याणकारी कार्य किया कर । (क्रत्वे) उत्तम मति, या बुद्धि और (दक्षाय) बल, सम्पादन करने के लिये ही (नः हिनु ) हमें प्रेरित कर । (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को ( प्र तारिपः) खूब बढ़ा ।
टिप्पणी
त्वं मंससे 'इति अथर्व ' ० । ( तृ० च० ) 'लुषत्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि- ररास्व नः' इति अथर्व ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
[ ९ ] ब्रह्मा ऋषिः । अनुमतिर्देवता । निचृद् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
अनुमति
पदार्थ
सात्त्विक अन्न के सेवन से मनुष्य के अन्दर सदा 'अनुमति' = अनुकूल मति- उन्नति के लिए योग्य विचार उत्पन्न होते हैं। राजस् व तामस् अन्नों का परिणाम विरोधी विचारों का उत्पन्न होना, लड़ाई-झगड़े के विचारों का उत्पन्न होना है। सात्त्विक अन्न 'अनुमति' को जन्म देता है तो उससे भिन्न अन्न 'विमति' को जन्म देता है। विमति से परस्पर विरोध - विद्वेष बढ़ता है और उसका परिणाम मानस अशान्ति है। मानस अशान्ति के होने पर 'विषाद' उत्पन्न होता है, मनुष्य के मन में कर्मसंकल्प नहीं उठता, किसी काम को जी करता ही नहीं। ऐसी स्थिति उन्नति के लिए व बल-वृद्धि के लिए विघातक है, और दीर्घजीवन की विरोधी है ही। इस सारी बात को ध्यान में करके मन्त्र में 'अगस्त्य' ऋषि जिनका उद्देश्य सब प्रकार की ('अ-ग') = अगतिता को स्त्य समाप्त करना है, कहते हैं कि हे (अनुमते) = अनुकूलमते! (त्वम्) = तू (इत्) = निश्चय से (अनुमन्यासै) = हमपर अनुकूलमतिवाली हो, अर्थात् हम तेरे 'कृपापात्र' बने रहें । तू हमसे कभी दूर न हो (च) = और (नः) = हमारे लिए (शम्) = शान्ति को (कृधि) = कर | (नः) = हमें शान्त बनाकर (क्रत्वे) = सदा उत्तम कर्मसंकल्पों के लिए तथा (दक्षाय) = उन्नति के लिए हिनु प्रेरित कर। इस प्रकार हमें शान्त, कर्ममय, उन्नतिशील जीवनवाला बनाकर (न:) = हमारी आयूंषि आयुओं को (प्रतारिषः) = खूब लम्बा करना, हमें दीर्घ जीवनवाला बनाना ।
भावार्थ
भावार्थ-यदि हम शुष्क वैर-विवाद से दूर रहकर अनुकूलितमति से चलते हैं तो हमें 'शान्ति, कर्मसंकल्प [कर्मसामर्थ्य], उन्नति तथा दीर्घजीवन' प्राप्त होता है।
मराठी (2)
भावार्थ
माणूस स्वतःच्या स्वार्थसिद्धीसाठी जसा प्रयत्न करतो तसा इतरांसाठीही करावा. आपल्या कल्याणाची जशी इच्छा बाळगतो तशी इतरांसाठीही बाळगावी. याप्रमाणे सर्वांची आयुष्ये परिपूर्ण करावीत.
विषय
मनुष्यांनी काय करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अनुमते) अनुकूल वा हितकर बुद्धी असणारे विद्वान महोदय, (त्वम्) आपण जे जे (कार्य वा वस्तू) (शम्) सुखकारी (अनु, मन्यासै) समजता, ते ते (नः) आम्हांला (कृधि) द्या तसेच (क्रत्वे) बुद्धी वा विवेक-विचारासाठी आणि (दक्षाय) शक्ती वा चातुर्यासाठी (नः) आम्हाला (हिनु) पुढे न्या (च) आणि (नः) आमच्या (आयूँषि) जीवनाला वा आयुष्याला (इत्) निश्चयाने (प्र, तारिषः) पूर्णत्वाकडे न्या. ॥8॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की जसे ते स्वार्थ पूर्तीकरिता झटतात, तसे इतरांच्या हितासाठीदेखील त्यानी यत्न केले पाहिजेत. त्याचप्रमाणे जसे ते आपल्या स्वतःच्या कल्याणाकरिता यत्न करतात, तसे इतरांच्या कल्याणाविषयी जागरूक असावे. अशाप्रकारे सर्वांची पूर्ण उन्नती साधावी. ॥8॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned king of favourable disposition, grant us happiness, which thou dost consider conducive. Urge us to wisdom, and strength; and prolong the days of our life.
Meaning
Anumati, spirit and power of agreeability, common consent and assent, whatever you approve, and whatever you agree is good, give us that, do that for us. Help us grow in intelligence and expertise for good action. Help us all cross the seas of life with success.
Translation
O divine favour (anumati), may you favour our sacrifice and may you grant us weal. May you impel us to skilful deeds and vouchsafe us long and trouble-free span of life. (1)
Notes
Anumate, O assentive intellect. Also, Divine Favour, shown especially in the acceptance of sacrifice, personified. (See XXIX. 60). Anu manyāsai, अनुमन्यस्व, assent. Kratve dakṣāya, to skilful actions. Also, to resolve and action No hinu,अस्मान् प्रेरय,urge us; impel us. Äyümşi pra tāraya, prolong our life-span. Nah, for न:, our; us.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
পুনরায় মনুষ্যদিগকে কী করা উচিত এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অনুমতে) অনুকূল বুদ্ধিযুক্ত সভাপতি বিদ্বন্ ! (ত্বম্) আপনি যাহাকে (শম্) সুখকারী (অনু, মন্যাসৈ) অনুকূল মানিবেন তাহার সহিত যুক্ত (নঃ) আমাদিগকে (কৃধি) করুন । (ক্রত্বে) বুদ্ধি (দক্ষায়) বল বা চাতুর্য্যের জন্য (নঃ) আমাদেরকে (হিনু) বৃদ্ধি করুন (চ) এবং (নঃ) আমাদের (আয়ূংষি) আয়ুকে (ইৎ) নিশ্চয় করিয়া (প্র, তারিষঃ) উত্তম প্রকার পূর্ণ করুন ॥ ৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন স্বার্থসিদ্ধির জন্য প্রযত্ন করা হয় তদ্রূপ অন্যার্থেও প্রযত্ন করিবে । যেমন আপনি স্বীয় কল্যাণ ও বৃদ্ধি কামনা করেন সেইরূপ অন্যদের জন্য চাহিবেন । এই ভাবে সকলের পূর্ণ আয়ু সাধন করিবে ॥ ৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অন্বিদ॑নুমতে॒ ত্বং মন্যা॑সৈ॒ শং চ॑ নস্কৃধি ।
ক্রত্বে॒ দক্ষা॑য় নো হিনু॒ প্র ণ॒ऽআয়ূ॑ᳬंষি তারিষঃ ॥ ৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অন্বিদিত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । অনুমতির্দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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