यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 10
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - वातादयो देवताः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
302
शन्नो॒ वातः॑ पवता॒ शन्न॑स्तपतु॒ सूर्यः॑।शन्नः॒ कनि॑क्रदद्दे॒वः प॒र्जन्यो॑ऽअ॒भि व॑र्षतु॥१०॥
स्वर सहित पद पाठशम्। नः॒। वातः॑। प॒व॒ता॒म्। शम्। नः॒। त॒प॒तु॒। सूर्य्यः॑ ॥ शम्। नः॒। कनि॑क्रदत्। दे॒वः। प॒र्जन्यः॑। अ॒भि। व॒र्ष॒तु॒ ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
शन्नो वातः पवताँ शन्नस्तपतु सूर्यः । शन्नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्यो अभि वर्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठ
शम्। नः। वातः। पवताम्। शम्। नः। तपतु। सूर्य्यः॥ शम्। नः। कनिक्रदत्। देवः। पर्जन्यः। अभि। वर्षतु॥१०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे परमेश्वर विद्वन् वा! यथा वातो नः शं पवतां सूर्य्यो नः शं तपतु, कनिक्रदद्देवो नः शं भवतु, पर्जन्यो नोऽभिवर्षतु, तथाऽस्मान् शिक्षय॥१०॥
पदार्थः
(शम्) सुखकारकः (नः) अस्मभ्यम् (वातः) पवनः (पवताम्) चलतु (शम्) (नः) (तपतु) (सूर्य्यः) (शम्) (नः) (कनिक्रदत्) भृशं शब्दं कुर्वन् (देवः) दिव्यगुणयुक्तो विद्युदाख्यः (पर्जन्यः) मेघः (अभि) आभिमुख्ये (वर्षतु)॥१०॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! येन प्रकारेण वायुसूर्य्यविद्युन्मेघाः सर्वेषां सुखकराः स्युस्तथाऽनुतिष्ठत॥१०॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर मनु्ष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे परमेश्वर वा विद्वान् पुरुष! जैसे (वातः) पवन (नः) हमारे लिये (शम्) सुखकारी (पवताम्) चले (सूर्य्यः) सूर्य्य (नः) हमारे लिये (शम्) सुखकारी (तपतु) तपे (कनिक्रदत्) अत्यन्त शब्द करता हुआ (देवः) उत्तम गुणयुक्त विद्युत्रूप अग्नि (नः) हमारे लिये (शम्) कल्याणकारी हो और (पर्जन्यः) मेघ हमारे लिये (अभि, वर्षतु) सब ओर से वर्षा करे, वैसे हमको शिक्षा कीजिये॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! जिस प्रकार से वायु, सूर्य्य, बिजुली और मेघ सबको सुखकारी हों, वैसा अनुष्ठान किया करो॥१०॥
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
हे सर्वनियन्त: ! (शं नः वातः) हमारे लिए सुखकारक, सुगन्ध, शीतल और मन्द-मन्द वायु सदैव चले । (सूर्यः नः शम् तपतु) एवं, सूर्य भी सुखकारक ही तपे। (कनिक्रदत् देवः पर्जन्यः नः शम् अभिवर्षतु) तथा मेघ भी सुख का शब्द लिए, अर्थात् गर्जनपूर्वक सदैव कालकाल में सुखकारक वर्षा वर्षे, जिससे आपके कृपापात्र हम लोग सुखानन्द ही में सदा रहें ॥ २२ ॥
विषय
शान्तिकरण ।
भावार्थ
(वातः) वायु (नः) हमें (शं पवताम् ) सुखकारी होकर बहे । वह व्याधिजनक न हो । ( नः सूर्यः शं तपतु ) हमारे लिये सूर्य शान्तिदायक होकर तपे । रोगों को नष्ट करे । ( कनिक्रदत्) गर्जता हुआ (देवः ) जलप्रद ( पर्जन्यः) उत्तम रस बरसाने वाला मेघ और धर्म मेघमय प्रभु (नः शम् अभिवर्षतु) हमें सुख शान्ति वर्षे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वातादयः । विराडनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
वायु, सूर्य व पर्जन्य
पदार्थ
(नः) = हमारे लिए (वात:) = वायु (शम्) = शान्तिकर होकर (पवताम्) = बहे, (नः) = हमारे लिए (सूर्य:) = सूर्य (शम्) = शान्तिवाला होकर (तपतु) = तपे । (नः) = हमारे लिए (कनिक्रदत्) = गर्जना करता हुआ (देवः) = दिव्य गुणोंवाला (पर्जन्यः) = बादल (शम्) = शान्तिवाला होता हुआ (अभिवर्षतु) = बरसे। मन्त्र में उल्लिखित शब्दों के द्वारा संसार की सर्वमहान् घटना का उल्लेख हुआ है। घटनाचक्र का नाम ही संसार है। प्रत्येक घटना अपना-अपना महत्त्व रखती है। सर्वमहान् घटना यह वर्षण की घटना ही है। इसमें त्रिलोकी के तीनों लोक ही भाग लेते हैं। द्युलोक का सूर्य तपता है और इस ताप से पृथिवीलोक के जल का वाष्पीकरण होता है। यह वाष्पीभूत जल अन्तरिक्ष में घनीभूत होकर बादल के रूप में परिणत होकर पर्वत-शिखरों पर वर्षता है। इस प्रकार समुद्र का जल पर्वत मस्तक पर पहुँच जाता है और वहाँ से प्रवाहित होकर नदियों के रूप में फिर से समुद्र की ओर जाना प्रारम्भ होता है। एवं, एक चक्र की स्थापना होती है। समुद्र का जल फिर समुद्र में आ मिलता है। यदि यह घटना न होती तो इस भूमण्डल पर जीवन सम्भव न रहता। ये ही देवता अध्यात्म में भी भिन्न-भिन्न रूपों से कार्य कर रहे हैं। वायु अध्यात्म में प्राण है। इस प्राण की साधना के लिए प्राणायाम का विधान है। ('प्राणायामैर्दहेद् दोषान्') = प्राणायास से क्या शरीर, क्या मन व क्या बुद्धि सभी के दोष दग्ध हो जाते हैं। ये दोष दग्ध होकर शरीर स्वस्थ हो जाता है, मन प्रसन्न व बुद्धि तीव्र होकर सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषयों का ग्रहण करने में समर्थ हो जाती हैं। एवं, शरीर में वायु का महत्त्व है ही। सूर्य शरीर में चक्षुरूप से रह रहा है। इस चक्षु को निर्दोष रखने के लिए भी प्राणसाधना आवश्यक ही है। ज्ञान सूर्य का उदय होने पर हृदयान्तरिक्ष में करुणा का मेघ उठता है। ज्ञानी का हृदय अवश्य ही करुणापूर्ण होता है। यह परातृप्ति की जनक होने से सचमुच 'पर्जन्य' है। इसे 'कनिक्रदत्' इसलिए कहा गया है कि दयार्द्र हृदय में ही प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है, पाषाण हृदय में प्रभु की गर्जना नहीं सुन पड़ती। एवं, हम प्राणसाधना को महत्त्व दें। इससे हमारी ज्ञानचक्षु भी खुलेगी और हृदय में दया के मेघ की भी उत्पत्ति होगी। कितना दिव्य व शान्त होगा उस दिन हमारा जीवन!
भावार्थ
भावार्थ- वशीभूत प्राण, देदीप्यमान ज्ञानचक्षु तथा हृदयस्थ करुणा की भावना हमें शान्ति प्राप्त करानेवाली हों।
मन्त्रार्थ
(वातः-नः शं पवताम्) विस्तृत वायु हमारे लिए कल्याणकारी होता हुआ चले (सूर्य:-नः शं तपतु) सूर्य हमारे लिए सुख कर ताप दे (कनिक्रदत् पर्जन्यः-देवः-अभिवर्षतु) गर्जता हुआ मेघ देव भली भांति वर्षे ॥१०॥
विशेष
ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥
मराठी (3)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! वायू, सूर्य, विद्युत व मेघ सर्वांना सुख देतील, असे अनुष्ठान करा.
विषय
पुनः मनुष्यानी काय करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे परमेश्वर अथवा हे विद्वान महोदय, ज्यायोगे (वातः) वायू (नः) आमच्यासाठी (उपासना व यज्ञकर्म करणार्यासाठी) (शम्) सुखकररूपाने (पवताम्) वाहील आणि ज्यायोगे (सूर्य्यः) सूर्य (नः) आम्हाला (शम्) सुखकररीत्या (तपतु) आपला तेज व प्रकाश आम्हांस देईल (ती पद्धती वा ते कर्त्तव्य आम्हाला सांगा) तसेच ज्या योगे (कनिक्रदत्) घनघोर गर्जना करीत (देवः) उत्तम गुणरूप विद्युदग्नी (नः) आमच्यासाठी (शम्) कल्याणकारी होत आणि (पर्जन्यः) आमच्यासाठी मेघमंडळ (अभि, वर्षतु) सर्व दिशांतून पाऊस घेऊन येईल, (अशा प्रकारची रीती व नीती तुम्ही आम्हांस सांगा म्हणजे आम्ही ती सर्व कार्यें संपन्न करू). ॥10॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यानो, ज्यायोगे वायू, सूर्य, विद्युत आणि मेघ सर्वांसाठी सुखकर होतील, तुम्ही तशी अवश्य करा. ॥10॥
विषय
स्तुती
व्याखान
हे सर्व नियंत्या! सुगंध आम्हाला सुखकारक ठरणारा असाथा, शीतल व मंद मंद वारा वाहणारा असावा, सूर्य ही सुखकारक असावा, मेघांनी ही वारंवार गर्जना करावी. या सर्वामुळे तुझे कृपापात्र बनून आम्ही या सुखाचा आनंद ध्यावा.॥२२॥
इंग्लिश (4)
Meaning
May the wind blow pleasantly for us. May the Sun warm us pleasantly. May lightning roar for us. May cloud send the rain on us pleasantly.
Meaning
May the winds blow cool and calm for us. May the sun shine warm and clear for us all. May lightning, thunderous brilliant, bring peace for us all. And may the generous cloud shower rains of soothing joy and prosperity for us all over the world.
Purport
O the Controller of all beings ! Let delightful, fragrant, cooling, slow and soft breeze ever blow for us. The sun should also shine so as to make us happy and delightful. The rain-clouds should also thunder with pleasant sound from time to time before pouring their beneficial showers, so that worthy of your mercy we should always be happy and prosperous in this world.
Translation
May the wind blow pleasantly for us; may the sun be warm pleasantly for us; and may the divine loudthundering cloud send showers for our pleasure. (1)
Notes
Vātaḥ, Süryaḥ, Parjanyaḥ are the natural forces. These may be friendly at times, but may be troublesome also; hence the prayer.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্য কী করিবে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে পরমেশ্বর বা বিদ্বান্ পুরুষ ! যেমন (বাতঃ) পবন (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) সুখকারী (পবতাম্) গমন করে, (সূর্য়্যঃ) সূর্য্য (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) সুখকর ভাবে (তপতু) তপ্ত হয়, (কনিক্রদৎ) অত্যন্ত শব্দ করিয়া (দেবঃ) উত্তম গুণযুক্ত বিদ্যুৎরূপ অগ্নি (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) কল্যাণকারী হয় এবং (পর্জন্যঃ) মেঘ আমাদের জন্য (অভি, বর্ষতু) সব দিক দিয়া বর্ষা করে, সেইরূপ আমাদেরকে শিক্ষা প্রদান করুন ॥ ১০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! যে প্রকারে বায়ু, সূর্য্য, বিদ্যুৎ ও মেঘ সকলের জন্য সুখকর হয়, সেইরূপ অনুষ্ঠান করিতে থাক ॥ ১০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শন্নো॒ বাতঃ॑ পবতা॒ᳬं শন্ন॑স্তপতু॒ সূর্য়ঃ॑ ।
শন্নঃ॒ কনি॑ক্রদদ্দে॒বঃ প॒র্জন্যো॑ऽঅ॒ভি ব॑র্ষতু ॥ ১০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শন্নো বাত ইত্যস্য দধ্যঙ্ঙাথর্বণ ঋষিঃ । বাতাদয়ো দেবতাঃ । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
हे करुणाकर परमात्मन् ! हजुरको कृपाले मँ ऋचं वाचं प्रपद्ये ऋग्वेदादि ज्ञान युक्त [श्रवणयुक्त ] भएर तेसको वक्ता बनूँ तथा नः यजुः प्रपद्येः यजुर्वेद को अभिप्राय अर्थसहित सत्यार्थमननयुक्त मन प्राप्त गरूँ । एसरि नै साम प्राणं प्रपद्ये= सामवेदार्थनिश्चय निदिध्यासनसहित प्राण लाई सदैव प्राप्त गरूँ । चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये:= मँ वेदानुकूल श्रवणशक्ति बाट सदा अथर्ववेद को चिन्तन एवं मनन् गरूँ । वागोजः = मँलाई वाग्बल, वक्तृत्वबल र मनोविज्ञानबल तपाईंले दिनु होला । अन्तर्यामी तपाईंको कृपा ले मँ ई सबैलाई यथावत् प्राप्त गरूँ । सहौजः= शरीरबल, नैरोग्य, दृढत्वादि गुण हरु लाई हजुर का अनुग्रह ले सदैव प्राप्त गँरू । मयि,प्राणापानौः= हे सर्व जगज्जीवनाधार ! प्राण [जसबाट ऊर्ध्वचेष्टा प्राप्त हुन्छ] तथा अपान [जसबाट निम्न चेष्टा प्राप्त हुन्छ ] ई दुवै मेरा शरिर का सबै ईन्द्रिय र सबै धातुहरुको शुद्धिगर्ने तथा नैरोग्य, बल, पुष्टि, सरलगति गर्ने स्थिर, आयुरवर्धक र मर्मस्थल हरु को रक्षा कारी । हुन् । तपाईंको कृपा ले तिनका अनुकूल प्राणादि प्राप्त गरी हे ईश्वर ! सदैव सुखी भई तपाईंको आज्ञा र उपासना मा तत्पर रहूँ ॥५॥
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