यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 3
ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - दैवी बृहती, निचृद्गायत्री
स्वरः - मध्यमः,षड्जः
1210
भूर्भुवः॒ स्वः। तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥३॥
स्वर सहित पद पाठभूः। भुवः॑। स्वः᳖। तत्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यम्। भर्गः॑। दे॒वस्य॑। धी॒म॒हि॒ ॥ धियः॑। यः। नः॒। प्र॒चो॒दया॒दिति॑ प्रऽचो॒दया॑त् ॥३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यम्भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
भूः। भुवः। स्वः। तत्। सवितुः। वरेण्यम्। भर्गः। देवस्य। धीमहि॥ धियः। यः। नः। प्रचोदयादिति प्रऽचोदयात्॥३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरोपासनाविषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा वयं भूर्भुवः स्वरधीत्य यो नो धियः प्रचोदयात्, तस्य देवस्य सवितुस्तद्वरेण्यं भर्गो धीमहि, तथा यूयमप्येतद् ध्यायत॥३॥
पदार्थः
(भूः) कर्मविद्याम् (भुवः) उपासनाविद्याम् (स्वः) ज्ञानविद्याम् (तत्) इन्द्रियैरग्राह्यं परोक्षम् (सवितुः) सकलैश्वर्यप्रदस्येश्वरस्य (वरेण्यम्) स्वीकर्त्तव्यम् (भर्गः) सर्वदुःखप्रणाशकं तेजःस्वरूपम् (देवस्य) कमनीयस्य (धीमहि) ध्यायेम (धियः) प्रज्ञाः (यः) (नः) अस्माकम् (प्रचोदयात्) प्रेरयेत्॥३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या कर्मोपासनाज्ञानविद्याः संगृह्याखिलैश्वर्ययुक्तेन परमात्मना सह स्वात्मनो युञ्जतेऽधर्माऽनैश्वर्यदुःखानि विधूय धर्मैश्वर्यसुखानि प्राप्नुवन्ति, तानन्तर्यामी जगदीश्वरः स्वयं धर्माऽनुष्ठानमधर्मत्यागं च कारयितुं सदैवेच्छति॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वर की उपासना का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे हम लोग (भूः) कर्मकाण्ड की विद्या (भुवः) उपासना काण्ड की विद्या और (स्वः) ज्ञानकाण्ड की विद्या को संग्रहपूर्वक पढ़के (यः) जो (नः) हमारी (धियः) धारणावती बुद्धियों को (प्रचोदयात्) प्ररेणा करे, उस (देवस्य) कामना के योग्य (सवितुः) समस्त ऐश्वर्य के देनेवाले परमेश्वर के (तत्) उस इन्द्रियों से न ग्रहण करने योग्य परोक्ष (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (भर्गः) सब दुःखों के नाशक तेजःस्वरूप का (धीमहि) ध्यान करें, वैसे तुम लोग भी इसका ध्यान करो॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य कर्म, उपासना और ज्ञान सम्बन्धिनी विद्याओं का सम्यक् ग्रहण कर सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त परमात्मा के साथ अपने आत्मा को युक्त करते हैं तथा अधर्म, अनैश्वर्य और दुःखरूप मलों को छुड़ा के धर्म, ऐश्वर्य और सुखों को प्राप्त होते हैं, उनको अन्तर्यामी जगदीश्वर आप ही धर्म के अनुष्ठान और अधर्म का त्याग कराने को सदैव चाहता है॥३॥
विषय
नव-जीवन
पदार्थ
१. 'मानव जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए' इसका निर्देश प्रभु ने इन तीन महाव्याहृतियों द्वारा किया है [क] (भूः) = [भू सत्तायाम् to be ] = स्वास्थ्य होना अर्थात् 'स्वस्थ' होना। 'अपने में स्थित न होना', यह बात न हो, अर्थात् 'अस्वस्थ' न हों। [ख] (भुवः) = ज्ञान [भुवो अवकल्कने, (अवकल्कनम्) = चिन्तनम् ] ज्ञानी बनें। [ग] (स्वः) = स्वयं राजमानता, अपरतन्त्रता, अर्थात् जितेन्द्रियता एवं इन तीन शब्दों में मनुष्य जीवन का ध्येय इस प्रकार प्रतिपादित हुआ है कि 'शरीर के दृष्टिकोण से स्वस्थ बनो, मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से ज्ञानी बनो तथा आत्मिक दृष्टिकोण से जितेन्द्रिय बनो । इन्द्र वही है जो इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो। २. उल्लिखित ध्येय को प्राप्त करने के लिए हम सदा इस बात का ध्यान करें कि 'प्रभु के तेज को प्राप्त करना' ही हमारी रट हो, यही हमारा जप हो। इस तेज को प्राप्त करने के लिए मुझे अपना जीवन अधिकाधिक सुन्दर बनाना होगा, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (तत् सवितुः) - [तनु विस्तारे - तत्] उस विस्तृत, अनन्त विस्तारवाले सर्वव्यापक प्रभु के (देवस्य) = दिव्य गुणों के पुञ्ज परमात्मा के (वरेण्यम्) = वरने के योग्य श्रेष्ठ (भर्ग:) = तेज का (धीमहि) = हम ध्यान करें, उसे ही अपनी आँखों के सामने रक्खें और धारण करने का प्रयत्न करें। किस प्रभु को? उस प्रभु को (यः) = जो (नः) = हमारी (धियः) = बुद्धियों को (प्रचोदयात्) = उत्कृष्ट प्रेरणा देता है। जिस व्यक्ति ने प्रभु के तेज को धरण करने का ही जप किया वह व्यक्ति सदा हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनता है । ३. यह प्रभु-प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति सभी का मित्र होता है, यह 'विश्वामित्र' होता है। जिसका ध्यान प्रभु की ओर जाता है, वह सब में प्रभु को देखता है। ४. यह मन्त्र वेदों का सारभूत मन्त्र समझा जाता है। प्रसिद्धि तो यह है कि ब्रह्मा ने वेदों का दोहन किया। ऋचाओं के दोहन से 'तत्सवितुर्वरेण्यम्' इस चरण का दोहन हुआ, यजुः मन्त्रों के दोहन का परिणाम भर्गो देवस्य धीमहि' है तथा साम- मन्त्रों का सार 'धियो यो नः प्रचोदयात्' निकाला।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के तेज को अपने जीवन में धारण करें, जिससे प्रभु हमारी बुद्धियों को प्रेरित करते रहें।
मन्त्रार्थ
(ओ३म्) परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट तथा निज नाम । 'अव' धातु से बना है, 'अव' धातु के रक्षण आदि १८ अर्थ हैं प्रधान अर्थ यहाँ रक्षण है, संसार में जितने भी रक्षक हैं सबसे अधिक तथा सर्वदा और नितान्त रक्षक परमात्मा । (भूः) स्वयं सत्ता से वर्तमान प्राण की भांति जड जङ्गम का आधार एवं जीवनदाता (भुवः) अवकल्कित करने वाला, कल्क-मल दुःख दोष से अलग करने वाला। जगदीश। अन्तरात्मा के कल्क दुर्वासना दुःसङ्कल्प मानस ताप और अशान्ति है उन्हें पृथक कर देने वाला उसके सङ्ग से ये दूर हो जाते हैं (स्व:) सुखस्वरूप परमात्मा मानसकल्याण एवं आत्मशान्ति, मोक्षरूप परमानन्द का दाता है (सवितुः-देवस्य) उत्पादक प्रेरक ज्ञानप्रकाशक अपने इष्टदेव परमात्मा के (तत्-वरेण्यं भर्गः) उस प्रसिद्ध वरने योग्य जो वरा जा सके तथा अवश्य वरणीय जिसे वरना ही चाहिए विना वरे मानव का कल्याण नहीं ऐसे पाप और अविद्यान्धकार के नाशक शुद्ध ज्ञानमय तेज को (धीमहि) हम धारण करें ध्यावें पनावें (यः) ओ (नः-धियः) हमारी बुद्धियों, प्रजानो धारणशक्तियों-मन बुद्धि चित्त अहङ्काररूप को (प्रचोदयात्) मानवोचित्त कर्मों में, जीवन के उत्कृष्ट क्षेत्रों में सद्गुण कर्म स्वभावों में तथा अपनी ओर प्रेरित करे ॥३॥
विशेष
ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे ज्ञान, कर्म, उपासना यासंबंधी विद्या प्राप्त करून संपूर्ण ऐश्वर्यांनी युक्त असलेल्या परमेश्वरात आपल्या आत्म्याला युक्त करतात. अधर्म, ऐश्वर्य, हीनता, दुःख इत्यादी मलापासून (दोषांपासून) दूर होतात व धर्म, ऐश्वर्य, सुख प्राप्त करतात. अंतर्यामी परमेश्वर त्यांना अधर्मापासून दूर करून त्याग व धर्मानुष्ठानात प्रवृत्त करतो.
विषय
ईश्वराच्या उपासनेविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, ज्याप्रमाणे आम्ही (उपासक) (भूः) कर्म विद्या, (भुवः) उपासना विद्या आणि (स्वः) ज्ञानविद्या या सर्व विद्यांचा संग्रह करीत (नः) आमच्या (यः) ज्या (धियः) धारणामय बुद्धी आहेत तिला वा विचारांना (प्रचोदयात्) प्रेरित करतो (तद्वत, तुम्हीही तुमच्या विचारांना प्रेरित उत्साहित करा) तसेच (देवस्य) त्या कमनीय इष्ट (सवितुः) समग्र ऐश्वर्यदाता परमेश्वराच्या (तत्) ज्याला इंद्रियाद्वारे ग्रहण करणे शक्य नाही, अशा अतींद्रिय परोक्ष (भर्गः) सर्वदुःखनाशक ते ज्याचे आम्ही (धीमहि) ध्यान करू वा करतो, त्याप्रमाणे, हे मनुष्यानो, तुम्ही बुद्धीद्वारे त्या परमेश्वराच्या तेजाचे ध्यान करा. ॥3॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्य कर्म, उपासना आणि ज्ञानविषयक विद्या सम्यकप्रकारे अवगत करतात, आणि त्या समग्र ऐश्वर्यवान परमेश्वराशी आत्म्याला संयुक्त करतात, तसेच अधर्म, अनैश्वर्य आणि दुःखरूपमळांचा त्याग करून ऐश्वर्य व सुख संपादित करतात, त्यांना तो अंतर्यामी ईश्वर स्वयमेव धर्मानुष्ठान करण्याची व अधर्मत्यागाची प्रेरणा देतो. ॥3॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Oh men, just as we having studied the science of moral duty, the science of contemplation, and the science of sacred knowledge, meditate upon God, the Reliever of afflictions, inaccessible through physical organs, the Giver of affluence, the Object of desire, the Impeller of our intellects, so should ye do.
Meaning
With the knowledge of Being, Becoming, and Spirit, with knowledge, karma and prayer, we meditate upon the blazing glory of self-effulgent lord Savita, Lord of existence, intelligence and bliss, the only worthy choice of ours, and we pray that He may inspire and guide our vision and intelligence to the right path.
Translation
May we imbibe in ourselves the choicest effulgence of the divine Creator, so that He evokes our intellects. (1)
Notes
Same as III. 35.
बंगाली (1)
विषय
অথেশ্বরোপাসনাবিষয়মাহ ॥
এখন ঈশ্বরের উপাসনার বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন আমরা (ভূঃ) কর্মকান্ডের বিদ্যা (ভুবঃ) উপাসনা কান্ডের বিদ্যা এবং (স্বঃ) জ্ঞানকান্ডের বিদ্যাকে সংগ্রহপূর্বক পড়িয়া (য়ঃ) যাহা (নঃ) আমাদের (ধিয়ঃ) ধারণাবতী বুদ্ধিদিগকে (প্রচোদয়াৎ) প্রেরণা করিবে সেই (দেবস্য) কামনার যোগ্য (সবিতুঃ) সমস্ত ঐশ্বর্য্যপ্রদাতা পরমেশ্বরের (তৎ) সেই ইন্দ্রিয় দ্বারা গ্রহণ না করার যোগ্য পরোক্ষ (বরেণ্যম্) স্বীকার করিবার যোগ্য (ভর্গঃ) সর্ব দুঃখের নাশক তেজঃস্বরূপের (ধীমহি) ধ্যান করি, সেইরূপ তুমিও ইহার ধ্যান কর ॥ ৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে মনুষ্য কর্ম, উপাসনা ও জ্ঞান সম্পর্কীয় বিদ্যাগুলির সম্যক গ্রহণ করিয়া সম্পূর্ণ ঐশ্বর্য্যযুক্ত পরমাত্মা সহ নিজের আত্মাকে যুক্ত করে তথা অধর্ম, অনৈশ্বর্য্য এবং দুঃখরূপ মল হইতে মুক্ত হইয়া ধর্ম, ঐশ্বর্য্য এবং সুখ প্রাপ্ত হয় তাহাদেরকে অন্তর্যামী জগদীশ্বর স্বয়ংই ধর্মের অনুষ্ঠান ও অধর্মের ত্যাগ করাইতে সর্বদা কামনা করে ॥ ৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ভূর্ভুবঃ॒ স্বঃ᳖ । তৎস॑বি॒তুর্বরে॑ণ্যং॒ ভর্গো॑ দে॒বস্য॑ ধীমহি ।
ধিয়ো॒ য়ো নঃ॑ প্রচো॒দয়া॑ৎ ॥ ৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ভূর্ভুবঃ স্বরিত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । পূর্বস্য দৈবী বৃহতী ছন্দঃ, তৎসবিতুরিত্যুত্তরস্য নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ ।
মধ্যমষড্জৌ স্বরৌ ॥
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