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यजुर्वेद अध्याय - 37
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  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - जगती स्वरः - निषादः
    136

    यु॒ञ्जते॒ मन॑ऽउ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृह॒तो वि॑प॒श्चितः॑।वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ऽइन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जते॑। मनः॑। उ॒त। यु॒ञ्ज॒ते॒। धियः॑। विप्राः॑। विप्र॑स्य। बृ॒ह॒तः। वि॒प॒श्चित॒ इति॑ विपः॒ऽचितः॑ ॥ वि। होत्राः॑। द॒धे॒। व॒यु॒ना॒वित्। व॒यु॒न॒विदिति॑ वयुन॒ऽवित्। एकः॑। इत्। म॒ही। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। परि॑ष्टुतिः। परि॑स्तुति॒रिति॒ परि॑ऽस्तुतिः ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जते मनऽउत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः । वि होत्रा दधे वयुनाविदेकऽइन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जते। मनः। उत। युञ्जते। धियः। विप्राः। विप्रस्य। बृहतः। विपश्चित इति विपःऽचितः॥ वि। होत्राः। दधे। वयुनावित्। वयुनविदिति वयुनऽवित्। एकः। इत्। मही। देवस्य। सवितुः। परिष्टुतिः। परिस्तुतिरिति परिऽस्तुतिः॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ योगाभ्यासविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! य एको वयुनाविज्जगदीश्वरो सर्वं विदधे यस्य सवितुर्देवस्य मही परिष्टुतिरस्ति होत्रा विप्रा योगिनो यस्य बृहतो विपश्चितो विप्रस्य मध्ये मनो युञ्जत उत धियो युञ्जते तमिदेव यूयमुपाध्वम्॥२॥

    पदार्थः

    (युञ्जते) समादधति (मनः) संकल्पविकल्पात्मकम् (उत) अपि (युञ्जते) (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि वा (विप्राः) विविधमेधाव्यापिनो मेधाविनः (विप्रस्य) विशेषेण सर्वत्र व्याप्तस्य (बृहतः) सर्वेभ्यो महतः (विपश्चितः) अनन्तविद्यस्य (वि) (होत्राः) ये जुह्वत्याददति ते (दधे) दधाति (वयुनावित्) यो वयुनानि प्रज्ञानानि वेत्ति सः (एकः) अद्वितीयः (इत्) एव (मही) महती (देवस्य) सकलजगत्प्रकाशकस्य (सवितुः) सर्वान्तर्यामिणः (परिष्टुतिः) परितः सर्वतः स्तुतिः प्रशंसा॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! यो योगिभिर्ध्येयो यस्य प्रशंसादृष्टान्ताः सूर्यादयो वर्त्तन्ते, यः सर्वज्ञोऽसहायः सच्चिदानन्दस्वरूपोऽस्ति, तस्मै सर्वे धन्यवादा दातुमर्हा वर्त्तन्ते तमेवेष्टदेवं यूयं मन्यध्वम्॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब योगाभ्यास का विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जो (वयुनावित्) उत्कृष्ट ज्ञानों में प्रवीण (एकः) अद्वितीय जगदीश्वर सबको (वि, दधे) रचता (सवितुः) सर्वान्तर्यामी (देवस्य) समग्र जगत् के प्रकाशक ईश्वर की यह (मही) बड़ी (परिष्टुतिः) सब ओर से स्तुति प्रशंसा है (होत्राः) शुभगुणग्रहीता (विप्राः) अनेक प्रकार की बुद्धियों में व्याप्त बुद्धिमान् योगीजन जिस (बृहतः) सबसे बड़े (विपश्चितः) अनन्त विद्यावाले (विप्रस्य) विशेष कर सर्वत्र व्याप्त परमेश्वर के बीच (मनः) संकल्प-विकल्प रूप मन को (युञ्जते) समाहित करते (उत) और (धियः) बुद्धि वा कर्मों को (युञ्जते) युक्त करते हैं, (इत्) उसी की तुम लोग उपासना किया करो॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो योगीजनों को ध्यान करने योग्य, जिसकी प्रशंसा के हेतु सूर्य्य आदि दृष्टान्त वर्त्तमान हैं, जो सर्वज्ञ असहायी सच्चिदानन्दस्वरूप है, जिसके लिये सब धन्यवाद देने योग्य हैं, उसी को इष्टदेव तुम लोग मानो॥२॥

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    विषय

    महावीर सम्भरण।मुख्य शिरोमणी नायक की उत्पत्ति।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अ० ५ । १४ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्वः । सविता । जगती । निषादः ॥

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    विषय

    मनो निरोध

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में संसार के पदार्थों के ग्रहण में तीन बातों का ध्यान करने के लिए कहा गया था। इस मनोवृत्ति को बनाने के लिए अपेक्षित अभ्यास का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में करते हैं १. (विप्रः) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले लोग (मनः) = अपने मनों को (युञ्जते) = प्रभु के ध्यान में केन्द्रित करने का प्रयत्न करते हैं (उत) = और (धियः) = अपनी-अपनी बुद्धियों को भी उसी के विचार में (युञ्जते) = युक्त करते हैं। किस प्रभु के ? [क] (विप्रस्य) = विशेषरूप से पूरण करनेवाले के, अर्थात् जो प्रभु हमारी सब कमियों को दूर करते हैं, [ख] (बृहतः) = जो सदा वर्धमान हैं [बृहि वृद्धौ] [ग] (विपश्चितः) [वि पश् चित् ] = जो विशिष्ट द्रष्टा व पूर्ण ज्ञानवाले हैं। उस प्रभु में हम अपने मनों व बुद्धियों को केन्द्रित करेंगे तो हमारे शरीर भी सब न्यूनताओं से ऊपर उठकर पूर्ण स्वस्थ होंगे, हमारे हृदय विशाल होंगे तथा हमारे मस्तिष्क ज्ञान की ज्योति से उज्ज्वल बनेंगे। २. वे प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में ही (होत्रा) = [होत्रा इति वाङ् नाम - नि १.११ ] इस वेदवाणी को (विदधे) = विशेषरूप से ('यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् ') = श्रेष्ठ व निर्दोष ऋषियों के हृदयों में स्थापित करते हैं। वस्तुतः इस वेदवाणी के द्वारा प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही हमें कर्त्तव्य का ज्ञान दे दिया है, सब पदार्थों का ज्ञान उस वाणी में विद्यमान है। उसका ठीक-ठीक ग्रहण करने से हम ज्ञानी बनकर अपने कर्त्तव्य पथ पर निरन्तर आगे बढ़नेवाले हो सकते हैं । ३. (वयुनावित्) = [ वयुनम् = प्रज्ञानाम - नि० ३.९] वे प्रभु हमारे सब प्रज्ञानों को जाननेवाले हैं। हमने सोचा और प्रभु ने जाना । ४. (एकः) = वे एक ही हैं। इस सारे ब्रह्माण्ड के निर्माण धारण व प्रलयरूप कार्यों को करने में उस प्रभु को किसी अन्य सहायक की अपेक्षा नहीं होती। वे अद्वितीय प्रभु सब जीवों को उनके कर्मानुसार उस-उस स्थिति में रखनेवाले हैं। ४. इस (देवस्य सवितुः) = दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रेरक प्रभु की (इत्) = निश्चय से (मही परिष्टुति:) = यह महान् महिमा है, संसार का एक-एक पदार्थ उस प्रभु की महत्ता को व्यक्त कर रहा है । ५. एवं, अपने मनों व बुद्धियों को प्रभु में लगाकर हम इस संसार में प्रत्येक पदार्थ का 'यथायोग' करनेवाले बनते हैं। उस समय संसार का प्रत्येक पदार्थ हमारा मित्र होता है। अपने इन्द्रियरूप अश्वों को सदा उत्तमता से गतिमय [ श्यै] रखनेवाला 'श्यावाश्व' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। इसके इन्द्रियाश्व विषयों में विचरण करते हैं, परन्तु वेद में दिये गये प्रभु के निर्देशों के अनुसार। इसी कारण यह आत्मवशी इन्द्रियों से विषयों में विचरता हुआ भी उनमें उलझता नहीं और 'प्रसाद' को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मन व बुद्धियों को प्रभु में लगाएँ, जिससे इस योग से - चित्तवृत्तिनिरोध से इस संसार में विचरें, परन्तु उलझें नहीं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याची प्रशंसा करण्यासाठी सूर्याचा दाखला दिला जातो. जो योग्यांनी ध्यान करण्यायोग्य असतो. अशा सर्वज्ञ, स्वयंभू, सच्चिदानंदस्वरूप परमेश्वराला सर्वजण धन्यवाद देतात त्यालाच तुम्ही इष्ट देव माना.

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    विषय

    पुढील मंत्रात योगाभ्यासाविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ – हे मनुष्यानो, जो (वयुनावित्) उत्कृष्ट ज्ञानवान आणि (एकः) अद्वितीय परमेश्‍वर सर्व प्राणी, सृष्टीची (वि, दधे) रचना करतो, त्या (सवितुः) सर्वान्तर्यामि (देवस्य) समस्त जगाने प्रकाशक (रचयिता) ईश्‍वराची ही सृष्टी (मही) अति महान (परिष्टुतिः) स्तुती वा प्रशंसनीय कर्म आहे. (होत्रा) शुभगुणग्रहीता (विप्राः) अनेक विचारांत, विवेक ज्ञानात प्रवीण बुद्धिमान योगीजन त्या (बृहतः) सर्वाहून महान अशा (विपश्‍चितः) अनंत ज्ञानवान (विप्रस्य) सर्वव्यापी ईश्‍वराशी आपलय (मनः) संकल्प विकल्पात्मक मनाला (युञ्जते) संयुक्त करतात (उत) आणि आपल्या (धियः) बुद्धी आणि कर्म यांना ईश्‍वराशी जोडतात (आपले विचार व कार्यें परमेश्‍वरार्पण करतात) (इत्) हे मनुष्यानो, तुम्ही त्याच परमेश्‍वराची उपासना करा. ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, ज्या परमेश्‍वराचे योगी ध्यान धरतात, ज्याच्या कार्याची प्रशंसा करण्यासाठी सूर्य आदी सारखे उदाहरण प्रत्यक्ष आहेत, जो सर्वज्ञ स्वतंत्र-स्वाधीन असून सच्चिदान्दस्वरूप आहे, यासाठी ज्या परमेश्‍वराचे सर्वांनी आभार मानले पाहिजे, त्या ईश्‍वरालाच तुम्ही इष्टदेव जाणा. ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The Unequalled God, the Embodiment of knowledge creates all beings. This is the great praise of Him, Who is Ubiquitous, and the Creator of the Universe. The noble and wise yogis concentrate their mind on and dedicate their action to, the Omnipresent God, the Highest knower. All should worship Him.

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    Meaning

    Saints and scholars join their mind and intellect with the great, omniscient and omnipresent lord of the universe, in meditation. The One Lord alone knows the ways and laws of the universe, He alone holds the worlds together. This universe is the great song and celebration of the self-manifestive lord Savita, the Creator.

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    Translation

    Discerning intellectuals harness their minds as well as their intellect towards the supreme learned intellectual. Cognizant of all the deeds, He alone accomplishes the cosmic sacrifice, Great is the glory of the creator God. (1)

    Notes

    Same as V. 14 and XI. 4.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ য়োগাভ্যাসবিষয়মাহ ॥
    এখন যোগাভ্যাসের বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যিনি (বয়ুনাবিৎ) উৎকৃষ্ট জ্ঞানে প্রবীণ (একঃ) অদ্বিতীয় জগদীশ্বর সকলকে (বি, দধে) রচনা করেন (সবিতুঃ) সর্বান্তর্য্যামী (দেবস্য) সমগ্র জগতের প্রকাশক ঈশ্বরের এই (মহী) মহতী (পরিষ্টুতিঃ) সব দিক দিয়া স্তুতি-প্রশংসা, (হোত্রাঃ) শুভগুণ গ্রহীতা (বিপ্রাঃ) অনেক প্রকারের বুদ্ধিসমূহে ব্যাপ্ত বুদ্ধিমান্ যোগীগণ যে (বৃহতঃ) সর্বাপেক্ষা বৃহৎ (বিপশ্চিতঃ) অনন্ত বিদ্যাযুক্ত (বিপ্রস্য) বিশেষ করিয়া সর্বত্র ব্যাপ্ত পরমেশ্বরের মধ্যে (মনঃ) সংকল্প-বিকল্প রূপ মনকে (য়ুঞ্জতে) সমাহিত করে (উত) এবং (ধিয়ঃ) বুদ্ধি বা কর্ম্মকে (য়ুঞ্জতে) যুক্ত করে (ইৎ) তাহারই তোমরা উপাসনা করিতে থাক ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যিনি যোগীগণের ধ্যান করিবার যোগ্য যাহার প্রশংসা হেতু সূর্য্যাদি দৃষ্টান্ত বর্ত্তমান যিনি সর্বজ্ঞ অসহায়ী সচ্চিদানন্দস্বরূপ যাহার জন্য সকল ধন্যবাদ দিবার যোগ্য, তাঁহাকেই তোমরা সকলে ইষ্টদেব স্বীকার কর ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ু॒ঞ্জতে॒ মন॑ऽউ॒ত য়ু॑ঞ্জতে॒ ধিয়ো॒ বিপ্রা॒ বিপ্র॑স্য বৃহ॒তো বি॑প॒শ্চিতঃ॑ ।
    বি হোত্রা॑ দধে বয়ুনা॒বিদেক॒ऽইন্ম॒হী দে॒বস্য॑ সবি॒তুঃ পরি॑ষ্টুতিঃ ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ুঞ্জত ইত্যস্য শ্যাবাশ্ব ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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