Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 37
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
    94

    इन्द्र॒स्यौज॑ स्थ म॒खस्य॑ वो॒ऽद्य शिरो॑ राध्यासं देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। ओजः॑। स्थ॒। म॒खस्य॑। वः॒। अ॒द्य। शिरः॑। रा॒ध्या॒स॒म्। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः ॥ म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे ॥६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्यौज स्थ मखस्य वोद्य शिरो राध्यासन्देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। ओजः। स्थ। मखस्य। वः। अद्य। शिरः। राध्यासम्। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः॥ मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 37; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यथाहमिन्द्रस्यौजौ राध्यासं तथाऽद्य पृथिव्या देवयजने शिरोवद् वो राध्यासम्। शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा राध्यासं शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा राध्यासं शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा राध्यासं तथा यूयमोजस्विनः स्थ॥६॥

    पदार्थः

    (इन्द्रस्य) परमैश्वर्ययुक्तस्य (ओजः) पराक्रमम् (स्थ) भवत (मखस्य) यज्ञस्य (वः) युष्मान् (अद्य) (शिरः) (राध्यासम्) (देवयजने) (पृथिव्याः) भूमेः (मखाय) धार्मिकाणां सत्कारनिमित्ताय (त्वा) त्वां सत्कारम् (मखस्य) प्रियाचरणाख्यस्य व्यवहारस्य (त्वा) त्वाम् (शीर्ष्णे) शिरः सम्बन्धिने वचसे (मखाय) शिल्पयज्ञविधानाय (त्वा) त्वाम् (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे) उत्तमगुणप्रचारकाय (मखाय) विज्ञानोद्भावनाय (त्वा) (मखस्य) विद्यावृद्धिकरस्य व्यवहारस्य (त्वा) (शीर्ष्णे)॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या धर्म्याणि कर्मणि कुर्वन्ति, ते सर्वेषु शिरोवद्भवन्ति॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! जैसे मैं (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त पुरुष के (ओजः) पराक्रम को (राध्यासम्) सिद्ध करूं वैसे (अद्य) आज (पृथिव्याः) भूमि के (देवयजने) उस स्थान में जहां विद्वानों का पूजन होता हो (शिरः) उत्तम अवयव के समान (वः) तुम लोगों को सिद्ध करूं (शीर्ष्णे) शिर सम्बन्धी (मखाय) धर्मात्माओं के सत्कार के निमित्त वचन के लिये (त्वा) तुझको (मखस्य) प्रिय आचरणरूप व्यवहार के सम्बन्धी (त्वा) आपको सिद्ध करूं (शीर्ष्णे) उत्तम गुणों के प्रचारक (मखाय) शिल्पयज्ञ के विधान के लिये (त्वा) आपको (मखस्य) सत्याचरण रूप व्यवहार के सम्बन्धी (त्वा) आपको सिद्ध करूं (शीर्ष्णे) उत्तम (मखाय) विज्ञान की प्रकटता के लिये (त्वा) आपको और (मखस्य) विद्या को बढ़ानेहारे व्यवहार के सम्बन्धी (त्वा) आपको सिद्ध करूं। वैसे तुम लोग भी पराक्रमी (स्थ) होओ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य धर्मयुक्त कार्यों को करते हैं, वे सबके शिरोमणि होते हैं॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मुख्य शिरोमणी नायक की उत्पत्ति।

    भावार्थ

    हे प्रजाजनो ! वीर सैनिक पुरुषो ! आप लोग ही (इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् शत्रु के नाश करने वाले सेनापति के ( ओजः स्थ ) पराक्रम स्वरूप हो । ( वः यज्ञस्य शिरः राध्यासम् ) आप के यज्ञ, राष्ट्रपालन के मुख्य पदाधिकारी को मैं स्थापित करता हूँ । इत्यादि पूर्ववत् । इस प्रकार भिन्न सेनादलों के मुख्य पुरुषों को नियुक्त किया जाय ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आदाराः । यज्ञः । भुरिगतिजगती । निषादः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्र के ओज

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (ओजः) = ओज [शक्ति] (स्थ) = हो । (वः) = तुम्हारे द्वारा (अद्य) = आज (मखस्य) = यज्ञ के (शिरः) = शिखर को (राध्यासम्) = सिद्ध करूँ। (पृथिव्याः) = इस पृथिवी के (देवयजने) = देवों के यज्ञ करने के स्थान में (त्वा) = तुझे (मखाय) = यज्ञ के लिए ग्रहण करता हूँ, (मखस्य शीर्ष्णे) = यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए (त्वा) = तुझे ग्रहण करता हूँ । सचमुच, यज्ञ के लिए और यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए ही मन्त्र में तीन बार इस बात को दोहराया गया है कि 'यज्ञ के लिए और यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए मैं ओज का ग्रहण करता हूँ। 'ओज' नाम है शक्ति का । यह शक्ति इन्द्र की है, अर्थात् जितेन्द्रिय पुरुष को ही प्राप्त होती है। अजितेन्द्रियता शक्ति को क्षीण करनेवाली है। मैं जितेन्द्रिय बनकर शक्ति प्राप्त करूँ और उस शक्ति का यज्ञों की सिद्धि के लिए विनियोग करूँ। जीवात्मा की चौबीस शक्तियाँ हैं। ये चौबीस-की- चौबीस मुझे यज्ञ के शिखर पर पहुँचानेवाली हों । यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि इन्द्र की चौबीस शक्तियाँ हैं और चौबीस बार ही 'मखाय त्वा मखास्य त्वा शीर्ष्णे' यह वाक्य आवृत्त हुआ है, 'यज्ञ के लिए और यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए' यह बात चौबीस बार दुहराई गई है, एवं इन्द्र ने अपनी एक-एक शक्ति को यज्ञ की सिद्धि के लिए ही विनियुक्त करना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- जितेन्द्रिय पुरुष की शक्तियाँ यज्ञ की सिद्धि के लिए विनियुक्त होती हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे जे लोक धर्मयुक्त कार्य करतात ते सर्वांचे शिरोमणी असतात.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मनुष्यानी काय केले पाहिजे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, मी (एक धार्मिक व यज्ञप्रेमी मनुष्य) (इन्द्रस्य) परमैश्‍वर्यमय या मनुष्याला (ओजः) पराक्रम करण्यासाठी (राध्यासम्) उद्यत करतो. त्याचप्रमाणे तुम्हा सर्वांना ही (अद्य) आज (पृथिव्याः) भूमीच्या देवयजने) त्या स्थानात जाण्यासाठी प्रेरित करतो की जिथे विद्वानांचे पूजन-सत्कार कार्यक्रम होतात, कारण की (वः) तुम्ही (शिरः) समाजाच्या शिराप्रमाणे उच्चस्थानी आहात. तसेच (शीर्ष्णे) मस्तकाविषयक (मखाय) धर्मात्माजनांच्या सत्कारात योग्य वचन उच्चारणासाठी (त्वा) आणि तुम्हाला (मखस्य) प्रिय आचरणरूप यज्ञ करण्यासाठी (त्वा) तुम्हाला पाचारण करीत आहे. (शीर्ष्णे) उत्तम गुणांचा प्रचार करण्यासाठी आणि (मखाय) शिल्प-तंत्रविद्या आदीरूप यज्ञासाठी (त्वा) तुम्हाला बोलावीत आहे. (मखस्य) सत्याचारण व सदाचरण करण्यासाठी (त्वा) तुम्हाला पाचारण करीत आहे. (शीर्ष्णे) उत्तम (मखाय) विज्ञानाच्या प्रकटनासाठी (वा) तुम्हाला आणि (मखस्य) विद्यावर्धक कार्य करण्यासाठी (त्वा) तुम्हाला तत्पर करीत आहे. तुम्ही सर्वजण मी करीत असलेल्या या सत्कार, विद्याप्रसार, सदाचार आदीरुप यज्ञात सहभागी व्हा. ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जे लोक धर्मयुक्त कार्यें करतात, ते सर्वांचे शिरोमणी ठरतात. ॥6॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O men, just as I acquire the vitality of a glorious person, so may I, this day, on that part of the earth where the learned art worshipped, like head, the chief organ, make ye prosperous. May I perfect thee in the use of intellectual words of honour for the sages, and usage of loving conduct. May I perfect thee, the preacher of good qualities, in the art of artisanship, and usage of loving conduct, May I perfect thee in the dissemination of excellent science, and acquisition of knowledge. So should ye become valorous.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Sages and scholars, I exhort you to shine in the glory of Indra. I pray for Indra’s blessings of honour and power in yajna. I invite and welcome you to be the head of yajna in honour of the divines and children of mother earth. I invite you to the yajna of knowledge and pray you bring it to the top of success. I invite you to the yajna of karma and pray you bring it to the top of success. I welcome you to the yajna of worship and meditation and pray you bring it to the top of success.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    You are the vigour of the resplendent Lord. May I be able to perform the greatest of the sacrifice today on this sacrificial altar of the enlightened ones on the earth, I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (1) invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (2) I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (3)

    Notes

    Indrasya ojaḥ stha, you are the vigour of the resplendent Lord (Indra).

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    পুনঃ মনুষ্য কী করিবে এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন আমি (ইন্দ্রস্য) পরমৈশ্বর্য্যযুক্ত পুরুষের (ওজঃ) পরাক্রমকে (রাধ্যাসম্) সিদ্ধ করি তদ্রূপ (অদ্য) আজ (পৃথিব্যাঃ) ভূমির (দেবযজনে) সেই স্থানে যেখানে বিদ্বান্দিগের পূজা হয় (শিরঃ) উত্তম অবয়বের সমান (বঃ) তোমাদিগকে সিদ্ধ করি । (শীষে্র্×) শির সম্পর্কীয় (মখায়) ধর্মাত্মাদিগের সৎব্যবহারের নিমিত্ত বচন হেতু (ত্বা) তোমাকে (মখায়) প্রিয় আচরণরূপ ব্যবহার সম্পর্কীয় (ত্বা) তোমাকে সিদ্ধ করি । (শীষে্র্×) উত্তম গুণের প্রচারক (মখায়) শিল্পযজ্ঞের বিধান হেতু (ত্বা) তোমাকে (মখস্য) সত্যাচরণ রূপ ব্যবহার সম্পর্কীয় (ত্বা) তোমাকে সিদ্ধ করি (শীষে্র্×) উত্তম (মখায়) বিজ্ঞানের উদ্ভাবন হেতু (ত্বা) তোমাকে এবং (মখস্য) বিদ্যাকে বৃদ্ধি করিবার ব্যবহার সম্পর্কীয় (ত্বা) তোমাকে সিদ্ধ করি, সেইরূপ তোমরাও পরাক্রমী (স্থ) হও ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সব মনুষ্য ধর্মযুক্ত কার্য্য করে তাহারা সকলের শিরোমণি হয় ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ইন্দ্র॒স্যৌজ॑ স্থ ম॒খস্য॑ বো॒ऽদ্য শিরো॑ রাধ্যাসং দেব॒য়জ॑নে পৃথি॒ব্যাঃ ।
    ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে । ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে ।
    ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ইন্দ্রস্যেত্যস্য দধ্যঙ্ঙাথর্বণ ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । ভুরিগতিজগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top