यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 9
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - विद्वान् देवता
छन्दः - अतिशक्वरी
स्वरः - पञ्चमः
111
अश्व॑स्य त्वा॒ वृष्णः॑ श॒क्ना धू॑पयामि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।अश्व॑स्य त्वा॒ वृष्णः॑ श॒क्ना धू॑पयामि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।अश्व॑स्य त्वा॒ वृष्णः॑ श॒क्ना धू॑पयामि देव॒यज॑ने पृथि॒व्याः।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे।म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑ त्वा म॒खस्य॑ त्वा शी॒र्ष्णे॥९॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑स्य। त्वा॒। वृष्णः॑। श॒क्ना। धू॒प॒या॒मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। अश्व॑स्य। त्वा॒। वृष्णः॑। श॒क्ना। धू॒प॒या॒मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। अश्व॑स्य। त्वा॒। वृष्णः॑। श॒क्ना। धू॒प॒या॒मि॒। दे॒व॒यज॑न॒ इति॑ देव॒ऽयज॑ने। पृ॒थि॒व्याः। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे। म॒खाय॑। त्वा॒। म॒खस्य॑। त्वा॒। शी॒र्ष्णे ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे । अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे । अश्वस्य त्वा वृष्णः शक्ना धूपयामि देवयजने पृथिव्याः । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे । मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे मखाय त्वा मखस्य त्वा शीर्ष्णे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अश्वस्य। त्वा। वृष्णः। शक्ना। धूपयामि। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। अश्वस्य। त्वा। वृष्णः। शक्ना। धूपयामि। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। अश्वस्य। त्वा। वृष्णः। शक्ना। धूपयामि। देवयजन इति देवऽयजने। पृथिव्याः। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे। मखाय। त्वा। मखस्य। त्वा। शीर्ष्णे॥९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के मनुष्याः सुखिनो भवन्तीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्य! यथाऽहं पृथिव्या देवयजने वृष्णोऽश्वस्य शक्ना त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा धूपयामि। पृथिव्या देवयजने वृष्णोऽश्वस्य शक्ना त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा धूपयामि। पृथिव्या देवयजने वृष्णोऽश्वस्य शक्ना त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा मखाय त्वा मखस्य शीर्ष्णे त्वा धूपयामि॥९॥
पदार्थः
(अश्वस्य) वह्न्यादेः (त्वा) त्वाम् (वृष्णः) बलवतः (शक्ना) शकृता दुर्गन्धादिनिवारणसामर्थ्येन धूमादिना (धूपयामि) सन्तापयामि (देवयजने) विद्वद्यजनाधिकरणे (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य (मखाय) वायुशुद्धिकरणाय (त्वा) (मखस्य) शोधकस्य (त्वा) (शीर्ष्णे) (अश्वस्य) तुरङ्गस्य (त्वा) (वृष्णः) वेगवतः (शक्ना) शकृता (धूपयामि) (देवयजने) देवा यजन्ति यस्मिंस्तस्मिन् (पृथिव्याः) भूमेः (मखाय) पृथिव्यादिविज्ञानाय (त्वा) (मखस्य) तत्त्वबोधस्य (त्वा) (शीर्ष्णे) (अश्वस्य) आशुगामिनः (त्वा) (वृष्णः) बलवतः (शक्ना) शकृता (धूपयामि) (देवयजने) विदुषां पूजने (पृथिव्याः) भूमेः (मखाय) उपयोगाय (त्वा) (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे) शिरसे (मखाय) (त्वा) (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे) (मखाय) (त्वा) (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे) (मखाय) (त्वा) (मखस्य) (त्वा) (शीर्ष्णे)॥९॥
भावार्थः
अत्र पुनर्वचनमतिशयित्वद्योतनार्थम्। ये मनुष्या रोगादिक्लेशनिवृत्तये वह्न्यादीन् पदार्थान् संप्रयुञ्जते, ते सुखिनो जायन्ते॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन मनुष्य सुखी होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्य! जैसे मैं (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के (देवयजने) विद्वानों के यज्ञस्थल में (वृष्णः) बलवान् (अश्वस्य) अग्नि आदि के (शक्ना) दुर्गन्ध के निवारण में समर्थ धूम आदि से (त्वा) तुझको (मखाय) वायु की शुद्धि करने के लिये (त्वा) तुझको (मखस्य) शोधक पुरुष के (शीर्ष्णे) शिर रोग की निवृत्ति के अर्थ (त्वा) तुझको (धूपयामि) सम्यक् तपाता हूं। (पृथिव्याः) पृथिवी के बीच विद्वानों के (देवयजने) यज्ञस्थल में (वृष्णः) वेगवान् (अश्वस्य) घोड़े की (शक्ना) लेंडी लीद से (त्वा) तुझको (मखाय) पृथिव्यादि के ज्ञान के लिये (त्वा) तुझको (मखस्य) तत्त्वबोध के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव के लिये (त्वा) तुझको (मखाय) यज्ञसिद्धि के लिये (त्वा) तुझको (मखस्य) यज्ञ के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव की सिद्धि के लिये (त्वा) तुझको (धूपयामि) सम्यक् तपाता हूं। (पृथिव्याः) भूमि के बीच (देवयजने) विद्वानों की पूजा के स्थल में (वृष्णः) बलवान् (अश्वस्य) शीघ्रगामी अग्नि के (शक्ना) तेज आदि से (त्वा) आपको (मखाय) उपयोग के लिये (त्वा) तुझको (मखस्य) उपयुक्त कार्य के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव के लिये (त्वा) तुझको (मखाय) यश के लिये (त्वा) तुझको (मखस्य) यज्ञ के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव के लिये (त्वा) तुझको (मखाय) यज्ञ के लिये (त्वा) आपको और (मखस्य) यज्ञ के (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव के लिये (त्वा) तुझको (धूपयामि) सम्यक् तपाता हूं॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र मे पुनरुक्ति अधिकता जताने के अर्थ है। जो मनुष्य रोगादि क्लेश की निवृत्ति के लिये अग्नि आदि पदार्थों का सम्प्रयोग करते हैं, वे सुखी होते हैं॥९॥
विषय
अश्व,शकृत् से धूपन का रहस्य।
भावार्थ
जिस प्रकार कच्चे मट्टी के बर्त्तन को (अश्वस्य शक्ना) घोड़े की लीद को जला कर उससे या कण-कण में व्याप जाने वाले अग्नि की ताप शक्ति से संतप्त कर पकाया जाता है उसी प्रकार हे वीर नेता पुरुष ! (त्वा) तुझको (वृष्ण:) बलवान् वीर्यवान्, शत्रुओं को और प्रजाओं को व्यवस्था में बांधने में समर्थ (अश्वस्य) आशुगामी, व्यापक सामर्थ्यवान् और बहुत से राष्ट्र के बड़े पदाधिकारी पुरुष के ( शक्ना) शक्ति, अधिकार, सामर्थ्य से (पृथिव्याः देवयजने) पृथिवी के विजयी विद्वान् पुरुषों के एकत्र होने के स्थान, संग्राम, यज्ञ और सभाभवन में (धूरयामि) तुझे अधिक बलवान्, सुशोभित और सामर्थ्यवान् करता हूँ । 'मखाय त्वा.' अश्वस्य त्वा० इत्यादि पूर्ववत् ।
टिप्पणी
१ अश्वस्य।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दध्यङ् आथर्वणः । विद्वान् । १, २ अति शक्वरी । पंचमः ॥
विषय
पिता, माता व पुत्र
पदार्थ
गृहस्थ में पिता, माता व सन्तान तीन का समावेश होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् के शब्दों में ‘पिता उत्तरपक्षः, माता दक्षिणपक्ष, पुत्रः सन्धानम् ' = एक ओर पिता है, दूसरी ओर माता है और पुत्र उन्हें जोड़नेवाला है। इन तीनों को ही अपने जीवन को सुन्दर बनाना है तभी गृहस्थ स्वर्ग बनेगा। 'कैसा जीवन बनाना है? ' इसी प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में है १. (त्वा) = तेरे द्वारा (अश्वस्य) = [अश्नुते कर्मसु ] कर्मों में व्याप्त होनेवाले (वृष्णः) = सबपर सुखों की वर्षा करनेवाले पुरुष की शक्ना ['शक्यना' में य का लोप होकर शक्ना] शक्ति से (धूपयामि) = अपने जीवन को सुगन्धित करता हूँ, अर्थात् मेरा जीवन कर्ममय, सबका भला करनेवाला व शक्तिसम्पन्न हो । हाथों में कर्म हों, मन में सब के लिए स्नेह की भावना हो तथा शरीर शक्तिसम्पन्न व स्वस्थ हो । (त्वा) = तुझे मैं मखाय यज्ञ के लिए ग्रहण करता हूँ (त्वा) = तझे इसलिए ग्रहण करता हूँ कि मैं मखस्य शीर्ष्णे यज्ञ के शिखर पर पहुँचने में समर्थ होऊँ। इस पृथिव्याः पृथिवी के देवयजने देवों के यज्ञ करने के स्थान में मैं प्रत्येक वस्तु का स्वीकार यज्ञ के लिए करता हूँ, मेरा जीवन यज्ञिय बने। मैं यज्ञरूप श्रेष्ठतम कर्मों में लगा रहूँ [ अश्व = अश व्याप्तौ ], सबपर सुखों की वर्षा करूँ [वृष् बरसना] तथा शक्तिशाली बनूँ [शक्ना] उत्तम कर्मों से, सबका भला चाहने व करने से तथा स्वास्थ्य व शक्ति से मेरा जीवन सुगन्धित हो उठे । २. इसी प्रकार गृहस्थ में विविध वस्तुओं का उपादान करती हुई माता कहती है कि मैं (त्वा) = तुझे ग्रहण करके (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले (वृष्णः) = सुखों के वर्षक व्यक्ति की (शक्ना) = शक्ति से (धूपयामि) = अपने जीवन को सुगन्धित करती हूँ। (पृथिव्या:) = इस पृथ्वी के (देवयजने) = देवों के यज्ञ करने के स्थान में (त्वा) = तुझे (मखाय) = यज्ञ के लिए और (त्वा) = तुझे मखस्य शीर्ष्ण यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए ग्रहण करती हूँ। ३. तीसरी बार इसी मन्त्रभाग का उच्चारण करता हुआ पुत्र इसी बात को दुहराता है और निश्चय करता है कि कर्मों में सदा व्याप्त रहता हुआ, सबका भला चाहता हुआ वह शक्तिशाली बनेगा। प्रत्येक पदार्थ को यज्ञियवृत्ति से ग्रहण करेगा और यज्ञ के शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करेगा। ४. इस प्रकार सङ्कल्प करके पिता, माता व पुत्र तीनों ही तीन बार इस सङ्कल्प को फिर से आवृत्त करते हैं कि (मखाय त्वा) = तुझे यज्ञ के लिए ग्रहण करता हूँ । (त्वा) = तुझे (मखस्य शीर्ष्णे) = यज्ञ के शिखर पर पहुँचने के लिए ग्रहण करता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ - जिस घर में पिता, पुत्र व माता सभी 'उत्तम कर्मोंवाले तथा भद्र मनोवृत्तिवाले, स्वस्थ, शक्तिसम्पन्न तथा यज्ञप्रवृत्त' होते हैं, वही घर स्वर्ग बन पाता है।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात पुनरुक्ती झालेली आहे ते आधिक्य दर्शविण्यासाठीच. जी माणसे रोग वगैरेंचा नाश करण्यासाठी अग्नी इत्यादींचा योग्य प्रयोग करतात ते सुखी होतात.
विषय
कोण सुखी होतात, या विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्या (गृहस्था), मी (एक याज्ञिक पुरुष) (पृथिव्याः) अंतरिक्षातील (देवयजने) त्या स्थानात की जिथे विद्वज्जन यज्ञ करतात, तिथे (वृष्णः) बलवान (अश्वस्य) अग्नी आदी तेजस्वी वा तापविणार्या पदार्थांच्या (शक्ना) दुर्गंध निवारणात समर्थ अशा यज्ञधूमाद्वारे (त्वा) तुला (योग्यप्रकारे संतप्त करतो-यज्ञधूमामुळे तुझ्या शरीरातील दोष दूर करतो) (मखाय) वायुशुद्धीकरिता (त्वा) तुला आणि (मखस्य) शोधक पुरुषाच्या (शीर्ष्णे) शिरोरोगाच्या निवारणासाठी (त्वा) तुला (धूपयामि) प्रेरित करतो. (पृथिव्याः) पृथ्वीवरील विद्वानांद्वारे आयोजित या (देवयजने) यज्ञस्थळात (वृष्णः) वेगवान (अश्वस्य) घोड्याच्या (शक्ना) लीदद्वारे (त्वा) तुला (मखाय) भूमीच्या आदीच्या ज्ञान मिळविण्यासाठी (त्वा) तुला बोलावत आहे. (मखस्य) तत्त्वज्ञान सारख्या (शीर्ष्णे) उत्तम विषयाच्या अध्ययनानाठी (तवा) तुला आणि (मकाय) यज्ञसिद्धी करिता (त्वा) तुला (पाचारण करीत आहे) (मखस्य) यज्ञाच्या (शीर्ष्णे) शीर्ष अवयवाच्या म्हणजे मस्तकाच्या उत्कर्षासाठी मी (त्वा) तुला (धूपयामि) संतप्त वा प्रशिक्षित करीत आहे ( पृथिव्याः) भूमीमधे (देवयजने) विद्वानांच्या यज्ञस्थळात (वृष्णः) बलवान (अश्वस्य) शीघ्रगामी घोड्याच्या (शक्ना) तेज वा वेग आदी वैशिष्टे) धारण करण्यासाठी (यज्ञस्थकाळातील याज्ञिक विधिकर्मासाठी) (त्वा) तुला नियुक्त करीत आहे. (मखाय) पदार्थाच्या उपयोगासाठी (त्वा) तुला आणि (मखस्य) यमाच्या उपयुक्त कार्यासाठी (शीर्ष्णे) सर्वश्रेष्ठ व्यक्ती म्हणून (त्वा) तुला नियुक्त करीत आहे. (मकाय) यश-कीर्तीसाठी (त्वा) तुला आणि (मखस्य) यज्ञाच्या (शीर्ष्णे) उत्तम अवयव म्हणजे मस्तकाप्रमाणे (त्वा) तुला आदराने बोलावीत आहे. (मखाय) यज्ञासाठी (त्वा) तुला आणि (मखस्य) यज्ञाच्या (शीर्ष्णे) उत्तम अवस्थेसाठी (त्वा) तुला (धूपयामि) सम्यकप्रमाणे कार्यप्रवण करीत आहे. ॥9॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात काही शब्दांची पुनरुक्ती केली आहे. ती त्या कार्याचे आधिक्य वा महत्त्व दर्शविण्यासाठी केली आहे. जे लोक रोग आदी क्लेशांच्या नियारणासाठी अग्नी आदी पदार्थांचा सम्यक उपयोग करतात, ते सुखी होतात. ॥9॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O sacrifices on this Earth in a place where the learned perform yajna, with the powerful fires strength of warding off bad smell, I fumigate thee for purifying the air, and for alleviating the brain disease of a purifier. On the Earth, in a place where the learned perform the yajna, with the strength of a powerful man, I fumigate thee for acquiring knowledge of the Earth, and knowing the principal part of the essential nature of learning. On this earth, in a place where the learned are worshipped, with the lustre of powerful, fast fire I urge thee for its application, and for doing noble deeds. I prepare thee for the completion of the yajna, for the completion of the best part of the yajna. I goad thee for fame, and the most important part of the yajna, I stimulate thee for performing the yajna, and the most important part of the yajna.
Meaning
With the speed of the Ashvins and the generosity of Pusha, I season you for the yajna of the divinities of the earth. We want you for the yajna, we select you for the conduct of the yajna to the top of success for us. With the energy and generosity of Indra, I temper you for the yajna of the divine powers of the skies. We select you for the yajna, we elect you for the yajna to take it to the top of success for us. With the light and generosity of Savita, lord of sun-beams, I enlighten you for the yajna of the divinities of heaven. We elect you for the yajna, we consecrate you for the yajna to lead the yajna to the top of success for us Of the yajna, for the yajna, we want you, we select you for the top of success. You are of the yajna, you are for the yajna. We select you, we elect you for the top of success. Of the yajna you are, for the yajna you are. We elect and consecrate you for the top of success for yourself, for us and for the yajna itself.
Translation
At this sacrificial altar of the enlightened ones on the earth, I worship you with the strength of a virile horse. I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (1) At this sacrificial altar of the enlightened ones on the earth, I worship you with the strength of a virile horse. I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (2) At this sacrificial altar of the enlightened ones on the earth, I worship you with the strength of a virile horse. I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (3) I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (4) I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (5) I invoke you for the sacrifice; I invoke you for the greatest of the sacrifices. (6)
Notes
Aśvasya tvā šaknā dhūpayāmi, I worship you with the strength of a virile horse. Easily, it may mean: 'I fumigate you with horse's dung. ' Devayajane pṛthivyāḥ, at this sacrificial altar of the enligthened ones on the earth.
बंगाली (1)
विषय
কে মনুষ্যাঃ সুখিনো ভবন্তীত্যাহ ॥
কোন্ মনুষ্য সুখী হয়, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! যেমন আমি (পৃথিব্যা) অন্তরিক্ষের (দেবয়জনে) বিদ্বান্দিগের যজ্ঞস্থলে (বৃষ্ণঃ) বলবান্ (অশ্বস্য) অগ্নি আদির (শক্না) দুর্গন্ধের নিবারণে সমর্থ ধূমাদি দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (মখায়) বায়ুর শুদ্ধি করিবার জন্য (ত্বা) তোমাকে (মখস্য) শোধক পুরুষের (শীষে্র্×) শিররোগের নিবৃত্তির অর্থ (ত্বা) তোমাকে (ধূপয়ামি) সম্যক্ তপ্ত করি । (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবীর মধ্যে বিদ্বান্দিগের (দেবয়জনে) যজ্ঞস্থলে (বৃষ্ণঃ) বেগবান্ (অশ্বস্য) অশ্বের (শক্না) মল দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (মখায়) পৃথিব্যাদির জ্ঞানের জন্য (ত্বা) তোমাকে (মখস্য) তত্ত্ববোধের (শীষে্র্×) উত্তম অবয়ব হেতু (ত্বা) তোমাকে (মখায়) যজ্ঞ সিদ্ধির জন্য (ত্বা) তোমাকে (মখস্য) যজ্ঞের (শীষে্র্×) উত্তম অবয়বের সিদ্ধি হেতু (ত্বা) তোমাকে (ধূপয়ামি) সম্যক্ তপ্ত করি । (পৃথিব্যাঃ) ভূমির মধ্যে (দেবয়জনে) বিদ্বান্দিগের পূজাস্থলে (বৃষ্ণঃ) বলবান্ (অশ্বস্য) শীঘ্রগামী অগ্নির (শক্না) তেজ আদি দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (মখায়) উপযোগ হেতু (ত্বা) তোমাকে (মখায়) উগযুক্ত কার্য্যের (শীষে্র্×) উত্তম অবয়বের জন্য (ত্বা) তোমাকে (মখায়) যশহেতু (ত্বা) তোমাকে (মখস্য) যজ্ঞের (শীষে্র্×) উত্তম অবয়ব হেতু (ত্বা) তোমাকে (মখায়) যজ্ঞের জন্য (ত্বা) তোমাকে (মখস্য) যজ্ঞের (শীষে্র্×) উত্তম অবয়ব হেতু (ত্বা) তোমাকে (ধূপয়ামি) সম্যক্ তপ্ত করি ॥ ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে পুনরুক্তির আধিক্য বুঝাইবার অর্থ প্রযুক্ত হইয়াছে । যে সব মনুষ্য রোগাদি ক্লেশ নিবৃত্তি হেতু অগ্নি আদি পদার্থের সম্প্রয়োগ করে, তাহারা সুখী হয় ॥ ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অশ্ব॑স্য ত্বা॒ বৃষ্ণঃ॑ শ॒ক্না ধূ॑পয়ামি দেব॒য়জ॑নে পৃথি॒ব্যাঃ ।
ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে ।
অশ্ব॑স্য ত্বা॒ বৃষ্ণঃ॑ শ॒ক্না ধূ॑পয়ামি দেব॒য়জ॑নে পৃথি॒ব্যাঃ ।
ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে ।
অশ্ব॑স্য ত্বা॒ বৃষ্ণঃ॑ শ॒ক্না ধূ॑পয়ামি দেব॒য়জ॑নে পৃথি॒ব্যাঃ ।
ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে । ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে ।
ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে । ম॒খায়॑ ত্বা ম॒খস্য॑ ত্বা শী॒র্ষ্ণে ॥ ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অশ্বস্যেত্যস্য দধ্যঙ্ঙাথর্বণ ঋষিঃ । বিদ্বান্ দেবতা । পূর্বস্যোত্তরস্য চ অতিশক্বরী ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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