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यजुर्वेद अध्याय - 4

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  • यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    101

    त्वम॑ग्ने व्रत॒पाऽअ॑सि दे॒वऽआ मर्त्ये॒ष्वा। त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑। रास्वेय॑त्सो॒मा भूयो॑ भर दे॒वो नः॑ सवि॒ता वसो॑र्दा॒ता वस्व॑दात्॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ग्ने॒। व्र॒त॒पा॒ इति॑ व्रत॒ऽपाः। अ॒सि॒। दे॒वः। आ। मर्त्त्ये॑षु। आ। त्वम्। य॒ज्ञेषु॑। ईड्यः॑। रास्व॑। इय॑त्। सो॒म। आ। भूयः॑। भ॒र॒। दे॒वः। नः॒। स॒वि॒ता। वसोः॑। दा॒ता। वसु॑। अ॒दा॒त् ॥१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने व्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा । त्वँयज्ञेष्वीड्यः । रास्वेयत्सोमा भूयो भर देवो नः सविता वसोर्दाता वस्वदात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। व्रतपा इति व्रतऽपाः। असि। देवः। आ। मर्त्त्येषु। आ। त्वम्। यज्ञेषु। ईड्यः। रास्व। इयत्। सोम। आ। भूयः। भर। देवः। नः। सविता। वसोः। दाता। वसु। अदात्॥१६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 4; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे सोमग्ने! यस्त्वं मर्त्त्येषु व्रतपा सविता यज्ञेष्वीड्यो देवोऽसि, स भवान्नोऽस्मभ्यं वसोर्दाता सन् वस्वदाद् विज्ञानधनं ददाति, स भूयो वस्वारास्वेयत् सँस्त्वमेतान्यस्मदर्थमाभरेत्येकः॥१॥१६॥ योऽग्नेऽयमग्निर्मर्त्त्येषु व्रतपाः सविता यज्ञेष्वीड्योऽध्येषितव्यः सोमो देवोऽस्ति, स नोऽस्मभ्यं वसोर्दातेयत् सन् भूयः सर्वकार्य्येष्वारास्वारासते, आभराभितः सुखैर्भरति पुष्णातीति द्वितीयः॥२॥१६॥

    पदार्थः

    (त्वम्) स वा (अग्ने) जगदीश्वर! अग्निर्वा (व्रतपाः) यो व्रतं सत्यं धर्माचरणनियमं पाति रक्षतीति (असि) अस्ति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (देवः) दाता प्रकाशको वा (आ) समन्तात् (मर्त्त्येषु) मरणधर्मेषु मनुष्येषु कार्य्येषु वा (आ) अभितः (त्वम्) स वा (यज्ञेषु) सत्कारेषूपासनादिष्वग्निहोत्रादिषु शिल्पेषु वा (ईड्यः) स्तोतुमध्येषितुं वाऽर्हः (रास्व) देहि, ददाति वा (इयत्) प्राप्नुवन् (सोम) ऐश्वर्य्यप्रदैश्वर्य्यहेतुर्वा (आ) अभितः (भूयः) अतिशयेन बहुः (भर) भरति वा (देवः) द्योतकः (नः) अस्मभ्यम् (सविता) सर्वस्य जगत उत्पादकः प्रेरको वा (वसोः) धनस्य (दाता) प्रापकः (वसु) धनम् (अदात्) ददाति। अयं मन्त्रः (शत॰३.२.२.२४-२५) व्याख्यातः॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः सत्यस्वरूपस्य पूजार्हस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलसुखप्रदातुः परमेश्वरस्यैवोपासनां कृत्वा सुखयितव्यम्, एवं च कार्य्यसिद्धये भौतिकमग्निं संप्रयोज्य सर्वाणि सुखानि प्राप्तव्यानीति॥१६॥

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    विषयः

    पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे सोम ! ऐश्वर्यप्रद अग्ने जगदीश्वर! यस्त्वं स वा मर्त्येषु मरणधर्मेषु मनुष्येषु व्रतपाः यो व्रतं =सत्यं धर्माचरणनियमं पाति=रक्षतीति सविता सर्वस्य जगत् उत्पादकः यज्ञेषु सत्कारेषूपासनादिषु अग्निहोत्रादिषु ईड्यः स्तोतुमर्हः देवः द्योतकः असि अस्ति स भवान् नः=अस्मभ्यं वसोः धनस्य दाता प्रापकः सन् वसु (धनम्) [आ-] अदात्=विज्ञानधनं ददाति समन्ताद् ददाति, स [देवः] दाता भूयः अतिशयेन बहु वसु धनम् आरास्व अभितो देहि इयत् प्राप्नुवन् संस्त्वमेतान्यस्मदर्थम् आभरअभितो भर इत्येकः।। [भौतिकाग्निः] योऽग्ने=अयमग्निः [त्वं]=स मर्त्येषु कार्येषु व्रतपाः यो व्रतं=सत्यं धर्माचरणनियमं पाति रक्षतीति सविता सर्वस्य जगतः प्रेरकः यज्ञेषु शिल्पेषु ईड्यः=अध्येषितव्यः अध्येषितुमर्हः सोमः ऐश्वर्यहेतुः देवः द्योतकः [असि]=अस्ति [त्वम्] स नः=अस्मभ्यं वसोः धनस्य दाता प्रापकः इयत् प्राप्नुवन् सन् [देवः] दाता [वसु] धनं [आअदात्] समन्ताद् ददाति, भूयः अतिशयेन बहुः सर्वकार्येष्वारास्व=आरासते समन्ताद् ददाति आभर=अभितः सुखैर्भरति पुष्णातीति द्वितीयः ।। ४ । १६ ।। [हे........अग्ने! यस्त्वं व्रतपाः, ईड्यः, सविता, देवः, असि, स भवान् नः=अस्मभ्यं........वसु [आ-] अदात्=विज्ञानधनं ददाति]

    पदार्थः

    (त्वम्) स वा (अग्ने) जगदीश्वर! अग्निर्वा (व्रतपाः) यो व्रतं सत्यं धर्माचरणनियमं पाति रक्षतीति (असि) अस्ति वा । अत्र पक्षे व्यत्ययः (देवः) दाता प्रकाशको वा (आ) समन्तात् (मर्त्येषु) मरणधर्मेषु मनुष्येषु कार्येषु वा (आ) अभितः (त्वम् ) सवा (यज्ञेषु) सत्कारेषूपासनादिष्वग्निहोत्रादिषु शिल्पेषु वा (ईड्यः) स्तोतुमध्येषितुं वाऽर्हः (रास्व) देहि, ददाति वा (इयत्) प्राप्नुवन् (सोम) ऐश्वर्य्यप्रदैश्वर्य्यहेतुर्वा (आ) अभितः (भूयः) अतिशयेन बहुः (भर) भरति वा (देवः) द्योतकः (नः) अस्मभ्यम्। ( सविता) सर्वस्य जगत उत्पादकः प्रेरको वा (वसोः) धनस्य (दाता) प्रापकः (वसु) धनम् (अदात्) ददति ।। अयं मंत्रः श० ३ ।२ ।२ ।२४-२५ व्याख्यातः ॥ १६ ॥ [ईश्वरः]

    भावार्थः

    अत्रश्लेषालङ्कारः॥ सर्वैर्मनुष्यैःसत्यस्वरूपस्य,पूजार्हस्य, सर्वजगदुत्पादकस्य, सकलसुखप्रदातुः परमेश्वरस्यैवोपासनां कृत्वा सुखयितव्यम् । [योऽग्ने=अयमग्निः ........सर्वकार्येष्वारास्व=आरासते, आभर=अभितः सुखैर्भरति पुष्णातीति] एवं च कार्यसिद्धये भौतिकमग्निं संप्रयोज्य सर्वाणिसुखानि प्राप्तव्यानीति ।। ४ । १६ ।।

    भावार्थ पदार्थः

    व्रतपाः=सत्यस्वरूपः । ईड्यः=पूजार्हः। सविता=सर्वजगदुत्पादकः। देवः=सकलसुखप्रदाता ।

    विशेषः

    वत्सः। अग्निः=ईश्वरो भौतिकश्च ॥ भुरिगार्षी पंक्तिः ।पंचमः ।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्य्य के देने वाले (अग्ने) जगदीश्वर! जो (त्वम्) आप (मर्त्त्येषु) मनुष्यों में (व्रतपाः) सत्य धर्माचरण की रक्षा (सविता) सब जगत् को उत्पन्न करने (यज्ञेषु) सत्कार वा उपासना आदि में (ईड्यः) स्तुति के योग्य (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन के (दाता) दान करने वाले (वसु) धन को (अदात्) देते हैं, सो (इयत्) प्राप्त करते हुए आप (भूयः) बारंबार अत्यन्त धन (आरास्व) दीजिये (आभर) सब सुखों से पोषण कीजिये॥१॥१६॥ (त्वम्) जो (अग्ने) अग्नि (मर्त्त्येषु) मरण धर्म वाले मनुष्यों के कार्यों में (व्रतपाः) नियमाचरण का पालन (देवः) प्रकाश करने (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादि यज्ञों में (ईड्यः) खोजने योग्य (सोमः) ऐश्वर्य को देने (सविता) जगत् को प्रेरणा करने (देवः) प्रकाशमान अग्नि है, वह (नः) हम लोगों के लिये (वसोः) धन को (दाता) प्राप्त (इयत्) कराता हुआ (भूयः) अत्यन्त (वसु) धन को (अदात्) देता और (आरास्व) धन को देने का निमित्त होके (आभर) सब प्रकार के सुखों को धारण करता है॥२॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सब मनुष्यों को उचित है कि जैसे सत्यस्वरूप सब जगत् को उत्पन्न करने और सकल सुखों के देने वाले जगदीश्वर ही की उपासना को करके सुखी रहें। इसी प्रकार कार्यसिद्धि के लिये अग्नि को संप्रयुक्त करके सब सुखों को प्राप्त करें॥१६॥

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    विषय

    व्रत-पा

    पदार्थ

    १. ‘वत्स’ अपने व्रतों का पालन करता है, परन्तु उन व्रतों के पालन की सफलता का गर्व नहीं करता। वह कहता है—हे ( अग्ने ) = अग्रेणी प्रभो! ( त्वम् ) = आप ही ( व्रतपा असि ) = मेरे व्रतों के पालन करनेवाले हो। मेरी शक्ति से तो इन व्रतों की पूर्ति सम्भव नहीं है। 

    २. ( आ ) =  चारों ओर ( मर्त्येषु ) = मनुष्यों के जीवनों में ( आ देवः ) = [ आ = अभितः ] सांसारिक व आध्यात्मिक क्षेत्रों में आप ही प्रकाशक हैं। सूर्यादि के द्वारा आप बहिःप्रकाश को प्राप्त कराते हैं तो वेदज्ञान द्वारा आप अन्दर का प्रकाश देनेवाले हैं। 

    ३. इन प्रकाशों को प्राप्त करके मनुष्य शतशः यज्ञों का करनेवाला होता है, परन्तु ( यज्ञेषु ) = उन यज्ञों में भी तो ( त्वम् ) = आप ही ( ईड्यः ) = स्तुति के योग्य हो। 

    ४. हे प्रभो! ( इयत् रास्व ) = आप हमें इतना धन दीजिए कि हम इन यज्ञों को अच्छी प्रकार करने में समर्थ हों और साथ ही ( सोम ) = हे ऐश्वर्यप्रद प्रभो! ( भूयः ) = अधिक धन भी ( आभर ) = सभी ओर से दीजिए। उन अधिक धनों से ही तो हम विविध यज्ञों को कर सकेंगे। 

    ५. वस्तुतः यह ( सविता देवः ) = प्रेरक देव ही ( नः ) = हमें ( वसोः ) = यज्ञ का—यज्ञिय भावना का ( दाता ) = देनेवाला है और उसी ने ( वसु ) = धन ( अदात् ) = दिया है। इस धन से हम उन यज्ञों को कर पाएँगे। [ यहाँ ‘वसु’ पुल्लिङ्ग में यज्ञ का वाचक है और नपुंसक में धन का ]। प्रभु यज्ञिय भावना भी देते हैं और उन्हें कार्यरूप में लाने के लिए आवश्यक धन भी। 

    ६. प्रभु से दिये गये धनों को यज्ञों में विनियुक्त करके यह प्रभु का प्रिय बनता है, अतः ‘वत्स’ कहलाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारे सब व्रतों व यज्ञों को सिद्ध करनेवाले प्रभु ही हैं। वही यज्ञिय भावना को जागरित करते हैं और यज्ञपूर्ति के लिए आवश्यक धन देते हैं।

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    विषय

    स्तुत्य ईश्वर और राजा से ऐश्वर्य की याचना ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने, परमेश्वर ! अथवा राजन् अग्रणी ! हे (देव) देव ! राजन् ! ( त्वम् ) तू ( व्रतपाः ) समस्त व्रतों, उत्तम कर्मों का पालक, उनको निर्विघ्न समाप्त होने में रक्षक ( असि ) है । तू हे देव ! ( सत्येषु ) सत्य में और ( यज्ञेषु ) यज्ञों में भी ( आ ईड्यः ) सब प्रकार से स्तुति योग्य, वन्दनीय है । हे (सोम) सोम ! सर्वप्रेरक, सर्वोत्पादक ! ( इयत् रास्व) हमें इतना अर्थात् बहुत परिमाण में प्रदान कर अथवा तू ( इयत् रास्व ) हमारे पास प्राप्त होकर हमें धन प्रदान कर और ( भूयः भर ) और भी अधिक दे। (नः) हमें ( वसोः दाता ) वसु, जीवन और धन का देने हारा है। वही ( वसु अदात् ) सब प्रकार जीवनोपयोगी धनैश्वर्य ( अदात् ) प्रदान करे ।
     

    टिप्पणी

     १६ - [ १६-३६ ] वत्सऋषिः । द० । ऋ० ८ । ११ । १ । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सऋषिः । अग्निर्देवता । भुरिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    विषय

    फिर वे ईश्वर और भौतिक अग्नि कैसे हैं, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्य के दाता (अग्ने) जगदीश्वर! जो (त्वम्) आप (मर्त्येषु) मरणधर्मा मनुष्यों में (व्रतपाः) सत्यभाषण, धर्माचरण आदि व्रतों का रक्षक ( सविता) सब जगत् के उत्पादक हो तथा (यज्ञेषु) सत्कार, उपासना आदि में तथा अग्निहोत्रादि में (ईड्यः) स्तुति के योग्य (देव:) प्रकाशक देव (असि) हो। वह आप (नः) हमारे लिये (वसोः) धन को (दाता) प्राप्त कराने वाले होकर (वसु) विज्ञान-धन ([आ-अदात्) सब ओर से देते हो वह [देवः] दाता (भूयः) अत्यधिक (वसु) धन (आरास्व) सब ओर से दीजिए (इयत्) प्राप्त कराते हुए (त्वम्) आप इनको हमारे लिए (आभर) धारण करते हो। यह मन्त्र का पहला अर्थ है । जो (अग्ने) अग्नि है [त्वम्] वह (मर्त्येषु) मानवीय कार्यों में (व्रतपाः) सत्यभाषण, धर्माचरण आदि व्रतों का रक्षक (सविता ) सब जगत् का प्रेरक है वह (यज्ञेषु) शिल्प कार्यों में (ईड्यः) पूज्य अर्थात् प्रयोक्तव्य (सोमः) ऐश्वर्य का निमित्त (देव:) प्रकाशक देव [असि] है [त्वम्] वह (नः) हमें (वसो:) धन का (दाता) प्रदाता, धन को (इयत्) प्राप्त कराता हुआ [देवः] दाता अग्नि [वसु] धन [आ-अदात्] प्रदान करता है, (भूयः) अत्यधिक सब कार्यों में (आरास्व) सबओर से देता है तथा (आभर) सब ओर से सुखों से पुष्ट करता है । यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ॥ ४। १६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। सब मनुष्य सत्यस्वरूप, पूजा के योग्य, सब जगत् के उत्पादक, सकल सुखदाता परमेश्वर की ही उपासना करके सुखी रहें। और इसी प्रकार कार्य सिद्धि के लिए भौतिक अग्नि का प्रयोग करके सब सुखों को प्राप्त करें ।। ४ । १६ ।।

    प्रमाणार्थ

    (असि) अस्ति। यहाँ पक्ष में पुरुष-व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । २ । २ । २४-२५) में की गई है ।। ४ । १६ ।।

    भाष्यसार

    १. अग्नि (ईश्वर) कैसा है--अग्नि अर्थात् ईश्वर ऐश्वर्य का दाता, सत्य व्रतों का पालन करने वाला होने से सत्यस्वरूप, सब जगत् का उत्पादक, स्तुति और पूजा के योग्य, सब सुखों का दाता और विज्ञान धन का देने वाला है। सब मनुष्य उक्त परमेश्वर की उपासना करके सुखी रहें । २. अग्नि (भौतिक) कैसा है--यह भौतिक अग्नि सत्य व्रतों का रक्षक, सब जगत् को प्रेरणा (गति) देने वाला, शिल्प यज्ञों में प्रयोग के योग्य, ऐश्वर्य प्राति का हेतु और धन का प्रापक है। इस भौतिक अग्नि का सब कार्यों में प्रयोग करके सब सुखों को प्राप्त करें ।। ३. अलङ्कार–यहाँ श्लेष अलङ्कार होने से अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि अर्थ का ग्रहण किया है ।। ४ । १६ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. सर्व माणसांनी सत्यस्वरूप व सर्व जगाला उत्पन्न करणाऱ्या आणि सर्व सुख देणाऱ्या ईश्वराची उपासना करून सुखी व्हावे. तसेच कार्यसिद्धीसाठी अग्नीला चांगल्या प्रकारे प्रयुक्त करून सर्व सुख प्राप्त करावे.

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    विषय

    अग्नी आणि परमेश्‍वर कसे आहेत, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (या मंत्राचे दोन अर्थ आहेत) पहिला अर्थ ईश्‍वरासंबंधी-हे (सोम) ईश्‍वर्यदाता (अग्ने) परमेश्‍वरा, (त्वम्) तू (मर्त्येषु) मनुष्यांमधे (व्रतपाः) धर्माचरणाची व सत्याची प्रेरणा देतोस. (सविता) तूच सर्व जगाचा उत्पत्तिकर्ता आहेस (यज्ञेषु( आदरणीय व उपासना कार्यात तूच (ईड्यः) स्तवनीय आहेत. तूच (नः) आम्हाला (वसोः) धनसंपदेचा (दाता) दाता आहेस. तूच (वसु) प्रत्यक्ष ऐश्‍वर्या (अदात्) दान करणारा आहेस. हे परमेश्‍वरा, (हयत्) इतके जे तू दिले वा देत आहेस, तेव्हां (भूयः) पुढेही वारंवार अत्यंत धनाचे (आरास्व) दान देऊन आम्हांस (आभर) सर्व सुखांनी परिपूर्ण कर. ॥1॥^दुसरा अर्थ - (अग्ने) जो अग्नी (मर्त्येषु) मरणधर्मा मनुष्यांच्या व्यवहारात कामाला येतो (व्रतपाः) जो नियम वा निश्‍चयांचे पालन करण्यात सहाय्यभूत (देवः) प्रकाश देणारा (यज्ञेषु) अग्निहोत्रादी यज्ञामधे (ईड्यः) प्रयुज्य होणारा आहे. (सोम) ऐश्‍वर्य देणारा (सविता) प्रेरणा देणारा आणि (देवः) प्रकाशमान अग्नी आहे, तो (नः) आम्हांला (वसोः) धनसंपदेचे (दाता) दान करणारा (इथत्) होत (भूयः) पुनः पुनः वारंवार वा दररोज (वसु) अधिकाधिक धन (अदात्) देतो, (आरास्त) तो धन प्राप्तीचे मु्ख्य कारण असून (आभार) आमच्यासाठी सर्व सुखसोयींची व्यवस्था करतो. (अग्नीमुळेच मनुष्यांचे दैनंदिन व्यवहार होतात प्रकाश, उर्जा, विद्युत यांद्वारे धन प्राप्त होते) ॥16॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात श्‍लेषालंकार आहे. मनुष्यांसाठी हेच उचित आहे की त्यांनी सत्यस्वरूप, सर्व जगदुत्पादक व सकलसुखदाता जगदीश्‍वराची उपासना करून सुखी व्हावे. त्याचप्रमाणे लौकिक कार्य-व्यवहारादीसाठी अग्नीचा उपयोग करून सर्व सुख प्राप्त करावेत. ॥16॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O God, Thou art the Guardian of sacred vows among mankind. Thou art meet for praise at holy rites. O Giver of Splendour, Come unto us, grant us wealth, give us more. God, the Creator, the Giver of wealth, gives us riches.

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    Meaning

    Agni, Lord of the universe, immanent vitality and energy of the world, you are the guardian and preserver of our spiritual vows, moral commitments and projects and resolutions in the mortal human world. You are worthy of adoration, of study, service and development, through yajna and collective enterprises. Soma, lord giver of honour and glory through art and industry, give us the wealth of success and honour again and again. Savita, Lord Creator of the world, giver of stability and security of home, give us inspiration, security and stability of the good life.

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    Translation

    O foremost adorable God, you are the protector Lord of sacred vows of mortals as well as of the enlightened ones. You are to be adored at sacrifices. (1) O blissful Lord, give us this much wealth. Give us still more. The Creator Lord, bestower of riches, has already given abundant wealth to us. (2)

    Notes

    Rasva, देहि, give (us). Iyat, this much.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ কীদৃশাবিত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় সেগুলি কেমন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সোম) ঐশ্বর্য্য প্রদাতা (অগ্নে) জগদীশ্বর ! (ত্বম্) আপনি (মর্ত্যেষু) মনুষ্যদিগের মধ্যে (ব্রতপাঃ) সত্য ধর্মাচরণের রক্ষা (সবিতা) সকল জগৎকে উৎপন্ন কারী, (য়জ্ঞেষু) সৎকার বা উপাসনাদিতে (ঈড্যঃ) স্তুতির যোগ্য (নঃ) আমাদিগের জন্য (বসোঃ) ধন (দাতা) দানকারী (বসু) ধন (অদাৎ) দান করেন উহা (ইয়ৎ) প্রাপ্ত করিয়া আপনি (ভূয়ঃ) বারম্বার অত্যন্ত ধন (আরাস্ব) প্রদান করুন (আভর) সকল সুখের দ্বারা পোষণ করুন ॥ ১ ॥ (ত্বম্) যে (অগ্নে) অগ্নি (মর্তেষু) মরণ ধর্মযুক্ত মনুষ্যদিগের কার্য্যে (ব্রতপাঃ) নিয়মাচরণের পালন (দেবঃ) প্রকাশ করিবার (য়জ্ঞেষু) অগ্নিহোত্রাদি যজ্ঞে (ঈড্যঃ) অন্বেষণ করিবার যোগ্য (সোমঃ) ঐশ্বর্য্য প্রদান করিবার (সবিতা) জগৎকে প্রেরণা করিবার (দেবঃ) প্রকাশমান অগ্নি উহা (নঃ) আমাদিগের জন্য (বসোঃ) ধন (দাতা) প্রাপ্ত (ইয়ৎ) করাইয়া (ভূয়ঃ) অত্যন্ত (বসু) ধন (অদাৎ) দান করে এবং (আরাস্ব) ধন প্রদান করিবার নিমিত্ত হইয়া (আভর) সর্ব প্রকার সুখ ধারণ করে ॥ ১৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । সকল মনুষ্যের উচিত যে, যেমন সত্যস্বরূপ সকল জগৎকে উৎপন্নকারী এবং সকল সুখ প্রদাতা জগদীশ্বরেরই উপাসনা করিয়া সুখী থাকে এই প্রকার কার্য্যসিদ্ধি হেতু অগ্নিকে সংপ্রযুক্ত করিয়া সকল সুখ প্রাপ্ত করুক ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত্বম॑গ্নে ব্রত॒পাऽঅ॑সি দে॒বऽআ মর্ত্যে॒ষ্বা । ত্বং য়॒জ্ঞেষ্বীড্যঃ॑ ।
    রাস্বেয়॑ৎসো॒মা ভূয়ো॑ ভর দে॒বো নঃ॑ সবি॒তা বসো॑র্দা॒তা বস্ব॑দাৎ ॥ ১৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত্বমগ্নে ব্রতপা ইত্যস্য বৎস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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