यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 32
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
155
सूर्य॑स्य॒ चक्षु॒रारो॑हा॒ग्नेर॒क्ष्णः क॒नीन॑कम्। यत्रैत॑शेभि॒रीय॑से॒ भ्राज॑मानो विप॒श्चिता॑॥३२॥
स्वर सहित पद पाठसूर्य्य॑स्य। चक्षुः॑। आ। रो॒ह॒। अ॒ग्नेः। अ॒क्ष्णः। क॒नीन॑कम्। यत्र॑। एत॑शेभिः। ईय॑से। भ्राज॑मानः। वि॒प॒श्चितेति॑ विपः॒ऽचिता॑ ॥३२॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यस्य चक्षुरारोहाग्नेरक्ष्णः कनीनकम् । यत्रैत्रशेभिरीयसे भ्राजमानो विपश्चिता ॥
स्वर रहित पद पाठ
सूर्य्यस्य। चक्षुः। आ। रोह। अग्नेः। अक्ष्णः। कनीनकम्। यत्र। एतशेभिः। ईयसे। भ्राजमानः। विपश्चितेति विपःऽचिता॥३२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे परमेश्वर! यत्र त्वमेतशेभिर्भ्राजमानो विपश्चितेयसे, यत्र प्राणो विद्युद्वैतशेभिर्विपश्चिता भ्राजमानो विज्ञायते। यत्र त्वं स सा च सूर्य्यस्याग्नेरक्ष्णः कनीनकं चक्षुरारोह समन्ताद् दर्शयति वा, तत्र वयं त्वां तं तां चोपासीमहि युञ्ज्याम वा॥३२॥
पदार्थः
(सूर्य्यस्य) सवितृमण्डलस्य विद्युतो वा (चक्षुः) दर्शकम् (आ) समन्तात् (रोह) दर्शयसि दर्शयति वा (अग्नेः) भौतिकस्य (अक्ष्णः) दर्शनसाधकस्य (कनीनकम्) कनति प्रकाशते येन तत्। अत्र कनीधातोर्बाहुलकादौणादिक ईनकप्रत्ययः (यत्र) यस्मिन् (एतशेभिः) विज्ञानवेदादिभिरागमकैर्गुणैरश्वैः। एतश इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं॰१.१४) (ईयसे) विज्ञायसे विज्ञायते वा (भ्राजमानः) प्रकाशमानः (विपश्चिता) मेधाविना विदुषा। विपश्चिदिति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं॰३.१५) अयं मन्त्रः (शत॰३.३.४.८) व्याख्यातः॥३२॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा विद्वद्भिरीश्वरः प्राणो विद्युच्च विज्ञायोपास्यते संप्रयुज्यते च, तथैव विज्ञायोपास्य उपयोक्तव्यः संप्रयोजितव्या च॥३२॥
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे परमेश्वर ! यत्र यस्मिन् त्वमेतशेभिः विज्ञानवेगादिभिरागमकैर्गुणैरश्वैःभ्राजमानः प्रकाशमान: विपश्चिता मेधाविना विदुषा ईयसे विज्ञायसे । यत्र यस्मिन् त्वं सूर्यस्य सवितृमण्डलस्य विद्युतो वा अग्नेः भौतिकस्य अक्ष्णः दर्शनसाधकस्य कनीनकं कनति=प्रकाशते येन तत् चक्षुः दर्शकम् आरोह समन्ताद् दर्शयसि तत्र वयं त्वामुपासीमहि ॥ [प्राणो विद्युच्च] यत्र यस्मिन् प्राणो विद्युद्वैतशेभिः विज्ञानवेगादिभिरागमकैर्गुणैरश्वैःविपश्चिता मेधाविना विदुषा भ्राजमानः प्रकाशमानः [ईयसे]=विज्ञायते । यत्र यस्मिन् स, सा च सूर्यस्य सवितृमण्डलस्य विद्युतो वा अग्नेः भौतिकस्य अक्ष्णः दर्शनसाधकस्य कनीनकं कनति=प्रकाशते येन तत् चक्षुः दर्शकम् आरोह दर्शयति तत्र वयं तं तां च युञ्जयाम ।। ४ । ३२ ।। [हे परमेश्वर! यत्र त्वमेतशेभिर्भ्राजमानो विपश्चितेयसे, यत्र प्राणो विद्युद्वैतशेभिर्विपश्चिता भ्राजमानो विज्ञायते तत्र त्वं, स, साच.......आरोह=समन्ताद् दर्शयति वा तत्र वयं त्वां, तं, तां चोपासीमहि, युञ्ज्याम वा]
पदार्थः
(सूर्यस्य) सवितृमण्डलस्य विद्युतो वा (चक्षुः) दर्शकम् (आ) समन्तात् (रोह) दर्शयसि दर्शयति वा (अग्नेः) भौतिकस्य (अक्ष्णः) दर्शनसाधकस्य (कनीनकम्) कनति=प्रकाशते येन तत् । अत्र कनीधातोर्बाहुलकादौणादिक ईनक प्रत्यय: (यत्र) यस्मिन् (एतशेभिः) विज्ञानवेगादिभिरागमकैर्गुणैरश्वैः। एतश इत्यश्वनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १४ ॥ (ईयसे) विज्ञायसे विज्ञायते वा (भ्राजमानः) प्रकाशमानः (विपश्चिता) मेधाविना विदुषा । विपश्चिदिति मेधाविनामसु पठितम् ॥ नि० ३ ।१५ ॥ अयं मन्त्रः शत० ३।३।४ । ८ व्याख्यातः ॥ ३२॥ [ईश्वरः]
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः ॥ मनुष्यैर्यथा विद्वद्भिरीश्वरः प्राणो विद्युच्च विज्ञायोपास्यते संप्रयुज्यते च तथैव विज्ञायोपास्य उपयोक्तव्यः संप्रयोजितव्य च ।। ४ । ३२।।
विशेषः
वत्सः । अग्निः=ईश्वरः, प्राणो विद्युच्च॥ निचृदार्ष्यनुष्टुप् ।गान्धारः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे परमेश्वर! (यत्र) जहां आप (एतशेभिः) विज्ञान आदि गुणों से (भ्राजमानः) प्रकाशमान (विपश्चिता) मेधावी विद्वान् से (ईयसे) विज्ञात होते हो वा जहां प्राणवायु वा बिजुली (एतशेभिः) वेगादि गुण वा (विपश्चिता) विद्वान् से (भ्राजमानः) प्रकाशित होकर (ईयसे) विज्ञात होते हैं और जहां आप प्राण तथा बिजुली (सूर्य्यस्य) सूर्य्य वा बिजुली और (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (अक्ष्णः) देखने के साधन (कनीनकम्) प्रकाश करने वाले (चक्षुः) नेत्रों को (आरोह) देखने के लिये कराते वा कराती हैं, वहीं हम लोग आप की उपासना और उन दोनों का उपयोग करें॥३२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जैसे विद्वान् लोग ईश्वर, प्राण और बिजुली के गुणों को जान, उपासना वा कार्य्यसिद्धि करते हैं, वैसे ही उनको जानकर उपासना और अपने प्रयोजनों को सदा सिद्ध करते रहें॥३२॥
विषय
सूर्यादि के प्रकाशक
पदार्थ
प्रभु सूर्यादि सब देवों के प्रकाशक हैं। ( सूर्यस्य ) = सूर्य के ( चक्षुः ) = प्रकाशक प्रभु को, ( अग्नेः ) [ चक्षुः ] = इस पृथिवीस्थ देव अग्नि के भी प्रकाशक उस प्रभु को तथा जो ( अक्ष्णः ) = आँख की ( कनीनकम् ) = पुतली के स्थानापन्न हैं, उस प्रभु को ( आरोह ) = तू प्राप्त हो। जैसे योगारुढ़ बनने का अभिप्राय है योगमार्ग को प्राप्त करना, इसी प्रकार प्रभु को आरुढ़ होने का अभिप्राय है कि तू प्रभु को प्राप्त हो। मानव-जीवन का यही लक्ष्य है कि हम इस प्राकृतिक संसार में प्रभु की महिमा को देखते हुए प्रभु तक पहुँचने का प्रयत्न करें। वे प्रभु ही सूर्य को प्रकाश दे रहे हैं—अग्नि में उन्होंने ही दाहक शक्ति को रक्खा है और आँख को भी रोशनी देनेवाले वे प्रभु ही हैं। इस प्रकार प्रत्येक प्रकाशमय पदार्थ में प्रभु की महिमा का दर्शन होता है।
पिछले मन्त्र में ‘हृदय में कर्मसङ्कल्प के धारण’ का उल्लेख था। हमारे हृदयों में प्रभु-प्राप्ति का सङ्कल्प हो। प्रस्तुत मन्त्र में प्रार्थना करते हैं कि हमारा हृदय वह है ( यत्र ) = जहाँ ( भ्राजमानः ) = देदीप्यमान वे प्रभु विराजते हैं और ( विपश्चिता ) = [ वि पश् चित् ] इन सूर्यादि पिण्डों को सूक्ष्मता से देखकर चिन्तन करनेवाले पुरुष से ( एतशेभिः ) = इन इन्द्रियरूप घोड़ों के द्वारा ( ईयसे ) = आप प्राप्त किये जाते हो। हम अपने हृदयों में प्रभु का दर्शन करें। यह दर्शन तभी होगा जब हम सूर्यादि पिण्डों में उस प्रभु की महिमा को देखनेवाले बनेंगे। इस सृष्टि-रचना को सूक्ष्मता से देखकर चिन्तन करनेवाला पुरुष हृदयस्थ प्रभु का अवश्य दर्शन करता है। वे प्रभु भ्राजमान हैं, उनकी भ्राजमानता ही इन सूर्यादि देवों को भी भ्राजमान कर रही है। ‘तेन देवा देवतामग्र आयन्’ उस प्रभु से ही ये सब देव देवत्व को प्राप्त होते हैं। मैं भी प्रभु के सम्पर्क में आकर देव बनूँगा।
भावार्थ
भावार्थ — वे प्रभु सूर्यादि देवों के प्रकाशक हैं। सूक्ष्म दृष्टिवाला पुरुष प्रत्येक पिण्ड में प्रभु का दर्शन करता है।
विषय
राजा को सर्वप्रिय होने का उपदेश ।
भावार्थ
हे राजन् ! तू ( यत्र ) जहां कहीं भी ( विपश्चिता ) विद्वान् पुरुषों के साथ अपने ( एतशेभिः ईयसे ) घोड़ों से जाय वहां ही तू ( सूर्यस्य [ प्रकाश इव ] ) सूर्य के प्रकाश के समान लोगों की आंखों पर ( आरोह ) चढ़ा रह, उनको शक्ति देकर उन पर अनुग्रह कर। और रात्रि के समय (अग्नेः [प्रकाश इव ] ) अग्नि के प्रकाश के समान ( अक्ष्णः कनीनकम् आरोह) लोगों की आंख की पुतली पर चढ़, अर्थात् अन्धकार में आंख जिस प्रकार सदा चमकती आग या दीपक पर ही जाती है उसी प्रकार लोगों की आंखों की पुतली तेरी ओर ही लगी रहे, अर्थात् तू उनकी आंखों पर लक्ष्य के समान बना रह। प्रजाओं को अन्धकार में भी प्रकाश दे और मार्ग दर्शा ||
ईश्वर पक्ष में ( यत्र ) जहां और जब भी ( एतशैः ) व्यापकता, सर्वज्ञत्वादि गुणों से ( भ्राजमानः ) देदीप्यमान होकर ( विपश्चिता ) विद्वान् पुरुष द्वारा ( ईयसे ) बतलाया जाता है। वहां और उसी समय तू हे ईश्वर ! ( सूर्यस्य चक्षुः आरोह, अग्नेः कनीनकं आरोह ) दिन में सूर्य के प्रकाश के समान और रात्रि में अग्नि के प्रकाश के समान चक्षु और आंख की पुतली पर चढ़ते हो और उन पर अपना अधिकार करते हो अर्थात् तुम्हीं उनको ज्ञान मार्ग दिखाते हो। इसी प्रकार मुख्य प्राण अपने जीवन प्रदाता आदि गुणों से ज्ञापित होकर हमें मार्ग दिखाती है, प्रकाश देती है ॥
टिप्पणी
३२ -- `०कनीनकाम् ।` इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
फिर वे ईश्वर, प्राण और विद्युत् कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।।
भाषार्थ
हे परमेश्वर ! (यत्र) जहां आप (एतशेभिः) विज्ञान और वेग आदि आगमक गुणों से युक्त अश्वों से (भ्राजमानः) प्रकाशमान होते हुये (विपश्चिता) मेधावी विद्वान् से (ईयसे) जाने जाते हो, और-- (यत्र) जहां आप (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल वा विद्युत् के (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (अक्ष्णः) देखने से साधन (कनीनकम्) प्रकाशक (चक्षुः) आँख को (आरोह) चहुँ ओर से दिखाते हो वहां हम लोग आपकी उपासना करें । [प्राण और विद्युत्] जहां प्राण वा विद्युत् (एतशेभिः) विज्ञान, वेग आदि आगमक गुणों से युक्त अश्वों से (विपश्चिता) मेधावी विद्वान् के द्वारा (भ्राजमान:) प्रकाशमान रूप में [ईयसे] जाने जाते हैं, और-- (यत्र) जहां वह प्राण और वह विद्युत् (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल के वा विद्युत् के (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (अक्ष्णः) देखने के साधन के (कनीनकम्) प्रकाशक (चक्षुः) आँख को (आरोह) दिखाते हैं वहां हम लोग उस प्राण और उस विद्युत् का उपयोग करें ।। ४ । ३२ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है। जैसे विद्वान् लोग ईश्वर, प्राण और विद्युत् को जानकर ईश्वर की उपासना तथा त्राण और विद्युत् का उपयोग करते हैं वैसे सब मनुष्य जानकर उपासना और उपयोग करें ।। ४ । ३२ ।।
प्रमाणार्थ
(कनीनकम्) यह शब्द 'कनी' धातु से बहुल करके प्रणादिक 'ईनक' प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है। (एतशेभिः) 'एतश' शब्द निघं० (१। १४) में अश्वनामों में पढ़ा है। (विपश्चिता) 'विपश्चित' शब्द निघं० (३ । १५) में मेधावी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ३ । ४ ।८) में की गई है ॥ ४ । ३२ ।। [ईश्वर]
भाष्यसार
१. ईश्वर कैसा है--परमेश्वर विज्ञान आदि गुणों से प्रकाशमान है जिसे मेधावी विद्वान् लोग ही भली प्रकार जान सकते हैं। परमेश्वर ही सूर्य, विद्युत्, भौतिक अग्नि, तथा देखने के साधन कनीनक (तारिका) रूप चक्षु को प्रकाशित करता है। इसलिये वह उपासना के योग्य है। २. प्राण और विद्युत्-- प्राण तथा विद्युत् वेग आदि गुणों से युक्त हैं। इन्हें मेधावी विद्वान् ही भली-भांति जान सकते हैं। प्राण और विद्युत् ही सूर्य, भौतिक अग्नि, और देखने के साधन कनीनक (तारिका) रूप चक्षु के प्रकाशक हैं। इसलिये प्राण और विद्युत् का उपयोग करें। ३. अलङ्कार--यहाँ श्लेष अलङ्कार से ईश्वर तथा प्राण और विद्युत् अर्थ का ग्रहण किया है
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्याप्रमाणे विद्वान लोक ईश्वराची उपासना करतात व प्राण आणि विद्युत यांचे गुणधर्म जाणून कार्य सिद्ध करतात. त्याप्रमाणेच सर्व माणसांनी ईश्वरोपासना करावी व प्राण आणि विद्युत यांच्याद्वारे कार्यसिद्धी करून घ्यावी.
विषय
पुनश्च, पुढील मंत्रात त्याच विषयाचा विस्तार केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे परमेश्वर,(मत्र) जेथे तेथे (एतशेभिः) विज्ञान आदी गुणांनी (भ्राजमानः) प्रकाशमान कीर्तीमान होणार्या (विपश्चिताः) मेधावी विद्वानांद्वारे (ईयसे) असल्या स्वरूपाचे व्याख्यान केले जात आहे (विद्वज्जन तुमची महती सर्वांना सांगतात) तसेच प्राणवायु आणि विद्युत (एतशेभिः) यांच्या वेग आदी गुणांचा (विपरिचताः) विद्वान व वैज्ञानिक मंडळी (भ्राजमानः) शोध लावून (ईयसे) सर्वांना उपदेा करतात. हे परमेश्वर, प्राण व विद्युत किंवा (सूर्यस्य) सूर्य वा विद्युत (अग्नेः) त्याचा भौतिक अग्नी (अक्ष्णः) पाहण्याचे साधन असलेल्या व (कनीनिकम्) प्रकाश पाहणार्या (चक्षः) नेत्रांश (आरोह) दृष्टीशक्ती देतात वा पदार्थांचे दर्शन घडवितात. यासाठी आम्ही हे परमेश्वर, आम्ही तुमची उपासना अवश्य केली पाहिजे प्राणवायु आणि विद्युत या दान्ही शक्तींचा यथायोग्य उपयोग केला पाहिजे ॥32॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे (अर्थात् काही शब्दांचे दोन वा अधिक अर्थ आहेत) ज्याप्रमाणे विद्वान व ज्ञानी वैज्ञानिकगण ईश्वर, प्राण आणि विद्युत यांच्या गुणांचे ज्ञान मिळवितात, आणि परमेश्वराची उपासना करून प्राण व विद्युतेद्वारे कार्यसिद्धी करतात, त्याचप्रमाणे सर्व मनुष्यांसाठी हेच आवश्यक कर्म आहे की त्यानी ही परमेश्वराची उपासना करावी व प्राण आणि विद्युतद्वारे आपले प्रयोजन पूर्ण करावेत ॥32॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, where resplendent through Thy qualities of knowledge, Thou art known by the learned, and where Thou Greatest lustrous eyes, the instruments for seeing the sun and fire, there we worship Thee.
Meaning
Ascend to the eye (light) of the sun, and enter into the pupil of the eye of Agni (light of fire) where, self- illuminating with the rays of your light, you would be approached and pursued by the discriminative scholar of science.
Translation
Ascend up to the eye of the sun. Reach the pupil of the fire's eye. By the wise you are discerned there glowing with swift coursers. (1)
Notes
Etadebhih, with swift coursers.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তে কীদৃশা ইত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় সেগুলি কেমন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে পরমেশ্বর ! (য়ত্র) যেখানে আপনি (এতশেভিঃ) বিজ্ঞানাদি গুণ দ্বারা (ভ্রাজমানঃ) প্রকাশমান (বিপশ্চিতা) মেধাবী বিদ্বান দ্বারা (ঈয়সে) বিজ্ঞাত হন অথবা যেখানে প্রাণবায়ু বা বিদ্যুৎ (এতশেভিঃ) বেগাদি গুণ বা (বিপশ্চিতা) বিদ্বান্ দ্বারা (ভ্রাজমানঃ) প্রকাশিত হইয়া (ঈয়সে) বিজ্ঞাত হন এবং যেখানে আপনি প্রাণ তথা বিদ্যুৎ (সূর্য্যস্য) সূর্য্য বা বিদ্যুৎ এবং (অগ্নেঃ) ভৌতিক অগ্নির (অক্ষণঃ) দেখিবার সাধন (কনীনকম্) প্রকাশকারী (চক্ষুঃ) নেত্রদিগকে (আরোহ) দেখিবার জন্য করান সেখানেই তাহাকে জানিয়া উপাসনা এবং উভয়ের ব্যবহার করিবে ॥ ৩২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে শ্লেষালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যেমন বিদ্বান্গণ ঈশ্বর, প্রাণ ও বিদ্যুতের গুণকে জানিয়া উপাসনা বা কার্য্যসিদ্ধি করেন সেইরূপই তাঁহাকে জানিয়া উপাসনা এবং স্বীয় প্রয়োজনকে সর্বদা সিদ্ধ করিতে থাকিবে ॥ ৩২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সূর্য়॑স্য॒ চক্ষু॒রা রো॑হা॒গ্নের॒ক্ষ্নঃ ক॒নীন॑কম্ ।
য়ত্রৈত॑শেভি॒রীয়॑সে॒ ভ্রাজ॑মানো বিপ॒শ্চিতা॑ ॥ ৩২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সূর্য়্যস্য চক্ষুরিত্যস্য বৎস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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