यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 8
ऋषिः - आत्रेय ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - आर्षी अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
152
विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्त्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒यऽइ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॒ स्वाहा॑॥८॥
स्वर सहित पद पाठविश्वः॑। दे॒वस्य॑। ने॒तुः। मर्त्तः॑। वु॒री॒त॒। स॒ख्यम्। विश्वः॑। रा॒ये। इ॒षु॒ध्य॒ति॒। द्यु॒म्नम्। वृ॒णी॒त॒। पु॒ष्यसे॑। स्वाहा॑ ॥८॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वो देवस्य नेतुर्मर्ता वुरीत सख्यम् । विश्वो राय इषुध्यति द्युम्नँ वृणीत पुष्यसे स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वः। देवस्य। नेतुः। मर्त्तः। वुरीत। सख्यम्। विश्वः। राये। इषुध्यति। द्युम्नम्। वृणीत। पुष्यसे। स्वाहा॥८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
मनुष्यैः परमेश्वराश्रयेण किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
यथा विश्वो मर्त्तो नेतुर्देवस्य जगदीश्वरस्य सख्यं वुरीत विश्वो राय इषुध्यति। स द्युम्नं वृणीत, तथा हे मनुष्य! एतत्सर्वमनुष्ठाय स्वाहा सत्क्रियया त्वमपि पुष्यसे पुष्टो भवेः॥८॥
पदार्थः
(विश्वः) सर्वो जनः (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (नेतुः) सर्वनयनकर्त्तुः परमेश्वरस्य (मर्त्तः) मनुष्यः, मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं॰२.३) (वुरीत) वृणीयात्, अत्र बहुलं छन्दसि। [अष्टा॰२.४.७३] इति विकरणस्य लुक् (सख्यम्) सख्युर्भावः कर्म वा (विश्वः) अखिलः (राये) धनप्राप्तये (इषुध्यति) शरान् धारयेत्, लेट् प्रयोगोऽयम् (द्युम्नम्) धनम् (वृणीत) स्वीकुर्य्यात् (पुष्यसे) पुष्टो भवेः, अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्, लेट् प्रयोगोऽयम् (स्वाहा) सत्क्रियया। अयं मन्त्रः (शत॰३.१.४.१७-२८) व्याख्यातः॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरमुपास्य परस्परं मित्रतां कृत्वा युद्धे दुष्टान् विजित्य राजश्रियं प्राप्य सुखयितव्यम्॥८॥
विषयः
मनुष्यैः परमेश्वराश्रयेण किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ।।
सपदार्थान्वयः
यथा विश्वः सर्वोजनः मर्त्तः मनुष्यः नेतुः सर्वनयनकर्तुः परमेश्वरस्य देवस्य=जगदीश्वरस्य सर्वप्रकाशकस्य सख्यं सख्युर्भावः कर्म वा वुरीत वृणीयात्, विश्वः अखिलः राये धनप्राप्तये इषुध्यति शरान् धारयेत्,स द्युम्नं धनं वृणीत स्वीकुर्यात्, तथा हे मनुष्य ! एतत् सर्वमनुष्ठाय स्वाहाः सत्क्रियया त्वमपि पुष्यसे=पुष्टोभवेः ॥ ४ ॥ ८ ॥ [विश्वो मर्त्तो......देवस्य=जगदीश्वरस्य सख्यंवुरीत, विश्वो राय इषुध्यति]
पदार्थः
(विश्व:) सर्वो जनः (देवस्य) सर्वप्रकाशकस्य (नेतुः) सर्वनयनकर्तुः परमेश्वरस्य (मर्त्तः) मनुष्यः। मर्त्ता इति मनुष्यनामसु पठितम् ॥ निघं० २ ।३ ।। (वुरीत) वृणीयात् । अत्र बहुलं छन्दसीति विकरणस्य लुक् (सख्यम्) सख्युर्भावः कर्म वा (विश्व:) अखिलः (राये) धनप्राप्तये (इषुध्यति) शरान्धारयेत्, लेट्प्रयोगोऽयम् (द्युम्नम्) धनम् (वृणीत) स्वीकुर्य्यात् (पुष्यसे) पुष्टो भवे:। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्।लेट्प्रयोगोऽयम् (स्वाहा) सत्क्रियया ॥ अयं मंत्र: श० ३ ।१ ।४ ।१७–१८ व्याख्यातः ॥ ८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः।।सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरमुपास्य परस्परं मित्रतां कृत्वा युद्धे दुष्टान् विजित्य राजश्रियं प्राप्य सुखयितव्यम् ॥ ४। ८॥
भावार्थ पदार्थः
देवस्य=परमेश्वरस्य।सख्यम्=परस्परं मित्रताम्। राये=राजश्रीप्राप्तये।
विशेषः
आत्रेयः।ईश्वरः=स्पष्टम्आर्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को परमेश्वर के आश्रय से क्या-क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
जैसे (विश्वः) सब (मर्तः) मनुष्य (नेतुः) सब को प्राप्त वा (देवस्य) सब का प्रकाश करने वाले परमेश्वर के साथ (सख्यम्) मित्रता और गुणकर्मसमूह को (वुरीत) स्वीकार और (विश्वः) सब (राये) धन की प्राप्ति के लिये (इषुध्यति) बाणों को धारण करे, वह (द्युम्नम्) धन को (वृणीत) स्वीकार करे, वैसे हे मनुष्य! इस सब का अनुष्ठान करके (स्वाहा) सत्क्रिया से तू भी (पुष्यसे) पुष्ट हो॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को परमेश्वर की उपासना करके परस्पर मित्रपन का सम्पादन कर, युद्ध में दुष्टों को जीत के, राज्यलक्ष्मी को प्राप्त होकर सुखी रहना चाहिये॥८॥
विषय
स्रष्टा व सृष्टि, God vs Mammon
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में ‘प्रजापति’ का उल्लेख है। प्रजापति वही बन सकता है जो संसार के प्रलोभनों में न फँसकर प्रभु का वरण करता है। यह प्रभु का वरण करनेवाला ‘आत्रेय’ होता है। यह काम-क्रोध-लोभ तीनों से रहित होता है। इन आत्रेयों से प्रभु कहते हैं कि २. ( विश्वः मर्तः ) = संसार में प्रविष्ट प्रत्येक मनुष्य ( नेतुः ) = संसार-चक्र के सञ्चालक ( देवस्य ) = दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु की ( सख्यम् ) = मित्रता को ( वुरीत ) = वरण करे, चाहे। प्रभु की इस मित्रता ने ही उसे इस प्रलोभनमय संसार में फँसने से बचाना है। प्रभु की मित्रता ही उसे वह शक्ति प्राप्त कराती है जो उसे ‘काम-क्रोध-लोभ’ तीनों का संहार करने में समर्थ करती है। एवं, प्रभु की मित्रता उसे ‘आत्रेय’ बनाती है।
३. सामान्यतः संसार की स्थिति इससे भिन्न है। ( विश्वः ) = सब कोई ( रायः ) = धनों को ( इषुध्यति ) = माँगता है, चाहता है। धन की उपासना अधिक है प्रभु की कम। वस्तुतः ‘हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्’ = इस स्वर्णमय संसार के पदार्थों से सत्यस्वरूप परमात्मा का रूप ढका हुआ है। धन अधिक आकर्षक है। संसार में धन की ही महिमा दिखती है, अतः धन की ओर झुकाव स्वाभाविक है, परन्तु इसकी ओर झुककर मनुष्य अन्ततः इसका दास बन जाता है। धन का दास बना और फिर मनुष्य निधन = मृत्यु की ओर ही बढ़ता है, अतः हमें प्रभु का ही वरण करना चाहिए, धन का नहीं।
४. परन्तु धन के बिना खाना-पीना भी सम्भव नहीं, अतः मन्त्र में कहते हैं कि ( द्युम्नम् ) = [ Wealth ] धन का ( वृणीत ) = वरण करो, परन्तु ( पुष्यसे ) = उतने ही धन का जितना कि पोषण के लिए पर्याप्त हो। इतना धन तो हाथ-पैर हिलानेवाले को प्रभुकृपा से प्राप्त हो ही जाता है। एवं, प्रभु का वरण ही ठीक है। धन का वरण मनुष्य को विलासी बना देता है। दूसरी ओर स्रष्टा के वरण में जहाँ मोक्ष मिलता है वहाँ जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक सृष्टि का अंश भी मिलता है।
भावार्थ
भावार्थ — हम धन का वरण न करके प्रभु का वरण करें।
विषय
ईश्वर और राजा का वरण और ऐश्वर्य की प्राप्ति ।
भावार्थ
( विश्व: ) समस्त ( मर्तः ) मनुष्य लोग ( नेतु ) अपने नेता ( देवस्य ) ईश्वर और राजा के ( सख्यम् ) मित्रता को ( बुरीत ) वरें, चाहें (विश्वः ) और सब ( राये ) धन ऐश्वर्य के प्राप्त करने लिये ( इषुध्यति ) वाणा, शस्त्रास्त्र धारण करें और सभी ( द्युम्नम् ) धन को ( पुष्यसे ) शरीर और आत्मा की पुष्टि, बल वृद्धि के लिये ( वृणीत ) चाहें ( स्वाहा ) यही उसका उत्तम सत् उपयोग है। या उस धनको उत्तम कार्य में त्याग करें ।
( विश्वो राये इषुध्यति ) सभी धन की याचना करते हैं ॥ [ उव्वट-महीधर ] शत० ३ । १ । ४ । १८ । २३ ॥
टिप्पणी
८ --ईश्वरो देवता। द०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वस्त्यात्रेय ऋषिः । ईश्वरः सविता देवता । अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥
विषय
मनुष्यों को परमेश्वर के आश्रय से क्या-क्या करना चाहिये ।।
भाषार्थ
जैसे (विश्व:) सब (मर्त्तः) मनुष्य (नेतुः) सबका नेतृत्व करने वाले परमेश्वर (देवस्य) सबके प्रकाशक जगदीश्वर के ( सख्यम्) मित्रता और उसके गुण कर्म को (वुरीत) चुनते तथा (विश्व:) सम्पूर्ण (राये) धन प्राप्ति के लिए (इषुध्यति) बाणों को धारण करते हैं और वे (द्युम्नम्) धन को (वृणीत) अपना बनाते हैं। वैसे हे मनुष्य ! वैसा सब व्यवहार करके (स्वाहा) शुभ कर्म से तू भी (पुष्यसे) पुष्ट बन ॥ ४॥ ८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। सब मनुष्य परमेश्वर की उपासना और परस्पर मित्रता करके, युद्ध में दुष्टों को जीत, राजलक्ष्मी प्राप्त करके सुखी रहें ॥ ४ ॥ ८ ॥
प्रमाणार्थ
(मर्त्तः) यह शब्द निघं ० (२ । ३) में मनुष्य नामों में पढ़ा है। (वुरीत) वृणीयात् । यहाँ 'बहुलं छन्दसि' [अ० २। ४।७३] सूत्र से विकरण प्रत्यय (श्ना) का लुक् है । (इषुध्यति) यह लेट् लकार का प्रयोग है। (पुष्यसे) यहाँ व्यत्यय से आत्मनेपद और लेट् लकार का प्रयोग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । १ । ४ । १७-१८) में की गई है ॥ ४ ॥ ८ ॥
भाष्यसार
मनुष्य परमेश्वर के आश्रय से क्या-क्या करें--ईश्वर सबका नेता और जगत् के सब पदार्थों का प्रकाशक है। मनुष्य उसके साथ मित्रता करें, उसकी उपासना करें। और उसके आश्रय से आपस में सब मनुष्यों के साथ मित्रता रखें, युद्ध में दुष्टों पर विजय, राजश्री तथा नाना प्रकार के धन के की प्राप्ति से पुष्ट होकर सुखी रहें ॥ ४ ॥ ८ ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी परमेश्वराची उपासना करून परस्पर मैत्री करावी व युद्धात शत्रूला जिंकावे आणि लक्ष्मी प्राप्त करून सुखी व्हावे.
विषय
मनुष्यांनी परमेश्वराच्या आश्रयात राहून काय काय करावे, पुढील मंत्रात या विषयी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ -(विश्वः) सर्व (मर्तः) मनुष्यांनी (वेतुः) सर्वांना पुढे नेणार्या (देवस्य) सर्वांना प्रेरणा देणार्या परमेश्वरासह (सख्यम्) मैत्री करावी आणि त्याच्या उत्तम गुणकर्म समूहाचा (वुरीत) स्वीकार करावा व त्या ईश्वरसंगतीद्वारे (राय) धनसंपत्तीची प्राप्तीसाठी व (इषुध्यति) बाणादी शास्त्रांना धारण करून (द्युम्नम्) धनाची प्राप्ती केली पाहिजे त्याप्रमाणे हे माणसा, तू देखील या सर्वांची (ईश्वरोपासना, गुणधारण, यज्ञ, शस्त्र आदी संगतीत राहो (स्वाहा) सदाचार, सत्कर्म व सक्रिया करून तूही (पुष्यसे) पुष्ट हो ॥8॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व मनुष्यांनी परमेश्वराची उपासना करावी. परस्परात मैत्री ठेवावी आणि युद्धात दुष्ट शत्रूंवर विजय मिळवून राज्य लक्ष्मी प्राप्त करून सुखी राहावे ॥8॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May every mortal man seek the friendship of the Guiding God. May we all have recourse to the use of arms for the acquisition of due wealth. May every man acquire riches and become strong through wise deeds.
Meaning
May all mankind choose and pray for the love and friendship of the Lord and Ruler of the world, and may all, with prayers to Him, try for the attainment of wealth and prosperity for health and growth.
Translation
Let all the mortals desire the company of the creator Lord, our leader. All the people beg Him for riches. May you also approach the glorious Lord for nourishment. (1)
Notes
Vurita, let them desire. Isudhynti, प्रार्थयते, begs. Dyamnom, the glorious Lord.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈঃ পরমেশ্বরাশ্রয়েণ কিং কিং কর্ত্তব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
মনুষ্যদিগকে পরমেশ্বরের আশ্রয়ে থেকে কী কী করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- যেমন (বিশ্বঃ) সকল (মর্ত্তঃ) মনুষ্য (নেতুঃ) সকলকে প্রাপ্ত অথবা (দেবস্য) সকলের প্রকাশক পরমেশ্বরের সহ (সখ্যম্) মিত্রতা এবং গুণ-কর্ম সমূহকে (বুরীত) স্বীকার এবং (বিশ্বঃ) সকল (রায়ে) ধন প্রাপ্তির জন্য (ইষুধ্যতি) বাণসকলকে ধারণ করে সেই (দ্যুম্নম্) ধনকে (বৃণীত) স্বীকার করে, সেইরূপ হে মনুষ্য । এই সকলের অনুষ্ঠান করিয়া (স্বাহা) সৎক্রিয়া দ্বারা তুমিও (পুষ্যসে) পুষ্ট হও ॥ ৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচক লুপ্তোপমালঙ্কার আছে । সকল মনুষ্যদিগকে পরমেশ্বরের উপাসনা করিয়া পরস্পর মিত্রতা সম্পাদন করিয়া যুদ্ধে দুষ্টদিগকে পরাজিত করিয়া রাজ্যলক্ষ্মী প্রাপ্ত হইয়া সুখী থাকা উচিত ॥ ৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বিশ্বো॑ দে॒বস্য॑ নে॒তুর্মর্ত্তো॑ বুরীত স॒খ্যম্ ।
বিশ্বো॑ রা॒য়ऽই॑ষুধ্যতি দ্যু॒ম্নং বৃ॑ণীত পু॒ষ্যসে॒ স্বাহা॑ ॥ ৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বিশ্বো দেবস্যেত্যস্যাত্রেয় ঋষিঃ । ঈশ্বরো দেবতা । আর্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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