यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 14
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - आत्मा देवता
छन्दः - स्वराडुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
468
वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह।अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒मृत॑मश्नुते॥१४॥
स्वर सहित पद पाठवि॒द्याम्। च॒। अवि॑द्याम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ अवि॑द्यया। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। वि॒द्यया॑। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयँ सह । अविद्यया मृत्युन्तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥
स्वर रहित पद पाठ
विद्याम्। च। अविद्याम्। च। यः। तत्। वेद। उभयम्। सह॥ अविद्यया। मृत्युम्। तीर्त्वा। विद्यया। अमृतम्। अश्नुते॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
यो विद्वान् विद्यां चाऽविद्यां च तदुभयं सह वेद सोऽविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥१४॥
पदार्थः
(विद्याम्) पूर्वोक्ताम् (च) तत्सम्बन्धिसाधनोपसाधनम् (अविद्याम्) प्रतिपादितपूर्वाम् (च) एतदुपयोगिसाधनकलापम् (यः) (तत्) (वेद) विजानीत (उभयम्) (सह) (अविद्यया) शरीरादिजडेन पदार्थसमूहेन कृतेन पुरुषार्थेन (मृत्युम्) मरणदुःखभयम् (तीर्त्वा) उल्लङ्घ्य (विद्यया) आत्मशुद्धान्तःकरणसंयोगधर्मजनितेन यथार्थदर्शनेन (अमृतम्) नाशरहितं स्वस्वरूपं परमात्मानं वा (अश्नुते)॥१४॥
भावार्थः
ये मनुष्या विद्याऽविद्ये स्वरूपतो विज्ञायऽनयोर्ज[चेतनौ साधकौ वर्त्तेते इति निश्चित्य सर्वं शरीरादिजडं चेतनमात्मानं च धर्मार्थकाममोक्षसिद्धये सहैव संप्रयुञ्जते, ते लौकिकं दुःखं विहाय पारमार्थिकं सुखं प्राप्नुवन्ति। यदि जडं प्रकृत्यादिकारणं शरीरादिकार्यं वा न स्यात्, तर्हि परमेश्वरो जगदुत्पत्तिं जीवः कर्मोपासने ज्ञानं च कर्त्तुं कथं शक्नुयात्, तस्मान्न केवलेन जडेन न च केवलेन चेतनेनाथवा न केवलेन कर्मणा न केवलेन ज्ञानेन च कश्चिदपि धर्मादिसिद्धिं कर्त्तुं समर्थो भवति॥१४॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(यः) जो विद्वान् (विद्याम्) पूर्वोक्त विद्या (च) और उसके सम्बन्धी साधन-उपसाधनों (अविद्याम्) पूर्व कही अविद्या (च) और इसके उपयोगी साधनसमूह को और (तत्) उस ध्यानगम्य मर्म (उभयम्) इन दोनों को (सह) साथ ही (वेद) जानता है, वह (अविद्यया) शरीरादि जड़ पदार्थ समूह से किये पुरुषार्थ से (मृत्युम्) मरणदुःख के भय को (तीर्त्वा) उल्लङ्घ कर (विद्यया) आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोग में जो धर्म उससे उत्पन्न हुए यथार्थ दर्शनरूप विद्या से (अमृतम्) नाशरहित अपने स्वरूप वा परमात्मा को (अश्नुते) प्राप्त होता है॥१४॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़ परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं। जो जड़प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़, न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है॥१४॥
पदार्थ
पदार्थ = ( विद्याम् च अविद्याम् च ) = विद्या और अविद्या को इन साधनों सहित ( य: ) = जो विद्वान् ( तत् उभयम् वेद ) = इन दोनों के स्वरूप को जान लेता है वह ( अविद्यया ) = अविद्या से ( मृत्युम् तीर्त्वा ) = मृत्यु को उलांघ कर ( विद्यया ) = ज्ञान से ( अमृतम् ) = मुक्ति को ( अश्नुते ) = प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = जो विद्वान् पुरुष, विद्या-अविद्या के यथार्थरूप को जान लेते हैं, वे महापुरुष, जड़ शरीरादिकों और चेतन आत्मा को परमार्थ के कामों में लगाते हुए, मृत्यु आदि सब दुखों से छूट कर सदा सुख को प्राप्त होते हैं । यदि जड़ प्रकृति आदि और शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति कैसे करे और जीव, कर्म, उपासना और ज्ञान के सम्पादन करने में कैसे समर्थ हों? इससे यह सिद्ध हुआ कि, न केवल जड़ न केवल चेतन से और न केवल कर्म से और न केवल ज्ञान से, कोई धर्मादि की सिद्धि करने में समर्थ होता है ।
विषय
विद्या अविद्या का ज्ञान । उन दोनों की उपासना का फल । मृत्यु और वरण ।
भावार्थ
( विद्यां च अविद्याम् च ) विद्या और अविद्या (यः) जो (तदा उभयं वेद) इन दोनों के स्वरूप को जान लेता है वह (अविद्यया) अविद्या से (मृत्युं तीर्त्वा) मृत्यु को पार करके ( विद्यया अमृतम् अश्नुते) विद्या से मोक्ष को प्राप्त करता है । अविद्यया —शरीरादि जड़ पदार्थ द्वारा पुरुषार्थ करके । विद्यया-शुद्ध चित्त से सम्यग् तत्वदर्शन करके । ( दया० ) स्वर्गाद्यर्थानि कर्माणि आत्मज्ञानं चेति उवटः ।
टिप्पणी
अविद्या अग्निहोत्रादि लक्षणा, इति मही० ।
विषय
मृत्यु से तैरना व अमर बनना
पदार्थ
उल्लिखित विलक्षण फलोंवाली (विद्यां च) = आत्मविद्या को और (अविद्यां च) = प्रकृतिविद्या को (यः) = जो (तत् उभयम्) = उन दोनों को सह वेद-साथ- साथ जानता है वह (अविद्यया) = सृष्टिविद्या से (मृत्युम् तीर्त्वा) = मृत्यु को तैरकर (विद्यया) = आत्मज्ञान से (अमृतम्) = अमरता को (अश्नुते) = प्राप्त करता है। मनुष्य दो कारणों से मुख्यतया असमय में ही मृत्यु का ग्रास हो जाता था। एक तो अकाल पड़ जाने से भूखे मरकर और दूसरे बीमारियों का शिकार होकर। प्रकृतिविद्या व विज्ञान ने थोड़ी भूमि पर अधिक अन्न उपजाकर भूखे मरने के प्रश्न को समाप्त कर अतः दिया, साथ ही मक्खी-मच्छरों को समाप्त कर मलेरिया आदि बीमारियों को भी समाप्त कर दिया। साथ ही औषघ विज्ञान ने टी.बी. आदि बीमारियों का भी प्रतीकार कर दिया है, इनकी भयंकरता समाप्त हो गई है। एवं मनुष्य प्रकृतिविद्या से मृत्यु को तैर गया है। शल्य-चिकित्सा के चमत्कारों ने मानवजीवन को दीर्घ कर दिया है। संक्षेप में विज्ञान ने मनुष्य के लिए प्रकृति को बड़ा सुखद व सुन्दर बना दिया है। मनुष्य को प्रकृति निरन्तर अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। कई बार तो मनुष्य किसी वस्तु के लिए इतना लालायित हो उठता है कि 'वह उसके बिना मर ही जाएगा' ऐसा प्रतीत होने लगता है। 'आत्मस्वरूप का चिन्तन ही उसे इस मरने से बचाएगा', अतः मन्त्र में कहते हैं कि (विद्यया) = आत्मज्ञान से (अमृतम्) = अमरता को (अश्नुते) = पाता है। [क] प्रकृतिविद्या भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं की न्यूनता नहीं होने देती और आत्मविद्या उसे उन वस्तुओं के मात्रातीत प्रयोग से बचाती है। [ख] प्रकृतिविद्या जीवन की मोटर में एञ्जिन है तो आत्मविद्या ब्रेक का काम देती है। प्रकृतिविद्या के बिना तो जीवन की गाड़ी चलती ही नहीं पर आत्मविद्या न हो तब भी यह कहीं-न-कहीं टकराकर टूट ही जाएगी। एवं, हमें अपने जीवनों में दोनों का ही समन्वय करके चलना है। प्रत्येक गृहस्थ अपने सन्तानों को विज्ञान की शिक्षा अवश्य दिलवाए और अपने साथ धार्मिक सत्सङ्गों में भी उन्हें अवश्य ले जाए। वैज्ञानिक युवक भूखा न मरेगा और अध्यात्मिक वृत्तिवाला होने से विषयासक्त न होगा । विज्ञान विषयों को उपस्थित करता है, आत्मविद्या उन विषयों का प्रयोग करते हुए भी उनके बन्धन से बचाती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अविद्या से मृत्यु को तरें और विद्या से अमरता का लाभ करें। विद्या से हम विषयों की अपातरमणीयता को जानेंगे और उन विषयों के पीछे मरेंगे नहीं।
मन्त्रार्थ
(यः) जो मनुष्य (विद्यां च अविद्या च तत्-उभयं सह वेद) ज्ञान और कर्म दोनों को साथ साथ जानता है। वह (विद्या) कर्म से (मृत्यु तीर्त्वा) मृत्यु को तर कर (विद्यया) ज्ञान से (अमृतम्-अश्नुते) अमृत को प्राप्त होता है ॥१४॥
टिप्पणी
यहां १२ वें मन्त्र में जो अविद्या-कर्म की उपासना से घने अन्धेरे में प्रवेश होता और विद्या- ज्ञान की उपासना से उससे भी अधिक घने अन्धेरे में प्रवेश करना कहा गया है वह अकेले केले के सेवन करने का फल कहा गया है क्योंकि १४वें मन्त्र में दोनों को साथ साथ जानने का फल गिरना नहीं किन्तु मृत्यु को तरना और अमृत को पाना उत्कृष्ट फल बताया है इसके अलग अलग सेवन से उत्कृष्ट फल नहीं मिलता किन्तु गिरना ही होता है । एक मनुष्य केवल कर्म - ज्ञानशून्य कर्म कर रहा है विना सोचे समझे चल रहा है-कहां जाना है क्यों जाना है और किस मार्ग से तथा किन साधनों से जाना चाहिए इत्यादि ज्ञान से रहित हो चला जा रहा है तब निःसन्देह वह घने अन्धकार में प्रवेश करेगा अवश्य ही कहीं न कहीं किसी न किसी दुर्गन्ध स्थान वन जंगल में गर्त में खड में जा गिरता ही है और दूसरा मनुष्य कर्मशून्य ज्ञान में रत है घर में बैठा-बैठा मन मे तर्क वितर्क करता, सोचता ही रहता है कर्म कुछ भी नहीं करता है धीरे धीरे प्रकृति उसके मस्तिष्क को निर्वल निःसत्व बना देती है-सोचते सोचते उसका मस्तिष्क जड बन जाता है चिरकालीन चेतना रहित या उन्मत बन जाता है इस प्रकार यह पहिले से भी अधिक घने अन्धकार में प्रवेश कर जाता है। फल दोनों का भिन्न-भिन्न हैं, अलग अलग सेवन करने पर भी और मिला कर सेवन करने पर भी यह बात १३ वें मन्त्र में कही है १४ वें मन्त्र में फल दोनों का साथ साथ सेवन करने का उठना दर्शाया है कि अविद्या-कर्म के सेवन का फल तो मृत्यु का तरना और विद्याज्ञान के सेवन का फल अमृत का पाना है । यह फल अध्यात्म जीवन के होने से यहां विद्या-ज्ञान भी अध्यात्म ज्ञान - परमात्म ज्ञान है । इस प्रकार अध्यात्म कर्म अष्टाङ्ग योगाभ्यास से मृत्यु को तरना मरण प्रबन्ध बन्धन को तरना और अध्यात्म ज्ञानपरमात्म ज्ञान से अमृत अमर पद-मोक्ष को पाना बनता है । अविद्या-न विद्या, विद्या-ज्ञान, पूर्व की भांति ज्ञान से भिन्न ज्ञान जैसा अर्थ हुआ । ज्ञान है आत्मा का गुण "इच्छा द्वेषप्रयत्न सुख दुख ज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम्” (न्याय १।१।१०) ज्ञान का सहयोगी प्रयत्न है लोक में कर्म हुआ । उपनिषद् में भी ज्ञान कर्म का सहयोग दर्शाया है "विद्याकर्मणी समन्वारमेत" (वृहदारण्यक ४।२।३)
विशेष
"आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे विद्या व अविद्या यांचे स्वरूप जाणून जड व चेतनाचा निश्चय करून शरीर वगैरे सर्व जड पदार्थ आणि चेतन आत्मा यांना धर्म, अर्थ, काम मोक्षाच्या सिद्धीसाठी बरोबरच प्रयोगात आणतात. ते लौकिक दुःखांपासून दूर होतात आणि परमार्थाचे सुख भोगतात. जर जड प्रकृती इत्यादी कारण किंवा शरीरादी कार्य नसेल तर परमेश्वर जगाची उत्पत्ती करण्यास व जीव ज्ञान, कर्म, उपासना करण्यास समर्थ कसे होऊ शकतील? म्हणून कोणीही केवळ जडाने किंवा चेतनाने अथवा केवळ ज्ञानाने किंवा केवळ कर्माने वगैरे गोष्टी साध्य करू शकत नाहीत.
विषय
पुनश्च त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (यः) जो विद्वान (विद्याम्) पूर्व मंत्रात वर्णित विद्या (च) आणि विद्यासंबंधी साधनें, उपसाधनें कोणती, हे जाणतो तसेच (अविद्याम्) पूर्ववर्णित अविद्या (च) अविद्येच्या साधन-समूह काय हे जाणतो तसेच (उभयम्) त्या दोन्हीतील (तत्) ज्ञातव्य मर्म काय हे (सह) योग्य रीतीने (वेद) जाणतो, तो (अविद्यया) शरीर आदी. उत्तेतन पदार्थांद्वारे केलेल्या पुरुषार्थाद्वारे (मृत्युम्) मृत्यूचे भय नाम दुःखाला (तीर्त्वा) उल्लंघून जातो आणि (विद्यया) आत्मा आणि शुद्ध अंतःकरण यांत धर्माच्या संयोगाने उत्पन्न यथार्थ ज्ञान व विद्या, याने (अमृतम्) स्वतःच्या नित्य स्वरूपाला वा नित्यस्वरूप परमात्म्याला (अश्नुते) प्राप्त करतो. ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - जे मनुष्य विद्येचे अविद्येचे स्वरूप ओळखून हे जाणतात की या दोन्ही जड चेतन पदार्थांचे साधक मात्र आहेत, ते लोक शरीर आदी अचेतन पदार्थांचा आणि चेतन आत्म्याचा उपयोग धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष यांच्या सिद्धीसाठी करतात. ते लोक लौकिक दुःख दूर सारून परमार्थ-सुख प्राप्त करतात. जर अचेतन प्रकृती आदी कारण आणि शरीर आदी कार्यें असणार नाहीत, तर परमेश्वर सृष्टीची उत्पत्ती कशी करणार आणि जी कर्म, उपासना व ज्ञानप्राप्ती कशी करू शकणार (त्यामुळे चेतन व अचेतन दोन्हीची आवश्यकता यावरून हे सिद्ध होते की केवळ अचेतन (प्रकृती) अथवा केवळ चेतन (ब्रह्म) कार्यसिद्धी होत नाही (दोन्हीची आवश्यकता आहे) तसेच केवळ कर्माने अथवा केवळ ज्ञानाने धर्म पदार्थाची प्राप्ती करण्यात कोणी समर्थ होऊ शकत नाही (कर्म व ज्ञान या दोन्हीची आवश्यकता हेतुसिद्धी करिता आहे) ॥14॥
इंग्लिश (3)
Meaning
He who simultaneously knoweth well these two, knowledge and Action, overcoming death by Action, by knowledge gaineth salvation.
Meaning
One who knows Vidya, i. e. , the constant reality and the knowledge of it, and Avidya, i. e. , illusion, for what it really is, and Karma including the order of change, and knows that Supreme Spirit along with both Vidya and Avidya, masters the reality and meaning of death by Avidya, and realises Immortality by Vidya.
Translation
But he, who pursues worldly knowledge and the spiritual one side by side, overcomes death by worldly knowledge and gains immortality through the spiritual one. (1)
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়ঃ) যে বিদ্বান্ (বিদ্যাম্) পূর্বোক্ত বিদ্যা (চ) এবং তাহার সম্পর্কীয় সাধন উপসাধনগুলি (অবিদ্যাম্) পূর্ব কথিত অবিদ্যা (চ) এবং ইহার উপযোগী সাধনাসমূহকে এবং (তৎ) সেই ধ্যানগম্য মর্ম (উভয়ম্) এই উভয়কে (সহ) সাথেই (বেদ) জানে, সে (অবিদ্যা) শরীরাদি জড় পদার্থ সমূহ দ্বারা কৃত পুরুষার্থ দ্বারা (মৃত্যুম্) মরণ দুঃখের ভয়কে (তীর্ত্বা) উল্লঙ্ঘন করিয়া (বিদ্যয়া) আত্মা ও শুদ্ধ অন্তঃকরণের সংযোগে যে ধর্ম তাহা হইতে উৎপন্ন হওয়া যথার্থ দর্শনরূপ বিদ্যা দ্বারা (অমৃতম্) নাশরহিত নিজের শরীর অথবা পরমাত্মাকে (অশ্নুতে) প্রাপ্ত হয় ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য বিদ্যা ও অবিদ্যাকে ইহার স্বরূপ দ্বারা জানিয়া ইহার জড় চেতন সাধন এমন নিশ্চয় করিয়া সকল শরীরাদি জড়পদার্থ এবং চেতন আত্মাকে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের সিদ্ধি হেতু সঙ্গে প্রয়োগ করিয়া থাকে, তাহারা লৌকিক দুঃখকে ত্যাগ করিয়া পরমার্থের সুখকে প্রাপ্ত হয় । যদি জড় প্রকৃতি আদি কারণ বা শরীরাদি কার্য্য না হয় তাহা হইলে পরমেশ্বর জগতের উৎপত্তি এবং জীব কর্ম্ম, উপাসনা ও জ্ঞান করিতে কেমন করিয়া সক্ষম হইবে? ইহাতে না কেবল জড়, না কেবল চেতন দ্বারা অথবা না কেবল কর্ম দ্বারা তথা না কেবল জ্ঞান দ্বারা কোন ধর্মাদি পদার্থের সিদ্ধি করিতে সক্ষম হয় ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বি॒দ্যাং চাবি॑দ্যাং চ॒ য়স্তদ্বেদো॒ভয়॑ꣳ স॒হ ।
অবি॑দ্যয়া মৃ॒ত্যুং তী॒র্ত্বা বি॒দ্যয়া॒মৃত॑মশ্নুতে ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বিদ্যামিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । স্বরাডুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
বিদ্যাং চাবিদ্যাং চ যস্তদ্বেদোভয়ঁ সহ।
অবিদ্যয়া মৃত্যুং তীর্ত্বা বিদ্যয়ামৃতমশ্নুতে।।৯৭।।
(যজু ৪০।১৪)
পদার্থঃ (যঃ) যে বিদ্বান ব্যক্তি (বিদ্যাম্) পূর্বমন্ত্রে বর্ণিত বিদ্যা (চ) এবং তার সাধন উপসাধনসমূহকে তথা (অবিদ্যাম্) পূর্ব প্রতিপাদিত অবিদ্যা (চ) এবং তার উপযোগী নানা সাধনসমূহ (তৎ উভয়ম্ সহ) উভয়কে একসাথে (বেদ) জানেন, (সঃ) তিনি (অবিদ্যয়া) শরীর আদি জড় পদার্থসমূহের দ্বারা কৃত পুরুষার্থ দ্বারা (মৃত্যুম্) মৃত্যুকে (তীর্ত্বা) অতিক্রম করে (বিদ্যয়া) আত্মা এবং শুদ্ধ অন্তঃকরণের সংযোগরূপ ধর্ম দ্বারা উৎপন্ন যথার্থ জ্ঞান দ্বারা (অমৃতম্) অবিনাশী আত্মস্বরূপকে তথা পরমাত্মাকে (অশ্নুতে) প্রাপ্ত হন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যে বিদ্বান ব্যক্তি বিদ্যা এবং অবিদ্যা উভয়েরই প্রকৃত স্বরূপের যুগপৎ শিক্ষা করেন, তিনিই একমাত্র জন্ম-মৃত্যুর বন্ধন অতিক্রম করে অমৃতত্ব উপভোগ করেন। শুধু কর্ম বা ভোগ বা কেবল জ্ঞান বা চেতনা নয়, উভয়ের স্বরূপ জেনেই সফল হওয়া সম্ভব। যদি জড় (অবিদ্যা) প্রকৃতি আদি কারণবস্তু অথবা শরীর আদি কার্যবস্তু না হত, পরমাত্মা জগতের উৎপত্তি তথা জীব কর্ম, উপাসনা এবং জ্ঞানের প্রাপ্তি কিভাবে করতে পারতেন? এজন্য না কেবল জড় (অবিদ্যার) দ্বারা আর না কেবল জ্ঞান (বিদ্যার) দ্বারা কোন ব্যক্তি ধর্ম, অর্থ, কাম এবং মোক্ষের সিদ্ধি করতে পারে, উভয়েরই প্রয়োজন।।৯৭।।
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