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यजुर्वेद अध्याय - 40
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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 9
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    6838

    अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽस॑म्भूतिमु॒पास॑ते।ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॒ सम्भू॑त्या र॒ताः॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अस॑म्भूति॒मित्यस॑म्ऽभूतिम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सम्भू॑त्या॒मिति॒ सम्ऽभू॑त्या॒म्। र॒ताः ॥९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्धन्तमः प्र विशन्ति येसम्भूतिमुपासते । ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्याँ रताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अन्धम्। तमः। प्र। विशन्ति। ये। असम्भूतिमित्यसम्ऽभूतिम्। उपासत इत्युपऽआसते॥ ततः। भूयऽइवेति भूयःऽइव। ते। तमः। ये। ऊँऽइत्यूँ। सम्भूत्यामिति सम्ऽभूत्याम्। रताः॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 9
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    के जना अन्धन्तमः प्राप्नुवन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    ये परमेश्वरं विहायाऽसम्भूतिमुपासते तेऽन्धन्तमः प्रविशन्ति, ये सम्भूत्यां रतास्त उ ततो भूय इव तमः प्रविशन्ति॥९॥

    पदार्थः

    (अन्धम्) आवरकम् (तमः) अन्धकारम् (प्र) प्रकर्षेण (विशन्ति) (ये) (असम्भूतिम्) अनाद्यनुत्पन्नं प्रकृत्याख्यं सत्वरजस्तमोगुणमयं जडं वस्तु (उपासते) उपास्यतया जानन्ति (ततः) तस्मात् (भूय इव) अधिकमिव (ते) (तमः) अविद्यामयमन्धकारम् (ये) (उ) वितर्केण सह (संभूत्याम्) महदादिस्वरूपेण परिणतायां सृष्टौ (रताः) ये रमन्ते ते॥९॥

    भावार्थः

    ये जनाः सकलज[जगतोऽनादि नित्यं कारणमुपास्यतया स्वीकुर्वन्ति, तेऽविद्यां प्राप्य सदा क्लिश्यन्ति। ये च तस्मात् कारणादुत्पन्नं पृथिव्यादिस्थूलसूक्ष्मं कार्य्यकारणाख्यमनित्यं संयोगजन्यं कार्य्यं जगदिष्टमुपास्यं मन्यन्ते, ते गाढामविद्यां प्राप्याधिकतरं क्लिश्यन्ति तस्मात् सच्चिदानन्दस्वरूपं परमात्मानमेव सर्वे सदोपासीरन्॥९॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    कौन मनुष्य अन्धकार को प्राप्त होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (ये) जो लोग परमेश्वर को छोड़कर (असम्भूतिम्) अनादि अनुत्पन्न सत्व, रज और तमोगुणमय प्रकृतिरूप जड़ वस्तु को (उपासते) उपास्यभाव से जानते हैं, वे (अन्धम्, तमः) आवरण करनेवाले अन्धकार को (प्रविशन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होते और (ये) जो (सम्भूत्याम्) महत्तत्त्वादि स्वरूप से परिणाम को प्राप्त हुई सृष्टि में (रताः) रमण करते हैं (ते) वे (उ) वितर्क के साथ (ततः) उससे (भूय इव) अधिक जैसे वैसे (तमः) अविद्यारूप अन्धकार को प्राप्त होते हैं॥९॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य समस्त जड़जगत् के अनादि नित्य कारण को उपासना भाव से स्वीकार करते हैं, वे अविद्या को प्राप्त होकर क्लेश को प्राप्त होते और जो उस कारण से उत्पन्न स्थूल-सूक्ष्म कार्य्यकारणाख्य अनित्य संयोगजन्य कार्य्यजगत् को इष्ट उपास्य मानते हैं, वे गाढ़ अविद्या को पाकर अधिकतर क्लेश को प्राप्त होते हैं, इसलिये सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा की ही सब सदा उपासना करें॥९॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( ये ) = जो  ( असम्भूतिम् ) = सत्त्व, रजस, तमस् इन तीनों गुणोंवाली अव्यक्त प्रकृति की  ( उपासते ) = उपास्य ईश्वर भाव से उपासना करते हैं, वे  ( अन्धम् तमः ) = आवरण करनेवाले अन्धकार को  ( प्रविशन्ति ) = प्राप्त होते हैं ।  ( ये उ ) = और जो  ( सम्भूत्याम् ) = सृष्टि में  ( रताः ) = रमण करते हैं। उसी में फंसे हैं,  ( ते ) = वे  ( उ ) = निश्चय से  ( ततः ) = उससे भी  ( भूय इव ) = अधिक गहरे  ( तमः ) = अज्ञानरूप अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं ।
     

    भावार्थ

    भावार्थ = जो मनुष्य, समस्त जगत् के प्रकृति रूप जड़ कारण को उपास्य ईश्वर भाव से स्वीकार करते हैं। वे अविद्या में पड़े हुए क्लेशों को ही प्राप्त होते हैं, और जो कार्य जड़ जगत् को उपास्य इष्टदेव ईश्वर जानकर, उस जड़ पदार्थ की उपासना करते हैं, वे गाढ़ अविद्या में फँस कर, सदा अधिकतर क्लेशों को प्राप्त होते हैं। इसलिए सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को ही, अपना पूज्य इष्टदेव जानकर,उसी की ही सदा उपासना करनी चाहिये, किसी जड़ पदार्थ की नहीं।

    अथवा = 'असम्भूतिम्' = इस देह को छोड़कर पुनः अन्य देह में आत्मा प्रकट नहीं होता, ऐसा माननेवाले गाढ़ अन्धकार में पड़े हैं और जो 'सम्भूतिम्' = आत्मा ही कर्मानुसार जन्मता और मरता है, ईश्वर कुछ नहीं है, जो ऐसा माननेवाले हैं, वे नास्तिक उनसे भी अधिक घोर अन्धकार में पड़े हैं।

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    विषय

    सम्भूति और विनाश दोनों का ज्ञान । उन दोनों की उपासना का फल, मृत्यु, मरण और अमृत भोग ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( असंभूतिम् ) सत्व, रजस्, तमस् तीन गुणों वाली अव्यक्त प्रकृति की (उपासते ) उपासना करते हैं वे ( अन्धं तमः) गहरे अन्धकार में (प्रविशन्ति) चले जाते हैं । (ये उ) और जो ( संभूत्याम् ) मरुत् आदि विकारमय सृष्टि में ( रताः) रमण करते हैं, उसी में मग्न हो जाते हैं (ते) वे (ततः) उससे भी (भूय: इव) अधिक गहरे (तमः) अन्धकार में प्रविष्ट होते हैं अर्थात् केवल प्रकृति के उपासक परमानन्द परमेश्वर की आनन्दमय परम ज्योति को प्राप्त नहीं करते, वे जड़ोपासना में मग्न रहते हैं और जो प्रकृति विकारों की ही उपासना करते हैं वे भी सुख नहीं पाते । अथवा - ( असम्भूतिम् ) इस देह को छोड़ कर पुन: आत्मा अन्य देह में उत्पन्न नहीं होता, जो इसी प्रकार मानते हैं वे गहरे अज्ञान में रहते हैं और जो ( सम्भूतिम् ) आत्मा ही कर्मानुसार उत्पन्न होता है मरता है और ईश्वर कुछ नहीं है ऐसा मानते हैं वे उससे भी गहरे अंधकार में पड़ते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्मा । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    विषय

    अँधेरा और घना अँधेरा

    पदार्थ

    १. (‘सम्') = शब्द का अर्थ होता है 'मिलकर' और (भूति) = होना। मिलकर होना, अर्थात् व्यक्तित्व को अलग न समझकर समाज को ही सब कुछ समझना 'सम्भूति' है। इसके विपरीत व्यक्ति को ही प्रधानता दे देना 'असम्भूति' है, इसमें व्यक्ति केवल निजहित को देखता है, सामाजिक हित को वह उपेक्षित कर देता है। २. मन्त्र में कहते हैं कि (ये) = जो (असम्भूतिम्) = व्यक्तिवाद की (उपासते) = उपासना करते हैं, वे (अन्धन्तमः) = घने अँधेरे में (प्रविशन्ति) = प्रवेश करते हैं, ४. परन्तु क्या अकेला समाजवाद कल्याण कर सकता है ? उत्तर यह है कि कल्याण का प्रश्न तो दूर रहा (ये) = जो (सम्भूत्याम्) = समाजवाद में (रता:) = फँसे हुए हैं (ते) = वे (ततः) = उस व्यक्तिवादी की अपेक्षा भूय इव कुछ अधिक ही (तम:) = अँधेरे में [प्रविशन्ति] पहुँचते है। केवल समाजवादियों की गति व्यक्तिवादियों से अधिक हीन होती है। कारण यह कि व्यक्ति को बिलकुल उपेक्षित कर देने के कारण व्यक्ति की उन्नति समाप्त हो जाती है और व्यक्ति ने ही समाज को बनाना है। व्यक्ति की निर्बलता का परिणाम यह होता है कि समाज एकदम निर्बल हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ-व्यक्तिवादी अन्धकार में जाता है तो समाजवादी और भी अधिक अन्धकार में।

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    मन्त्रार्थ

    (ये-सम्भूतिम्-उपासते ) जो जन सम्भूति अर्थात् प्रकृति की उपासना करते है । वे (अन्धन्तमः प्रविशन्ति) घने अन्धकार में प्रवेश करते हैं । (ये-उ) जो ही (सम्भूत्यां रतः) सम्भूति अर्थात् सृष्टि में रत हैं- फंसे हैं (ते) वे (ततः भूयः-इव तमः) उससे भी अधिक जैसे घने अन्धकार में प्रवेश करते हैं ॥९॥

    विशेष

    "आयुर्वै दीर्घम्” (तां० १३।११।१२) 'तमुग्राकांक्षायाम्,' (दिवादि०) "वस निवासे" (स्वादि०) "वस आच्छादने" (अदादि०) श्लेषालङ्कार से दोनों अभीष्ट हैं। आवश्यके ण्यत् "कृत्याश्च" (अष्टा० ३।३।१७१)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे संपूर्ण जड जगाच्या अनादी नित्य कारणाची (प्रकृती) उपासना करतात ती अविद्येत राहून क्लेश भोगतात व जी माणसे त्या कारणापासून उत्पन्न होणाऱ्या स्थूल व सूक्ष्म अनित्य कार्य जगाच्या संयोगाला इष्ट उपास्य मानतात (आणि त्या सृष्टीत रमतात) ते गाढ अविद्येत राहून अधिकात अधिक क्लेश भोगतात म्हणून सर्वांनी सच्चिदानंद स्वरूप परमेश्वराचीच नेहमी उपासना करावी.

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    विषय

    कोणते मनुष्य अंधकारात चाचपडतात, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (ये) जे लोक परमेश्‍वराची उपासना करणे सोडून (असम्भूतिम्) अनादी आणि सत्त्व, रज, तम या गुणांनी युक्त प्रकृतीरूप जड वस्तूची (उपासते) उपासना करतात (प्रकृति अनादि आहे, पण ती जड अचेतन आहे, त्यामुळे जडची पूजा, मूर्तीपूजा त्याज्य व व्यर्थ आहे) ते प्रकृतिपूजक मनुष्य (अन्धम्, तमः) सर्वांना आवृत करणार्‍या (अज्ञानरूप) अंधकारात (प्रविशन्ति) प्रवेश करतात (अज्ञानन्धकारामुळे त्याना सत्य स्वरूप वा उपास्यदेव कोण, याचा निश्‍चय होत नाही) तसेच (ये) जे मुनष्य (संभूत्याम्) महत्त्व आदी रूपाने परिणामात आलेल्या सृष्टीमधे (रताः) रमण करतात (ते) (उ) तेदेखील अवश्यमेव (ततः) त्या (प्रकृतिजनक मनुष्यापेक्षा) (भूय इव) अधिक प्रगाढ अविद्यारूप अंधकारात सापडतात ॥9॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्व अचेतन जगाचे जे नित्य कारण म्हणजे प्रकृती, त्या प्रकृतीला जे लोक उपास्य मानतात, ते अविद्येत गुरफटून दुःख क्लेश भोगतात. तसेच जे त्या कारणरूप प्रकृतीपासून अत्यंत स्थूल सूक्ष्म कार्य कारणरूप अनित्य व संयोगजन्य कार्याला अर्थात् जगाला इष्ट वा उपास्य मानतात, ते अधिक अज्ञानात सापडून त्याहून अधिक दुःख क्लेश भोगतात. यामुळे सर्व लोकांनी केवळ सच्चिदानंद स्वरूप परमेश्‍वराचीच उपासना सदा करावी. ॥9॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Abandoning God, deep into the shade of blinding gloom fall the worshippers of eternal, unborn Matter. They sink to darkness deeper yet who are engaged in the material pleasures of the world.

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    Meaning

    Down into the darkest dark do they fall who worship only the primordial prakriti. Still deeper and darker do they fall who worship only the existential forms and are lost therein.

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    Translation

    Those, who glorify the destructive impulse, fall in the blinding gloom. But those, who run after the creative impulse alone, fall in the gloom darker still. (1)

    Notes

    Asambhūtim, destructive impulse. Sambhūtim, creative impulse.

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    बंगाली (2)

    विषय

    কে জনা অন্ধতমঃ প্রাপ্নুবন্তীত্যাহ ॥
    কে কে মনুষ্য অন্ধকার প্রাপ্ত হয়, এই বিষয়কে পরবর্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যাহারা পরমেশ্বরকে ত্যাগ করিয়া (অসম্ভূতিম্) অনাদি অনুৎপন্ন সত্ব, রজ ও তমোগুণময় প্রকৃতিরূপ জড় বস্তুকে (উপাসতে) উপাস্যভাবপূর্বক জানে তাহারা (অন্ধম্, তমঃ) আবরণকারী অন্ধকারকে (প্রবিশন্তি) উত্তম প্রকার প্রাপ্ত হয় এবং (য়ে) যাহারা (সম্ভূত্যাম্) মহত্ত্বাদি স্বরূপ দ্বারা পরিণাম প্রাপ্ত সৃষ্টিতে (রতাঃ) রমণ করে (তে) তাহারা (উ) বিতর্ক সহ (ততঃ) তাহা হইতে (ভূয়, ইব) অধিক যেমন সেইরূপ (তমঃ) অবিদ্যারূপ অন্ধকার প্রাপ্ত হয় ॥ ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য সমস্ত জড় জগতের অনাদি নিত্য কারণকে উপাসনা ভাবপূর্বক স্বীকার করে তাহারা অবিদ্যাকে প্রাপ্ত হইয়া ক্লেশ প্রাপ্ত হয় এবং যাহারা সেই কারণ হইতে উৎপন্ন স্থূল, সূক্ষ্ম, কার্য্যকারণাখ্য অনিত্য সংযোগ জন্য কার্য্যজগৎকে ইষ্ট উপাস্য স্বীকার করে তাহারা গাঢ় অবিদ্যা প্রাপ্ত করিয়া অধিকতর ক্লেশ পাইয়া থাকে, এইজন্য সচ্চিদানন্দ স্বরূপ পরমাত্মাকেই সকলে সর্বদা উপাসনা করিবে ॥ ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒ন্ধন্তমঃ॒ প্র বি॑শন্তি॒ য়েऽস॑ম্ভূতিমু॒পাস॑তে ।
    ততো॒ ভূয়॑ऽইব॒ তে তমো॒ য়ऽউ॒ সম্ভূ॑ত্যাᳬं র॒তাঃ ॥ ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অন্ধতম ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । আত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    অন্ধং তমঃ প্রবিশন্তি য়েঽসম্ভূতিমুপাসতে ।
    ততো ভূয়ঽইব তে তমো য়ঽউ সম্ভুতাং রতাঃ ।।৯২।।
    (যজু, ৪০।০৯)
    পদার্থঃ (য়ে) যে সকল মানুষ পরমেশ্বরকে ছেড়ে (অসম্ভূতিম্) অনাদি, অনুৎপন্ন সত্ত্ব-রজ-তমগুণাত্মক প্রকৃতি নামক জড় বস্তুকে (উপাসতে) উপাসনীয় বলে জানে, তারা (অন্ধম্) আচ্ছাদনকারী (তমঃ) অন্ধকারে (প্রবিশন্তি) প্রকৃষ্টরূপে প্রবিষ্ট হয়। (য়ে)  যারা (সম্ভূত্যাম্) মহত্তত্ত্বাদি স্বরূপে পরিণত সৃষ্টিতে (রতাঃ) রমণ করে, (তে) তারা (উ) নিঃসন্দেহে (ততঃ) তার থেকেও (ভূয় ইব) অধিকতর (তমঃ) অবিদ্যারূপ অন্ধকারে (প্রবিশন্তি) প্রবিষ্ট হয় ।
     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ যারা সত্ত্ব, রজ, তমোগুণযুক্ত অব্যক্ত প্রকৃতির তথা জড় জগতের অনাদি নিত্য কারণ প্রকৃতির উপাসনা করে, তারা অজ্ঞানের ঘোর অন্ধকারে প্রবেশ করে। আর যারা কারণ প্রকৃতি থেকে সৃষ্ট ব্যক্ত পদার্থের তথা পৃথিব্যাদি স্থূল কার্য প্রকৃতির উপাসনা করে, তারা আরও ঘোরতর অন্ধকারময় স্থানে গতি লাভ করে। তাই সর্বদা সচ্চিদানন্দ পরমাত্মারই উপাসনা করা উচিৎ।।৯২।। 

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