यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 14
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - विद्वांसो देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी जगती,
स्वरः - निषादः
379
वाचं॑ ते शुन्धामि प्रा॒णं ते॑ शुन्धामि॒ चक्षुस्॑ते शुन्धामि॒ श्रोत्रं॑ ते शुन्धामि॒ नाभिं॑ ते शुन्धामि॒ मेढ्रं॑ ते शुन्धामि पा॒युं ते॑ शुन्धामि च॒रित्राँ॑स्ते शुन्धामि॥१४॥
स्वर सहित पद पाठवाच॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। प्रा॒णम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। चक्षुः॑। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। श्रोत्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। नाभि॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। मेढ्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। पा॒युम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। च॒रित्रा॑न्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒ ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचन्ते शुन्धामि प्राणन्ते शुन्धामि चक्षुस्ते शुन्धामि श्रोत्रन्ते शुन्धामि नाभिन्ते शुन्धामि मेढ्र्रन्ते शुन्धामि पायुन्ते शुन्धामि चरित्राँस्ते शुन्धामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाचम्। ते। शुन्धामि। प्राणम्। ते। शुन्धामि। चक्षुः। ते। शुन्धामि। श्रोत्रम्। ते। शुन्धामि। नाभिम्। ते। शुन्धामि। मेढ्रम्। ते। शुन्धामि। पायुम्। ते। शुन्धामि। चरित्रान्। ते। शुन्धामि॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ कथं ता गुरुपत्न्यो गुरवश्च यथायोग्यशिक्षया स्वस्वान्तेवासिनः सद्गुणेषु प्रकाशयन्तीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे शिष्य! विविधशिक्षाभिस्तेऽहं वाचं शुन्धामि, ते प्राणं शुन्धामि, ते चक्षुः शुन्धामि, ते श्रोत्रं शुन्धामि, ते नाभिं शुन्धामि, ते मेढ्रं शुन्धामि, ते पायुं शुन्धामि, ते चरित्रान् शुन्धामि॥१४॥
पदार्थः
(वाचम्) वक्त्यनया तां वाणीम् (ते) तव (शुन्धामि) निर्मलीकरोमि (प्राणम्) प्राणिति येन तं जीवनहेतुम् (ते) (शुन्धामि) (चक्षुः) चष्टेऽनेन तन्नेत्रम् (ते) (शुन्धामि) (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (ते) (शुन्धामि) (नाभिम्) नह्यते बध्यते यथा ताम् (ते) (शुन्धामि) (मेढ्रम्) मेहत्यनेन तदुपस्थेन्द्रियम् (ते) (शुन्धामि) (पायुम्) पात्यनेन तं गुह्येन्द्रियम् (ते) (शुन्धामि) (चरित्रान्) व्यवहारान् (ते) (शुन्धामि)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। २। ६) व्याख्यातः॥१४॥
भावार्थः
गुरुभिर्गुरुपत्नीभिश्च वेदोपवेदवेदाङ्गोपाङ्गशिक्षया देहेन्द्रियान्तःकरणात्ममनःशुद्धिशरीरपुष्टिप्राण- सन्तुष्टीः प्रदाय सर्वे कुमाराः सर्वाः कन्याश्च सद्गुणेषु प्रवर्त्तयितव्या इति॥१४॥
विषयः
अथ कथं ना गुरुपत्न्यो गुत्वश्च यथायोग्यशिक्षया स्वस्वान्तेवासिनः सद्गुणेषु प्रकाशयन्तीत्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे शिष्य ! विविधशिक्षाभिस्ते तव अहं वाचं वक्त्यनया तां वाणीं शुन्धामि निर्मलीकरोमि,ते तव प्राणं प्राणिति येन तं जीवनहेतुंशुन्धामि निर्मलीकरोमि,ते तव चक्षुः चष्टेऽनेन तन्नेत्रं शुन्धामि निर्मलीकरोमि,ते तव श्रोत्रं शृणोति येन तत् शुन्धामि निर्मलीकरोमि, ते तव नाभिं नह्यते=बध्यते यथा तां शुन्धामि निर्मलीकरोमि, ते तव मेढ्रं मेहत्यनेन तदुपस्थेन्द्रियं शुन्धामि निर्मलीकरोमि,ते तव पायुं पात्यनेन तं गुह्येन्द्रियं शुन्धामि निर्मलीकरोमि,ते तव चरित्रान् व्यवहारान् शुन्धामि निर्मलीकरोमि ॥ ६ । १४।। [हे शिष्य! विविधशिक्षाभिस्तेऽहं वाचं, प्राणं, चक्षुः, श्रोत्रं, नाभिं, मेढ्रं, पायुं, चरित्रान् शुन्धामि]
पदार्थः
(वाचम्) वक्त्यनया तां वाणीम् (ते) तव (शुन्धामि) निर्मलीकरोमि (प्राणम्) प्राणिति येन तं जीवनहेतुम् (ते) (शुन्धामि ) (चक्षुः) चष्टेऽनेन तन्नेत्रम् (ते) (शुन्धामि) (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (ते) (शुन्धामि) (नाभिम्) नह्यते=बध्यते यथा ताम् (ते) (शुन्धामि) (मेढ्रम्) मेहत्यनेन तदुपस्थेन्द्रियम् (ते) (शुन्धामि) (पायुम्) पात्यनेन तं गुह्येन्द्रियम् (ते) (शुन्धामि) (चरित्रान्) व्यवहारान् (ते) (शुन्धामि)॥अयं मंत्र: शत० ३।८।२।६ व्याख्यातः॥ १४॥
भावार्थः
गुरुभिर्गुरूपत्नीभिश्च वेदोपवेदवेदाङ्गोपाङ्गशिक्षया देहेन्द्रियान्तःकरणात्मनःशुद्धिशरीरपुष्टिप्राणसन्तुष्टीः प्रदाय, सर्वे कुमारा: सर्वा: कन्याश्च सद्गुणेषु प्रवर्त्तयितव्या इति ।।६ । १४।।
विशेषः
मेधातिथि:। विद्वांसः=स्पष्टम् ॥ भुरिगार्षी जगती। निषादः ॥
हिन्दी (5)
विषय
अब वे गुरुपत्नी और गुरुजन यथायोग्य शिक्षा से अपने-अपने विद्यार्थियों को अच्छे-अच्छे गुणों में कैसे प्रकाशित करते हैं, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे शिष्य! मैं विविध शिक्षाओं से (ते) तेरी (वाचम्) जिस से बोलता है, उस वाणी को (शुन्धामि) शुद्ध अर्थात् सद्धर्मानुकूल करता हूं। (ते) तेरे (चक्षुः) जिस से देखता है, उस नेत्र को (शुन्धामि) शुद्ध करता हूं। (ते) तेरी (नाभिम्) जिस से नाड़ी आदि बांधे जाते हैं, उस नाभि को (शुन्धामि) पवित्र करता हूं। (ते) तेरे (मेढ्रम्) जिससे मूत्रोत्सर्गादि किये जाते हैं, उस लिङ्ग को (शुन्धामि) पवित्र करता हूं। (ते) तेरे (पायुम्) जिस से रक्षा की जाती है, उस गुदेन्द्रिय को (शुन्धामि) पवित्र करता हूं। (चरित्रान्) समस्त व्यवहारों को (शुन्धामि) पवित्र शुद्ध अर्थात् धर्म के अनुकूल करता हूं, तथा गुरुपत्नी पक्ष में सर्वत्र ‘करती हूं’ यह योजना करनी चाहिये॥१४॥
भावार्थ
गुरु और गुरुपत्नियों को चाहिये कि वेद और तथा वेद के अङ्ग और उपाङ्गों की शिक्षा से देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण और मन की शुद्धि, शरीर की पुष्टि तथा प्राण की सन्तुष्टि देकर समस्त कुमार और कुमारियों को अच्छे-अच्छे गुणों में प्रवृत्त करावें॥१४॥
विषय
प्राणन्ते मे शुन्धामि
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
आओ, मेरे प्यारे! आज मैं यागों के सम्बन्ध में कोई विशेष चर्चा तो नहीं, परन्तु हमारे यहाँ सृष्टि के प्रारम्भ से ले करके वर्तमान के काल तक यागों का चयन ऋषि मुनियों के मस्तिष्कों में नृत्य करता रहा है। विद्यालय में ब्रह्मचारी अध्ययन कर रहा है, परन्तु उसको सबसे प्रथम यह उपदेश देते हैं कि हे ब्रह्मचारी! तू याग में परिणित हो जा। मुझे स्मरण है, जब महर्षि को उनके पितर रेंगणी भारद्वाज ने जब मानो देखो, महर्षि तत्त्व मुनि आश्रम में उन्हें प्रवेश कराया तो सबसे प्रथम उन्होंने यह कहा चक्षुम्मे शुन्धामि, हे ब्रह्मचारी! तू मानो चक्षु में ब्रह्मचारी है। आओ, मानो यज्ञोमयी याग का संकल्प करो कि तुम्हारी प्रत्येक इन्द्रियाँ यागमय होनी चाहिए। चक्षुम्मे शुन्धामि, श्रोत्रम्मे शुन्धामि ,जब प्रत्येक इन्द्रिय को आचार्य अपनी आभा में निहित कर लेता है, तो मानों वही आचार्य ब्रह्मचारी को पवित्र बनाता है, यज्ञोमयी बना देता है।
मानो वही ब्रह्मचारी को पवित्र बनाता हुआ, वह गो मेध याग हो रहा है। क्योंकि गो और मेध दो ही शब्द हैं, जो मानव के जीवन में सार्थक बन करके आते हैं। मानो गो नाम पशु का है और मेधनाम प्रकाश में रत्त रहने वाला है, वहाँ प्रकाश है। तो मानो देखो, गो मेध भविते ब्रह्म ब्रव्हा कि गो से मेधावी की वह उड़ान उड़ता है, गो से मेधा को प्राप्त करता है। मानो जब वह मेधावी बन जाता है, तो उसका जीवन यज्ञ में परिणित हो जाता है, यज्ञ में ही ओत प्रोत हो जाता है। यज्ञोमयी संकल्प ब्रहे , क्योंकि हमारे यहाँ आचार्यो ने प्रारम्भ में ही मानो देखो, याग का वर्णन किया कि ब्रह्मचारी को याग करना चाहिए। याग क्या यहाँ तक ऋषि ने कहा है कि वागृति वाचप प्रहे लोकाम् मानो वह गार्हपथ्य नाम की अग्नि की पूजा करे।
तो मुनिवरों! देखो, राम मौन हो गये। जब राम मौन हो गएं तो वह सांत्वना हो करके दोनों उस ब्रह्मयाग में पुनः परिणत हो गये, क्योंकि संध्या का काल था, अपने में संध्या की प्रवृत्ति में निहित हो गये। जैसे रात्रि और दिवस दोनों का जब समन्वय होता है। तो मुनिवरों! देखो, उसे सन्धि का काल कहते हैं। वह प्रभु के मिलन का काल होता है, जैसे प्रभु और भक्त दोनों का मिलान होता है, उसे भी सन्धिकाल कहते हैं। प्रातःकालीन जब रात्रि का क्षय होता है, दिवस का उदय होता है, उसको भी हमारे यहाँ सन्धि का काल कहते हैं। मेरे प्यारे! देखो, जब माता और पिता शास्त्रीय दृष्टि से यह विचारते हैं कि हमें पुत्र की उत्पत्ति करनी है। जब दोनों का मिलन होता है अपने संकल्प के द्वारा उसे भी सन्धि काल कहते हैं। जब भक्त और देखो, गुरु और शिष्य दोनों का मिलन होता है, आचार्य कहता है आओ, ब्रह्मचारी मैं तुम्हें ब्रह्मं वृतां देवाः तुम मुझे चक्षु में शुन्धामि कर, वह शुन्धामि कर देता है। जब दोनों का मिलन होता है तो उसी को संध्या काल कहते हैं। संध्याकाल उसे कहते हैं जहाँ सन्धि होती है, जब माता अपने पुत्र को शिक्षा देना प्रारम्भ करती है, गर्भाशय से लेकर के लोरियों तक वह महान् बना देती है तो माता का वह सन्धिकाल कहलाता है।
तो वहाँ गो नाम इन्द्रियों का माना है, और जहाँ गो नाम बेटा! विद्यालय में जब प्रवेश होते हैं, तो मुझे बेटा! स्मरण आता रहता है क्या जब गो वर्णनं ब्रह्मे भगवान राम जब तपस्या कर रहे हैं, तो ऋषि मुनि अंग संग विद्यमान हो करके विवेचनाएं हो रही है और वह मानो देखो, अन्नां ब्रहे व्रतुता वह ग्रहण कर रहे है, ऋषि मुनियों के जो अनुपम विचार है, ऋषि मुनियों की जो एक विचारधारा है, गो नाम मुनिवरों! देखो, जब विद्यालय में जाते हैं तो गो नाम मेरे प्यारे! देखो, गो ब्रह्वे वर्णनं मेधाम यहाँ गो मेध बन जाता है। मेरे प्यारे! देखो, गो नाम देखो, अन्धकार को कहा गया है, तो तम ब्रह्मणं व्रतं देवत्वां ब्रह्मणे मुनिवरों! देखो, तमं ब्रह्मा वर्णसुतं वेद का आचार्य, वेद का ऋषि कहता है वेदमन्त्र कहता हैं क्या मुनिवरों! देखो, अमृतां प्रकाशं ब्रह्वे जिन ब्रह्मचारियों को देखो, पशु से प्रकाश में, मेध में, बुद्धि में परिणत कर दिए जाते हैं, आचार्य जन के समीप ब्रह्मचारी अंग संग विद्यमान हैं, और ब्रह्मचारियों को वह शिक्षा दे रहे है, हे ब्रह्मचारियों! तुम अपनी इन्द्रियों के विषय को मानो मुझे परिणत कर दो, जिससे तुम्हे ज्ञान हो जाएं, मेरे प्यारे! वह कहता है कि चक्षुम्मे शुन्धामि, प्राणम्मे शुन्धामि, सर्वत्र इन्द्रियों को जो नृत्त है। बेटा! वह मुझे प्रदान कर दो बेटा! देखो, ब्रह्मचारी आचार्य के गर्भ में विद्यमान हो जाते हैं। ब्रह्मचारी इन्द्रियों के विषयों का शोधन कर देता है और वह कहता है हे ब्रह्मचारी! तीन दिवस मानो देखो, त्रि वर्धा का वह ज्ञान करा देता है ब्रह्मचारी तुम्हारी जो इन्द्रियाँ हैं मानो वह मानो देखो, तीन प्रकार के ज्ञान और विज्ञान को अपने में अनुभव करने वाले बनें मानं ब्रह्वे तो मानो देखो, वह गो मेध में परिणत करा रहा है, आचार्य मुनिवरों! देखो, गो मेधावी में परिणत करता था, यहाँ गो नाम बेटा! ब्रह्मचारी का है, क्योंकि वह पशु हैं, और मेध में जब परिणत करा देता है, मेध नाम प्रकाश का है, तो मानो देखो, गौ मेधां भू वर्णनं वह मेधावी ब्रह्मचारी को बना देता है। तो मुनिवरों! देखो, जब विद्यालय में गो शब्द आता है तो वहाँ इन्द्रियों का नाम मेरे प्यारे! देखो, गो शब्द आता है। ब्रह्मचारी को मेधां भू वर्णनं मुनिवरों! देखो, वह गो कहते हैं, और वह गो नाम को जब अपने में धारण कर लेता है, तो ब्रह्मचारी अपने में धन्य हो जाता है। आचार्य के चरणों में विद्यमान हो करके वह ब्रह्मचारी कहता है प्रभु! मैं मानो देखो, अपने को मैं गार्हपथ्य नाम की अग्नि में ले जाना चाहता हूँ, तो आचार्य कहता है कि यह जो गार्हपथ्य नाम की अग्नि है, ये तुमने नामोकरण ही श्रवण किया हैं, या इसको जाना भी है ब्रह्मचारी कहता है प्रभु! मैं आपके समीप आया हूँ मुझे आप गो मेध अग्नि का वर्णन कर दीजिए, क्योंकि मैं गो मेध मेधां ब्रह्वा, मैं गार्हपथ्य नाम की अग्नि में उसके पश्चात प्रवेश करूंगा। मुनिवरों! देखो, वह ब्रह्मचारी मुनिवरों! देखो, आचार्य दोनों विद्यमान हो करके जब गो मेधावी बना देता है, उसके पश्चात मेधावी बन करके वही ब्रह्मचारी, मुनिवरों! देखो, ब्रह्मणे व्रतं वह गार्हपथ्य नाम की अग्नि, में चला जाता है गार्हपथ्य नाम की अग्नि वह अग्नि कहलाती है जिस अग्नि में ब्रह्मचारी तपता है और ब्रह्मचारी नाना रूप बन जाते हैं, बेटा! वह ब्रह्मचारी वह ब्रह्मचरिष्यामि बनता है। बेटा! ब्रह्म को अपने में और चरी को धारण करता हुआ मुनिवरों! देखो, वह गार्हपथ्य अमृतां गार्हपथ्य नाम की अग्नि का पूजन करने लगता है, वह जो अन्तर्हृदय से अग्नि का भाव उत्पन्न हो जाता हैं और बाह्य अग्नि से उसका समावेश, दोनों अग्नियों का जब समावेश हो जाता है तो बेटा! बाह्य जगत का जो ज्ञान विज्ञान है आन्तरिक जो आत्मा से जो तरंगों का जन्म होता हैं, उन दोनों का जब समन्वय कर लेता है, तो बेटा! वह ब्रह्मचारी मानो देखो, ब्रह्मवर्चोसि बन जाता हैं, और ब्रह्मवर्चोसि बन करके वह ब्रह्म में तल्लीन हो जाता है। तो मुनिवरों! देखो, ब्रह्मणा व्रतं देवाः ब्रह्मचरिष्यामि मुनिवरों! देखो, वह ब्रह्मचारी है तो आगे वेद का ऋषि जब ये कहता है हे ब्रह्मचारी! तू गार्हपथ्य नाम की अग्नि में प्रवेश हो गया है, तू अब मानो याग कर। देखो, उन्होंने कहा प्रभु! बहुत प्रियतम और वह ये पूर्णेष्टि याग उन्होंने किया और जब पूर्णेष्टि याग किया तो उन्होंने कहा ब्रह्मचारी जानते हो कि पूर्णेष्टि याग क्या होता हैं? उन्होंने कहा प्रभु! मैं नही जानता और एक याग होता अमावेष्टि याग कहलाता हैं, मानो पूर्णेष्टि याग वह कहलाता हैं।
मेरे प्यारे! ऐसा मुझे स्मरण आता रहता है, ऐसा मुझे प्रतीत हुआ कि वह घ्राण उद्गीत गा रही थी। क्या गा रही थी? कि प्राण ध्वनि होती थी उस ध्वनि को वह अपने में ग्रहण कर रही थी। जब वह ग्रहण कर रही थी, तो पृथ्वी के सर्वत्र ब्रह्माण्ड की आभा मानो पृथ्वी का जितना ज्ञान और विज्ञान था उसके समीप आ रहा था। वह उसके समीप आने लगा। मानो देखो, उसमें वह तत्परता को अपनी आभा में ही छेदन होने लगा। तो मेरे प्यारे! विचार आता है, शान्तनि कृताम् देवाः हिरण्यम् गच्छत् प्रवहेः। मेरे प्यारे! वही घारण जो देवतव का उद्गीत गा रही थी, सुगन्धि ही ले रही थी। खनिजों में पृथ्वी के द्वार, पृथ्वी के गर्भ में प्रवेश हो गई थी, वही मेरे पुत्रो! स्वार्थ आते ही असुरों ने उसे छेदन कर दिया और वह ध्रुवा गति को प्राप्त हो गई। ध्रुवा गति को प्राप्त हो गई तो अब ऋषि मौन हो गए। ऋषि ने विचारा कि यह स्वार्थपरता नहीं होनी चाहिए।
अब ऋषि साधना कर रहा है। साधना में अनुभव कर रहा है, मानो योग में प्रवेश कर रहा है, योग का अनुभव कर रहा है। कि योग में जाने के लिए कौन कौन सी वस्तु ऐसी है, जो योग से हमें दूरी ले जाता है, योग में पारायणता को प्राप्त नहीं होने देतीं। तो मेरे पुत्रो! ऋषि अब विचारने लगा। चक्षु के द्वार पर पहुंचा कि हे चक्षु! तू मेरा उद्गाता बन। हे चक्षु! तू मेरा उद्गाता बन करके उद्गीत गा। तो चक्षु उद्गीत गाने लगा। जब चक्षु उद्गीत गाने लगा। अब चक्षु ने उद्गीत गाया, वह सदैव शुद्ध पवित्र दृष्टिपात करती रही। अशुद्ध दृष्टिपात ही नहीं करती थी। जहाँ भी वह दृष्टि जाती वहीं प्रभु की प्रतिभा दृष्टिपात आने लगती। सुन्दरी को दृष्टिपात किया जाता उस सुन्दरी में भी प्रभु की ही प्रतिभा दृष्टिपात होती। सुन्दरी सुन्दरता को दृष्टिपात करके, वहाँ भी प्रभु की आभा उसे प्राप्त होने लगी। जब प्राप्त होती रही दृष्टिपात करते हुए ब्रह्माण्ड में परिणत हो गई। परिणाम यह हुआ कि उद्गीत गाता रहा। उद्गाता बन करके। इस मानव शरीर रूपी जो यज्ञशाला है, इस यज्ञशाला में बेटा! उद्गीत गाने वाला कौन है? कौन होता बन करके, कौन उद्गीत गा रहा है बेटा! वह चक्षु हैं, वे नेत्र हैं।
मेरे प्यारे! देखो, जब नेत्रों में कुछ समय के पश्चात् स्वार्थपरता आने लगी। जब स्वार्थपरता आने लगी तो अशुद्ध दृष्टिपात करने लगा। संकीर्णता में परिणतता प्रतीत होने लगी। तो मेरे प्यारे! वहाँ भी असुरों ने नेत्रों को छेदन कर दिया। क्योंकि असुरों को यह ज्ञान था कि देवता हमें विजय करना चाहते हैं। तो मुनिवरों! देखो, जब उसमें स्वार्थपरता जहाँ आई, वहीं असुरों ने उसको छेदन कर दिया तो जहाँ शुद्ध दृष्टि प्राथमिकता में ही दृष्टिपात कर रहा था, वहाँ नेत्रों के द्वारा बेटा! स्वार्थ आते ही मेरे प्यारे! वह अशुद्ध दृष्टिपात करने लगा। जब करने लगा उसी के पश्चात् ब्रह्माः कृत देवाः। असुरों ने बेटा! छेदन कर दिया। मानो उद्गीत समाप्त हो गया। वे नाना चरणों में परिणत हो गया। क्योंकि इस समाज में जब स्वार्थ आ जाता है तो रक्तमय जीवन बन जाते हैं। इन्द्रियों में जब स्वार्थपरता आ जाती है तो मेरे प्यारे! इन्द्रिय इन्द्रिय नहीं रहती। उसमें दोनों प्रकार की आभा परिणत हो जाती है।
आओ मेरे प्यारे! योग में जो बाधक वस्तु है, वह सबसे प्रथम स्वार्थपरता कही जाती है। आचार्य ने, जब मार्कण्डेय ऋषि ने यह विचारा कि यहाँ इसमें सूक्ष्मता है, तो वह श्रोत्रों के द्वार पर पहुंचा और श्रोत्रों से कहा हे श्रोत्रों! आओ तुम मेरी यज्ञशाला में विद्यमान हो करके तुम उद्गाता बनो। मेरा उद्गीत गाने वाले बनो। अब उद्गीत गाने लगे। उन्होंने यथार्थ सुन करके उद्गीत गाना प्रारम्भ किया और उद्गीत गाता रहा। श्रोत्रों में जो भी शब्द आता वहीं शब्द दर्शनों से घटित होने लगा। वह अन्तःकरण में शिक्षाम् देवात्राहस्तहिः वह चित्त में विद्यमान होने लगा। उन श्रोत्रों का सम्बन्ध नाना प्रकार की दिशाओं से अर्पित हो गया और अर्पित हो जाने के पश्चात् जो भी शब्द आता रहा, उसी शब्द में मेरे पुत्रो! वास्तविकता घटित होने लगी। दार्शनिकता में परिणत होने लगा। परिणाम यह हुआ कि मानत्रहिः कृताम् देवत्याम् लोकाः। मेरे पुत्रों! लोक लोकान्तरों में जाना प्रारम्भ अथवा उत्थान हो गया। लोकों में जाना ही उसका उत्थान हो गया। परिणाम मेरे पुत्रो! उसमें स्वार्थपरता आ गई। जहाँ वह शुद्ध शब्दों को ग्रहण कर रहा था। जहाँ उद्गीत गा रहा था वहाँ मेरे प्यारे! अशुद्धता को ग्रहण करने लगा। जब अशुद्धता को ग्रहण करने लगा तो वहाँ मुनिवरों! अशुद्धता आ गई। अशुद्धता आ करके उसी काल में मेरे प्यारे! असुरों को जब प्रतीत हुआ असुरों ने श्रोत्रों को छेदन कर दिया। उद्गीत गाना प्रायः समाप्त हो गया। अब वह अशुद्ध शब्दों को ग्रहण करने लगा। परिणाम वेद का ऋषि यह विचारने लगा कि यौगिकता के लिए, सन्ध्या में जाने के लिए स्वार्थपरता ही हमारे लिए बाधक है। जो अशुद्धता में ले जाती है। तो मेरे पुत्रो! अब्रह्मः कृतम् देवः। ऋषि यह चिन्तन करने लगा, मनन करने लगा कि हमारे यहाँ जहाँ ये श्रोत्र भी हैं मेरे प्यारे! असुरों ने इनको छेदन कर दिया है। और वो छेदनता क्यों होती है? क्योंकि वह स्वार्थपरता से होती है। इसीलिए स्वार्थ नहीं होनी चाहिए।
मेरे प्यारे! ऋषि मौन हो गया। अब ऋषि ने विचारा मैं किसके द्वार पर जाऊँ? मैं किसको यज्ञशाला का दूत बनाना प्रारम्भ करूं? मेरे प्यारे वे रसना के द्वार पर पहुंचे। मेरे प्यारे! रसना से नतमस्तिष्क हो करके बोले, हे रसना! तू मेरा उद्गीत गा। रसना ने कहा, बहुत प्रियतम वह उद्गीत गाने लगी। वह वाणी से क्या? स्वादन से ऊँचे, ऊर्ध्वागति वाले रसों का पान करता रहा, पान करते करते बेटा! देखो, उसमें भी कुछ समय के पश्चात् स्वार्थपरता आते ही असुरों ने यह जान लिया कि देवता तुम्हें रसना के द्वारा, रसों के द्वारा विजय करना चाहते हैं। तो मेरे प्यारे! असुरों ने वाणी को छेदन कर दिया। वाणी को छेदन कर दिया तो बेटा! रसों के दो स्वरूप बन गए। रसों का विभाजन बन गया। स्वार्थपरता आते ही बेटा! विभक्तता बन गई। तो इसीलिए वेद के आचार्यों ने अनुसन्धान किया और विचार विनिमय करके बेटा! मार्कण्डेय ऋषि महाराज चिन्तन में लगे कि अब मैं क्या करूं? तो कहते हैं कि असुरों को विजय करना है। अब असुरों को हम विजय कैसे कर सकते हैं। क्योंकि बिना असुरों को विजय किए हम यौगिकता में प्रवेश नहीं कर सकते। हम यौगिकता में जाना चाहते हैं और आध्यात्मिकवाद को जानना चाहते हैं। आध्यात्मिकविज्ञान में प्रवेश होना चाहते हैं। तो हम कैसे जा सकते हैं? जब तक हम असुरों का छेदन नहीं करेंगे तब तक हमारा जीवन किसी भी काल में ऊँचा नहीं बनेगा।
तो मेरे पुत्रो! महर्षि मार्कण्डेय ऋषि महाराज चिन्तन करने लगे। मनन करने लगे। रात्रि समाप्त हो गई। दिवस आ गया, दिवस भी समाप्त हो गया। अन्न की भी इच्छा नहीं हो रही थी। ऋषि को। इतने में ही स्वदेष्टय ऋषि महाराज उनके द्वार पर आए। स्वादेष्टय ऋषि महाराज बोले, कहो! मार्कण्डेय जी! आज आप आसन को नहीं त्याग रहे हो। रात्रि समाप्त हो गई है दिवस भी समाप्त हो गया है। क्या कारण है प्रभु? मार्कण्डेय ऋषि महाराज बोले, महाराज! मैं अपनी शरीर रूपी यज्ञशाला का उद्गीत बनाना चाहता था। मैं उद्गीत गाना चाहता था। अहा! प्रत्येक इन्द्रिय के दो स्वरूप बन जाते हैं। असुरों को विजय करना चाहता था। देवताओं को महान् बनाने की इच्छा बनी रही और वे नहीं बन सके। परिणाम यह है कि मैं मौन हो गया हूँ। चिन्तन कर रहा हूँ कि मैं संधि चाहता हूँ जिस वस्तु का विभाजन हो गया है। मैं ये विचार रहा हूँ जिस वस्तु का विभाजन हो गया है। मैं ये विचार रहा हूँ कि कौन सी वस्तु है? जो सन्धि नहीं होने देती।
मेरे प्यारे! ऋषि ने एक ही वाक्य कहा है कि यह जो स्वार्थपरता है, यह मानव की सन्धि नहीं होने देती। जब तक मानव की प्रवृत्तियों में मेरे पुत्रो! अकृताम् देवाः जब तक स्वार्थपरता विचारों में बनी रहती है, तब तक हमारी सन्धि किसी भी काल में नहीं होती। सन्धि उसी काल में होती है, जब हमारे हृदय में यौगिकता आ जाती है और यौगिकता आ करके स्वार्थपरता समाप्त हो जाती है। मेरे प्यारे! इन्द्रियों के विषयों का हम साकल्य उसी काल में बना सकते हैं, जब तक हमारा विचार बाह्य जगत् का आन्तरिक जगत् में उसी रूप में प्रवेश हो जाए, तो वह हमारी सन्धि हो जाती है। अब मेरे पुत्रो! देखो, मोक्ष के मार्ग पर जाने के लिए गति करना प्रारम्भ कर देते हैं। क्योंकि मोक्ष को जाना ही मानव का कर्त्तव्य माना गया है। प्रत्येक मानव सन्धि इसीलिए चाहता है कि मेरा मोक्ष हो जाए। प्रत्येक मानव सन्ध्या में इसीलिए प्रवेश होना चाहता है कि मेरा प्रभु से मिलन हो जाए। चेतना में चेतना का मिलान हो करके, मैं सर्वत्ररूप एक चेतना के स्वरूप को दृष्टिपात करता रहूँ।
आओ मेरे पुत्रो! मैं अपने विचारों को उच्चारण करता हुआ दूर चला गया हूँ। विचार यह देने जा रहे थे कि हमारी संध्या क्या है? मुनिवरों! दो वस्तुओं का इस संसार में विभाजन हो गया है और वह जो विभक्तता है, वह केवल मन और प्राण की हो गई है। अब दोनों का जो सन्धिकाल होता है, दोनों का जब मिलन होता है तो मेरे पुत्रों! हम आध्यात्मिक मार्ग के लिए गमन करते हैं। आध्यात्मिकवाद में जाना ही हमारा कर्त्तव्य है। अब एक ऋषि एक स्थली में तो यह विचार कर रहा है कि मेरा सन्धिकाल होना चाहिए।
अपने में ही मानो मार्कण्डेय जैसे ऋषि ये विचार रहे हैं कि हमारी प्रकृति से भी मिलन होना चाहिए। प्रकृति है विभक्तम् ब्रह्मः वृताम् देवाः। यह जो हमारा प्रकृति से विच्छेद हो गया है। परमाणुवाद एक परमाणुवादों का समूह बन करके एक स्थूल जगत् बन गया है। एक परमाणुओं का विभाजन हो करकै, इस ब्रह्माण्ड में ओत प्रोत या अन्तरिक्ष में ओत प्रोत हो करके नाना प्रकार के परमाणु हमें दृष्टिपात होते हैं। वे परमाणु त्रसेणुओं के रूप में हमें दृष्टिपात होते हैं आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ता तो यह चाहता है कि स्वार्थपरता नहीं होनी चाहिए। भौतिक विज्ञान वेत्ता यह चाहता है कि मैं इस प्रकृतिवाद को जान करके अन्त के छोर को जाना चाहता हूँ। मेरे प्यारे! वह परमाणुओं में लगा हुआ है। एक परमाणु से दूसरे परमाणु का मिलान करता रहता है। और करता करता उनमें सर्वत्र सृष्टि को दृष्टिपात करता रहता है।
एक समय महर्षि मार्कण्डेय ऋषि महाराज, महर्षि सोमकृतिक ऋषि महाराज, ब्रह्मचारी कवन्धी और स्वांतत ऋषि महाराज ये विद्यमान थे और विद्यमान हो करके उन्होंने एक परमाणु की जानकारी की। और उस परमाणु का जब विभाजन करके उसमें सर्वत्र ब्रह्माण्ड का बेटा! देखो, सर्वत्र ब्रह्माण्ड एक ही परमाणु के विभक्त होते ही विभाजन होकर के उसका अक्षत उसमें दृष्टिपात होने लगा। परिणाम यह कि उन्होंने यह विचारा कि एक एक परमाणु में सर्वत्र संसार की रचना होती, ऋषियों को दृष्टिपात होती। उससे उन्होंने अग्नि का, अग्नि परमाणुओं को पृथक किया। अग्नि तत्त्व वाले परमाणुओं को पृथक् करके आग्नेयास्त्रों का निर्माण करने लगे। वायु में अग्नि का मिलान करना प्रारम्भ किया। तो उससे ऐसे यन्त्रों की उत्पत्ति हुई वे बाह्य जगत् में इस अन्तरिक्ष में, और लोक लोकान्तरों में गति करने वाले बने मेरे पुत्रो! देखो, वास्तविकता यह थी कि परमाणु जब उन्होंने एकत्रित करने प्रारम्भ किए, तो समुद्रों में, जलों में, जल की आन्तरिकता में गति करना, उन्होंने प्रारम्भ किया। परिणाम भौतिक विज्ञानवेत्ता यह चाहता रहता है कि मैं एक एक परमाणुओं को जान करके, एक एक अणुओं को जान करके प्रकृतिवाद को जानना चाहता हूँ। परंतु प्रकृतिवाद का परमाणु, एक उत्पन्न होता है, एक की जानकारी होती है द्वितीय उपस्थित हो जाता है। वह द्वितीय जैसे ही उपस्थित हो गया। तृतीय की जानकारी की इसी प्रकार वह उस अन्त को, छोर को नहीं जा पाता। इससे मानव की प्रवृत्तियों में विभाजन होना प्रारम्भ हो जाता है। इतने में उस विज्ञान में भौतिकवाद में, संकीर्णावाद प्रारम्भ हो जाता है। उसमें वह ज्ञानाति जन्मदण्डः ब्रह्मः लोकाः। उसमें ब्रह्म लोक में जाने की प्रवृत्ति नहीं रहती। वह केवल उन्हीं परमाणुओं में लगा रहता है। उन्हीं चित्रावलियों में लगा रहता है। लगे रहने का परिणाम यह होता है कि उसी में उसका जो शरीर आनन्द्रतम् देवाः का शरीरान्त हो जाता है। शरीरान्त हो करके उसी प्रवृत्ति में जन्म ले करके पुनः उसी में परिणत हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह अस्त्रों शस्त्रों में लगा रहता है। राष्ट्र को वह सम्पदा देता रहता है। वह मानव को नष्ट करने की सामग्री का निर्माण कर रहा है कहीं जीवन उत्पन्न नहीं होता।
मेरे प्यारे! जब ऋषियों ने बहुत अनुसन्धान किया तो यही विचारा कि यह जो भौतिकवाद है, इसमें मानव को जीवन प्राप्त नहीं होता। इसमें विकृतता प्राप्त होती है। विभक्त क्रिया प्राप्त होती है। तो मेरे प्यारे! जितना भौतिकवाद में मानव प्रवेश करता है, उतनी ही मानव में विभक्तता ओत प्रोत हो जाती है। क्योंकि उसमें अभिमान पूर्वक यंत्रों की उत्पत्ति होती रहती है। क्योंकि जितना भी मानव विभाजन करता रहता है जानकारी करता रहता है उतना आध्यात्मिकवाद नहीं होता दोनों के मिलन होने की प्रवृत्ति नहीं होती। उसमें तो केवल विभाजन हो रहा है और वह जो विभक्त क्रिया है, वही इस मानव को ऐसे ढेर पर ले जाती है, जहाँ उसके प्राण, शरीर भी अन्तिमता को प्राप्त हो जाता है। पुनः आता है पुनः उसी में परिणत हो जाता है। मेरे प्यारे! परिणाम यह कि जन्म जन्मान्तर व्यतीत हो जाते हैं। मेरे प्यारे! प्रकृतिवाद में वह अपनी साधना को प्राप्त नहीं कर रहा है। वह केवल एक आभा में लगा हुआ है। ऋषि मार्कण्डेय महाराज का यह अन्तिम विचार है। उन्होंने कहा है कि हम दोनों प्रकार के विज्ञान को जानना चाहते हैं, परन्तु एक विज्ञान मानव की संधि नहीं होने देता। एक स्थलीयुक्त विज्ञान ऐसा है जो संधि होने देता है। तो इसीलिए दोनों प्रकार का विज्ञान जब मानव के समीप आता है तो भौतिकवाद और आध्यात्मिकवाद। आध्यात्मिकवाद तो देखो, संधि को कहते हैं। और भौतिकवाद विभक्तक्रिया को कहते हैं। विभक्त क्रिया आती रहती है। अन्तर में अभिमान के अंकुर जागरूक हो जाते हैं। अंतिम परिणाम बेटा! जन्म जन्मान्तरों की आभा में परिणत हो जाता है। मस्तिष्क में वे अंकुर उत्पन्न हो जाते हैं, जिन अंकुरों से वह इस प्रकृति के गर्भ को जानने के लिए स्थित बना हुआ है।
विषय
शोधन
पदार्थ
‘आचार्य विद्यार्थी के जीवन का किस प्रकार शोधन करता है?’ इस विषय को प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि— १. ( ते वाचं शुन्धामि ) = [ आचार्य विद्यार्थी से कहता है कि ] मैं तेरी वाणी को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू इस वाणी को असत्यभाषण से अपवित्र करनेवाला न हो। तेरी वाणी सत्य से सदा पवित्र बनी रहे।
२. ( ते प्राणं शुन्धामि ) = मैं तेरी घ्राणेन्द्रिय को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू घ्राणेन्द्रिय से कृत्रिम गन्धों के प्रति आसक्त न हो जाए।
३. ( ते चक्षुः शुन्धामि ) = तेरी आँख को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू पवित्र दृष्टि से देखनेवाला बने। स्त्रियों में मातृभावना, परद्रव्यों में लोष्ठभावना, सर्वप्राणियों में आत्मभावना से तू देखनेवाला हो। हिमाच्छादित पर्वतों, समुद्रों, विशाल पृथिवी व आकाश के तारों में तू प्रभु की महिमा को देखे।
४. ( ते श्रोत्रं शुन्धामि ) = तेरे कान को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू इन कानों से अभद्र बातों को न सुनता रहे। तुझे निन्दा की बातें सुनने में स्वाद ने आये।
५. ( नाभिं ते शुन्धामि ) = मैं तेरी नाभि को पवित्र करता हूँ, जिससे तेरा जीवन संयम के बन्धन में बँधकर चले।
६. ( ते मेढ्रं शुन्धामि ) = तेरी उपस्थेन्द्रिय को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू ब्रह्मचर्य का जीवन बिताते हुए मूत्र-सम्बन्धी सब रोगों से बचा रहे।
७. ( ते पायुं शुन्धामि ) = तेरी मलशोधक इन्द्रिय को शुद्ध करता हूँ, जिससे ठीक मल-शोधन होते रहकर तू रोगों से बचा रहे।
८. ( ते चरित्रान् शुन्धामि ) = तेरे पाँवों को शुद्ध करता हूँ, जिससे तेरे चरित्र [ चाल-ढाल ] सदा ठीक बने रहें।
भावार्थ
भावार्थ — आचार्य विद्यार्थी के जीवन को परिशुद्ध कर डालता है।
विषय
वाक्, प्राण, चक्षु आदि का व्रत दीक्षा में परिशोधन ।
भावार्थ
स्त्री स्वयंवर के अवसर पर पति को कहती है--और इसीप्रकार गुरुजन अपने शिष्यों को भी कहते है--( ते वाचम् शुंधामि ) मैं तेरी वाणी को शुद्ध करती हूं। ( ते प्राणान् शुन्धामि ) मैं तेरे प्राण को शुद्ध करती हूं । ( ते चक्षुः शुन्धामि ) तेरी आंख को शुद्ध करती हूं। ( ते श्रोत्रं शुन्धामि ) तेरे कान को शुद्ध करती हूं। ( ते नाभिम् शुन्धामि ) तेरी नाभि को शुद्ध करती हूं। (ते मेढ्ं शुन्धामि) तेरे प्रजननाङ्ग को शुद्ध करती हूं । ( ते पायुम् शुन्धामि ) तेरे पायु और गुदा भाग को शुद्ध करती हूं और ( चरित्रान् शुन्धामि ) तेरे चरणों और आचरणों को भी शुद्ध करती हूं। जितने भी सम्बन्ध आपस के भेद भाव रहित निष्कपटता के हैं वहां २ परस्पर एक दूसरे के समस्त अंगों को पवित्र करें । पत्नी पति के, और पति पत्नी के और गुरु शिष्य के, समस्त अंगों को पवित्र और शुद्ध आचारवान् बनाने की प्रतिज्ञा करें। विवाह पद्धति
में कन्याहुति द्वारा उसी उदेश्य को पूर्ण किया जाता है। उपनयनादि में गात्र स्पर्श द्वारा आचार्य भी वही कार्य करता है॥
इसी प्रकार प्रजा भी राजा की वाणी, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, नाभि, लिङ्ग, गुदा, चरण आदि सब को पवित्र करे । उसको पाप में पैर न रखने दे ॥
टिप्पणी
१४ पशुर्देवता।सर्वा०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विदांसो देवताः ॥
विषय
अब वे गुरुपत्नी और गुरुजन यथायोग्य शिक्षा से अपने-अपने विद्यार्थियों को अच्छे गुणों में कैसे प्रकाशित करते हैं, यह उपदेश किया है।।
भाषार्थ
हे शिष्य ! विविध शिक्षाओं से मैं (ते) तेरी (वाचम्) भाषण के साधन वाणी को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ, (ते) तेरे (प्राणम्) जीवन के हेतु प्राण को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ, (ते) तेरे (चक्षुः) दर्शन के साधन नेत्र को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ, (ते) तेरे (श्रोत्रम्) सुनने के साधन श्रोत्र को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ, (ते) तेरी (नाभिम्) बन्धन रूप नाभि को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ, (ते) तेरी (मेढ्रम्) मूत्र और वीर्य का सेवन करने वाली उपस्थ इन्द्रिय को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ, (ते) तेरी (पायुम्) पालक गुदेन्द्रिय को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ और (ते) तेरे (चरित्रान्) सब व्यवहारों को (शुन्धामि) निर्मल करता हूँ।। ६। १४।।
भावार्थ
गुरु और गुरुपत्नियाँ वेद, उपवेद, वेदाङ्ग और उपाङ्गकी शिक्षा से देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, आत्मा और मन की शुद्धि, शरीर की पुष्टि तथा प्राणों की सन्तुष्टि प्रदान करके सब कुमारों और कुमारियों को अच्छे गुणों में प्रवृत्त करें ॥ ६। १४।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।८।२।६) में की गई है।। ६। १४।।
भाष्यसार
गुरुपत्नियाँ और गुरुजन कैसे यथायोग्य शिक्षा से अपने-अपने शिष्यों को सद्गुणों में प्रवृत्त करते हैं--गुरुपत्नियाँ अपनी शिष्या ब्रह्मचारिणी कुमारियों को तथा गुरुजन अपने शिष्य ब्रह्मचारी कुमारों को इस प्रकार यथायोग्य शिक्षा देकर सद्गुणों में प्रवृत्त करें कि हे शिष्य! मैं वेद, उपवेद, वेदाङ्ग, उपाङ्ग की शिक्षा से तेरी वाणी को शुद्ध करता हूँ। तेरे जीवन हेतु प्राणों को निर्मल करता हूँ, तेरे नेत्रों को, तेरे श्रोत्रों को, तेरी नाभि को, तेरी उपस्थ इन्द्रिय को, तेरी गुदेन्द्रिय को तथा तेरे सब व्यवहारों को निर्मल करता हूँ अर्थात् तेरी देह, अन्तःकरण, आत्मा और मन की शुद्धि, शरीर की पुष्टि और प्राणों की सन्तुष्टि प्रदान करके श्रेष्ठ गुणों में प्रवृत्त करता हूँ।। ६। १४।।
मराठी (2)
भावार्थ
गुरू व गुरुपत्नी यांनी कुमार-कुमारी यांना वेद, उपवेद, वेदांग, उपांग यांचे शिक्षण देऊन देह, इंद्रिये, अंतःकरण, मनशुद्धी, शरीरपुष्टी, प्राण सुदृढ करून त्यांना चांगल्या प्रकारे शुभ गुणांमध्ये प्रवृत्त करावे.
विषय
गुरुपत्नी आणि गुरुजन यथोचित विद्यादानाद्वारे आपापल्या विद्यार्थ्यांना कशाप्रकारे सद्गुणांचे शिक्षण देतात,याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (गुरुजन वा गुरुपत्नी शिष्यास अनुलक्षून म्हणत आहे) हे शिष्या/हे शिष्ये मी विविध विद्या, शिक्षण, संस्कार आदीद्वारे (ते) तुझ्या (वाचम्) वाणीला (शुन्धामि) शुद्ध करतो म्हणजे धर्मानुसारिणी करतो. अथवा निर्मळ करतो. (तुझी भाषा, उच्चारणादींना दोषरहित करतो) (ते) तुझ्या (चक्षुः) नेत्रांना (शुन्धामि) शुद्ध करतो (तू दृष्टीने अभद्र पाहू नकोस, असे वळण लावीत आहे) (ते) तुझ्या (नाभिम्) ज्या ठिकाणी नाडी बांधतात, त्या भागास (शुन्धामि) शुद्ध करतो. (कटिप्रदेशातील दोष व्यायामादीद्वारे निर्दोष व निरोग करतो) (ते) तुझ्या (मेढ्रम्) ज्या अवयवाने मूत्रोत्सर्ग करतात, त्या शिश्नास (शुन्धामि) शुद्ध करतो (ब्रह्मचर्य-धारणाकरिता आदेश देत आहे) (ते) तुझ्या (पायुम्) ज्या अवयवाद्वारे रक्षण केले जाते त्या गुदाइंद्रियत्वा (शुन्धामि) शुद्ध करतो (अपान नियमनाचे नियम व कोष्ठादींची शुद्धता शिकवितो) (चारित्रान्) तुझ्या समस्त व्यवहारांना (शुन्धामि) शुद्ध करतो अर्थात तुझे आचरण पवित्र व धर्मानुकूल राहील, याकडे लक्ष ठेवतो. या मंत्राद्वारे गुरुपत्नी आपल्या शिष्येस सांगत आहे, असे समजल्यास सर्वत्र स्त्रीलिंगी क्रियापद ‘करते, शिकविते, ठेविते, असे वापरावे. ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - गुरु आणि गरुपत्नी यांनी सर्व कुमार व कुमारिकांना वेद आणि उपवेद, वेदांग आणि उपांग यांचे शिक्षण देऊन त्या कुमार-कुमारींच्या शरीर, इंद्रियें, अंतःकरण आणि मन यांची शुद्धी करावी. तसेच शरीर पुष्ट राहील व प्राण संतुष्ट राहील, यांसाठी कुमार-कुमारींना सद्गुणांकडे प्रवृत्त करावे. ॥14॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O disciple, through various sermons, I enjoin upon thee to purify thy voice, thy breath, thy eye, thy ear, thy navel, thy penis, thy anus ; and all thy dealings.
Meaning
I purify your speech, I purify your breath, I purify your eye, I purify your ear, I purify your navel, I purify your organ of generation, I purify your organs of excretion, I purify all your character and conduct. (Be a pure and complete person by education. )
Translation
I cleanse your ѕреесh. (1) I cleanse your breath. (2) l cleanse your vision. (3) I cleanse your hearing. (4) I cleanse your navel. (5) І cleanse your penis. (6) I cleanse your anus. (7) I cleanse your legs that make you move. (8)
Notes
According to the rituaiists, with this mantra, the Matron wipes each organ of the victim. According to Dayananda, this mantra pertains to the efforts of the teacher and the teacher's wife for improving the character and physique of the disciple.
बंगाली (1)
विषय
অথ কথং তা গুরুপত্ন্যো গুরবশ্চ য়থায়োগ্যশিক্ষয়া স্বস্বান্তেবাসিনঃ সদ্গুণেষু প্রকাশয়ন্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন সেই সব গুরুপত্নী ও গুরুজন যথাযোগ্য শিক্ষা দ্বারা নিজ নিজ বিদ্যার্থীগণকে ভাল ভাল গুণে কীভাবে প্রকাশিত করে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে শিষ্য ! আমি বিবিধ শিক্ষা দ্বারা (তে) তোমার (বাচম্) যদ্দ্বারা বলা হয় সেই বাণীকে (শুন্ধামি) শুদ্ধ অর্থাৎ সদ্ধর্মানুকূল করি, (তে) তোমার (চক্ষুঃ) যদ্দ্বারা দেখে সেই নেত্রকে (শুন্ধামি) শুদ্ধ করি, (তে) তোমার (নাভিম্) যদ্দ্বারা নাড়ি ইত্যাদি বাঁধা হয় সেই নাভিকে (শুন্ধামি) পবিত্র করি, (তে) তোমার (মেঢ্রম্) যদ্দ্বারা মূত্রোৎসর্গাদি করা হয় সেই লিঙ্গকে (শুন্ধামি) পবিত্র করি, (তে) তোমার (পায়ুম্) যদ্দ্বারা রক্ষা করা হয় সেই গুহ্যেন্দ্রিয়কে (শুন্ধামি) পবিত্র করি, (চরিত্রান্) সমস্ত ব্যবহারকে (শুন্ধামি) পবিত্র শুদ্ধ অর্থাৎ ধর্মানুকূল করি তথা গুরুপত্নী পক্ষেও সর্বত্র করিঽ সেই পরিকল্পনা করা উচিত ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- গুরু ও গুরুপত্নিদের উচিত যে, বেদ ও উপবেদ তথা বেদাঙ্গ ও উপাঙ্গের শিক্ষা দ্বারা দেহ, ইন্দ্রিয়, অন্তকরণ ও মনের শুদ্ধি, শরীরের পুষ্টি তথা প্রাণের সন্তুষ্টি দিয়া সমস্ত কুমার ও কুমারীদিগকে ভাল ভাল গুণে প্রবৃত্ত করাক ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
বাচং॑ তে শুন্ধামি প্রা॒ণং তে॑ শুন্ধামি॒ চক্ষু॑স্তে শুন্ধামি॒ শ্রোত্রং॑ তে শুন্ধামি॒ নাভিং॑ তে শুন্ধামি॒ মেঢ্রং॑ তে শুন্ধামি পা॒য়ুং তে॑ শুন্ধামি চ॒রিত্রাঁ॑স্তে শুন্ধামি ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
বাচং ত ইত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিদ্বাংসো দেবতাঃ । ভুরিগার্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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