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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 19
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - ब्राह्मी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    107

    घृ॒तं घृ॒॑तपावानः पिबत॒ वसां॑ वसापावानः पिबता॒न्तरि॑क्षस्य ह॒विर॑सि॒ स्वाहा॑। दिशः॑ प्र॒दिश॑ऽआ॒दिशो॑ वि॒दिश॑ऽउ॒द्दिशो॑ दि॒ग्भ्यः स्वाहा॑॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तम्। घृ॒त॒पा॒वा॒न॒ इति॑ घृतऽपावानः। पि॒ब॒त॒। वसा॑म्। व॒सा॒पा॒वा॒न॒ इति॑ वसाऽपावानः। पि॒ब॒त॒। अ॒न्तरि॑क्षस्य। ह॒विः। अ॒सि॒। स्वाहा॑। दिशः॑। प्र॒दिश॒ इति॑ प्र॒ऽदिशः॑। आ॒दिश॒ इत्या॒ऽदिशः॑। वि॒दिश॒ इति॑ वि॒ऽदिशः॑। उ॒द्दिश॒इत्यु॒त्ऽ दिशः॑। दि॒ग्भ्य इति॑ दिक्ऽभ्यः। स्वाहा॑ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतङ्घृतपावानः पिबत वसाँ वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा । दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽउद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    घृतम्। घृतपावान इति घृतऽपावानः। पिबत। वसाम्। वसापावान इति वसाऽपावानः। पिबत। अन्तरिक्षस्य। हविः। असि। स्वाहा। दिशः। प्रदिश इति प्रऽदिशः। आदिश इत्याऽदिशः। विदिश इति विऽदिशः। उद्दिशइत्युत्ऽ दिशः। दिग्भ्य इति दिक्ऽभ्यः। स्वाहा॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनस्तत्र किं भवितुमर्हतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे घृतपावानो वीरा! यूयं घृतं पिबत। हे वसापावानो! यूयं वसां पिबत। हे सेनाध्यक्ष! चक्रव्यूहादिसेनारचक! त्वं प्रतिवीरमन्तरिक्षस्य हविरसीति स्वाहा शोभनया वाचा सर्वान् वीरान् या दिशः, प्रदिश, आदिशो, विदिश, उद्दिशश्च सन्ति ताभ्यः सर्वाभ्यो दिग्भ्योः सर्वाः सेना विभज्य शत्रून् विजयध्वम्॥१९॥

    पदार्थः

    (घृतम्) उदकम्॥ घृतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं॰१।१२) (घृतपावानः) उदकपा वीराः (पिबत) (वसाम्) वीररसनीतिम् (वसापावानः) वसां निवासं पान्ति ते (पिबत) (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य (हविः) आदीयत इति (असि) (स्वाहा) युद्धानुकूलां शोभनां वाचम् (दिशः) पूर्वाद्याः (प्रदिशः) अभ्यन्तरदिशः (आदिशः) आभिमुख्यदिशः (विदिशः) विरुद्धदिशः (उद्दिशः) या उद्दिश्यन्ते ताः (दिग्भ्यः) पूर्वप्रतिपादिताभ्यः सर्वाभ्यः (स्वाहा) तत्तस्थानानुकूलां शोभनां वाचम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। ३। ३२-३६) व्याख्यातः॥१९॥

    भावार्थः

    सेनाध्यक्षाणामुचितमस्ति स्वसेनास्थान् वीरान् शरीरबलयुक्तान् युद्धविद्यासुशिक्षितान् संपाद्य युद्धे सर्वासु दिक्षु यथायोग्यान् स्वसेनाभागान् संस्थाप्य सर्वतः शत्रूनावृत्य विजित्य च न्यायेन प्रजां पालयेयुरिति॥१९॥

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    विषयः

    पुनस्तत्र किं भवितुमर्हतीत्युपदिश्यते ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे घृतपावानो=वीराः! उदकपा वीराः! यूयं घृतम् उदकं पिबत। हे वसापावानः वसां= निवासं पान्ति ते! यूयं वसां वीररसनीतिंपिबत। हे सेनाध्यक्ष! चक्रव्यूहादिसेनारचक! त्वं प्रतिवीरमन्तरिक्षस्य आकाशस्य हवि आदीयते इति असि, इति स्वाहा=शोभनया वाचा युद्धाऽनुकूलां शोभनां वाचं, सर्वान् वीरान् या दिशः पूर्वाऽऽद्या:, प्रदिशः अभ्यन्तरदिशः, आदिश: आभिमुख्यदिशः, विदिशः विरुद्धदिशः, उद्दिशः या उद्दिश्यन्ते ताः, च सन्ति, ताभ्यः सर्वाभ्यो दिग्भ्यः पूर्वप्रतिपादिताभ्यः सर्वाभ्यः सर्वाः सेनाः[स्वाहा] तत्तत्स्थानाऽनुकूलां शोभनां वाचं विभज्य शत्रून् विजयध्वम् ॥ १९॥ [हे सेनाध्यक्ष! चक्रव्यूहादिसेनारक्षक! त्वं प्रतिवीरमन्तरिक्षस्य हविरसि, इति स्वाहा=शोभनया वाचा सर्वान् वीरान् या दिशः, प्रदिशः, आदिशः, विदिशः, उद्दिशः सन्ति ताभ्यः सर्वाभ्यो दिग्भ्यः सर्वाः सेनाः [स्वाहा] विभज्य शत्रून् विजयध्वम्]

    पदार्थः

    (घृतम्) उदकम् ॥ धृतमित्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १।१२ ॥ (घृतपावानः) उदकपा वीराः (पिबत) (वसाम्) वीररसनीतम् (वसापावानः) वसां=निवासं पान्ति ते (पिबत) (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य (हवि:) आदीयत इति (असि) (स्वाहा) युद्धानुकूलां शोभनां वाचम् (दिशः) पूर्वाद्याः (प्रदिशः) अभ्यन्तरदिशः (आदिश:) आभिमुख्यदिश: (विदिशः) विरुद्धदिश: (उद्दिशः) या उद्दिश्यन्ते ताः (दिग्भ्यः) पूर्वप्रतिपादिताभ्यः सर्वाभ्यः (स्वाहा) तत्तत्स्थानानुकूलां शोभनां वाचम्॥ अयम्मन्त्रः शत० ३।८।३।३२-३६ व्याख्यातः ॥ १९॥

    भावार्थः

    सेनाध्यक्षाणामुचितमस्ति--स्वसेनास्थान् वीरान् शरीरबलयुक्तान् युद्धविद्यासुशिक्षितान् सम्पाद्य युद्धे सर्वासु दिक्षु यथायोग्यान् स्वसेनाभागान् संस्थाप्य सर्वतः शत्रूनावृत्य विजित्यच न्यायेन प्रजां पालयेयुरिति ।। ६ । १९।।

    विशेषः

    दीर्घतमाः। विश्वेदेवाः=विद्वांसः।। ब्राह्म्यनुष्टुप् । गान्धारः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर युद्धकर्म में क्या होना चाहिये, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (घृतपावानः) जल के पीने वाले वीरपुरुषो! तुम (घृतम्) अमृतात्मक जल को (पिबत) पिओ। हे (वसापावानः) नीति के पालने वाले वीरो! तुम (वसाम्) जो वीर रस की वाणी अर्थात् शत्रुओं को स्तम्भन करने वाली है, उसको (पिबत) पिओ। हे सेनाध्यक्ष चक्रव्यूहादि सेनारचक! प्रत्येक वीर को तू जिससे (अन्तरिक्षस्य) आकाश की (हविः) रुकावट अर्थात् युद्ध में बहुतों के बीच शत्रुओं को घेरना (असि) है, उस (स्वाहा) शोभन वाणी से जो (दिशः) पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण (प्रदिशः) आग्नेयी, नैर्ऋति, वायवी और ऐशानी उपदिशा (आदिशः) आमने, सामने, मुहाने की दिशा (विदिशः) पीछे की दिशा और (उद्दिशः) जिस ओर शत्रु लक्षित हो वे दिशा हैं, उन सब (दिग्भ्यः) दिशाओं से यथायोग्य वीरों को बांट के शत्रुओं को जीतो॥१९॥

    भावार्थ

    सेनाध्यक्षों को उचित है कि अपनी-अपनी सेना के वीरों को अत्यन्त पुष्ट कर युद्ध के समय चक्रव्यूह, श्येनव्यूह तथा शकटव्यूह आदि रचनादि युद्ध कर्मों से सब दिशाओं में अपनी सेनाओं के भागों को स्थापन कर, सब प्रकार से शत्रुओं को घेर-घार जीतकर न्याय से प्रजापालन करें॥१९॥

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    विषय

    घृत व वसा का पान

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र की भावना को ही शब्दान्तर से कहते हैं कि १. ( घृतपावानः ) = घृत अर्थात् मल-क्षरण का पान करनेवालो! ( घृतं पिबत ) = मल-क्षरण का पान करो। शरीर से मल-क्षरण का पूरी तरह से ध्यान करो। शरीर में मलों का सञ्चय न होगा तभी तुम स्वास्थ्य की दीप्ति से चमकोगे। प्राणशक्ति की वृद्धि का एकमात्र मार्ग यही है। 

    २. ( वसापावानः ) = [ वसा = brain = दिमाग़ ] दिमाग़ की रक्षा करनेवालो! ( वसां पिबत ) = मस्तिष्क का पान करो, अर्थात् मस्तिष्क की सुरक्षा का पूर्ण प्रयत्न करो, तभी तो पूरी मननशक्ति से सङ्गत होओगे। 

    ३. तू ( अन्तरिक्षस्य ) = हृदयान्तरिक्ष का ( हविः ) = हवि ( असि ) = है। हवि का अभिप्राय ‘दानपूर्वक अदन करना है’। तेरे हृदय में यह भावना सदा बनी रहती है। यही त्यागपूर्वक भोग है—यज्ञशेष ‘अमृत’ का सेवन है। ( स्वाहा ) = तू इसके लिए स्वार्थ का त्याग करनेवाला हो। स्वार्थत्याग से ही हविर्मय जीवन बनेगा। 

    ४. तेरा शरीर घृत = मल-क्षरण से स्वास्थ्य की दीप्तिवाला हुआ है, मस्तिष्क वसा = दिमाग़ी ताकत की रक्षा से मनन की शक्ति से परिपूर्ण हुआ है और हृदय त्याग की भावनावाला होकर हविरूप हो गया है। इस प्रकार तूने सर्वतोमुखी उन्नति का साधन किया है। ( दिशः-प्रदिशः-आदिशः-विदिशः-उद्दिशः- दिग्भ्यः ) = पूर्वादि सब दिशाओं तथा ऊपर-नीचे इस प्रकार छह-की-छह ओर से ( स्वाहा ) =  [ सु+आ+हा ] सब ओर युद्ध-क्रिया से शत्रुओं का खूब संहार किया है [ युद्धानुरूप क्रिया से शत्रुओं को जीता है—द० ]। जीव पर छह दिशाओं से छह शत्रु महारथियों का आक्रमण होता है। जीव को इन सब महारथियों का पराजय करके ‘विश्वेदेवाः’ सब दिव्य गुणों को प्राप्त करना है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम स्वास्थ्य व मस्तिष्क की रक्षा करें। हृदय को त्याग की भावना से परिपूर्ण करें और छह दिशाओं से आक्रमणकारी छह शत्रु महारथियों [ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर ] पर विजय प्राप्त करें।

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    विषय

    परम तेज का कारण।

    भावार्थ

    हे ( घृतपावानः ) घृत=जल के और घृत आदि के पान करने - हारे पुरुषो ! आप लोग ( घृतम् पिबत ) घृत, जल और घी आदि पुष्टि- कारक पदार्थों का पान करो। अथवा हे ( घृतपावान: ) परम तेज के पालन करनेहारे पुरुषो । तुम लोग 'घृत' अर्थात् राजयोग्य परम तेज को धारण करो।।
     
    [ घृत शब्द वेद में नाना प्रकार से प्रयुक्त होता है जैसे- एतद्वा अग्नेः प्रियं धाम यद् धृतम् । शत० ६। ६। १।११ ॥ घृतं वै देवानां वज्रं कृत्वा सोममन्नन् । गो उ० २ । ४ ॥ देवव्रतं वै घृतम् । तां०] १८ । २ । ६ । रेतः सिक्रिवं घृतम् । घृतमन्तरिक्षस्य रूपम् । श० ७ । ५ । १ । ३ ॥ अन्नस्य घृतमेव रसस्तेजः । मै० २ । ६ । १५ ॥ तेजो वा एतत्पशूनां यद् घृतम् । ते० ८ । २० ॥ ] 

    अग्नि अर्थात् राजा का तेज, राष्ट्र को प्राप्त करने के लिये शस्त्रबल, देव का व्रत अर्थात् राजा के निमित्त निर्धारित कर्तव्य, गृहस्थों का वीर्य- सेचन आदि कर्तव्य पालन, अन्न का परम रस और पशु सम्पत्ति ये सब पदार्थ सामान्यतः ' घृत' हैं । उनको पान करने या पालन करने में समर्थ पुरुष इन वस्तुओं का पान अर्थात् प्राप्त करें और उसका उपयोग करें । ( वसां वसापावानः पिबत ) हे 'वसा' को पान करनेवालो ! तुम 'वसा ' को पान करो॥ 
    'वसा' - श्रीवैंपशूनां वसा । अथो परमं वा एतद् अन्नाद्यं यद् वसा । 
    श० १२ । ८ । ३ । १२ ।। 
    अर्थात् हे पशु सम्पत्ति और उत्तम अन्न समृद्धि के पालनेहारे पशु पालक और वैश्यजनो ! आप लोग ( वसां पिवत ) आप उत्तम पशु सम्पत्ति और उत्तम अन्न आदि खाद्य पदार्थों का पान करो, उपभोग करो उनसे दूध, दही, मक्खन और नाना लेह्य चोष्य पदार्थ बनाकर खाओ । हे अन्नादि पदार्थों ! ( अन्तरिक्षस्य हविः असि ) तू अन्तरिक्ष की हवि अर्थात् प्राप्त और संग्रह करने योग्य पदार्थ है ॥ 
    वैश्वदेवं वा अन्तरिक्षं । तद्यदेने नेमाःप्रजाः प्राणत्यश्श्रीदानत्यश्चान्त रिक्षमनुचरन्ति ) अन्तरिक्ष विश्वेदेव का रूप है अर्थात् समस्त प्रजाएं अन्त- रिक्ष हैं। पूर्वोक्त घृत और बसा अर्थात् उत्तम अन्न, बल, शस्त्र और पशु सम्पत्ति ये पदार्थ विश्वेदेव अर्थात् समस्त प्रजाओं का हवि अर्थात् उपादेय अन्न है ! इसलिये ( स्वाहा ) इनको उत्तम रीति से प्राप्त करना चाहिये, इनका प्राप्त करना उत्तम है। इन सब पदार्थों को ( दिशः ) समस्त दिशाओं से, (प्रदिशः) उपदिशाओं से, ( आदिशः ) समीप के देशों से और (विदिशः) विविध दूर २ के देशों से और ( उद्दिशः ) ऊंचे पर्वती देशों से अर्थात् ( दिग्भ्यः ) सभी दिशाओं या देशों से ( स्वाहा ) भली प्रकार प्राप्त करना चाहिये । और नाना देशों को भेजना भी चाहिये || 
    वीरों के पक्ष में-- वीर लोग 'अन्तरिक्ष की हवि हैं' अर्थात् दोनों देशों के बीच में लड़कर युद्ध यज्ञ में आहुति होने के योग्य हविरूप है अर्थात् वहां उनका उपयोग है। वे भी दिशा उपदिशा, दूर समीप के सभी देशों को प्रस्थित हों, वहां विजय करें । शत० ३ । ८ । ३ । ३१-३५ ॥

    टिप्पणी

      १९ - विश्वेदेवाः दिशश्व देवताः । सर्वा० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वेदेवा देवताः । ब्राह्मय्नुष्टुप् । गांधारः ॥ 

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    विषय

    फिर युद्धकर्म में क्या होना चाहिये, यह उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे (घृतपावानः) जल पीने वाले वीरो! तुम (घृतम्) जल का (पिबत) पान करो। हे (वसापावान:) निवास की रक्षा करने वाले वीरो! तुम (वसाम्) वीर रस से पूर्ण नीति का (पिबत) पान करो। हे सेनाध्यक्ष! चक्रव्यूह आदि सेना के रचयिता! तू प्रत्येक वीर के लिये (अन्तरिक्षस्य) आकाश की (हविः) ग्रहण करने योग्य आहुति के समान (असि ) है, इसलिये (स्वाहा) युद्ध के अनुकूल सुन्दर वाणी से सब वीरों को आदेश दे, तथा जो (दिश:) पूर्व आदि दिशायें, (प्रदिशः) आग्नेयी आदि अन्तर्दिशायें (आदिशः) सामने की दिशायें, (विदिश:) पीछे की दिशायें, (उद्विशः) लक्ष्यदिशायें हैं, उन सब (दिग्भ्यः) दिशाओं के लिये [स्वाहा] उस-उस स्थान के अनुकूल सुन्दर वाणी से सेनाओं को विभक्त करके शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो।। ६। १९।।

    भावार्थ

    सेनाध्यक्षों को यह उचित है कि अपनी सेना के वीरों को शारीरिक बल से युक्त तथा युद्धविद्या में सुशिक्षित करके, युद्ध में सब दिशाओं में यथायोग्य अपनी सेना के भागों कोस्थापित करके, सब ओर से शत्रुओं को घेर कर और उन्हें जीत कर न्याय से प्रजा का पालन करें।। ६। १९।।

    प्रमाणार्थ

    (घृतम्) यह शब्द निघं० (१।१२) में जल-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।८।३।३२-३६) में की गई है।। ६। १९।।

    भाष्यसार

    रण में क्या करें--युद्ध में वीर लोग जल का पान करें, निवास-स्थानों की रक्षा करने वाले वीर निवासों की रक्षा करें तथा वीर रस से परिपूर्ण नीति को स्वीकार करें। सेनाध्यक्षों को उचित है कि वे चक्रव्यूह आदि सेना की रचना करें। वे अपनी सेना के प्रत्येक वीर को शारीरिक बल की वृद्धि के लिये हवि रूप अन्न आदि उत्तम पदार्थ प्रदान करें तथा युद्धानुकूल श्रेष्ठ वाणी से युद्ध विद्या की उत्तम शिक्षा करें। युद्ध में पूर्व आदि सब दिशाओं में जैसे योग्य समझें वैसे अपनी सेना के भागों को स्थापित करके सब ओर से शत्रुओं को घेर कर विजय प्राप्त करें और न्याय से प्रजा का पालन करें।। ६। १९।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सेनाध्यक्षांनी आपापल्या सेनेतील वीरांना अत्यंत बलवान करून युद्धाच्या वेळी चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, शकटव्यूह इत्यादी रचना करावी. युद्ध करताना सर्व दिशांना सेना विभागून शत्रूला युद्धात घेरावे व जिंकून घ्यावे, तसेच न्यायाने प्रजेचे पालन करावे.

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    विषय

    युद्धामधे काय काय करावे, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (घृतपावानः) (शुद्ध जलम्, व आरोग्यदायी) जलाचे सेवन करणार्‍या वीरजनहो, (घृत=उदंक जलम् निघण्टु-1/12) तुम्ही (गृतम्) अमृतसम हे जल (पितब्ब) प्या. हे (वसापावानः) रणनीतीचे पालन कररार्‍या वीरांनो, तुम्ही (वसाम्) उच्चाराने वीररसाचे वचन व घोष करा की जो घोष शत्रूंना स्तब्ध करणारा आहे त्या वीररसाचे तुम्ही (पिबत) पान वा सेवन करा. हे सेनाध्यक्ष, तुम्ही चक्रव्यूह आदी सैनिक रचून आपल्या सैनिकांना अशा ठिकाणी नियुक्त करा की (अन्तरिक्षस्य) आकाशातील शत्रुगतीला (हवि) अडथळा होईल अथवा तुम्ही युद्धात शत्रूंना सर्व दिशांनी घेरणारे (असि) व्हा. आपल्या (स्वाहा) शोभित वाणीद्वारे (आदेशाद्वारे) (दिशः) पूर्व, परिचय, उत्तर, दक्षिण दिशा (प्रनिशः) आग्नेयी, नैऋति, वायवी आणि ऐशानी या चार उपदिशा (आदिशः) पुढची दिशा (विदिशा) मागची दिशा आणि (उद्विशः) वरची दिशा वा ज्या दिशेकडे शत्रू दिसेल, त्या सर्व (दिग्भ्यः) दिंशामधे आपल्या सैनिकांनी आवश्यक संख्येत आणि योग्य व्यवस्थेत ठेवा. (सैनिकी रचना करा) आणि शत्रूवर विजय मिळवा. ॥19॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सेनाध्यक्षासाठी आवश्यक रणनीती अशी की त्यांनी आपापल्या सेनेतील (वा तुकडीतील) सैनिकांची पुष्ट, स्वस्थ व उत्साही ठेवावे. तसेच प्रत्यक्ष युद्धाच्या प्रसंगी चक्रव्यूह, श्येनव्यूह, आणि शकटव्यूहाची रचना करून, चतुर चाली रचून आपले सैन्य या व त्या भागात नेमावे आणि अशाप्रकारे शत्रूंना सर्व दिशांनी घेरुन विजय संपादित करावा. विजयानंतर न्यायमार्गाने प्रजेचे रक्षण व पालन करावे. ॥19॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Oh warriors, drinkers of water, drink refreshing water. O warriors expert in statesmanship, follow the policy of heroic action. O general, thou shouldst stop the foes in the air. With thy martial and commanding voice spread thy soldiers in all regions, by-regions, fore-regions, back-regions, and regions in which the enemy goes, and conquer the foes, by slaying their warriors.

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    Meaning

    Protectors and lovers of waters, protect and drink of the nectar of the waters. Protectors of homes and policy, protect the homes, and protect and benefit from the policy. Commander of the forces, you are the oblation of the defence-yajna rising to the sky for every warrior. Command the forces in the language of power for the defence of all the directions, interdirections, directions in front and back, and the directions of the target. Command others too so that they may also plan and conduct the defence with similar language and action.

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    Translation

    O enjoyers of butter, enjoy butter; enjoyers of fats, enjoy fat. You are the oblation of the midspace. Svaha. (1) To the regions. (2) To the mid-regions. (3) To the regions all around. (4) To the intermediate regions. (5) To the regions аbove. (6) To all the regions, I dedicate. (7)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তত্র কিং ভবিতুমর্হতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনরায় যুদ্ধকর্মে কী হওয়া উচিত, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ঘৃতপাবানঃ) জলপানকারী বীর পুরুষগণ ! তোমরা (ঘৃতম্) অমৃতাত্মক জলকে (পিবত) পান কর । হে (বসাপাবানঃ) নীতিপালনকারী বীরগণ ! তোমরা (বসাম্) যাহা বীর রসের বাণী অর্থাৎ শত্রুদিগের স্তব্ধ কারী উহা (পিবত) পান কর । হে সেনাধ্যক্ষ চক্রবূ্যহাদি সেনারচক প্রত্যেক বীরকে তুমি যদ্দ্বারা (অন্তরিক্ষস্য) আকাশের (হবিঃ) বাধা অর্থাৎ যুদ্ধে বহুর মধ্যে শত্রুদিগকে ঘিরিয়া ফেলা (অসি) হয় সেই (স্বাহা) শোভন বাণী দ্বারা যাহা (দিশঃ) পূর্ব পশ্চিম উত্তর দক্ষিণ (প্রদিশঃ) আগ্নেয়, নৈঋতি, বায়বী ও ঐশানী উপদিশা (আদিশঃ) সামনা-সামনি আভিমুখ দিশা (বিদিশা) পশ্চাৎ দিশা এবং (উদ্দিশঃ) যেদিকে শত্রু লক্ষিত হয় সেই সব (দিগ্ভ্য) দিশাগুলি হইতে যথাযোগ্য বীরদেরকে বন্টন করিয়া শত্রুদিগকে জিতিয়া লও ॥ ১ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- সেনাধ্যক্ষদিগের উচিত যে, নিজ নিজ সেনার বীরদিগকে অত্যন্ত পুষ্ট করিয়া যুদ্ধের সময় চক্রবূ্যহ, শ্যেনবূ্যহ ও শকটবূ্যহ ইত্যাদি রচনা করিয়া যুদ্ধ কর্ম দ্বারা সকল দিশায় নিজ সেনার অংশকে স্থাপন করিয়া সর্ব প্রকারে শত্রুদিগকে ঘিরিয়া জয়লাভ করিয়া ন্যায়পূর্বক প্রজাপালন করিবে ॥ ১ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ঘৃ॒তং ঘৃ॑তপাবানঃ পিবত॒ বসাং॑ বসাপাবানঃ পিবতা॒ন্তরি॑ক্ষস্য হ॒বির॑সি॒ স্বাহা॑ । দিশঃ॑ প্র॒দিশ॑ऽআ॒দিশো॑ বি॒দিশ॑ऽউ॒দ্দিশো॑ দি॒গ্ভ্যঃ স্বাহা॑ ॥ ১ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ঘৃতং ঘৃতপাবান ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । ব্রাহ্ম্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ । গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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