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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 22
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - ब्राह्मी स्वराट् उष्णिक्,निचृत् अनुष्टुप्, स्वरः - ऋषभः, षड्जः
    285

    मापो मौष॑धीर्हिꣳसी॒र्धाम्नो॑ धाम्नो राजँ॒स्ततो॑ वरुण नो मुञ्च। यदा॒हुर॒घ्न्याऽइति॒ वरु॒णेति॒ शपा॑महे॒ ततो॑ वरुण नो मुञ्च। सु॒मि॒त्रि॒या न॒ऽआप॒ऽओष॑धयः सन्तु दुर्मित्रि॒यास्तस्मै॑ सन्तु॒ योऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मः॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। अ॒पः। मा। ओष॑धीः। हि॒ꣳसीः॒। धाम्नो॑धाम्न॒ इति॑ धाम्नः॑ऽधाम्नः। रा॒ज॒न्। ततः॑। व॒रु॒ण। नः॒। मु॒ञ्च॒। यत्। आ॒हुः॒। अ॒घ्न्याः। इति॑। वरु॑ण। इति॑। शपा॑महे। ततः॑। व॒रु॒ण॒। नः॒। मु॒ञ्च॒। सु॒मि॒त्रि॒या इति॑ सु॑ऽमि॒त्रि॒याः। नः॒। आपः॑। ओष॑धयः। स॒न्तु॒। दु॒र्मि॒त्रि॒या इति॑ दुःऽमित्रि॒याः। तस्मै॑। स॒न्तु॒। यः। अस्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः ॥२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मापो मौषधीर्हिँसीः धाम्नोधाम्नो राजँस्ततो वरुण नो मुञ्च । यदाहुरघ्न्याऽइति वरुणेति शपामहे ततो वरुण नो मुञ्च । सुमित्रिया नऽआप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियासस्तस्मै सन्तु योस्मान्द्वेष्टि यञ्च वयन्द्विष्मः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। अपः। मा। ओषधीः। हिꣳसीः। धाम्नोधाम्न इति धाम्नःऽधाम्नः। राजन्। ततः। वरुण। नः। मुञ्च। यत्। आहुः। अघ्न्याः। इति। वरुण। इति। शपामहे। ततः। वरुण। नः। मुञ्च। सुमित्रिया इति सुऽमित्रियाः। नः। आपः। ओषधयः। सन्तु। दुर्मित्रिया इति दुःऽमित्रियाः। तस्मै। सन्तु। यः। अस्मान्। द्वेष्टि। यम्। च। वयम्। द्विष्मः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 22
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ वाणिज्यार्थं राजप्रबन्धमाह॥

    अन्वयः

    हे राजन्! ओषधीश्च मा हिंसीः। न केवलमिदमेव कुर्याः, किन्तु ततो धाम्नो धाम्नोऽस्मान् मा मुञ्च। हे वरुण! अघ्न्या इति यद्भवन्त आहुः वयं चेत्थं शपामहे ततस्त्वं मा मुञ्च वयमपि न मुञ्चामः। हे वरुण! नः अस्मभ्यमाप ओषध्यश्च सुमित्रियास्सुमित्रवत् सन्तु, योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तस्मै दुर्मित्रियाः शत्रुवत् सन्तु॥२२॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (अपः) जलानि (मा) निषेधे (ओषधीः) यवादीन् (हिंसीः) (धाम्नो धाम्नः) स्थानात् स्थानात् (राजन्) सभापते! (ततः) तस्मात् (वरुण) प्रशस्त (नः) अस्मान् (मुञ्च) (यत्) (आहुः) (अघ्न्याः) हन्तुमयोग्या गावस्ताः। अघ्न्या इति गोनामसु पठितम्। (निघं॰२।११) (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) न्यायकारिन्! (इति) प्रकारान्तरे (शपामहे) (सुमित्रियाः) सुमित्राणीव (नः) अस्मभ्यम् (आपः) (ओषधयः) (सन्तु) (दुर्मित्रियाः) दुर्मित्राणीव (तस्मै) द्विषते (सन्तु) (यः) अमित्रः (अस्मान्) (द्वेष्टि) (यम्) (च) (वयम्) (द्विष्मः)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ८। ५। ९-११) व्याख्यातः॥२२॥

    भावार्थः

    राजपुरुषाः प्रजाभ्योऽनीत्या धनं न गृह्णीयुः। राजरक्षणाय प्रतिज्ञां कुर्युरन्यायं वयं न करिष्याम इति दुष्टान् सततं दण्डयेयुरिति॥२२॥

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    विषयः

    अथ वाणिज्यार्थं राजप्रबन्धमाह।।

    सपदार्थान्वयः

    हे राजन्! सभापते! त्वम् अपः जलानि ओषधीः यवादीन् च मा न हिंसीः । न केवलमिदमेव कुर्य्याः किन्तु ततः तस्माद् धाम्नो धाम्नः स्थानात् स्थानात् [नः]=अस्मान् मान मुञ्च। हे वरुण प्रशस्त ! अघ्न्याः हन्तुमयोग्या गावस्ताः, इति अनेन प्रकारेण यद् भवन्त आहुः वयं चेत्थं शपामहे। ततः तस्मात् त्वं [नः] अस्मभ्यं मा मुञ्च वयमपि न मुञ्चाम:। हे वरुण न्यायकारिन्। [इति] प्रकाशान्तरे नः अस्मभ्यम्औषधयश्च सुमित्रियाः=सुमित्रवत् सुमित्राणीव सन्तु। वः अमित्रः अस्मान् द्वेष्टि यम्अमित्रं च वयं द्विष्मः, तस्मै द्विषते दुर्मित्रिया:=(सन्तु) शत्रुवद् दुर्मित्राणीव सन्तु ॥ ६ । २२ ॥ [हे वरुण [इति] न आप ओषधयश्च सुमित्रिया:=सुमित्रवत् सन्तु, योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तस्मै दुमित्रिया:=शत्रुवत् सन्तु]

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (अपः) जलानि (मा) निषेधे (ओषधी:) यवादीन् (हिंसी:) (धाम्नो धाम्नः) स्थानात् स्थानात् (राजन्) सभापते! (ततः) तस्मात् (वरुण) प्रशस्त (नः) अस्मान् (मुञ्च) (यत्) (आहुः) (अघ्न्याः) हन्तुमयोग्या गावस्ताः। अघ्न्याः इति गोनामसु पठितम् ॥ निघं० २। ११ ॥ (इति) अनेन प्रकारेण (वरुण) न्यायकारिन्! (इति) प्रकारान्तरे (शपामहे) (ततोवरण नो मुञ्च) ( सुमित्रियाः) सुमित्राणीव (नः) अस्मभ्यम् (आपः) (ओषधयः) ( सन्तु) (दुर्मित्रियाः) दुर्मित्राणीव (तस्मै) द्विषते (सन्तु) (यः) अमित्र: (अस्मान्) (द्वेष्टि) (यम्) (च) (वयम्) (द्विष्मः)।। अयं मन्त्रः शत० ३।८। ५।९-११ व्याख्यातः ॥ २२॥

    भावार्थः

    राजपुरुषाः प्रजाभ्योऽनीत्या धनं न गृह्णीयुः। राजरक्षणाय प्रतिज्ञां कुर्युरन्यायं वयं न करिष्याम इति दुष्टान् सततं दण्डयेयुरिति।। ६ । २२ ।।

    विशेषः

    दीर्घतमाः। वरूण:=सभापतिः।। स्वाराड् ब्राह्म उष्णिक्। ऋषभः। सुमित्रिया न इत्यस्य त्रिपाट् विराड् गायत्री। षड्जः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब व्यापार करने के लिये राज्यप्रबन्ध अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (राजन्) सभापति! आप प्रत्येक स्थानों में (अपः) जल और (ओषधीः) अन्न-पान पदार्थ तथा किराने आदि वणिज पदार्थों को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट करो अर्थात् प्रत्येक जगह हम लोगों को सब इष्ट पदार्थ मिलते रहें, न केवल यही करो, किन्तु (ततः) उस (धाम्नः धाम्नः) स्थान-स्थान से (नः) हम लोगों को (मा) मत (मुञ्च) त्यागो। हे (वरुण) न्याय करने वाले सभापति! किये हुए न्याय में (अघ्न्याः) न मारने योग्य गौ आदि पशुओं की शपथ है (इति) इस प्रकार जो आप कहते हैं और हम लोग भी (शपामहे) शपथ करते हैं और आप भी उस प्रतिज्ञा को मत छोडि़ये और हम लोग भी न छोड़ेंगे। हे वरुण! आपके राज्य में (नः) हम लोगों को (आपः) जल और ओषधियां (सुमित्रियाः) श्रेष्ठमित्र के तुल्य (सन्तु) हों तथा (यः) जो (अस्मान्) हम लोगों से (द्वेष्टि) वैर रखता है (च) और (वयम्) हम लोग (यम्) जिससे (द्विष्मः) वैर करते हैं, (तस्मै) उस के लिये वे ओषधियां (दुर्मित्रियाः) दुःख देने देने वाले शत्रु के तुल्य (सन्तु) हों॥२२॥

    भावार्थ

    राजा और राजाओं के कामदार लोग अनीति से प्रजाजनों का धन न लेवें, किन्तु राज्य-पालन के लिये राजपुरुष प्रतिज्ञा करें कि हम लोग अन्याय न करेंगे अर्थात् हम सर्वदा तुम्हारी रक्षा और डाकू, चोर, लम्पट-लवाड़, कपटी, कुमार्गी, अन्यायी और कुकर्मियों को निरन्तर दण्ड देवेंगे॥२२॥

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    विषय

    जल-ओषधियाँ-गौवें

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में ११ सद्गुणों का उल्लेख था। ‘सब प्रजाओं के अन्दर ये दिव्य गुण आएँ’, इसके लिए राजा को यह व्यवस्था करनी है कि सब लोगों को उत्तम जल, उत्तम ओषधियाँ प्राप्त हों। राष्ट्र में वृक्षों की स्थिति ठीक हो। वर्षा बहुत कुछ इन वृक्षों पर ही निर्भर है। राष्ट्र में गो-हिंसा कानूनन बन्द हो, क्योंकि मानव-जीवन की उन्नति इन गौवों पर निर्भर करती है। मन्त्र में कहते हैं कि १. हे ( राजन् ) = राष्ट्र में सुव्यवस्था [ Regulation ] लानेवाले! तू ( धाम्नः धाम्नः ) = प्रत्येक स्थान से ( आपः ) = जलों की ( मा ) = मत ( हिंसीः ) = हिंसा होने दे तथा ( मा ) = मत ( ओषधीः ) = ओषधियों की ( हिंसीः ) = हिंसा होने दे। हे ( वरुण ) = राष्ट्र को नियमों के पाशों से बाँधनेवाले राजन्! ( नः ) = हमें ( ततः ) = इन पापों से ( मुञ्च ) = मुक्त कीजिए। न तो हम जलों को खराब करनेवाले हों और न ही वनस्पतियों को व्यर्थ में हिंसित करनेवाले हों। प्रत्येक ग्राम व नगर के चारों ओर वृक्षों के उपवन होने चाहिएँ। ये आँधियों से सुरक्षित करते हैं इनसे रेगिस्तान की वृद्धि न होकर वृष्टि अधिक होती है। 

    २. ( यत् ) = जिसे आप ( अघ्न्या ) = न मारने योग्य ( आहुः ) = कहते हैं ( वरुण इति ) = जिसे आप ‘वरणीय’—‘स्वीकार करने योग्य’ इस प्रकार कहते हैं और हम इन बातों का ध्यान न करके ( शपामहे ) = उन्हें मारते हैं [ शपतिर्वधकर्मा—उ० ] ( ततः ) = उस गौ के मरने के अपराध से हे ( वरुण ) = नियमों में जकड़नेवाले राजन्! ( नः ) = हमें ( मुञ्च ) = छुड़ाइए। हम गो-हत्या आदि के पापों से सदा बचे रहें। 

    ३. इस प्रकार करने पर वे ( आपः ) = जल और ( ओषधयः ) = ओषधियाँ ( नः ) = हमारे लिए ( सुमित्रिया ) = उत्तम स्नेह करनेवाली ( सन्तु ) = हों। हाँ, ( तस्मै ) = उसके लिए ये ( दुर्मित्रिया सन्तु ) = दुःखद शत्रु के तुल्य हों ( यः ) = जो ( अस्मान् ) = हमसे ( द्वेष्टि ) = द्वेष करता है ( च ) = और ( यम् ) = जिसको परिणामतः ( वयम् ) = हम सब ( द्विष्मः ) = प्रीति नहीं करते। वस्तुतः यह सबसे द्वेष करनेवाला व्यक्ति खिझकर ही भोज्य पदार्थों को खाएगा तो उनसे उत्तम रुधिरादि पैदा न होकर विष ही उत्पन्न होंगे, अतः इन सर्वद्वेषियों के लिए भोजन भी विष बन जाएगा। भोजन तो प्रसन्नचित्त से ही खाना चाहिए।

    भावार्थ

    भावार्थ  —हम जलों व ओषधियों को हिंसित न करें। गो-हिंसा को पाप समझें।

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    विषय

    राजा के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( राजन् ) राजन् ! हे ( वरुण ) वरुण ! सर्वश्रेष्ठ प्रजाओं और आप्तों द्वारा वरण करने योग्य ! तू ( आपः ) आप्त प्रजाजनों को और ( ओषधीः ) दुष्टों के दोषों का नाश करने वाले, सामर्थ्यवान् वीर्यवान् पुरुषों को, ( मा हिंसीः ) मत नाश कर । अथवा ( आपः ओषधीः मा हिंसी: ) राष्ट्र में जलों, कूप तड़ाक आदि, औषधि, अन्न आदि के खेतों और वनों का नाश मत कर । उनकी रक्षा कर। और ( धाग्नः धाग्नः ) प्रत्येक स्थान से ( नः ) हमें ( मुञ्च ) भय से मुक्त कर, हमें स्वतन्त्र रख | ( यत् ) जब २ हम हे ( अघ्न्याः ) न मारने योग्य गौ ओर ! विद्वान् ब्राह्मण गण ! हे (वरुण) सर्व श्रेष्ठ दोषवारक ! ( इति ) इस प्रकार कहकर हम ( शपामहे ) आगे अपराध न करने की शपथ लें ( ततः ) तब उस अपराध के दण्ड से  ( नः ) हमें ( मुक्त) मुक्त कर । ( नः ) हमारे लिये ( आपः ) समस्त जल और ( ओषधयः ) औषधियां और आप्त पुरुष और दण्ड दाता अधिकारी- जन (नः) हमारे ( सुमित्रियाः) उत्तम स्नेहकारी मित्र के समान वर्ताव करने वाले ( सन्तु ) हों। और वे ही ( तस्मै ) उस मनुष्य के लिये ( दुर्मित्रियाः ) दुःखदायी हों ( यः ) जो ( अस्मान् ) हमें (द्वेष्टि ) द्वेष करता है और (यं च वयं द्विष्मः ) जिससे हम द्वेष करते हैं ।। 
    'आपः` - आपो वै सर्वे देवाः । श० १० । ५ । ४ । १४ ॥ आपो वरुण- स्वपन्यः । तै० १ । १ । ३ । ८ ॥ अग्निना वा आपः सुपत्न्यः । श० ६ । ८ । 
    २ । ३ ॥ मनुष्या वा आपः चन्द्राः । श० ७ । ३ । १ । २० ॥ 
    ' ओषधीः ' – ओषं धय इति तत ओषधयः समभवन् । तेज और ताप को धारण करने वाला 'ओषधि' है ॥ 
    गृहपति पक्ष में यही मन्त्र व्याख्यात होता है। जिससे स्त्रियें और गर्भिणिएं अदण्ड्य होती हैं । शत० ३ । ५ । १० । ११ ।। 
     

    टिप्पणी

     १ मापो मौषधी। २ सुमित्रिया। 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुणो देवता । ब्राह्मी ( १ ) स्वराड् उष्णिक् । ऋषभः । 
    ( २ ) विराड् गायत्री । षड्जः॥

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    विषय

    अब व्यापार करने के लिये राज-व्यवस्था का उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे (राजन्) सभापते! आप (अपः) जलों को (औषधीः) जौ आदि औषधियों को (मा) मत (हिंसी:) नष्ट करो केवल यही नहीं किन्तु आप (ततः) उस-उस (धाम्नो धाम्नः) स्थान से [नः] हमें (मा) मत (मुञ्च) छुड़ा। हे (वरुण) प्रशस्त सेनापते! (अघ्न्याः) हनन करने के अयोग्य गौवें हैं (इति) ऐसा (यत्) जो आप (आहुः) कहते हैं और हम भी इसी प्रकार (शपामहे) कहते हैं (ततः) इसीलिये आप [नः] हमें (मा मुञ्च) न छोड़ें और हम भी आपको न छोड़ें। हे (वरुण) न्यायकारिन् [इति] इस प्रकार (नः) हमारे लिए (आपः) जल और (औषधयः) औषधियाँ (सुमित्रियाः) श्रेष्ठ मित्र के समान(सन्तु) हों। (यः) जो शत्रु (अस्मान्) हम लोगों से (द्वेष्टि) द्वेष करता है और (यं च) जिस शत्रु से (वयम्) हम (द्विष्माः) द्वेष करते हैं (तस्मै) उस शत्रु के लिये (दुर्मित्रियाः) दुष्ट मित्र के समान ( सन्तु) हों ॥ ६ ॥ २२ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुष प्रजा से अन्याय से धन ग्रहण न करें। राजा भी (की) रक्षा की प्रतिज्ञा करें कि हम अन्याय नहीं करेंगे तथा दुष्टों को सदा दण्ड दें।। ६। २२।।

    प्रमाणार्थ

    (अघ्न्याः) यह शब्द निघं० (२। ११) में गो-नामों में पड़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३। ८। ५। ९-११) में की गई है।। ६। २२।।

    भाष्यसार

    वाणिज्य के लिये राज-व्यवस्था--व्यापार को समुन्नत करने का अभिलाषी राजा जल तथा जौ आदि औषधियों का विनाश न करे केवल इतना ही नहीं अपितु वाणिज्य के स्थानों से व्यापारियों को पृथक् न करे। राजा और व्यापारी जन गौ आदि पशुओं की हत्या न करें किन्तु इन्हें अहिंसनीय समझें। गौ आदि पशुओं से राजा और व्यापारी दूर न रहें अपितु उनका पालन-पोषण करें। राजपुरुष न्यायकारी हों। अन्याय से प्रजा से धन ग्रहण न करें। राजा ऐसी व्यवस्था करे कि प्रजा के लिये जल और औषधियाँ श्रेष्ठ मित्र के समान उपकारक हों और श्रेष्ठ जनों से द्वेष करने वाले शत्रुओं के लिये जल और औषधियाँ शत्रु के समान अपकारक हों। राजपुरुष राजा की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा-बद्ध हों कि हम अन्याय कभी नहीं करेंगे और दुष्टों को सदा दण्ड देंगे और श्रेष्ठों की रक्षा करेंगे।। ६। २२।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा व राज्याचे कर्मचारी यांनी अन्यायाने प्रजेचे धन लुबाडू नये. उलट राजपुरुषांनी राज्याचे पालन करण्यासाठी अशी प्रतिज्ञा करावी की, आम्ही अन्याय करणार नाही. अर्थात नेहमी तुमचे रक्षण करून डाकू, चोर, लंपट, लबाड, कपटी, कुमार्गी, अन्यायी व कुकर्मी यांना दंड देऊ.

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    विषय

    आता वाणिज्य व्यापार करण्याविषयी राज्यशासनाने काय काय करावे,याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे. -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (राजन्) सभापती (राष्ट्रध्यक्ष) महोदय, (आपण आपल्या शासनात असा प्रबन्ध करा की) जिथे जे (आपः) जल आणि (ओषधीः) भोजन-पानाचे पदार्थ आहेत, तसेच जिथे जिथे व्यापारिक उपयोगाचे किराणा खाद्य पदार्थ आहेत, ते (मा) (हिंसी) नष्ट होऊ नयेत. अर्थात आम्हा प्रजाजनांना सर्व वांछित पदार्थ मिळत राहतील, असे करा. एवढेच नाही तर असेही करा की (ततः) त्या (धाम्नाः) (धाम्नाः) स्थानांवरून (जेत्रे अन्न, जल, भोज्यपदार्थ, फळ आदींची सुबत्ता आहे, अशा ग्राम, नगर, आदी ठिकाणांपासून (नः) आम्हांस (मा) (मुञ्च) वेगळे या वा दूर करूं नका. हे (वरूण) न्यायकारी सभापती महोदय, आपण न्यायाने करीत असलेल्या न्यायदानात (अघ्न्याः) आम्ही आपणास अहिंसनीय गाय आदी पशूंची शपथ घालीत आहोत (आपणांस गायीची शपथ-आपण कधीही अन्याय करूं नका) (इति) आपण देखील असेच मानत आहात, त्याचप्रमाणे आम्ही प्रजाजन देखील (शपामहे) शपथ घेत आहोत. आपण त्या प्रतिज्ञेचा (गौ हिंसा अकरणीय कर्म आहे व न्यायदानात सदैव न्यायच केला पाहिजे) भंग करू नका आणि आम्हीही प्रतिज्ञाभंग होऊ देणार नाही. हे वरूण, आपल्या राज्यात (नः) आम्हांसाठी (आपः) पाणी आणि औषधी (सुमित्रियाः) श्रेष्ठ मित्राप्रमाणे दुखकारी (सन्तु) व्हाव्यात. (आपणांस प्रार्थना करीत आहोत की) (यः) जो कोणी (अस्मान्) आमच्याशी (द्वेष्टि) वैरभाव ठेवतो/ठेवीत आहे (च) आणि (वयम्) आम्ही (यम्) ज्याच्याशी (द्विषमः) वैर करतो. (तस्मै) त्या द्वेषी मनुष्यासाठी (आपण) व त्या ओषधी (दुर्मित्रियाः) दुख देणार्‍या शत्रूप्रमाणे (सन्तु) व्हाव्यात. ॥22॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा (राष्ट्राध्यक्ष ) आणि राजकर्मचारीगणांनी प्रजाजनांपासून अनीती, अन्याय व अत्याचाराने धन घेऊ नये. (नियमाप्रमाणे कर वसूल करावा) तसेच राजपुरुषांनी प्रतिज्ञा करावी की आम्ही कधीही अन्याय करणार नाही. त्यानी प्रजेला आश्‍वस्त करावे की आम्ही सदा-सर्वदा तुमचे रक्षण करू आणि चोर, दरोडेखोर, ठक, लंपट, धूर्त , कपटी, कुमार्गी, लबाड, अन्यायी आणि कुकर्मी लोकांना निरंतर यथोचित दंड देत राहू. ॥22॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O praiseworthy king, do not destroy canals, wells, tanks, corn fields and forests. Protect us at every place. O Justice-loving king, we take a solemn vow that cows and learned Brahmans whom thou declarest to be unworthy of destruction, will not be killed by us. We will stick to this resolve and so shouldst thou. O king, in thy rule, may waters and medicines be friendly to us, and unfriendly to him who dislikes us or whom we dislike.

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    Meaning

    Head of the republic, pollute not the waters, destroy not herbs and trees: From this, from any other place, leave us not out, except no one from this. Let things like water and refreshment be available anywhere, everywhere. Lord of justice, water, herbs and trees, cows are sacred, they are not to be destroyed: This you vouchsafe, we too take the oath. Back not out. We too will not back out. Under your governance, may waters and herbs be like friends to us. And they would be unfriendly to those elements which injure us and our sanctity, and to those ailments which we oppose, they would be enemies.

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    Translation

    О venerable Lord, do not pollute waters and injure plants. (1) From each and every place of bondage, O King, release us. (2) What they call inviolable speech, in name of that we swear an oath. Release us from that, O venerable Lord. May waters and herbs be friendly to us; and unfriendly to him who hates us and whom we do hate. (3)

    Notes

    Aghnva, speech; also cow. Sapamahe, we swear an oath.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বাণিজ্যার্থং রাজপ্রবন্ধমাহ ॥
    এখন বণিজ ব্যাপার করিবার জন্য রাজ্য প্রবন্ধ বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (রাজন্) সভাপতি ! আপনি নিজের প্রত্যেক স্থানে (আপঃ) জল ও (ওষধীঃ) অন্ন পান পদার্থ তথা যবাদি বনজ পদার্থকে (মা) না (হিংসী) নষ্ট কর অর্থাৎ প্রত্যেক স্থানে আমাদেরকে চাহিদামত পদার্থ মিলিতে থাকুক । না কেবল এই কর কিন্তু (ততঃ) সেই (ধাম্নঃ ধাম্নঃ) স্থান স্থান হইতে (নঃ) আমাদিগকে (মা) না (মঞ্চ) ত্যাগ করিও । হে (বরুণ) ন্যায়কারী সভাপতি ! কৃত ন্যায়ে (অঘ্ন্যাঃ) নহন্তব্য গবাদি পশুগুলির শপথ (ইতি) আছে এইভাবে যাহা আপনি বলেন এবং আমরাও (শপামহে) শপথ করি আপনিও সেই প্রতিজ্ঞাকে ত্যাগ করিবেন না এবং আমরাও ত্যাগ করিব না । হে বরুণ । আপনার রাজ্যে (নঃ) আমাদিগকে (আপঃ) জল ও ওষধিসকল (সুমিত্রিয়াঃ) শ্রেষ্ঠমিত্রের তুল্য (সন্তু) হউক তথা (য়ঃ) যাহারা (অস্মান্) আমাদিগের প্রতি (দ্বেষ্টি) বৈরতা রাখে (চ) এবং (বয়ম্) আমরা (য়ম্) যাহার সহিত (দ্বিষ্মঃ) বৈরভাবরাখি (তস্মৈ) তাহার জন্য সেই সব ওষধিসকল (দুর্মিত্রিয়াঃ) দুঃখদায়ক শত্রুতুল্য (সন্তু) হউক ॥ ২২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজা ও রাজাদিগের কর্মচারীগণ অনীতিপূর্বক প্রজাগণের ধন লইবেন না কিন্তু রাজ্য পালন হেতু রাজপুরুষ প্রতিজ্ঞা করিবে যে, আমরা অন্যায় করিব না অর্থাৎ আমরা সর্বদাই তোমাদিগের রক্ষা এবং ডাকাইত ও লম্পট, মিথ্যাবাদী, কুমার্গী, অন্যায়ী ও কুকর্মিদেরকে নিরন্তর দন্ড প্রদান করিব ॥ ২২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মাপো মৌষ॑ধীর্হিꣳসী॒র্ধাম্নো॑ধাম্নো রাজঁ॒স্ততো॑ বরুণ নো মুঞ্চ । য়দা॒হুর॒ঘ্ন্যাऽইতি॒ বরু॒ণেতি॒ শপা॑মহে॒ ততো॑ বরুণ নো মুঞ্চ । সু॒মি॒ত্রি॒য়া ন॒ऽআপ॒ऽওষ॑ধয়ঃ সন্তু দুর্মিত্রি॒য়াস্তস্মৈ॑ সন্তু॒ য়ো᳕ऽস্মান্ দ্বেষ্টি॒ য়ং চ॑ ব॒য়ং দ্বি॒ষ্মঃ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মাপ ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । বরুণো দেবতা । স্বরাড্ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ । সুমিত্রিয়া ন ইত্যস্য বিরাট্ ত্রিপাদ্ গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জ স্বরঃ ॥

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