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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 26
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - भूरिक् गायत्री,आर्षी गायत्री, स्वरः - धैवतः
    112

    सोम॑ राज॒न् विश्वा॒स्त्वं प्र॒जाऽउ॒पाव॑रोह॒ विश्वा॒स्त्वां प्र॒जाऽउ॒पाव॑रोहन्तु। शृ॒णोत्व॒ग्निः स॒मिधा॒ हवं॑ मे शृ॒ण्वन्त्वापो॑ धि॒षणा॑श्च दे॒वीः। श्रोता॑ ग्रावाणो वि॒दुषो॒ न य॒ज्ञꣳ शृ॒णोतु॑ दे॒वः स॑वि॒ता हवं॑ मे॒ स्वाहा॑॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑। रा॒ज॒न्। विश्वाः॑। त्वम्। प्रजा॒ इति॑ प्र॒ऽजाः। उ॒पाव॑रो॒हेत्यु॑प॒ऽअव॑रोह। विश्वाः॑। त्वाम्। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। उपाव॑रोह॒न्त्वित्यु॑प॒ऽअव॑रोहन्तु। शृ॒णोतु॑। अ॒ग्निः। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। हव॑म्। मे॒। शृ॒ण्वन्तु॑। आपः॑। धि॒षणाः॑। च॒। दे॒वीः। श्रोत॑। ग्रा॒वा॒णः॒। वि॒दुषः॑। न। य॒ज्ञम्। शृ॒णोतु॑। दे॒वः। स॒वि॒ता। हव॑म्। मे॒। स्वाहा॑ ॥२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोम राजन्विश्वास्त्वम्प्रजा उपाव रोह विश्वास्त्वाम्प्रजाऽउपाव रोहन्तु । शृणोत्वग्निः समिधा हवम्मे शृण्वन्त्वापो धिषणाश्च देवीः श्रोता ग्रावाणो विदुषो न यज्ञँ शृणोतु देवः सविता हवम्मे स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सोम। राजन्। विश्वाः। त्वम्। प्रजा इति प्रऽजाः। उपावरोहेत्युपऽअवरोह। विश्वाः। त्वाम्। प्रजा इति प्रऽजाः। उपावरोहन्त्वित्युपऽअवरोहन्तु। शृणोतु। अग्निः। समिधेति सम्ऽइधा। हवम्। मे। शृण्वन्तु। आपः। धिषणाः। च। देवीः। श्रोत। ग्रावाणः। विदुषः। न। यज्ञम्। शृणोतु। देवः। सविता। हवम्। मे। स्वाहा॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ गुरुजनः क्षत्रियं शिष्यं प्रजाजनांश्च प्रत्युपदिशति॥

    अन्वयः

    हे सोमराजन्! त्वं पितेव विश्वाः प्रजा उपाववरोह, त्वां विश्वाः प्रजा अपत्यानीवोपावरोहन्तु। भवान् समिधाग्निरिव मे मम प्रजाजनस्य हवं शृणोतु, या आपो धिषणा देवीः देव्यः पत्न्यश्च मातरमिव स्त्रीन्यायं शृण्वन्तु। हे ग्रावाणः स्तावका विद्वांसः सभासदः! यूयं मम हवं श्रोत देवः सविता भवान् विदुषो यज्ञं न इव मे मम हवं स्वाहा शृणोतु॥२६॥

    पदार्थः

    (सोम) प्रशस्तैश्वर्य्ययुक्त (राजन्) सर्वोत्कृष्टगुणैः प्रकाशमान! (विश्वाः) सर्वाः (त्वम्) (प्रजाः) पालनीयाः (उपावरोह) उपवर्तस्व (विश्वाः) सर्वाः (त्वाम्) पितरमपत्यानीव सुखाय (प्रजाः) प्रजननीयाः (उपावरोहन्तु) समुपाश्रयन्तु (शृणोतु) (अग्निः) पावकः (समिधा) समिधेव (हवम्) अर्चनम् (मे) मम (शृण्वन्तु) (आपः) शुभगुणकर्मव्याप्ताः (धिषणाः) धृष्टा वाचो यासां ताः। धिषणोति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) (च) पक्षान्तरे (देवीः) विदुष्यः (श्रोत) शृणुत। अत्र तस्य स्थाने तप्तनप्तनथनाश्च। (अष्टा॰७।१।४५) अनेन तबादेशः। द्व्यचोऽतस्तिङः। (अष्टा॰६।३।१३५) इति दीर्घः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा॰२।४।७३) इति श्नुलोपश्च। (ग्रावाणः) सदसद्विवेचका विद्वांसः। ग्रावाण इति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५।३) (विदुषः) (न) इव (यज्ञम्) (शृणोतु) (देवः) विद्याप्रकाशितः (सविता) ऐश्वर्य्यवान् (हवम्) (मे) मम (स्वाहा) स्तुतियुक्ता वाग्यथा तथा॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ३। ६-२४) व्याख्यातः॥२६॥

    भावार्थः

    राजा प्रजाश्च परस्परानुमत्या सर्वान् राजव्यवहारन् पालयेयुरिति॥२६॥

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    विषयः

    अथ गुरुजनः क्षत्रियं शिष्यं प्रजाजनांश्च प्रत्युपदिशति॥

    सपदार्थान्वयः

    हे सोम! प्रशस्तैश्वर्य्ययुक्त! राजन्! सर्वोत्कृष्टगुणैः प्रकाशमान! त्वं पितेव विश्वाः सर्वाः प्रजाः पालनीया उप+ अव+रोह उपवर्त्तस्व।त्वां पितरमपत्यानीव सुखाय विश्वाः सर्वाः प्रजाः प्रजननीया अपत्यानीव उप+अव+रोहन्तु समुपाशयन्तु । भवान् समिधा समिधेव अग्निः पावकः इव मे= मम प्रजाजनस्य हवम् अर्चनं शृणोतु। या आपः शुभगुणकर्मव्याप्ताः धिषणाःधृष्टा वाचो यासां ताः, देवीः=देव्यः विदुष्य: पत्न्यश्च मातरमिव स्त्रीन्यायं शृण्वन्तु। हे ग्रावाणः=स्तावका विद्वांसः सभासदः! सदसद्विवेचका विद्वांसः! यूयं मम हवम् अर्चनं श्रोत शृणुत। देवः विद्याप्रकाशितः सविता ऐश्वर्य्यवान् भवान् विदुषः यज्ञं न=इव मे=मम हवम् अर्चनं स्वाहा स्तुतियुक्ता वाग्यथा तथा शृणोतु॥ २६॥ [हे......राजन्! त्वं पितेव विश्वाः प्रजा उपावरोह......]

    पदार्थः

    (सोम) प्रशस्तैश्वर्थ्ययुक्त (राजन्) सर्वोत्कृष्टगुणै: प्रकाशमान! (विश्वाः) सर्वा: (त्वम्) (प्रजाः) पालनीया: (उपावरोह) उपवर्तस्व (विश्वाः) सर्वाः (त्वाम्) पितरमपत्यानीव सुखाय (प्रजाः) प्रजननीयाः (उपावरोहन्तु) समुपाश्रयन्तु (शृणोतु) (अग्निः) पावकः (समिधा) समिधेव (हवम्) अर्चनम् (मे) मम (शृण्वन्तु) (आपः) शुभगुणकर्मव्याप्ताः (धिषणाः) धृष्टा वाचो यासां ताः। धिषणैति वाङ् ना०॥ निघं० १।११॥ (च) पक्षान्तरे (देवी) विदुष्यः (श्रोत) शृणुत। अत्र तस्य स्थाने तप्तनप्तनथनाश्च॥ अ० ७ । १ । ४५ ॥अनेन तवादेशः। द्व्यचोतस्तिङः अ० ६।३।१३५ ॥ इति दीर्घः। बहुलं छन्दसि ॥ अ० २ । ४ । ७३।। इति श्नुलोपश्च (ग्रावाणः) सदसद्विवेचका विद्वांसः। ग्रावाण इति पदनामसु पठितम् ॥ नि० ५ । ३।। (विदुषः) (न) इव (यज्ञम्) (शृणोतु) (देवः) विद्याप्रकाशितः (सविता)ऐश्वर्य्यवान् (हवम्) (मे) मम (स्वाहा) स्तुतियुक्ता वाग्यथा तथा॥ अयं मंत्रः शत० ३। ९। ३। ६-२४व्याख्यातः॥ २६॥

    भावार्थः

    राजा प्रजाश्च परस्परानुमत्या सर्वान् राज्यव्यवहारान् पालयेयुरिति ॥ ६ । २६ ॥

    विशेषः

    मेधातिथिः॥ सोमादयोलिङ्गोक्ताः=राजादयः॥ भुरिक् गायत्री। षड्जः। शृणोत्वित्यस्यार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब गुरुजन क्षत्रिय, शिष्य और प्रजाजन को उपदेश करता है, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (सोम) श्रेष्ठ ऐश्वर्ययुक्त (राजन्) समस्त उत्कृष्ट गुणों से प्रकाशमान सभाध्यक्ष! (त्वम्) तू पिता के तुल्य (विश्वाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजनों का (उपावरोह) समीपवर्ती होकर रक्षा कर और (त्वाम्) तुझे (विश्वाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजन पुत्र के समान (उपावरोहन्तु) आश्रित हों। हे सभाध्यक्ष! आप जैसे (समिधा) प्रदीप्त करने वाले पदार्थ से (अग्निः) सर्व गुण वाला अग्नि प्रकाशित होता है, वैसे (मे) मेरी (हवम्) प्रगल्भवाणी को (शृणोतु) सुन के न्याय से प्रकाशित हूजिये (च) और (आपः) सब गुणों में व्याप्त (धिषणाः) विद्या बुद्धियुक्त (देवीः) उत्तमोत्तम गुणों से प्रकाशमान तेरी पत्नी भी माताओं के समान स्त्रीजनों के न्याय को (शृण्वन्तु) सुनें। हे (ग्रावाणः) सत्-असत् के करने वाले विद्वान् सभासदो! तुम हम लोगों के अभिप्राय को हमारे कहने से (श्रोत) सुनो तथा (देवः) विद्या से प्रकाशित (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सभापति (विदुषः) विद्वानों के (यज्ञम्) यज्ञ के (न) समान (मे) हमारे प्रजा लोगों के (हवम्) निवेदन को (स्वाहा) स्तुतिरूप वाणी जैसे हो वैसे (शृणोतु) सुने॥२६॥

    भावार्थ

    राजा और प्रजाजन परस्पर सम्मति से समस्त राज्यव्यवहारों की पालना करें॥२६॥

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    विषय

    राजा

    पदार्थ

    प्रजाओं को उत्तम बनाने में सबसे अधिक भाग राजा का है, अतः ‘राजा कैसा हो’ इस विषय का वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में करते हैं कि १. हे ( सोम राजन् ) = सौम्य निरभिमानिन् राजन्! ( त्वम् ) = तू ( विश्वाः प्रजाः ) = सब प्रजाओं के ( उप अवरोह ) = समीप प्राप्त हो और ( विश्वाः प्रजाः ) =  सब प्रजाएँ ( त्वाम् उप अवरोहन्तु ) = तेरे समीप प्राप्त हों। राजा प्रजाओं के लिए अधृष्य ही न बन जाए, वह उनके लिए अभिगम्य भी हो। जो राजा प्रजाओं के लिए अभिगम्य न होगा, वह प्रजाओं की स्थिति को कभी ठीक-ठीक न समझ सकेगा। 

    २. राजा प्रार्थना करता है कि राष्ट्र में ( अग्निः ) = ज्ञान का प्रकाश देनेवाला ‘ब्राह्मण’ ( समिधा ) = ज्ञान-दीप्ति के हेतु से ( मे हवम् ) =  मेरी पुकार को ( शृणोतु ) = सुने, अर्थात् जब-जब मैं इन ब्राह्मणों को आमन्त्रित करूँ तब-तब ये अवश्य मुझे दर्शन देने की कृपा करें और मुझे आवश्यक ज्ञान देकर मेरे अज्ञानान्धकार को दूर करें। 

    ४. ( आपः ) = राष्ट्र के आप्त पुरुष तथा प्रजाएँ ( धिषणाः च ) = जो बुद्धि के ही मूर्त्तरूप हैं तथा ( देवीः ) = दिव्य गुणोंवाले हैं, वे भी ( शृण्वन्तु ) = मेरे आमन्त्रण को स्वीकार करें। इन व्यक्तियों को जब कभी मैं मन्त्रणा आदि के लिए कहूँ तो वे इसे अस्वीकार न करें। 

    ५. ( ग्रावाणः श्रोत ) = हे सद्-असद् का विवेक करनेवाले सभासदो! [ विद्वांसो हि ग्रावाणः—श० ३।९।३।१४ ] तुम भी मेरी बात को सुनो। ( न ) = जैसे ( विदुषः ) = विद्वान् से ( यज्ञम् ) = यज्ञ को सुनते हैं इसी प्रकार मैं तुमसे राष्ट्रहित के लिए आवश्यक बातों को सुननेवाला होऊँ। 

    ६. सबसे बड़ी बात तो यह है कि ( सविता देवः ) = वह सबका प्रेरक देव प्रभु ( ‘मे हवम्’ ) = मेरी प्रार्थना को ( शृणोतु ) = सुने। मैं भी ( स्वाहा ) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाला बनूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा को निरभिमानी होना चाहिए। वह प्रजाओं के लिए अभिगम्य हो। ब्राह्मण उसे ज्ञान दें। आप्त बुद्धिमान् सत्पुरुष उसे राष्ट्रकार्य में सहायता करें। विवेकी पुरुषों से वह उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त करे जैसेकि वह विद्वानों से यज्ञ के विषय में सुनता है। प्रभु का यह उपासक हो।

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    विषय

    राजा की स्थिति और सेवा कार्य।

    भावार्थ

    हे (सोम राजन् ) सोम, सर्वप्रेरक राजन् ! सर्व उसम गुणों से प्रकाशमान ! सर्वोपरि विराजमान ! ( त्वम् ) तू ( विश्वाः प्रजाः ) समस्त प्रजाओं के ( उप अवरोह ) अधीन होकर रह । और ( विश्वाः प्रजाः ) समस्त प्रजाएं' ( वा उप अवरोहन्तु ) तेरे अधीन होकर रहें। अर्थात् तुझ पर शासन प्रजा का हो और तेरा शासन प्रजा पर रहे॥ 
    ( समिधा ) उत्तम काष्ट या ईंधन से जिस प्रकार अग्नि प्रदीप्त और प्रबल हो जाता है उसी प्रकार ( सम् - इधा ) उत्तम तेज या सेना बल से प्रतापी ( अग्निः) अग्रणी या सेनापति ( मे ) मेरी मुझ वेद्ज्ञ विद्वान् की ( हवम् ) हव, आज्ञा को (शृणवन्तु ) सुने । और ( आपः ) आप्त प्रजाएं और (देवीः) विदुषी ( विषयाः ) ज्ञान, और बुद्धि के प्रदान करने वाली श्रेष्ठ प्रज्ञाएं भी ( मे हवम् ) मेरी आज्ञा को ( शृण्वन्तु ) सुनें। हे (ग्रावाणः) ज्ञान पूर्वक विवेचन करने वाले गुरुजनो ! आप लोग भी ( विदुषः= विद्वांसः यज्ञं न ) यज्ञ परमेश्वर को, जिस प्रकार उसके विद्वान् लोग श्रवण करते हैं उसी प्रकार मेरे राष्ट्र रूप यज्ञ, के विषय में ( श्रोत ) श्रवण करो । और ( सविता देवः ) समस्त देवों, अधीन राजाओं का उत्पादक, प्रेरक राजा भी ( मे हवम् ) मेरे हव अर्थात् आज्ञा ( शृणोतु ) श्रवण करे । ( स्वाहा ) यही उत्तम वेदानुकूल व्यवस्था है॥
     
    'उपावरोह, उपावरोहन्तु इन दोनों का अर्थ धातु, उपसर्ग साम्य से एक ही होना चाहिये । महीधर और उव्वट ने ' उपावरोह' का अर्थ किया है 'आधिपत्याय तिष्ट। ( उपावरोहन्तु ) प्रत्युत्थानादिभिः प्राप्नुवन्तु ।' यह ठीक नहीं। 'धिषणा'-धी सादिभ्यो वा धीमानिन्य इति निरु० २ । ४ ॥ 'विदुषः, अत्र विभक्तिव्यत्ययः प्रथमार्थे द्वितीया । शत० ३ । ९ । ३ । ६-१४॥

    टिप्पणी

     १ सोम। २ शृणोत्वग्निः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमो राजा देवता । (२) गायत्री । षड्जः । ( २ ) आर्षी त्रिष्टुप् । धैवत: ॥

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    विषय

    अब गुरुजन, क्षत्रिय शिष्य और प्रजाजनों को उपदेश करता है॥

    भाषार्थ

    हे (सोम) प्रशस्त ऐश्वर्ययुक्त (राजन्) सब उत्तम गुणों से प्रकाशमान राजन्! आप पिता के समान (विश्वाः) सब (प्रजाः) पालन करने योग्य प्रजा के (उपावरोह) समीप रहें, (त्वाम्) और तुझ पिता को सुख के लिये (विश्वाः) सब (प्रजा:) उत्पन्न प्रजा सन्तान के समान (उपावरोहन्तु) अपना आश्रय समझे। और आप (समिधा) समिधा तथा (अग्निः) अग्नि के समान (मे) मेरे प्रजा-जनों की (हवम्) स्तुति को (शृणोतु) सुनिये। और जो (आपः) शुभ गुण-कर्मों से युक्त (धिषणाः) विद्या से विभूषित (देवी:) विदुषी देवियाँ (च) और पत्नियाँ हैं वे माता के समान स्त्रियों के न्याय को सुनें। हे (ग्रावाण:) स्तुति करने वाले सत्य और असत्य का विवेक करने वाले विद्वान् सभासद लोगो! तुम मेरी (हवम्) स्तुति को (श्रोत) सुनो। और ( देव:) विद्या से प्रकाशित (सविता) ऐश्वर्यवान् आप (विदुषः) विद्वान् के यज्ञ के (न) समान (मे) मेरी (हवम् ) स्तुति को एवं ( स्वाहा ) स्तुतियुक्त वाणी को (शृणोतु) सुनिये।। ६। २६।।

    भावार्थ

    राजा और प्रजा परस्पर अनुमति से सबराज्य-व्यवहारों का पालन करें।। ६। २६।।

    प्रमाणार्थ

    (धिषणाः) यह शब्द निघं० (१। ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। (श्रोत) शृणुत। यहाँ 'त' के स्थान में 'तप्तनप्तनथनाश्च (अ० ७।१।४५) इस सूत्र से 'तप्' आदेश है और 'द्व्यचोऽतस्तिङ:' (अ० ६।३।१३५) इस सूत्र से दीर्घ है तथा 'बहुलं छन्दसि' (अ० २। ४। ७३ ) इस सूत्र से 'श्नु' प्रत्यय का लोप है। (ग्रावाण:) यह शब्द निघं० (५। ३) में पद नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।३।६-२४) में की गई है। ६। २६।।

    भाष्यसार

    गुरुजन का क्षत्रिय शिष्य और प्रजाजनों के प्रति उपदेश-- गुरु कहता है कि हे प्रशस्त ऐश्वर्य से युक्त, सब उत्कृष्ट गुणों से प्रकाशमान राजन् ! तू पिता के समान सब प्रजा का पालन कर। जैसे सन्तान सुख प्राप्ति के लिये अपने पिता का आश्रय करती है इसी प्रकार सब प्रजा सन्तान के समान तेरा आश्रय ग्रहण करें। जैसे समिधा अग्नि को ग्रहण करती है, उसे स्वीकार करती है इसी प्रकार आप प्रजाजनों की स्तुति को सुनिये, स्वीकार कीजिये। और जो शुभ-गुण कर्मों से युक्तविद्या से विभूषित विदुषी स्त्रियाँ और राज-पत्नियाँ हैं वे माता के समान स्त्रियों की बातों को सुनें तथा उचित न्याय करें। राजा कहता है कि हे स्तुति करने वाले, सत्य और असत्य के विवेचक विद्वान् सभासदो! तुम मेरे सत्कार युक्त कथन को सुनो। विद्या से प्रकाशित, ऐश्वर्य सम्पन्न विद्वान् के यज्ञ के समान मेरे सत्कारपूर्ण वचनों को एवं सत्यवाणी को सुनो। इस प्रकार राजा और प्रजा के लोग परस्पर अनुमति से सब राज्य के न्याय आदि व्यवहारों की रक्षा करें।। ६। २६ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा व प्रजा यांनी परस्पर विचारविनिमयाने सर्व राज्यव्यवहार करावा.

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    विषय

    पुढील मंत्रात गुरु आपल्या क्षत्रिय शिष्याला आणि प्रजाजनांना उपदेश करीत आहेत -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (सोम) श्रेष्ठ ऐश्‍वर्यवान (राजन्) उत्कृष्ट गुणांनी समृद्ध आणि सर्वांना पितासमान असलेल्या सभाध्यक्ष महोदय, (राष्ट्राध्यक्ष) आपण (विावाः) समस्त (प्रजाः) प्रजाजनांचे (उपारोह) समीपवर्ती राहून त्यांची रक्षा करा (प्रजेच्या संकटकाळी त्वरीत सहाय्यकारी व्हा) ज्याप्रमाणे पुत्र आपल्या पित्याच्या आश्रमामुळे निर्धास्त व निश्‍चिंत असतो, तद्वत (प्रजा) प्रजाजन आपणास पिता व स्वतःस पुत्र समजून (त्वा) आपल्या आधाराने आणि सहाय्याने निर्भय असावेत. हे सभाध्यक्ष, ज्याप्रमाणे (समिधा) प्रदीप्त होतो, तद्वत आपण (मे) माझी (हवम्) हांक अथवा निवेदन (श्रुणोतु) ऐका आणि न्याय करा. (च) याशिवाय (आपः) सर्वगुणवती (धिषणाः) विद्याबुद्धियुक्त आणि (देवीः) उत्तमोत्तम गुणांनी श्रीमंत अशी अशा आपल्या पत्नीने प्रजेची माता असल्याप्रमाणे स्त्री-प्रजाजनांचे म्हणणे (शृण्वन्तु) ऐकावे. (ग्रावणः) सत-असत जे ज्ञाता हे विद्वान् सभासदहो, आपण सर्वजणांनीदेखील आम्हा प्रजाजनांना आशय (श्रोत) ऐकावा वा समजून घ्यावा. हे (देव) विद्याविभूषित (सविता) ऐश्‍वर्यावान सभापती (विदुषः) ज्याप्रमाणे तुम्ही विद्वानांच्या (यज्ञम्) महत्त्व देता, (न) तद्वत (मे) माझ्या वा आम्हा प्रजाजनांचे (हवम्) निवेदन (स्वाहा) अथवा स्तुतीरूप वाणी (शृणोतु) ऐका. ॥26॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा आणि प्रजाजन, दोघांनी पारस्परिक सहमतीद्वारे समस्त राज्यव्यहार पूर्ण करावेत. ॥26॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O noble king, like a father go near thy subjects, and let the subjects like sons come near thee to seek protection. Just as fire is kindled with wood-sticks, so hear my complaint and kindle justice. Let versatile, learned and noble-minded queens, like mothers, hear the complaints of women, and do justice unto them. You magistrates who distinguish justice from injustice, listen to our grievances. O supreme king, endowed with knowledge, hear like sacrificing learned persons, our requests made in an humble, laudatory tone.

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    Meaning

    Soma (ruler of the republic), lord of majesty, stay close to the entire people and rule like a father. So should the entire people be close to you and grow like children of the father. Like the fire of yajna grown by samidha fuel, listen to my prayer, listen to the people. So may intelligent, educated and cool-minded women listen, like mothers, to the prayers of women. Man of reverence and wisdom, listen to our prayers like the yajnic chants of learned and faithful devotees. May Savita, lord of power and light, listen to my prayers and words of praise.

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    Translation

    O you sovereign, the blissful Lord, descend to all your people. (1) May all your people bow down to you. (2) May the adorable Lord listen to my invocation made with sacred fuel. May the waters and the divine speech listen to my invocation. May discerning learned people listen to my sacrificial invocation, and may the creator God listen to my invocation as well. (3)

    Notes

    Upavaroha, descend. Dhisanah, speech. Gravanah, सददद्विकाका: discerning.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ গুরুজনঃ ক্ষত্রিয়ং শিষ্যং প্রজাজনাংশ্চ প্রত্যুপদিশতি ॥
    এখন গুরুজন ক্ষত্রিয় শিষ্য ও প্রজাজনদিগকে উপদেশ করে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (সোম) শ্রেষ্ঠ ঐশ্বর্য্যযুক্ত (রাজন্) সমস্ত উৎকৃষ্ট গুণে প্রকাশমান সভাধ্যক্ষ ! (ত্বম্) আপনি পিতৃতুল্য (বিশ্বাঃ) সমস্ত (প্রজাঃ) প্রজাদিগের (উপাবরোহ) সমীপবর্ত্তী হইয়া রক্ষা করুন এবং (ত্বাম্) আপনাকে (বিশ্বাঃ) সমস্ত (প্রজাঃ) প্রজাগণ পুত্রবৎ (উপাবরোহন্তু) আশ্রিত হউক । হে সভাধ্যক্ষ ! আপনার সদৃশ (সমিধা) প্রদীপ্ত কারী পদার্থ হইতে (অগ্নিঃ) সর্ব সুখ সম্পন্ন অগ্নি প্রকাশিত হয়, সেইরূপ (মে) আমার (হবম্) জ্ঞানযুক্তবাণীকে (শৃণোতু) শ্রবণ করিয়া ন্যায়পূর্বক প্রকাশিত হউন (চ) এবং (আপঃ) সর্ব গুণে ব্যাপ্ত (ধিষণাঃ) বিদ্যাবুদ্ধিযুক্ত (দেবীঃ) উত্তমোত্তম গুণ দ্বারা প্রকাশমান আপনার পত্নীও মাতৃসদৃশ স্ত্রীগণের ন্যায়কে (শৃণ্বন্তু) শ্রবণ করুন । হে (গ্রাবাণঃ) সৎ অসৎকারী বিদ্বান্ সভাসদ্গণ ! আপনারা আমাদিগের অভিপ্রায়কে আমাদের বলায় (শ্রোত) শ্রবণ করুন তথা (দেবঃ) বিদ্যা দ্বারা প্রকাশিত (সবিতা) ঐশ্বর্য্যবান্ সভাপতি (বিদুষঃ) বিদ্বান্দিগের (য়জ্ঞম্) যজ্ঞের (ন) সমান (মে) আমাদিগের (হবম্) নিবেদনকে (স্বাহা) স্তুতিরূপ বাণী সদৃশ (শৃণোতু) শ্রবণ করুন ॥ ২৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজা ও প্রজাগণেরা পরস্পর সম্মতিপূর্বক সমস্ত রাজব্যবহারের পালন করিবে ॥ ২৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সোম॑ রাজ॒ন্ বিশ্বা॒স্ত্বং প্র॒জাऽউ॒পাব॑রোহ॒ বিশ্বা॒স্ত্বাং প্র॒জাऽউ॒পাব॑রোহন্তু । শৃ॒ণোত্ব॒গ্নিঃ স॒মিধা॒ হবং॑ মে শৃ॒ণ্বন্ত্বাপো॑ ধি॒ষণা॑শ্চ দে॒বীঃ । শ্রোতা॑ গ্রাবাণো বি॒দুষো॒ ন য়॒জ্ঞꣳ শৃ॒ণোতু॑ দে॒বঃ স॑বি॒তা হবং॑ মে॒ স্বাহা॑ ॥ ২৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সোম রাজন্নিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । ভুরিগ্ গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ । শৃণোত্বিস্যার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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