यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 27
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - आपो देवताः
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
126
देवी॑रापोऽअपां नपा॒द्यो व॑ऽऊ॒र्मिर्ह॑वि॒ष्यऽइन्द्रि॒यावा॑न् म॒दिन्त॑मः। तं दे॒वेभ्यो॑ देव॒त्रा द॑त्त शुक्र॒पेभ्यो॒ येषां॑ भा॒ग स्थ॒ स्वाहा॑॥२७॥
स्वर सहित पद पाठदेवीः॑। आ॒पः। अ॒पा॒म्। नपा॒त्। यः। वः॒। ऊ॒र्म्मिः। ह॒वि॒ष्यः॒। इ॒न्द्रि॒यावा॑न्। इ॒न्द्रि॒यवा॒निती॑न्द्रिय॒ऽवा॑न्। म॒दिन्त॑म॒ इति॑ म॒दिन्ऽत॑मः। तम्। दे॒वेभ्यः॑। दे॒व॒त्रेति॑ देव॒ऽत्रा। द॒त्त॒। शु॒क्र॒पेभ्य इति॑ शुक्र॒ऽपेभ्यः॑। येषा॑म्। भा॒गः। स्थ। स्वाहा॑ ॥२७॥
स्वर रहित मन्त्र
देवीरापो अपान्नपाद्यो व ऊर्मिर्विष्य इन्द्रियावान्मदिन्तमः । तन्देवेभ्यो देवत्रा दत्त शुक्रपेभ्यो येषाम्भाग स्थ स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवीः। आपः। अपाम्। नपात्। यः। वः। ऊर्म्मिः। हविष्यः। इन्द्रियावान्। इन्द्रियवानितीन्द्रियऽवान्। मदिन्तम इति मदिन्ऽतमः। तम्। देवेभ्यः। देवत्रेति देवऽत्रा। दत्त। शुक्रपेभ्य इति शुक्रऽपेभ्यः। येषाम्। भागः। स्थ। स्वाहा॥२७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनरेते कथं वर्तेरन्नित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे आपो देवीर्देव्यः प्रजा! यूयं राजभक्ता स्थ भवत, शुक्रपेभ्यो देवेभ्यो येषां वो युष्माकमपां नपादूर्मिरिवेन्द्रियावान् मदिन्तमो हविष्यो भोगोऽस्ति, तं स्वाहा सद्वाचा गृह्णीत। तथा राजादयः सभ्या जना देवत्रा दिव्यान् भोगान् युष्मभ्यं प्रददति तथैतेभ्यो यूयमपि दत्त॥२७॥
पदार्थः
(देवीः) दिव्याः (आपः) आप्ताः प्रजाः (अपां नपात्) अविनश्वरः (यः) (वः) युष्माकम् (ऊर्मिः) जलतरङ्ग इव (हविष्यः) हविर्भ्यो हितः (इन्द्रियावान्) प्रशस्तानीन्द्रियाणि यस्मिन् सः (मदिन्तमः) मदयतीति मदी सोऽतिशयितः। नाद् घस्य। (अष्टा॰८।२।१७) इति ‘मदिन्’ शब्दान्नुडागमः। (तम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (देवत्रा) दिव्यान् गुणान् (दत्त) (शुक्रपेभ्यः) शुक्रं वीर्यं रक्षन्ति तेभ्यः (येषाम्) (भागः) (स्थ) (स्वाहा)॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ३। २५) व्याख्यातः॥२७॥
भावार्थः
प्रजाजनानामिदमुचितमुत्कृष्टगुणं सभापतिं मत्वा राज्यपालनाय करं दत्त्वा न्यायं प्राप्नुयुरिति॥२७॥
विषयः
पुनरेते कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
हे आपःआप्ताः प्रजाः! देवीः=देव्यः प्रजाः दिव्याः! यूयं राजभक्ता स्थ=भवत। शुक्रपेभ्यः शुकं=वीर्य्यं रक्षन्ति तेभ्यो देवेभ्यः विद्वद्भ्यो येषां वः=युष्माकम् अपांनपात् अविनश्वरः ऊर्मि: जलतरङ्ग इव इन्द्रियावान् प्रशस्तानीन्द्रियाणि यस्मिन् सः, मदिन्तमः मदयतीति मदी सोऽतिशयितः हविष्यः हविर्भ्यो हितो भागः अस्ति, तं स्वाहा= सद्वाचा गृह्णीत। यथा राजादयः सभ्या जना देवत्रा=दिव्यान् भोगान् दिव्यान् गुणान् युष्मभ्यं प्रददति तथैतेभ्यो यूयमपि दत्त ।। २७ ।। [हे आपो देवीः=देव्यः प्रजाः! यूयं राजभक्ता स्थ=भवत....यथा राजादयः सभ्या जना देवत्रा=दिव्यान्भोगान् युष्मभ्यं प्रददति तथैतेभ्यो यूयमपि दत्त]
पदार्थः
(देवी) दिव्याः (आपः) आप्ताः प्रजाः (अपाम्) (नपात्) अविनश्वरः (यः) (वः) युष्माकम् (ऊर्मिः) जलतरङ्ग इव (हविष्यः) हविर्भ्यो हितः (इन्द्रियावान्) प्रशस्तानीन्द्रियाणि यस्मिन् सः (मदिन्तमः) मदयतीति मदी सोतिशयितः। नाद् घस्य अ०८। २ । १७ ।। इति मदिन् शब्दान्नुडागम: (तम्) (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (देवत्रा) दिव्यान् गुणान् (दत्त) (शुक्रपेभ्यः) शुकं=वीर्यं रक्षन्ति तेभ्यः (येषाम्) (भागः) (स्थ) (स्वाहा) अयम्मन्त्रः शत० ३ । ९। ३। २५ व्याख्यातः ॥ २७ ॥
भावार्थः
प्रजाजनानामिदमुचितमुत्कृष्टगुणं सभापतिं मत्वा राज्यपालनाय दत्त्वा न्यायं प्राप्नुयुरिति ॥ ६। २७ ।।
विशेषः
मेधातिथि:। आपः=आप्ताः प्रजाः॥ निचृदार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर राजा और प्रजा कैसे वर्त्ताव को वर्तें, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (आपः) श्रेष्ठ गुणों में व्याप्त (देवीः) शुभकर्मों से प्रकाशमान प्रजालोगो! तुम राजसेवी (स्थ) हो, (शुक्रपेभ्यः) शरीर और आत्मा के पराक्रम के रक्षक (देवेभ्यः) दिव्यगुणयुक्त विद्वानों के लिये (येषाम्) जिन (वः) तुम्हारा बली रूप विद्वानों का (यः) जो (अपां नपात्) जलों के नाशरहित स्वाभाविक (ऊर्मिः) जलतरंग के सदृश प्रजारक्षक (इन्द्रियावान्) जिस में प्रशंसनीय इन्द्रियां होती हैं और (मदिन्तमः) आनन्द देने वाला (हविष्यः) भोग के योग्य पदार्थों से निष्पन्न (भागः) भाग हैं, वे तुम सब (तम्) उसको (स्वाहा) आदर के साथ ग्रहण करो, जैसे राजादि सभ्यजन (देवत्रा) दिव्य भोग देते हैं, वैसे तुम भी इसको आनन्द (दत्त) देओ॥२७॥
भावार्थ
प्रजाजनों को यह उचित है कि आपस में सम्मति कर किसी उत्कृष्ट गुणयुक्त सभापति को राजा मान कर राज्य-पालन के लिये कर देकर न्याय को प्राप्त हों॥२७॥
विषय
कर [ tax ]
पदार्थ
गत मन्त्र में राजा का उल्लेख था। प्रस्तुत मन्त्र में राजदेय कर का उल्लेख करते हैं। १. हे ( देवीः ) = दिव्य गुणोंवाली ( आपः ) = प्रजाओ! ( यो वः ) = जो तुम्हारा ( हविष्यः ) = [ हविर्भ्यो हितः, हु = दान ] कररूप में देने के लिए रक्खा हुआ भाग है ( तम् ) = उसे ( देवेभ्यः ) = दिव्य गुणोंवाले—विलासशून्य जीवनोंवाले ( शुक्रपेभ्यः ) = वीर्य का पान [ रक्षण ] करनेवाले जितेन्द्रिय राजाओं के लिए ( देवत्रा ) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के निमित्त ( दत्त ) = दे डालो, उन राजाओं को दे डालो ( येषाम् ) = जिनके तुम ( भाग स्थ ) = [ भाजः ] सेवा के योग्य हो, सेवनीय हो। ( स्वाहा ) = जो राजा तुम्हारी सेवा के लिए अपनी आहुति दे डालता है, अपने स्वार्थों को छोड़कर, अपने आराम को त्यागकर, जो तुम्हारी उन्नति में ही दिन-रात लगा रहता है। तुम सोये हो, तब भी वह ‘जागृवि’ है।
इस मन्त्रभाग में यह बात स्पष्ट है कि [ क ] राजा को दिव्य गुणोंवाला, सब विलासों से ऊपर [ देव ] जितेन्द्रिय [ शुक्रप ] तथा प्रजा-सेवक [ भाग ] होना चाहिए। प्रजा की सेवा के लिए वह अपने सभी स्वार्थों को छोड़ दे। [ ख ] प्रजाओं को भी दिव्य व आप्त [ विश्वास के योग्य ] बनने का प्रयत्न करना। [ ग ] प्रजा राजा को कर दे, क्योंकि इस कर-प्राप्त धन से ही राष्ट्र की सब सुव्यवस्था सम्भव होगी और प्रजाओं में शिक्षा के द्वारा ही अधिकाधिक उत्तम गुणों को उपजाया जा सकेगा।
२. यह ‘कर’ ( अपान्नपात् ) = प्रजाओं का न पतन होने देनेवाला है। इस प्रकार कर को ठीक प्रकार से देनेवाली प्रजाओं में विलास की वृत्तियाँ उत्पन्न नहीं होतीं, क्योंकि उनके पास उन विलासों के लिए अतिरिक्त धन रह ही नहीं जाता।
३. ( ऊर्मिः ) = यह ‘कर’ लहर के समान है। लहर समुद्र में उठती है फिर समुद्र में ही जा गिरती है। इसी प्रकार यह कर प्रजा से उठता है और फिर उसी प्रजा में जा गिरता है। प्रजा से प्राप्त करके प्रजाहित के लिए इस धन का व्यय कर दिया जाता है। इस ‘कर’ से राजा को अपने ही अन्तःपुरों [ महलों ] की रचना नहीं करनी चाहिए।
४. ( इन्द्रियावान् ) = इस कर ने प्रजाओं को [ इन्द्रियं वै वीर्यम् ] शक्तिशाली बनाना है अथवा प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनाना है।
५. ( मदिन्तमः ) = यह कर प्रजाओं को आनन्द देनेवाला है। इस ‘कर’ के द्वारा सुन्दर वनों, उपवनों, तालाबों और नहरों आदि का निर्माण होकर प्रजा का जीवन सच्चा हर्ष व आनन्द प्राप्त करता है। प्रजाओं के लिए उत्तमोत्तम आमोद-प्रमोद के साधनों को यह ‘कर’ प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ — कर का उद्देश्य है कि [ क ] ऐसी व्यवस्था की जाए कि प्रजाओं का पतन न हो। [ ख ] वह प्रजाहित के लिए ही विनियुक्त हो। [ ग ] प्रजाओं को प्रशस्तेन्द्रिय व शक्तिशाली बनाये। [ घ ] प्रजाओं के लिए उत्तम आमोद-प्रमोद के साधनों को भी जुटाये।
विषय
प्रजाजनों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( देवी: आपः ) दिव्य उत्तम गुणवान् विद्वान्, आप्त प्रजा- जनो ! ( यः ) जो ( वः ) तुम में ले ( अपां नपात् ) प्रजाओं में से ही उत्पन्न, प्रजाओं के हित को नष्ट न होने दे, ऐसा ( अम्निः ) जलों के बीच तरङ्ग के समान उन्नत ( हविष्य : ) अन्न आदि से सत्कार करने योग्य ( इन्द्रियावान् ) समस्त इन्द्रियों से सम्पन्न, प्रथा इन्द्र अर्थात् राजपद के योग्य, ऐश्वर्य, वैभव और बल सामर्थ्य से सम्पन्न ( मदिन्तमः) शत्रुओं को पराजय और अपने राष्ट्र को हर्षित करने में सब से अधिक समर्थ है उसको ( देवेभ्यः ) समस्त राजगण और विद्वान् पुरुषों के हितार्थ और ( शुक्र- पेभ्यः ) शुक्र अर्थात् वीर्य का पालन करने वाले आदित्य ब्रह्मचारियों, योगियों और सत्य ज्ञान के पालन करने वाले विद्वानों के लिये अथवा शुक्रप अर्थात् प्रजाओं के पालन करने वाले अथवा शुक्रप अर्थात् शुक्र, आदित्य व्रत के पालक उन पुरुषों के लिये ( देवत्रा ) समस्त राजोचित अधिकार ( दत्त ) प्रदान करो । ( येपामू ) जिनमें से आप लोग भी ( भागः स्थ एक श्रेष्ठ भाग हो । शत० ॥
' मदिन्तमः ' - मदी हर्षग्लेषनयोः । मदयतीति मदी सोतिशयितो मदिन्तमः । नाद्घस्येति नुम् ।
'शुक्रपेभ्यः' । एष वै शुक्रो य एस आदित्यस्तपति । श० ४। ३ । २६ ॥अस्य अग्नेर्वा एतानि नामानि धर्मः अर्कः शुक्रः ज्योतिः सूर्यः ।श० ९। ४ । २ । २५ ॥ सत्यं वै शुक्रम श०। ३ । ९ । ३ । २५॥ शुक्रा ह्यापः । तै० १ । ७। ६ । ३ ॥
टिप्पणी
आपो देवताः । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आपो देवताः । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
फिर राजा और प्रजा कैसे वर्ताव करें, यह उपदेश किया है ॥
भाषार्थ
(आपः) आप्त (देवीः) दिव्यगुण युक्त प्रजाजनो! तुम राजभक्त (स्थ) बनो। और (शुक्रपेभ्यः) वीर्य की रक्षा करने वाले (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये जो (वः) तुम्हारा (अपां नपात्) अविनाशी, (ऊर्मिः) जलतरङ्ग के समान (इन्द्रियवान्) इन्द्रियों को बलवान् बनाने वाला (मदिन्तमः) अत्यन्त आनन्द देने वाला (हविष्यः) हवि के लिये हितकारी, (भागः) भाग है उसे (स्वाहा) श्रेष्ठ वाणी से ग्रहण करो। और जैसे राजा आदि सभ्य लोग (देवत्रा) दिव्य गुण युक्त भोगों को तुम्हें प्रदान करते हैं वैसे इन्हें तुम भी (दत्त) प्रदान करो ॥ ६ । २७ ॥
भावार्थ
प्रजा-जनों को यह उचित है कि उत्कृष्ट गुण वाले सभापति को स्वीकार करकेराज्य की रक्षा के लिये कर-प्रदान करके न्याय को प्राप्त करें।। ६। २७।।
प्रमाणार्थ
(मदिन्तमः) यह 'नाद्धस्य' (अ० ८।२।१७ ) इस सूत्र से 'मदिन्' शब्दसे परे 'नुट्' का आगम है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।३।२५) में की गई है।। ६। २७।।
भाष्यसार
राजा और प्रजा का वर्त्ताव-श्रेष्ठ एवं दिव्य गुणों से युक्त प्रजा-जन राजभक्त हों। वीर्य की रक्षा करने वाले विद्वानों की सेवा के लिये, जल में सदा वर्तमान जलतरङ्ग के समान, इन्द्रियों को प्रशस्त (सबल) करने वाले अत्यन्त आनन्ददायक, यज्ञ की हवि के लिये भी हितकारी अपने भोग्य पदार्थों को प्रजा-जन राजा से सत्कारपूर्ण वाणी से ग्रहण करें। जैसे राजा आदि सभ्य लोग दिव्य गुणों से युक्त भोग पदार्थों को प्रदान करते हैं, वैसे प्रजाजन भी उत्कृष्ट गुण वाले राजा को राज्य की रक्षा के लिये कर-प्रदान करें तथा न्याय को प्राप्त करें ॥ ६। २७।।
मराठी (2)
भावार्थ
प्रजेने आपापसात विचारविनिमय करून एखाद्या उत्कृष्ट व गुणवान सभापतीला राजा निवडावे व राज्याचे पालन होण्यासाठी कर द्यावा आणि त्याच्याकडून न्याय प्राप्त करून घ्यावा.
विषय
पुनश्च, राजा आणि प्रजा यांच्या कर्त्तव्य आणि व्यवहाराविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे प्रजाजनहो, तुम्ही (आपः) दिव्यगुणवान आणि (देवीः) शुभकर्म करणार्याविषयी प्रख्यात आहात, तुम्ही राजसेवी वा राजभक्त व्हा. (शासनात भाग घेणार्या प्रजाजनांचे आचरण उत्तमगुण, कर्मांनीयुक्त व राज्याविषयी प्रामाणिक असावे, हा आशय आहे) (शक्रपेभ्यः) देह आणि आत्मा यांच्या शक्तीचे जे रक्षक वा जाणकार आहेत अशा (देवेभ्यः) दिव्यगुणवान विद्वज्जनां तर्फे तुम्हास दिली जाणारी (यषाम्) जो देय भाग आहे, त्यास तुम्ही ग्रहण करा. (वः) तुम्हां प्रजाजनांचा (यः) जो (अपांनपात्) जलाप्रमाणे नाशरहित आणि स्वाभाविक (ऊर्मिः) उत्साह आहे की जे जलतरंगाप्रमाणे उन्नत आणि रक्षण करणारा आहे आणि (इन्द्रियावान्) ज्या कर्मात शरीरातील सर्व इंद्रियें आनंद अनुभवतात आणि जो (मन्दितमः) आनन्ददायक आहे, असा जो (हविषाः) भोग्य पदार्थांपासून निष्पन्न (भागः) आहे, (तम्) त्या भागाचे तुम्ही सर्व प्रजाजन (स्वाहा) आदरसहित ग्रहण करा. ज्याप्रमाणे राजा तथा सभासदजन तुम्हाला (देवत्रा) भोग्यपदार्थांतील आवश्यक भाग स्वेच्छेने देतात, त्याप्रमाणे तुम्ही (प्रजाजन) देखील त्या विद्वान सभासदांना त्यांचा आवश्यक व देयभाग (दत्त) द्यावा. ॥27॥
भावार्थ
भावार्थ - प्रजेसाठी हे उचित कर्म आहे की त्यांनी आपसात चर्चा व संमती करून कोणा उत्कृष्टगुणयुक्त सभाध्यक्षाला राजा मानावे आणि त्यास राज्यपालन आणि न्यायदानाचे अधिकार द्यावेत. (राष्ट्राचा राष्ट्रपती हा सूज्ञ, गुणवान प्रजाजनांतून निवडलेला असावा) ॥27॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O noble and virtuous subjects, select as your king for the benefit of the learned persons and Brahmcharis who preserve their semen, one, born out of you, who is high like the flood in water, fit for service with food, endowed with strength, capable of subduing his foes, and completely capable of adding to the happiness of his kingdom. Ye too constitute a part of those learned persons.
Meaning
Noble and intelligent people, to one who, among you, is of good and constant character, strong of sense and will, happiest and most inspiring, like a wave on the ocean of existence, worthy of reverence and homage, defender and supporter of the virtuous, to him, for the gods among men, the noblest preservers, protectors and promoters of life’s vitalities, give your share of the social yajnic offering. You too are a part of the noble ones. Accept him in good grace with words of love and reverence — the one of you and for all of you.
Translation
О divine waters, your wave is your offspring, worthy of being offered as an oblation, and which is potent and most delightful; bestow that on the enlightened ones, drinkers of divine bliss, of whom you yourselves are a part. (1) Svaha. (2)
Notes
Indriyavan, potent. Madintamah, most delightful. Napat, offspring. Sukrapebhyah, for the drinkers of divine bliss. Sukra is Soma or divine bliss.
बंगाली (1)
विषय
পুনরেতে কথং বর্তেরন্নিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় রাজা ও প্রজা কেমন ব্যবহার করিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (আপঃ) শ্রেষ্ঠ গুণে ব্যাপ্ত (দেবীঃ) শুভকর্ম দ্বারা প্রকাশমান প্রজাগণ! তোমরা রাজসেবী (স্থ) হও । (শুক্রপেভ্যঃ) শরীর ও আত্মার পরাক্রমের রক্ষক (দেবেভ্যঃ) দিব্যগুণযুক্ত বিদ্বান্দিগের জন্য (য়েষাম্) যে সব (বঃ) তোমাদের বলবান্ বিদ্বান্দিগের (য়ঃ) যাহারা (অপাং নপাৎ) জলের নাশরহিত স্বাভাবিক (ঊর্মিঃ) জলতরঙ্গ সদৃশ প্রজারক্ষক (ইন্দ্রিয়াবান্) যাহাতে প্রশংসনীয় ইন্দ্রিয় হয় এবং (মদিন্তমঃ) আনন্দ প্রদাতা (হবিষ্যঃ) ভোগের যোগ্য পদার্থ দ্বারা (ভাগঃ) নিষ্পন্ন অংশ তোমরা সকলে (তম্) তাহা (স্বাহা) আদরের সহিত গ্রহণ কর যেমন রাজাদি সভ্যগণ (দেবত্রা) দিব্য ভোগ প্রদান করেন সেইরূপ তোমরাও ইহাকে আনন্দ (দত্ত) প্রদান কর ॥ ২৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- প্রজাগণের উচিত যে, পারস্পরিক সম্মতি দ্বারা কোন উৎকৃষ্ট গুণযুক্ত সভাপতিকে রাজা মানিয়া রাজ্য পালন হেতু কর দিয়া ন্যায় প্রাপ্ত হউক ॥ ২৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
দেবী॑রাপোऽঅপাং নপা॒দ্যো ব॑ऽঊ॒র্মির্হ॑বি॒ষ্য᳖ऽইন্দ্রি॒য়াবা॑ন্ ম॒দিন্ত॑মঃ ।
তং দে॒বেভ্যো॑ দেব॒ত্রা দ॑ত্ত শুক্র॒পেভ্যো॒ য়েষাং॑ ভা॒গ স্থ॒ স্বাহা॑ ॥ ২৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
দেবীরাপ ইত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । আপো দেবতাঃ । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal