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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 31
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - प्रजासभ्यराजानो देवताः छन्दः - विराट ब्राह्मी जगती, स्वरः - ऋषभः
    107

    मनो॑ मे तर्पयत॒ वाचं॑ मे तर्पयत प्रा॒णं मे॑ तर्पयत॒ चक्षु॑र्मे तर्पयत॒ श्रोत्रं॑ मे तर्पयता॒त्मानं॑ मे तर्पयत प्र॒जां मे॑ तर्पयत प॒शून् मे॑ तर्पयत ग॒णान्मे॑ तर्पयत ग॒णा मे॒ मा वितृ॑षन्॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मनः॑। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। वाच॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प्रा॒णम्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। चक्षुः॑। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। श्रोत्र॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। आ॒त्मान॑म्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प्र॒जामिति॑ प्र॒ऽजाम्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। प॒शून्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। ग॒णान्। मे॒। त॒र्प॒य॒त॒। ग॒णाः। मे॒। मा। वि। तृ॒ष॒न् ॥३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनो मे तर्पयत वाचम्मे तर्पयत प्राणम्मे तर्पयत चक्षुर्मे तर्पयत श्रोत्रम्मे तर्पयतात्नम्मे तर्पयत प्रजाम्मे तर्पयत पशून्मे तर्पयत गणान्मे तर्पयत गणा मे मा वितृषन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मनः। मे। तर्पयत। वाचम्। मे। तर्पयत। प्राणम्। मे। तर्पयत। चक्षुः। मे। तर्पयत। श्रोत्रम्। मे। तर्पयत। आत्मानम्। मे। तर्पयत। प्रजामिति प्रऽजाम्। मे। तर्पयत। पशून्। मे। तर्पयत। गणान्। मे। तर्पयत। गणाः। मे। मा। वि। तृषन्॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 31
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ राजा सभ्यजनान् सभा राजानञ्च किमुपदिशेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे सभाजनाः प्रजाजना वा! यूयं स्वगुणैर्मे मम मनस्तर्प्पयत, मे वाचं तर्प्पयत, मे प्राणं तर्प्पयत, मे चक्षुस्तर्प्पयत, मे श्रोत्रं तर्प्पयत, मे ममात्मानं तर्प्पयत, मे प्रजां तर्प्पयत, मे पशूंस्तर्प्पयत, मे गणांस्तर्प्तयत, यतो मे गणा मा वितृषन् तृषिता मा भवन्तु॥३१॥

    पदार्थः

    (मनः) अन्तःकरणम् (मे) (तर्प्पयत) (वाचम्) (मे) (तर्प्पयत) (प्राणम्) (मे) (तर्प्पयत) (चक्षुः) (मे) (तर्प्पयत) (श्रोत्रम्) (मे) (तर्प्पयत) (आत्मानम्) (मे) (तर्प्पयत) (प्रजाम्) सन्तानादिकाम् (मे) (तर्प्पयत) (पशून्) गोहस्त्यश्वादीन् (मे) (तर्प्पयत) (गणान्) परिचारकादीन् (मे) (तर्प्पयत) (गणाः) (मे) मम (मा) निषेधार्थे (वि) विरुद्धार्थे (तृषन्) तृषिता भवन्तु। अत्र लोडर्थे लुङ्॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ४। ७-८) व्याख्यातः॥३१॥

    भावार्थः

    सभाधीनमेव राज्यप्रबन्धो भवितुमर्हति, यतः सर्वे प्रजाजना राजसेवका राजजनाः प्रजासेविनो भूत्वा स्वेषु कर्म्मसु प्रवृत्त्यान्योऽन्यमभिमोदयेयुरिति॥३१॥

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    विषयः

    अथ राजा सभ्यजनान् सभा राजानञ्च किमुपदिशेदित्याह ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे सभाजनाः प्रजाजना वा! यूयं स्वगुणैः ये=मम मनः अन्तःकरणं तर्प्पयत। मे मम वाचं वाणीं तर्प्पयत।मे मम प्राणं तर्प्पयत । मे मम चक्षुः तर्प्पयत । मे मम श्रोत्रं तर्प्पयत। मे=मम आत्मानं तर्प्पयत।मे मम प्रजां सन्तानाऽऽदिकं तर्प्पयत। मे मम पशून् गोहस्त्यश्वादीन् तर्प्पयत। मे मम गणान् परिचारकाऽऽदीन् तर्प्पयत। यतो मे मम गणाः परिचारकादयो मा वि+तृषन्=तृषिता मा भवन्तु नहि तृषिता भवन्तु ।। ६ । ३१ ।। [हे सभाजनाः प्रजाजना वा! यूयंस्वगुणैर्ये=सम मनस्तर्पयत......]

    पदार्थः

    (मनः) अन्तःकरणम् (मे) मम (तर्प्पयत) (वाचम्) (मे) (तर्प्पयत) (प्राणम्) (मे) (तर्प्पयत) (चक्षुः) (मे) (तर्प्पयत) (श्रोत्रम्) (मे) (तर्प्पयत) (आत्मानम्) (मे) (तर्प्पयत) (प्रजाम्) सन्तानादिकाम् (मे) (तर्प्पयत) (पशून्) गोहस्त्यश्वादीन् (मे) (तर्प्पयत) (गणान्) परिचारकादीन् (मे) (तर्प्पयत) (गणाः) (मे) मम (मा) निषेधार्थे (वि) विरुद्धार्थे (तृषन्) तृषिता भवन्तु। अत्र लोडर्थे लुङ्॥ अयं मन्त्रः। शत० ३। ९।४।७-८ व्याख्यातः ॥ ३१॥

    भावार्थः

    सभाधीनमेव राज्यप्रबन्धो भवितुमर्हति। यतः सर्वे प्रजाजना राजसेवका, राजजना: प्रजासेविनो भूत्वा स्वेषु स्वेषु कर्मसु प्रवृत्त्यान्योऽन्यमभिमोदयेयुरिति ॥ ६ । ३१॥

    विशेषः

    मधुच्छन्दाः । प्रजासभ्यराजानः=स्पष्टम्।। ब्राह्म्युष्णिक् प्रजांमे इत्यस्य आर्ष्युष्णिक्। ऋषभः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब राजा अपने सभासदों और सभा राजा को क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे सभ्यजनो और प्रजाजनो! तुम अपने गुणों से (मे) मेरे (मनः) मन को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरी (वाचम्) वाणी की (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (प्राणम्) प्राण को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (आत्मानम्) आत्मा को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरी (प्रजाम्) सन्तानादि प्रजा को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (पशून्) गौ, हाथी, घाæेडे आदि पशुओं को (तर्प्पयत) तृप्त करो, (मे) मेरे (गणान्) सेवकों को (तर्प्पयत) तृप्त करो, जिससे (मे) मेरे (गणाः) राज्य वा प्रजा कर्माधिकारी वा सेवकजन कामों में (मा) मत (वितृषन्) उदास हों॥३१॥

    भावार्थ

    राज्य का प्रबन्ध सभाधीन ही होने के योग्य है, जिससे प्रजाजन राजसेवक और राजपुरुष प्रजा की सेवा करने हारे अपने-अपने कामों में प्रवृत्त होके सब प्रकार एक-दूसरे को आनन्दित करते रहें॥३१॥

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    विषय

    राजा सभ्यों से

    पदार्थ

    १. प्रस्तुत मन्त्र में राजा सभ्यों से कहता है कि हे सभा और समिति के सदस्यो! तुम इस प्रकार राष्ट्र का विधान व राष्ट्र की व्यवस्था करो कि मे ( मनः तर्पयत ) = मेरे मन को तृप्त करो। मैं मन में आनन्द का अनुभव करूँ। ( वाचं मे तर्पयत ) = मेरी वाणी को तृप्त करो। मेरी वाणी से ऐसे ही शब्द निकलें कि यह विधान ठीक बना है और यह व्यवस्था ठीक हुई है। ( प्राणं मे तर्पयत ) = मेरे प्राणों को तृप्त करो। मुझे जीवन में सन्तोष का अनुभव हो। ( चक्षुर्मे तर्पयत ) = राष्ट्र में चतुर्दिक् उन्नति को देखकर मेरी आँखें तृप्ति का अनुभव करें। ( श्रोत्रं मे तर्पयत ) = देश-विदेश में सर्वत्र राष्ट्र की प्रशंसा सुनकर मेरे कान तृप्त हों। ( आत्मानं मे तर्पयत ) = इस राष्ट्रोन्नति से मैं अन्दर-ही-अन्दर आत्मा में सन्तोष मानूँ। 

    २. परन्तु इससे भी बढ़कर बात तो यह है कि तुम्हारा विधान व व्यवस्था ऐसी हो कि उससे तुम ( मे प्रजां तर्पयत ) = मेरी सारी प्रजा को प्रीणित करनेवाले बनो, प्रजा में सन्तोष हो। प्रजा उन्नतिपथ पर आगे बढ़े। 

    ३. ( पशून् मे तर्पयत ) = राष्ट्र के पशुओं को भी तुम प्रीणित करो। तुम्हारी व्यवस्था से गौ इत्यादि उपकारी पशुओं का भी यहाँ खूब आप्यायन हो। 

    ४. ( गणान् मे तर्पयत ) = अपनी व्यवस्था से मेरे सैनिकगणों को भी तृप्त करो। ( मे गणाः ) = मेरे ये सैन्यगण ( मा वितृषन् ) = प्यासे ही न रह जाएँ। इनके वेतनादि की व्यवस्था बड़ी ठीक हो। अन्यथा राष्ट्र की रक्षा सम्भव न होगी। इन्हें ही समय पर राष्ट्ररक्षा के लिए अपने प्राण देने हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — राज्य सभाधिकारी जहाँ अपनी व्यवस्था व विधान से राष्ट्रपति को प्रीणित करनेवाले हों, वहाँ उनका ध्येय [ क ] प्रजा की उन्नति, [ ख ] पशुओं का विकास व [ ग ] सैनिकों को भी उन्नत व सन्तुष्ट करना हो।

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    विषय

    पांच योग्य शासकों को नियुक्ति ।

    भावार्थ

    ( मे मनः तपर्यत) मेरे मनको तृप्त करो । ( मे वार्च तवत ) मेरी वाणी को तृप्त करो । ( प्राणं मे तर्पयत ) मेरे प्राण को तृत करो । ( मेचक्षुः वर्पयत ) मेरी चक्षुओं को तृप्त करो । ( मे श्रोत्रं तर्पयत ) मेरे कान को तृस करो ( मे आत्मानं तर्पयत ) मेरे आत्मा को सन्तुष्ट करो । ( मे प्रजाम् तर्पयत ) मेरी प्रजा पुत्र पौत्र आदि को सन्तुष्ट करो । ( मे पशून् तर्पयत ) मेरे पशु, रथ, वाहन, अश्व, गौ, महिष आदि को संतुष्ट करो । ( मे गणान् ) मेरे आधीन शासकवर्गों को और सेनागण को ( तर्पयत ) सन्तुष्ट करो। और ऐसा तृस करो कि ( मे गणाः ) मेरे सैनिक और शासक वर्ग (मा वितृपन ) नाना पदार्थों के लिये तरसते न रहें, भूखे प्यासे न रहें।
     

    टिप्पणी

    ३१--रावा इत्यस्य ग्रावा, निग्राभ्या इत्यादि मन्त्रस्य आपो देवताः । सर्वा० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजा सभ्या राजानो देवताः । उष्णिहः । ऋषभः ॥ 

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    विषय

    अब राजा अपने सभासदों और सभा राजा को क्या उपदेश करे, यह उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे सभाजनो! वा प्रजाजनो! तुम अपने गुणों से (मे) मेरे (मनः) अन्तःकरण को (तर्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरी (वाचन्) वाणी को (तर्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरे (प्राणम्) प्राणों को (तर्प्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरे (चक्षुः) नेत्रों को (तर्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरे (श्रोत्रम्) कानों को (तर्प्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरी (आत्मानम्) आत्मा को (तर्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरी (प्रजाम् ) सन्तान आदि प्रजा को (तर्प्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरे(पशून्) गौ, हाथी, घोड़े आदि पशुओं को (तर्पयत) तृप्त करो। (मे) मेरे (गणान्) सेवक आदिकों को (तर्पयत) तृप्त करो जिससे (मे) मेरे (गणाः) सेवक आदि (मा वितृषन्) तृषा आदि दुःखों से व्याकुल न हों।। ६। ३१।।

    भावार्थ

    राज्य का प्रबन्ध सभा के आधीन ही हो सकता है, क्योंकि सब प्रजा-जन राजा के सेवक होते हैं और राजा लोग प्रजा के सेवक होकर अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त रहकर एक दूसरे को प्रसन्न रखते हैं।। ६। ३१।।

    प्रमाणार्थ

    (तृषन्) तृषिता भवन्तु। यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।४। ७-८) में की गई है।। ६। ३१।।

    भाष्यसार

    राजा और सभा--राजा सभासदों को यह उपदेश करता है कि सभासदो वा प्रजाजनो! तुम लोग अपने गुणों से मेरे अन्तःकरण, वाणी, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, आत्मा, सन्तान, गाय, हाथी, घोड़ा आदि पशु और सेवक-गणों को तृप्त करो। जिससे मेरे भृत्य आदि को किसी प्रकार का दुःख न हो। इस सभा के आधीन ही सब राज्य प्रबन्ध है। सब प्रजा-जन मेरे सेवक हैं और मैं भी प्रजा का सेवक हूँ।। ६। ३१।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राज्याची व्यवस्था सभेच्या आधीन असावी. प्रजा, राजसेवक व राज्य कर्मचारी यांनी आपापल्या कामात दक्ष राहून सर्व प्रकारे एकमेकांना आनंदित करावे.

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    विषय

    राजाने आपल्या सभासदांना व सभेने राजाला काय उपदेश द्यावा, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादिला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (राष्ट्राध्यक्ष सभासदांना आणि प्रजाजनांना उद्देशून म्हणत आहेत) - हे सभ्यजनहो (संसद-सदस्यगण) आणि हे प्रजाजनहो, तुम्ही सर्व जण आपल्या सद्व्यवहारांनी (मे) माझे (मनः) मन (तर्प्पयत) तृप्त करा (आनंदित व संतुष्ट करा) माझ्या (वाचम्) वाणीला (तर्प्पयत) तृप्त करा (माझ्या आदेशांची प्रतिष्ठा राखा) (मे) माझ्या (प्राणम्) प्राणाला (तर्प्पयत) तृप्त करा (मला आत्मिक शक्ती द्या) (मे) माझ्या (चक्षुः) डोळ्यांना (तर्प्पयत) तृप्त करा (मी सर्वत्र भद्र व शांत दिसावे) (मे) (श्रोत्रम्) कान (तर्प्पयत) तृप्त करा. (आपणांकडून मी भद्र-वचन ऐकावेत) (मे) माझ्या (आत्मनम्) आत्म्याला (तर्प्पयत) तृप्त करा. (मे) माझ्या (प्रजां) संतानास अथवा प्रजाजनांस (तर्प्पयत) तृप्त करा (मे) माझ्या (पशून्) गौ, हत्ती, घोडे आदी पशूंना (तर्प्पयत) तृप्त करा (पशुपालन करा) (मे) माझ्या (गणात्) सेवकांना (तर्प्पयत) तृप्त करा (त्यांच्याशी सभ्यपणे वागा व सहकार्य करा) (मे) माझ्या (गणाः) राज्यधिकारींना सैनिक-सेनापतींना, राजकर्मचारीजनांना, त्यांच्या कार्यात सहकार्य करा, पण कधीही (मा) (वितृषन्) त्यांना उदास वा निराश करून नका. ॥31॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राज्याची व्यवस्था सभाध्यक्ष आणि सभेच्या (सांसद-सभा) अधीन असणेच उचित आहे, कारण यामुळे प्रजाजन, राजसेवक आणि राजपुरुष प्रजेची सेवा करणारे राहतील आणि सर्वजण आपापल्या कर्त्तव्यांमधे तत्पर राहून एकमेकास आनन्दित करतील. ॥31॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O subjects and legislators, satisfy my mind, satisfy my speech, satisfy my breath, satisfy my eye, satisfy my ear, satisfy my soul, satisfy my progeny, satisfy my cattle, satisfy my subordinate officers, so that my officers may not feel sad.

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    Meaning

    People of the land, with your character and performance satisfy my mind with a sense of fulfilment. Satisfy me with your response to my words. Satisfy and fulfil my energy and ambition. Satisfy my eye that I see no wrong. Satisfy my ear that I hear nothing evil. Satisfy my soul. Satisfy my people. Satisfy my animals. Keep my subordinates happy. Let them not suffer any hardship and frustration.

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    Translation

    May all of you satisfy my mind; satisfy my speech; satisfy my breath; satisfy my vision; satisfy my hearing; satisfy my soul; satisfy my offsprings; satisfy my cattle; satisfy my followers. May my followers never be disaffected. (1)

    Notes

    Ganan, to the followers. The waters are addressed to in this mantra. Ma vitrusan, may not be thirsty; may not be disaffected.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ রাজা সভ্যজনান্ সভা রাজানঞ্চ কিমুপদিশেদিত্যাহ ॥
    এখন রাজা নিজ সভাসদগণকে এবং সভা রাজাকে কী উপদেশ করিবেন, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে সভ্যগণ ও প্রজাগণ! তোমরা স্বীয় গুণ গুলি দ্বারা আমার (মনঃ) মনকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর । (মে) আমার (বাচম্) বাণীকে (তপ্পর্য়ত) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (প্রাণম্) প্রাণকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (চক্ষুঃ) নেত্রগুলিকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (শ্রোত্রম্) কর্ণগুলিকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (আত্মানম্) আত্মাকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর (মে) আমার (প্রজাম্) সন্তানাদি প্রজাকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (পশূন) গাভি, হস্তী, অশ্বাদি পশুদিগকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর, (মে) আমার (গণাম্) সেবকদিগকে (তর্প্পয়ত) তৃপ্ত কর, যাহাতে (মে) আমার (গণাঃ) রাজ্য অথবা প্রজা কর্মাধিকারী বা সেবকগণ কর্মে (মা) না (বিতৃষন্) বিতৃষ্ণা বোধ করে ॥ ৩১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজ্যের ব্যবস্থা সভার অধীন হওয়াই উচিত যাহাতে প্রজাগণ রাজসেবক এবং রাজপুরুষ প্রজার সেবক নিজ নিজ কর্মে প্রবৃত্ত হইয়া সর্ব প্রকার একে অন্যকে আনন্দিত করিতে থাকে ॥ ৩১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মনো॑ মে তর্পয়ত॒ বাচং॑ মে তর্পয়ত প্রা॒ণং মে॑ তর্পয়ত॒ চক্ষু॑র্মে তর্পয়ত॒ শ্রোত্রং॑ মে তর্পয়তা॒ত্মানং॑ মে তর্পয়ত প্র॒জাং মে॑ তর্পয়ত প॒শূন্ মে॑ তর্পয়ত গ॒ণান্মে॑ তর্পয়ত গ॒ণা মে॒ মা বি তৃ॑ষন্ ॥ ৩১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মনো ম ইত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । প্রজাসভ্যরাজানো দেবতাঃ । মনো মে তর্পয়তেত্যস্য ব্রাহ্ম্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ । প্রজাং মে তর্পয়তেত্যস্য আর্ষ্যুষ্ণিক্ ছন্দঃ । উভয়ত্র ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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