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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 36
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - पुरोष्णिक्, स्वरः - ऋषभः
    60

    प्रागपा॒गुद॑गध॒राक्स॒र्वत॑स्त्वा॒ दिश॒ऽआधा॑वन्तु। अम्ब॒ निष्प॑र॒ सम॒रीर्वि॑दाम्॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राक्। अपा॑क्। उद॑क्। अ॒ध॒राक्। स॒र्वतः॑। त्वा॒। दिशः॑। आ। धा॒व॒न्तु॒। अम्ब॑। निः। प॒र॒। सम्। अ॒रीः। वि॒दा॒म् ॥३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रागपागुदगधराक्सर्वतस्त्वा दिश आ धावन्तु । अम्ब नि ष्पर समरीर्विदाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्राक्। अपाक्। उदक्। अधराक्। सर्वतः। त्वा। दिशः। आ। धावन्तु। अम्ब। निः। पर। सम्। अरीः। विदाम्॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 36
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथैतयोरपत्यानि किं किं कुर्युस्तौ कथं पालयेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे अम्ब! त्वं या अरीः सुखप्रापिका प्रजास्ते प्रागपागुदगधराक् सर्वतो दिशस्त्वामाधावन्तु, तास्त्वं निष्पर नितरां रक्ष, ता अपि त्वा त्वां संविदां जानन्तु॥३६॥

    पदार्थः

    (प्राक्) पूर्वस्याः (अपाक्) पश्चिमायाः (उदक्) उत्तरस्याः (अधराक्) दक्षिणस्याः (सर्वतः) अन्याभ्यः (त्वा) त्वाम् (दिशः) (आ) समन्तात् (धावन्तु) (अम्ब) अमति प्रेमभावेन प्राप्नोति तत्संबुद्धौ, अत्रोणादिर्बन् प्रत्ययः। (निः) नितराम् (पर) पालय (सम्) (अरीः) सुखप्रापिकाः प्रजाः (विदाम्) विदताम्, विद ज्ञान इत्यस्माल्लोटि प्रथमबहुवचने लोपस्त आत्मनेपदेषु। (अष्टा॰७।१।४१) अनेन तकारलोपे सवर्णदीर्घे विदामिति रूपम्॥ अयं मन्त्रः अयं मन्त्रः (शत॰र३। ९। ४। २०-२३) व्याख्यातः॥३६॥

    भावार्थः

    मातापित्रोर्योग्यतास्ति स्वापत्यानि विद्यादिसद्गुणेषु नियोज्य निरन्तरं रक्षणीयानि, अपत्यानां योग्यतास्ति सर्वतः पित्रोः सेवनं कुर्य्युरिति॥३६॥

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    विषयः

    अथैतयोरपत्यानि किं किं कुर्युस्तौ कथं पालयेयुरित्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे अम्ब! अमति=प्रेमभावेन प्राप्नोति तत्सम्बुद्धौ! त्वं या अरीः=सुखप्रापिकाः प्रजास्ते प्राक् पूर्वस्याः, अपाक् पश्चिमायाः, उदक् उत्तरस्याः, अधराक् दक्षिणस्याः, सर्वतः अन्याभ्यो दिशः, [त्वा]=त्वाम् आ+धावन्तु समन्ताद् धावन्तु। तास्त्वं निः+पर=नितरां रक्ष नितरां पालय। ता अपि त्वा=त्वां सं+विदाम्=जानन्तु विदताम् ॥ ६ । ३६॥ [हे अम्ब! त्वं या अरी: सुखप्रापिका: प्रजाःतास्त्वं निः+पर=नितरां रक्ष]

    पदार्थः

    (प्राक्) पूर्वस्याः (अपाक्) पश्चिमाया: (उदक्) उत्तरस्या: (अधराक्) दक्षिणस्याः (सर्वतः) अन्याभ्यः (त्वा) त्वाम् (दिशः) (आ) समन्तात् (धावन्तु) (अम्ब) अमति=प्रेमभावेन प्राप्नोति तत्संबुद्धौ। अत्रोणादिर्वन् प्रत्यय: (निः) नितराम् (पर) पालय (सम्) (अरी:) सुखप्रापिका: प्रजाः (विदाम्) विदताम्। विद ज्ञान इत्यस्माल्लोटि प्रथमबहुवचने। लोपस्त आत्मनेपदेषु।। ७ । १ । ४१ ।। अनेन तकारलोपे सवर्णदीर्घे विदामिति रूपम् ॥ अयं मन्त्रः शत० ३।९।४।२०-२३ व्याख्यातः ॥ ३६॥

    भावार्थः

    मातापित्रोर्योग्यताऽस्ति--स्वापत्यानि विद्यादिसद्गुणेषु नियोज्य निरन्तरं रक्षणीयानि। [ता अपि त्वा=त्वां सं+विदाम्=जानन्तु] अपत्यानां योग्यताऽस्तिसर्वतः पित्रोः सेवनं कुर्युरिति ।। ६। ३६।।

    भावार्थ पदार्थः

    अरीः=स्वापत्यानि । निः+परः=निरन्तरं रक्ष॥

    विशेषः

    मधुच्छन्दाः। सोमः=पित्रादीनां सेवा।। उष्णिक्। ऋषभः।।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उनके पुत्र क्या-क्या करें और वे पुत्रों को कैसे पालें, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अम्ब) प्रेम से प्राप्त होने वाली माता! जो तेरी (अरीः) सन्तानादि प्रजा (प्राक्) पूर्व (अपाक्) पश्चिम (उदक्) उत्तर (अधराक्) दक्षिण और भी (सर्वतः) सब (दिशः) दिशाओं से (त्वा) तुझे (आ) (धावन्तु) धाय-धाय प्राप्त हों, उन्हें (निः) निरन्तर (पर) प्यार कर और वे भी तुझे (सम्) अच्छे भाव से जानें॥३६॥

    भावार्थ

    माता और पिता को योग्य है कि अपने सन्तानों को विद्यादि अच्छे-अच्छे गुणों मे प्रवृत्त कराकर अच्छे प्रकार उन के शरीर की रक्षा करें अर्थात् जिससे वे नीरोग शरीर और उत्साह के साथ गुण सीखें और उन पुत्रों को योग्य है कि माता-पिता की सब प्रकार से सेवा करें॥३६॥

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    विषय

    सर्वतो-धावन [ शोधन ]

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में निर्भयता आदि सद्गुणों के धारण का प्रसङ्ग था। उल्लिखित गुणोंवाले माता-पिता अपने सन्तानों के जीवन को सर्वतः शुद्ध बनाने का प्रयत्न करते हैं। ( प्राक् ) = पूर्व से ( अपाक् ) = पश्चिम से ( उदक् ) = उत्तर से तथा ( अधराक् ) = दक्षिण से ( सर्वतः ) = सब ओर से, सब दिशाओं से ( दिशः ) = सदा उत्तम बातों का उपदेश देनेवाले माता-पिता व आचार्यादि ( त्वा ) = तुझे ( आधावन्तु ) = सर्वतः शुद्ध बना दें। [ धावु गतिशुद्धयोः ] गति के द्वारा वे तेरे जीवन को शुद्ध करनेवाले हों। 

    २. सन्तान व शिष्य माता-पिता व आचार्य से कहती है कि ( अम्ब ) = [ अमति प्रेमभावेन प्राप्नोति ] अत्यन्त प्रेम से मुझे प्राप्त होनेवाली हे मातः! ( निष्पर ) = तू नितरां मेरा पालन कर। मेरी कमियों को दूर करके उनका पूरण करनेवाली हो। ( अरीः ) = [ प्रजा वा अरीः—श० ३।९।४।२१ ] सब प्रजाएँ [ ऋ गतौ ] क्रियाशील सन्तानें— ( संविदाम् ) = [ संविदताम् ] संज्ञानवाली हों, परस्पर लड़नेवाली न हों। 

    ३. मधुच्छन्दा ऋषि का यह अन्तिम मन्त्र है। उसकी सर्वोत्तम इच्छा यही है कि [ क ] बड़ों के उपदेशों से हमारे जीवन शुद्ध हों। [ ख ] प्रेमभाव से प्राप्त होनेवाली माता अपने उपदेशों से बच्चे के जीवन को बड़ा उत्तम बनाये। [ ग ] सब प्रजाएँ परस्पर मिलकर चलनेवाली—संज्ञानवाली हों।

    भावार्थ

    भावार्थ — माता-पिता अपने सन्तानों का, आचार्य शिष्यों का तथा राजा प्रजा का सर्वतः शोधन करे, उन्हें बुराइयों से दूर करे, जिससे सब सन्तान परस्पर संज्ञानवाली हों।

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    विषय

    परस्पर परिचय।

    भावार्थ

    -हे राजन् ! (त्वा ) तेरी शरण में( प्राक् ) पूर्व ( अपाक् )पश्चिम, ( अधराक् ) दक्षिण और ( उदक् ) उत्तर ( सर्वतः ) इन सब ओर से ( दिशः ) समस्त दिशाओं के प्रजाजन ( आधावन्तु )आवें और कहें । हे ( अम्ब ) हमारे प्रेमी ! (निः पर ) हमें सब प्रकार से पालन कर | ( : ) समस्त प्रजाएं (त्वा) तुझे अपना स्वामी, माता के सम्मान पालक ( सम् विदान् ) भली प्रकार जानें । शत० ३ । ९ । ४ । २१ ॥ 
    गृहस्थ पक्ष में ---हे ( अम्ब) बच्चों की माता ! तेरे पुत्र सब दिशाओं से तेरे पास आवें, कहें हमें पालन कर । समस्त प्रजाएं तुझे अपनी माता ही जानें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोमो देवता । उष्णिक् । ऋषभः ॥ 

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    विषय

    अब उनके पुत्र क्या-२ करें और वे पुत्रों को कैसे पालें, यह उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे (अम्ब) प्रेमभाव से प्राप्त होने वाली माता! तू जो (अरी:) तेरी सुख प्राप्त कराने वाली सन्तान आदि प्रजा है वह (प्राक्) पूर्व है (अपाक्) पश्चिम (उदक्) उत्तर (अधराक्) दक्षिण तथा (सर्वतः) अन्य सब दिशाओं से [त्वा] तुझे (आ+धावन्तु) सब ओर से प्राप्त हो। उसकी तू (निः+पर) सर्वथा पालना कर। वह प्रजा भी (त्वा) तुझे (सम्+विदाम्) अच्छी प्रकार समझे अर्थात् तेरी सेवा करे ।। ६ । ३६ ।।

    भावार्थ

    माता-पिता को योग्य है कि वे अपनी सन्तानों को विद्यादि श्रेष्ठ गुणों में लगा कर उनकी सदा रक्षा करें।सन्तानों को योग्य है कि वे सब ओर से माता-पिता की सेवा करें ।। ६ । ३६ ।।

    प्रमाणार्थ

    (अम्ब) यहाँ उणादि का 'वन्' प्रत्यय है । (विदाम्) विदताम् । यह रूप ज्ञान अर्थ वाली 'विद्' के लोट् लकार के प्रथम पुरुष के बहुवचन का है। 'लोपस्त आत्मनेपदेषु' (अ० ७ । १ । ४१) इस सूत्र से तकार लोप करके सवर्ण-दीर्घ करने पर 'विदाम्' रूप सिद्ध होता है । इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।४ । २०-२३) में की गई है ।। ६ । ३६ ।।

    भाष्यसार

    सन्तान क्या करे और माता-पिता उसे कैसे पालें--सन्तानों को अत्यन्त प्रेम-भाव से प्राप्त होने वाली माता के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण अर्थात् सब ओर से, सुख-देने वाली प्रजा विराजमान रहे। और माता-पिता अपनी सन्तानों को विद्या आदि शुभ गुणों में लगाकर उनकी निरन्तर पालना करें और सन्तान उनकी उत्तम रीति से सेवा करें ।। ३ । ३६ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    आई-वडिलांनी आपल्या संतानांना विद्या शिकवून चांगल्या गुणांकडे प्रवृत्त करावे व त्यांच्या शरीराचे रक्षण करावे. अर्थात् त्यामुळे ते निरोगी, उत्साही व गुणी बनावेत. पुत्रांचे हे कर्तव्य आहे की, त्यांनी आपली माता व पिता यांची सेवा करावी.

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    विषय

    पति-पत्नीच्या मुलांनी काय काय करावे (कसे वागावे) आणि त्या आई-वडिलांनी आपल्या मुलांचे पालन-संगोपन कसे करावे. हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अम्बा) संतानावर अमाप प्रेम करणार्‍या माते, तुझी (अरीः) तुझ्याकडे प्रेमाने (प्राक्) पूर्वदिशेकडून (अपाक्) पश्‍चिम (उदक्) उत्तर (अधराक्) दक्षिणदिशेकडून एवढेच नव्हे तर (सर्वतः) सर्व (दिशः) दिशेकडून (त्वा) तुझ्याकडे (आ) (धावन्तु) धावत येवोत. तुदेखील त्या संतानांना (निः) (पर) निरंतर प्रेम दे. त्याचप्रमाणे ते पुत्र पुत्री आदी तुझी संताने सदा (सम्) प्रेम तसेच आदरभावनेने तुझ्याकडे पाहतील ॥36॥

    भावार्थ

    भावार्थ - आई-वडिलांचे कर्वव्य आहे की त्यांनी आपल्या संततीस विद्या आणि सद्गुणग्रहणाकडे प्रवृत्त करावे. त्यांच्या शरिराचे पालन-संगोपन अशा रीतीने करावे की ज्यायोगे ते शरिराने नीरोग आणि उत्साहित राहातील व सद्गुण अंगी बाळगतील. व त्याचप्रमाणे पुत्रांनी देखील आपल्या आई-वडिलांची सेवा करावी व त्यांना सर्वप्रकारे आनंदी ठेवावे. ॥36॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O mother, love thy children, who run unto thee from east, west, north, south and all other directions; and they too should love thee.

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    Meaning

    Mother, all your children and others, keen to make you feel happy and comfortable, may run to you eagerly from east, west, north and south and all round. Love them, protect them, and may they too know you, be with you, and love you well.

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    Translation

    From the front, from behind, from above and from below, from every side, may all the regions rush forward to meet you. O mother, fill them with their share. May the people meet with one mind. (1)

    Notes

    Para, पूरय, fill. Arih, अरी वा प्रजा: इति श्रुते:, the people.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথৈতয়োরপত্যানি কিং কিং কুর্য়ুস্তৌ কথং পালয়েয়ুরিত্যাহ ॥
    এখন তাহার পুত্র কী কী করিবে এবং তাহারা পুত্রদিগকে কীভাবে পালন করিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অম্ব) প্রেমভাবে প্রাপ্ত মাতা । তোমার (অরীঃ) সন্তানাদি প্রজা (প্রাক্) পূর্ব (অপাক্) পশ্চিম (উদক্) উত্তর (অধরাক্) দক্ষিণ এবং (সর্বতঃ) সকল (দিশঃ) দিক্ হইতে (ত্বা) তোমাকে (আ) (ধাবন্তু) অতি সত্বর প্রাপ্ত হউক । তাহাদিগকে (নিঃ) (পর) নিরন্তর স্নেহ কর এবং তাহারাও তোমাকে (সম্) ভালভাবে জানুক ॥ ৩৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মাতা ও পিতার উচিত যে, স্বীয় সন্তানদিগকে বিদ্যাদি ভাল-ভাল গুণে প্রবৃত্ত করাইয়া ভাল প্রকার তাহাদের শরীরের রক্ষা করিবে অর্থাৎ যাহাতে তাহারা নীরোগ শরীর ও উৎসাহ সহ গুণ শিক্ষা করে এবং সেই সব পুত্রদেরও উচিত যে, মাতা-পিতার সকল প্রকারে সেবা করিবে ॥ ৩৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    প্রাগপা॒গুদ॑গধ॒রাক্স॒র্বত॑স্ত্বা॒ দিশ॒ऽআ ধা॑বন্তু ।
    অম্ব॒ নিষ্প॑র॒ সম॒রীর্বি॑দাম্ ॥ ৩৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    প্রাগপাগিত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । সোমো দেবতা । উষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
    ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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