यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 37
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
54
त्वम॒ङ्ग प्रश॑ꣳसिषो दे॒वः श॑विष्ठ॒ मर्त्य॑म्। न त्वद॒न्यो म॑घवन्नस्ति मर्डि॒तेन्द्र॒ ब्रवी॑मि ते॒ वचः॑॥३७॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्। अ॒ङ्ग। प्र॒। श॒ꣳसि॒षः॒। दे॒वः। श॒वि॒ष्ठ॒। मर्त्य॑म्। न। त्वत्। अ॒न्यः। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒स्ति॒। म॒र्डि॒ता। इन्द्र॑। ब्र॒वीमि॒। ते॒। वचः॑ ॥३७॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमङ्ग प्र शँसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम्। अङ्ग। प्र। शꣳसिषः। देवः। शविष्ठ। मर्त्यम्। न। त्वत्। अन्यः। मघवन्निति मघऽवन्। अस्ति। मर्डिता। इन्द्र। ब्रवीमि। ते। वचः॥३७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाजनाः कृतं सभापतिं कथं प्रशंसेयुरित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे अङ्ग शविष्ठ मघवन्निन्द्र सभापते! त्वं मर्त्यं प्रशंसिषो न त्वदन्यो मर्डिता देवोस्त्यतोऽहं ते तुभ्यं वचो ब्रवीमि॥३७॥
पदार्थः
(त्वम्) (अङ्ग) सम्बोधने (प्र) (शंसिषः) प्रशंस, लेड्मध्यमैकवचनप्रयोगः। (देवः) शत्रून् विजिगीषुः (शविष्ठ) बहु शवो बलं विद्यते यस्य स शवस्वान् सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ, अत्र शवः शब्दाद् भूम्न्यर्थे मतुप् तत इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। (अष्टा॰५।३।६५) इति मतुपो लुक्। टेः। (अष्टा॰६।४।१५५) अनेन टिलोपः। (मर्त्यम्) प्रजास्थं मनुष्यम् (न) निषेधे (त्वम्) (अन्यः) (मघवन्) ईश्वर इव समृद्धः (अस्ति) (मर्डिता) सुखयिता (इन्द्र) परमैश्वर्य्यान्वित (ब्रवीमि) (ते) तुभ्यम् (वचः) प्राक्प्रतिपादितराजधर्मानुरूपं वचः॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ४। २४) व्याख्यातः॥३७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षपातविरहः सर्वसुहृदीश्वरस्तदनुकूलः सभापती राज्यधर्म्मानुवर्त्ती राजा प्रशंसनीयं प्रशंसयन्, निन्द्यं निदन्, दण्डार्हं दण्डयन्, रक्षितव्यं रक्षन् सर्वेषामभीष्टं सम्पादयेत्॥३७॥ अत्राध्याये राज्याभिषेकपुरःसरं शिक्षा, राज्यकृत्यम्, प्रजाया राजाश्रयः, सभाध्यक्षादिकृत्यम्, विष्णोः परमपदादिवर्णनम्, सभाध्यक्षेण तदुपासनम्, परस्परं राजसभाकृत्यम्, गुरुणा शिष्यस्वीकारस्तच्छिक्षाकरणम्, यज्ञानुष्ठानम्, हुतद्रव्यफलम्, विद्वल्लक्षणम्, मनुष्यकृत्यम्, मनुष्याणां परस्परं वर्तनम्, दुष्टदोषनिवृत्तिफलम्, ईश्वरात् किं किं प्रार्थनीयम्, रणे योद्धृवर्णनम्, युद्धकृत्यम्, युद्धेऽन्योन्यवर्त्तमानप्रकारो योद्धृणामनुमोदनम्, राज्यप्रबन्धकरणम्, तत्र साध्यसाधनम्, राज्यकर्मकरणम्, प्रतीश्वरोपदेशो राज्यकर्मानुष्ठानम्, राजप्रजाकृत्यम्, प्रजाराजसभयोः परस्परानुवर्तनम्, प्रजया सभापत्युत्कर्षकरणम्, प्रजाजनं प्रति सभापतिप्रेरणम्, प्रजया स्वीकर्तव्यम्, सभापतेर्लक्षणम्, प्रजाराजसभयोः परस्परं प्रतिज्ञाकरणम्, सभापतिस्वीकरणप्रयोजनम्, प्रजासुखाय सभापतेः कर्तव्यकर्मानुष्ठानम्, सभापत्यादीनां पत्नीभिः किं किं कर्म कर्तव्यम्, स्त्रीपुंसयोः परस्परमनुवर्त्तमानम्, पितरौ प्रति सन्तानकृत्यम्, सभापतिं प्रति प्रजाजनोपदेशवर्णनं चास्तीत्यतः पञ्चमाध्यायोक्तार्थैः सहास्य षष्ठाध्यायस्यार्थानां संगतिरस्तीति वेद्यम्॥
हिन्दी (1)
विषय
अब प्रजाजन किये हुए सभापति की प्रशंसा कैसे करें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे (अङ्ग) (शविष्ठ) अत्यन्त बलयुक्त (मघवन्) महाराज के समान (इन्द्र) ऋद्धि-सिद्धि देनेहारे सभापते! (त्वम्) आप (मर्त्यम्) प्रजास्थ मनुष्य को (प्रशंसिषः) प्रशंसायुक्त कीजिये। आप (देवः) देव अर्थात् शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीतने वाले हैं (न) नहीं (त्वदन्यः) तुमसे अन्य (मर्डिता) सुख देने वाला है, ऐसा मैं (ते) आप को (वचः) पूर्वोक्त राज्यप्रबन्ध के अनुकूल वचन (ब्रवीमि) कहता हूं॥३७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर सर्वसुहृत्, पक्षपातरहित है, वैसे सभापति राज्यधर्म्मानुवर्त्ती राजा होकर प्रशंसनीय की प्रशंसा, निन्दनीय की निन्दा, दुष्ट को दण्ड, श्रेष्ठ की रक्षा करके सब का अभीष्ट सिद्ध करे॥३७॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा ईश्वर सर्वांचा सुहृद व पक्षपातरहित असतो तसे राजाने धर्मानुसार राज्य चालवावे व प्रशंसा करण्यायोग्य व्यक्ती असेल तर तिची प्रशंसा व निंदा करण्यायोग्य असेल तर तिची निंदा करून दुष्ट लोकांना शिक्षा करावी व श्रेष्ठांचे रक्षण करावे आणि सर्वांचे कल्याण करावे.
इंग्लिश (2)
Meaning
O mighty, glorious king, render thy subjects praiseworthy. Thou art the conqueror of foes. None but thee is the giver of pleasure. I say this unto thee.
Meaning
Dearest Indra, brilliant and generous, lord mightiest of power and wealth, truth, honour and glory, there is no one else other than you to love, appreciate and approve the human being, no one more compassionate and more gracious than you to vouchsafe for man. I say this for truth — it is the very word of yours !
बंगाली (1)
विषय
অথ প্রজাজনাঃ কৃতং সভাপতিং কথং প্রশংসেয়ুরিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন প্রজাগণ নির্বাচিত সভাপতির প্রশংসা কেমন করিয়া করিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অঙ্গ) (শবিষ্ঠ) অত্যন্ত বলযুক্ত (মঘবন্) মহারাজের সমান (ইন্দ্র) ঋদ্ধি-সিদ্ধি প্রদাতা সভাপতে ! (ত্বম্) আপনি (মর্ত্যম্) প্রজাস্থ মনুষ্যকে (প্রশংসিষঃ) প্রশংসাযুক্ত করুন । আপনি (দেবঃ) দেব অর্থাৎ শত্রুদিগকে ভাল প্রকার পরাস্ত করেন, (ন) নয় (ত্বদন্যঃ) আপনার হইতে অন্য কেউ (মর্ডিতা) সুখদাতা এইরকম আমি (তে) আপনাকে (বচঃ) পূর্বোক্ত রাজ্যপ্রবন্ধানুকূল বচন (ব্রবীমি) বলি ॥ ৩৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালংকার আছে । যেমন ঈশ্বর সর্বসুহৃৎ পক্ষপাতরহিত সেইরূপ সভাপতি রাজধর্ম্মানুবর্ত্তী রাজা হইয়া প্রশংসনীয়ের প্রশংসা, নিন্দনীয়ের নিন্দা, দুষ্টদিগকে দন্ড, শ্রেষ্ঠদিগকে রক্ষা করিয়া সকলের অভীষ্ট সিদ্ধ করুন ॥ ৩৭ ॥
এই অধ্যায়ে রাজ্যের অভিষেক পূর্বক শিক্ষা, রাজ্যের কৃত্য, প্রজাদের রাজ্যাশ্রয় সভাধ্যক্ষাদিকের কর্ম, বিষ্ণুর পরম পদ বর্ণন, সভাধ্যক্ষের ঈশ্বরোপাসনা করা, রাজা-প্রজার পরস্পর কৃত্য, গুরুকে শিষ্যের স্বীকার এবং সেই শিষ্যকে শিক্ষাদান করা, যজ্ঞের অনুষ্ঠান, হোমকৃত দ্রব্যের ফলের বর্ণন, বিদ্বান্দের লক্ষণ, মনুষ্য কৃত্য, মনুষ্যদিগের পরস্পর বর্ত্তমান, দুষ্ট দোষ নিবৃত্তির ফল, ঈশ্বরের নিকট কী কী প্রার্থনা করা উচিত, রণে যোদ্ধার বর্ণন, যুদ্ধকৃত্য নিরূপণ, যুদ্ধে পরস্পর ব্যবহারের প্রকার, বীরদেরকে উৎসাহ দেওয়া, রাজ্য প্রবন্ধের কারণ ও সাধ্য-সাধন, রাজার প্রতি ঈশ্বরোপদেশ, রাজ্যকর্মের অনুষ্ঠান, রাজা ও প্রজার কৃত্য, রাজা ও প্রজার সভায় পরস্পর ব্যবহার, প্রজা দ্বারা সভাপতির উৎকর্ষ করা, প্রজাগণের প্রতি সভাপতির প্রেরণা, প্রজা দ্বারা স্বীকার্য্য সভাপতির লক্ষণ, প্রজাও রাজসভার পরস্পর প্রতিজ্ঞা করা, সভাপতি স্বীকার করিবার প্রয়োজন, প্রজাসুখ হেতু সভাপতির কর্ত্তব্য কর্ম্মের অনুষ্ঠান, সভাপত্যাদিকের পত্নীদের কী করা উচিত, স্ত্রী-পুরুষের পরস্পর ব্যবহার, মাতা-পিতার প্রতি সন্তানদের কার্য্য এবং সভাপতির প্রতি প্রজাগণের উপদেশ বর্ণন, ইহাতে পঞ্চম অধ্যায়ে কথিত অর্থ সহ এই ষষ্ঠ অধ্যায়ের অর্থের সংগতি আছে, এমনই জানা উচিত ।
ইতি শ্রীমৎপরিব্রাজকাচার্য়্যেণ শ্রীয়ুত মহাবিদুষাং বিরজানন্দ সরস্বতীস্বামিনাং
শিষ্যেণ দয়ানন্দসরস্বতী স্বামিনা বিরচিতে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
সুপ্রমানয়ুক্তে য়জুর্বেদভাষ্যে ষষ্ঠোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ত্বম॒ঙ্গ প্র শ॑ꣳসিষো দে॒বঃ শ॑বিষ্ঠ॒ মর্ত্য॑ম্ ।
ন ত্বদ॒ন্যো ম॑ঘবন্নস্তি মর্ডি॒তেন্দ্র॒ ব্রবী॑মি তে॒ বচঃ॑ ॥ ৩৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ত্বমঙ্গ ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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