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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 37
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
    97

    त्वम॒ङ्ग प्रश॑ꣳसिषो दे॒वः श॑विष्ठ॒ मर्त्य॑म्। न त्वद॒न्यो म॑घवन्नस्ति मर्डि॒तेन्द्र॒ ब्रवी॑मि ते॒ वचः॑॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ङ्ग। प्र॒। श॒ꣳसि॒षः॒। दे॒वः। श॒वि॒ष्ठ॒। मर्त्य॑म्। न। त्वत्। अ॒न्यः। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒स्ति॒। म॒र्डि॒ता। इन्द्र॑। ब्र॒वीमि॒। ते॒। वचः॑ ॥३७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमङ्ग प्र शँसिषो देवः शविष्ठ मर्त्यम् । न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डितेन्द्र ब्रवीमि ते वचः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अङ्ग। प्र। शꣳसिषः। देवः। शविष्ठ। मर्त्यम्। न। त्वत्। अन्यः। मघवन्निति मघऽवन्। अस्ति। मर्डिता। इन्द्र। ब्रवीमि। ते। वचः॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 37
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ प्रजाजनाः कृतं सभापतिं कथं प्रशंसेयुरित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे अङ्ग शविष्ठ मघवन्निन्द्र सभापते! त्वं मर्त्यं प्रशंसिषो न त्वदन्यो मर्डिता देवोस्त्यतोऽहं ते तुभ्यं वचो ब्रवीमि॥३७॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अङ्ग) सम्बोधने (प्र) (शंसिषः) प्रशंस, लेड्मध्यमैकवचनप्रयोगः। (देवः) शत्रून् विजिगीषुः (शविष्ठ) बहु शवो बलं विद्यते यस्य स शवस्वान् सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ, अत्र शवः शब्दाद् भूम्न्यर्थे मतुप् तत इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्। (अष्टा॰५।३।६५) इति मतुपो लुक्। टेः। (अष्टा॰६।४।१५५) अनेन टिलोपः। (मर्त्यम्) प्रजास्थं मनुष्यम् (न) निषेधे (त्वम्) (अन्यः) (मघवन्) ईश्वर इव समृद्धः (अस्ति) (मर्डिता) सुखयिता (इन्द्र) परमैश्वर्य्यान्वित (ब्रवीमि) (ते) तुभ्यम् (वचः) प्राक्प्रतिपादितराजधर्मानुरूपं वचः॥ अयं मन्त्रः (शत॰३। ९। ४। २४) व्याख्यातः॥३७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा पक्षपातविरहः सर्वसुहृदीश्वरस्तदनुकूलः सभापती राज्यधर्म्मानुवर्त्ती राजा प्रशंसनीयं प्रशंसयन्, निन्द्यं निदन्, दण्डार्हं दण्डयन्, रक्षितव्यं रक्षन् सर्वेषामभीष्टं सम्पादयेत्॥३७॥ अत्राध्याये राज्याभिषेकपुरःसरं शिक्षा, राज्यकृत्यम्, प्रजाया राजाश्रयः, सभाध्यक्षादिकृत्यम्, विष्णोः परमपदादिवर्णनम्, सभाध्यक्षेण तदुपासनम्, परस्परं राजसभाकृत्यम्, गुरुणा शिष्यस्वीकारस्तच्छिक्षाकरणम्, यज्ञानुष्ठानम्, हुतद्रव्यफलम्, विद्वल्लक्षणम्, मनुष्यकृत्यम्, मनुष्याणां परस्परं वर्तनम्, दुष्टदोषनिवृत्तिफलम्, ईश्वरात् किं किं प्रार्थनीयम्, रणे योद्धृवर्णनम्, युद्धकृत्यम्, युद्धेऽन्योन्यवर्त्तमानप्रकारो योद्धृणामनुमोदनम्, राज्यप्रबन्धकरणम्, तत्र साध्यसाधनम्, राज्यकर्मकरणम्, प्रतीश्वरोपदेशो राज्यकर्मानुष्ठानम्, राजप्रजाकृत्यम्, प्रजाराजसभयोः परस्परानुवर्तनम्, प्रजया सभापत्युत्कर्षकरणम्, प्रजाजनं प्रति सभापतिप्रेरणम्, प्रजया स्वीकर्तव्यम्, सभापतेर्लक्षणम्, प्रजाराजसभयोः परस्परं प्रतिज्ञाकरणम्, सभापतिस्वीकरणप्रयोजनम्, प्रजासुखाय सभापतेः कर्तव्यकर्मानुष्ठानम्, सभापत्यादीनां पत्नीभिः किं किं कर्म कर्तव्यम्, स्त्रीपुंसयोः परस्परमनुवर्त्तमानम्, पितरौ प्रति सन्तानकृत्यम्, सभापतिं प्रति प्रजाजनोपदेशवर्णनं चास्तीत्यतः पञ्चमाध्यायोक्तार्थैः सहास्य षष्ठाध्यायस्यार्थानां संगतिरस्तीति वेद्यम्॥

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    विषयः

    अथ प्रजाजनाः कृतं सभापतिं कथं प्रशंसेयुरित्युपदिश्यते।।

    सपदार्थान्वयः

    हे अङ्ग! शविष्ठ! बहु शवो=बलं विद्यते यस्य स शवस्वान् सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ! मघवन्! ईश्वर इव समृद्ध! इन्द्र=सभापते! परमैश्वर्य्याऽन्वित! त्वं मर्त्यं प्रजास्थं मनुष्यं प्र+शंसिषः प्रशंस। न त्वदन्यो मर्डिता सुखयिता देवः शत्रून् विजिगीषुः अस्ति।अतोऽहं ते=तुभ्यं वचः प्राक्प्रतिपादितं राजधर्माऽनुरूपं वचो ब्रवीमि ॥ ६। ३७ ।। [हे......इन्द्र=सभापते! त्वं मर्त्यं प्र+शंसिषः। न त्वदन्यो मर्डिता देवोऽस्ति]

    पदार्थः

    (त्वम्) (अङ्ग) संबोधने (प्र) (शंसिष:) प्रशंस लेडमेध्यमैकवचनप्रयोगः (देवः) शत्रून् विजिगीषु: (शविष्ठ) बहु शवो=बलं विद्यते यस्य स शवस्वान् सोतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ। अत्र शव शब्दाद्भूम्न्यर्थे मतुप् तत इष्ठन्। विन्मतोर्लुक्॥ अ० ५। ३। ६५ ।। इति मतुपो लुक्। टेः॥ [अ० ६ । ४ । १५५ ।। अनेन टिलोपः (मर्त्यम्) प्रजास्थं मनुष्यम् (न) निषेधे (त्वत्) (अन्य:) (मघवन्) ईश्वर इव समृद्ध (अस्ति) (मर्डिता) सुखयिता (इन्द्र) परमैश्वर्य्यान्वित (ब्रवीमि) (ते) तुभ्यम् (वचः) प्राक्प्रतिपादितं राजधर्मानुरूपं वचः॥ अयं मन्त्रः शत० ३ । ९। ४। २४ व्याख्यातः ॥ ३७।।

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः॥ यथा पक्षपातविरहः सर्वसुहृदीश्वरस्तदनुकूल: सभापती राज्यधर्मानुवर्ती राजा प्रशंसनीयं प्रशंसन्, निन्द्यं निन्दन्, दण्डार्द्धं दण्डयन्, रक्षितव्यं रक्षन् सर्वेषामभीष्टं सम्पादयेत्।। ६ । ३७ ।।

    विशेषः

    गौतमः। इन्द्रः=परमैश्वर्यवान् सभापतिः॥ भुरिगार्ष्यनुष्टुप्।गांधारः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब प्रजाजन किये हुए सभापति की प्रशंसा कैसे करें, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे (अङ्ग) (शविष्ठ) अत्यन्त बलयुक्त (मघवन्) महाराज के समान (इन्द्र) ऋद्धि-सिद्धि देनेहारे सभापते! (त्वम्) आप (मर्त्यम्) प्रजास्थ मनुष्य को (प्रशंसिषः) प्रशंसायुक्त कीजिये। आप (देवः) देव अर्थात् शत्रुओं को अच्छे प्रकार जीतने वाले हैं (न) नहीं (त्वदन्यः) तुमसे अन्य (मर्डिता) सुख देने वाला है, ऐसा मैं (ते) आप को (वचः) पूर्वोक्त राज्यप्रबन्ध के अनुकूल वचन (ब्रवीमि) कहता हूं॥३७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर सर्वसुहृत्, पक्षपातरहित है, वैसे सभापति राज्यधर्म्मानुवर्त्ती राजा होकर प्रशंसनीय की प्रशंसा, निन्दनीय की निन्दा, दुष्ट को दण्ड, श्रेष्ठ की रक्षा करके सब का अभीष्ट सिद्ध करे॥३७॥

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    विषय

    महान् उपदेष्टा प्रभु

    पदार्थ

    १. माता-पिता सन्तानों को उत्तम उपदेश देते हैं। पिछले मन्त्र में इसका वर्णन हुआ है। परन्तु अन्ततः उपदेश देनेवाले तो वे प्रभु ही हैं, अतः प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि ( शविष्ठ ) = अतिशयेन शक्तिमन् प्रभो! ( त्वम् ) = आप ( देवः ) = ज्ञान की ज्योति से देदीप्यमान हो। इस ज्योति से आप औरों को दीप्त करनेवाले हो तथा सभी को आप ही इस ज्ञान को देनेवाले हो। आप ( अङ्ग ) = [ क्षिप्रम् ] शीघ्र ही ( मर्त्यम् ) = इस मृत्युधर्मा मनुष्य को ( प्रशंसिषः ) = ( प्रशंससि ) = प्रकृष्ट ज्ञान देते हैं [ शंस् Science = विज्ञान ]। 

    २. इस ज्ञान को देकर आप मनुष्य का कल्याण करते हैं। हे ( मघवन् ) = ज्ञानैश्वर्य से समृद्ध प्रभो! ( त्वदन्यः ) = आपसे भिन्न कोई और  (मर्डिता  ) = सुख देनेवाला ( न ) = नहीं ( अस्ति ) = है। हे ( इन्द्र ) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! अतः मैं ( ते ) = तेरे लिए ही ( वचः ) =  वचन ( ब्रवीमि ) = कहता हूँ, अर्थात् आपसे ही इस उत्कृष्ट ज्ञान को देने की प्रार्थना करता हूँ। 

    ३. आपसे उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करके मैं प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘गोतम’ बनूँ = अत्यन्त प्रशस्त ज्ञानेन्द्रियोंवाला बनूँ। उन ज्ञानन्द्रियों से वेदवाणी का ग्रहण करनेवाला होऊँ। इस वाणी ने ही मुझे पवित्र करना है। पवित्र होकर ही मैं आपको प्राप्त कर सकूँगा और आनेवाले मन्त्र [ ७।१ ] के ‘वाचस्पतये पवस्व’ इस उपदेश को अपने जीवन में घटा सकूँगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु ही सर्वमहान् उपदेष्टा है। वे ही हमारे जीवनों को सुखी करनेवाले हैं। हमें उन्हीं से ज्ञान-प्राप्ति की प्रार्थना करनी चाहिए।

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    विषय

    राजा का परम स्वरूप ईश्वर की स्तुति ।

    भावार्थ

    हे ( अङ्ग ) हे (शविष्ट् ) सब से अधिक शक्तिमन् ! तू (देवः ) विजिगीषु राजा होकर ( मर्त्यम् ) मनुष्यमात्र को ( प्रशंसिषः) उत्तम शिक्षा प्रदान कर, उत्तम उपदेश कर हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन्! ( त्वत् अन्यः ) तेरे से दूसरा कोई ( मर्दिता न ) कृपालु उन पर दया करने वाला, सुखकारी नहीं है । हे ( इन्द्र ) इन्द्र ! राजन् ! मैं (ते) तुझे ( वचः) उत्तम वेदानुकूल राजधर्मं के वचनों का उपदेश करता हूँ॥ शत० ३ । ९ । ४ । २४ ॥ 
     परमेश्वर पक्ष में- हे परमेश्वर ( शविष्ट ) सर्वशक्तिमन् ! तू समस्त (मर्स्यम् ) मानव जाति को ( प्र ) सब से प्रथम ( शंसिष: ) उपदेश करता है । (त्वदन्यः ० ) तेरे से दूसरा कोई सुखकारी दयालु नहीं है । ( ते वचः ब्रवीमि ) तेरे ही वेद वचनों का म सर्वत्र उपदेश करूं । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतम ऋषिः । इन्द्रो देवता । भुरिगार्षी अनुष्टुप् । गांधार॥ 

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    विषय

    अब प्रजाजन बनाये हुये सभापति की कैसे प्रशंसा करें, यह उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे (अङ्ग) प्रिय (शविष्ठ) अत्यन्त बलशाली (मघवन्) ईश्वर के समान समृद्ध (इन्द्र) परम ऐश्वर्य युक्त सभापते! आप (मर्त्यम्) प्रजा के मनुष्यों की ( प्र+शंसिष:) प्रशंसा करो। (त्वदन्यः) आाप से भिन्न दूसरा कोई (मर्डिता) सुख देने वाला (देव:) और शत्रुओं को जीतने वाला (न) नहीं (अस्ति) है, इसलिये मैं (ते) आप को (वचः) पूर्वोक्त राजधर्म के अनुरूप वचन (ब्रवीमि) कहता हूँ ।। ६ । ३७ ।।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्कारहै। जैसे पक्षपात रहित, सबका मित्र ईश्वर है उसके अनुकूल सभापति राज्य-धर्म का पालक राजा भी प्रशंसनीय की प्रशंसा, निन्दनीय की निन्दा, दण्डनीय को दण्ड और रक्षा करने योग्य की रक्षा करके सब का अभीष्ट सिद्ध करे ॥ ६ ॥३७ ।।

    प्रमाणार्थ

    (शंसिष:) यह लेट् लकार के मध्यमपुरुष के एकवचन का प्रयोग है। (शविष्ठ) यहाँ 'शव' शब्द से आधिक्य अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय करने के बाद इष्ठन्' प्रत्यय है। विन्मतोर्लुक्' (अ० ५। ३ । ६५ ) इस सूत्र ले 'मतुप्' प्रत्यय का 'लुक्' है। 'टे:' (अ० ६। ४।१५५) इस सूत्र से 'टि' भाग का लोप है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।९।४। २४) में की गई है ।। ६ । ३७ ।।

    भाष्यसार

    १. प्रजा-जन सभापति राजा की कैसे प्रशंसा करें-- प्रजा के लोग राजा की इस प्रकार प्रशंसा करें कि हे राजन् ! आप अत्यन्त प्रिय लगने वाले अत्यन्त बलशाली, ईश्वर के समान समृद्धऔर परम ऐश्वर्य से युक्त इन्द्र हो। जैसे ईश्वर पक्षपात रहित होने से सबका मित्र है वैसे आप भी राज्य-धर्म का पालन करके प्रजा के प्रशंसनीय जनों की प्रशंसा और निन्दनियों की निन्दा करते हो और जो दण्ड देने के योग्य हैं उन्हें दण्ड देते हो और जो रक्षा के योग्य हैं उनकी रक्षा करते हो। इसलिये आप से बढ़ कर सुख देने वाला तथा शत्रुओं को जीतने वाला कोई नहीं है। इसलिये हम इन राजधर्म के अनुरूप प्रशंसा-वचनों को आपके लिये उच्चारण करते हैं। आप सबके अभीष्ट को सिद्ध कीजिये ।। ६ । ३७ ।।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा ईश्वर सर्वांचा सुहृद व पक्षपातरहित असतो तसे राजाने धर्मानुसार राज्य चालवावे व प्रशंसा करण्यायोग्य व्यक्ती असेल तर तिची प्रशंसा व निंदा करण्यायोग्य असेल तर तिची निंदा करून दुष्ट लोकांना शिक्षा करावी व श्रेष्ठांचे रक्षण करावे आणि सर्वांचे कल्याण करावे.

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    विषय

    प्रजाजनांनी निर्वाचित सभाध्यक्षाची (राष्ट्राध्यक्ष) कशा प्रकारे प्रशंसा करावी, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अंग) (शविष्ठ) अत्यंत बलशाली (मघवन्) महाराज वा महाशय (इन्द्र) ऋद्धी-सिद्दीचं दाता, ऐश्‍वर्य प्रदाता सभाध्यक्ष महोदय, (त्वम्) आपण (मर्त्यं) प्रजाजनांना (प्रशंसिष) प्रशंसित वा कीर्तीमान करा. आपण (देवः) देवांना म्हणजे (प्रजाजनांस त्रास देणार्‍या) शत्रूंना पराभूत करणारे आहात. (त्वदन्यः) (न) आपराव्यतिरिक्त कोणीही असा समर्थ व शक्तिमान नाही की जो प्रजाजनांना (मर्डिता) सुखी करू शकेल. मी (आपला एक प्रजाजन) (ते) आपणास (वचः) राज्यव्यवस्थेविषयी प्रार्थना वा निवेदन करीत (ब्रवीमि) उत्तम वचन बोलत आहे. ॥37॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे परमेश्‍वर हा सर्वांचा मित्र आणि पक्षपातविरहित आहे, त्याप्रमाणे सभाध्यक्षांनेदेखील राजधर्मानुवर्ती राजा होऊन प्रशंसनीय मनुष्याची प्रशंसा करावी, (त्याचा उत्साह वाढवावा) आणि निंदनीय मनुष्याची निंदा करावी तसेच दुर्जनाला दंड देत सज्जनाचे रक्षण करावे आणि याप्रकारे सर्वांची इच्छा पूर्ण करावी. ॥37॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात खालील विषयांचे वर्णन आले आहे.^राजाचा अभिषेक व शिक्षा-दीक्षा, राजाचे कर्त्तव्य, प्रजेला राजाचा आश्रय, सभाध्यक्ष अभिषेक व शिक्षा-दीक्षा, राज्याचे कर्त्तव्य, प्रजेला राजाचा आश्रय, सभाध्यक्ष आदींची कर्त्तर्व्यकर्में, विष्णुपरमपदवर्णन, सभाध्यक्षाने ईश्‍वरोपसना करावी, राजा व प्रजा यांच्यातील पारस्परिक कर्त्तव्य, गुरुने शिष्याचा केलेला स्वीकार आणि त्यास शिक्षण-अध्यापन, यज्ञनुष्ठान, होम केलेल्या द्रव्यांची फलश्रुती, विद्वज्जनांची लक्षणे, मनुष्यांचे कर्त्तव्य, मनुष्यांचे एकमेकाविषयी व्यवहार, दुष्ट दोषांची निवृत्ती, ईश्‍वराला काय प्रार्थना करावी, युद्धात योद्धांचे कर्म, युद्धकर्म निरूपण, युद्धात सैनिकांचा पारस्परिक सहभाव, वीरांना प्रोत्साहित करणे, राज्याची व्यवस्था, त्याची कारणें व साधनें, राजाप्रती ईश्‍वराने केलेला उपदेश, राज्यकर्माची पूर्तता, राजा व प्रजेची कर्त्तव्यकर्में, राजा आणि प्रजेच्या सभांचे पारस्परिक व्यवहार, प्रजेद्वारे सभापतीस सहयोग देणे, प्रजाजनांप्रत सभापतीचा उपदेश वा प्रेरणा, प्रजेची स्वीकरणीय कर्में, सभापतीचे लक्षण, प्रजा व राजसभा या दोघांनी प्रतिज्ञा करणे, सभाध्यक्षाद्वारे स्वीकारणीय उद्दिष्टें, प्रजेच्या कल्याणासाठी सभापतीने कोणती कार्यें करावीत, सभाध्यक्ष आदी अधिकार्‍यांच्या पत्नीचे कर्त्तव्य, पति-पत्नीची पारस्परिक वागणूक, संतानाप्रत माता-पित्याची कर्त्तव्यें आणि प्रजाजनांनी सभाध्यक्षास केलेला उपदेश. या विषयांचा संबंध पाचव्या अध्यायातील मंत्राशी असल्यामुळे या सहाव्या अध्यायातील मंत्रार्थाची संगती पाचव्या अध्यायाशी लावली पाहिजे. ॥^सहावा अध्याय समाप्त ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O mighty, glorious king, render thy subjects praiseworthy. Thou art the conqueror of foes. None but thee is the giver of pleasure. I say this unto thee.

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    Meaning

    Dearest Indra, brilliant and generous, lord mightiest of power and wealth, truth, honour and glory, there is no one else other than you to love, appreciate and approve the human being, no one more compassionate and more gracious than you to vouchsafe for man. I say this for truth — it is the very word of yours !

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    Translation

    O mightiest Lord, you the lustrous have praised this mortal (the sacrificer). O bounteous and resplendent Lord, there is no gladdener other than you. I utter my words of praises to you. (1)

    Notes

    Savistha, O mighitiest (Lord)! Mardita, gladdener; delighter.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ প্রজাজনাঃ কৃতং সভাপতিং কথং প্রশংসেয়ুরিত্যুপদিশ্যতে ॥
    এখন প্রজাগণ নির্বাচিত সভাপতির প্রশংসা কেমন করিয়া করিবে, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অঙ্গ) (শবিষ্ঠ) অত্যন্ত বলযুক্ত (মঘবন্) মহারাজের সমান (ইন্দ্র) ঋদ্ধি-সিদ্ধি প্রদাতা সভাপতে ! (ত্বম্) আপনি (মর্ত্যম্) প্রজাস্থ মনুষ্যকে (প্রশংসিষঃ) প্রশংসাযুক্ত করুন । আপনি (দেবঃ) দেব অর্থাৎ শত্রুদিগকে ভাল প্রকার পরাস্ত করেন, (ন) নয় (ত্বদন্যঃ) আপনার হইতে অন্য কেউ (মর্ডিতা) সুখদাতা এইরকম আমি (তে) আপনাকে (বচঃ) পূর্বোক্ত রাজ্যপ্রবন্ধানুকূল বচন (ব্রবীমি) বলি ॥ ৩৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালংকার আছে । যেমন ঈশ্বর সর্বসুহৃৎ পক্ষপাতরহিত সেইরূপ সভাপতি রাজধর্ম্মানুবর্ত্তী রাজা হইয়া প্রশংসনীয়ের প্রশংসা, নিন্দনীয়ের নিন্দা, দুষ্টদিগকে দন্ড, শ্রেষ্ঠদিগকে রক্ষা করিয়া সকলের অভীষ্ট সিদ্ধ করুন ॥ ৩৭ ॥
    এই অধ্যায়ে রাজ্যের অভিষেক পূর্বক শিক্ষা, রাজ্যের কৃত্য, প্রজাদের রাজ্যাশ্রয় সভাধ্যক্ষাদিকের কর্ম, বিষ্ণুর পরম পদ বর্ণন, সভাধ্যক্ষের ঈশ্বরোপাসনা করা, রাজা-প্রজার পরস্পর কৃত্য, গুরুকে শিষ্যের স্বীকার এবং সেই শিষ্যকে শিক্ষাদান করা, যজ্ঞের অনুষ্ঠান, হোমকৃত দ্রব্যের ফলের বর্ণন, বিদ্বান্দের লক্ষণ, মনুষ্য কৃত্য, মনুষ্যদিগের পরস্পর বর্ত্তমান, দুষ্ট দোষ নিবৃত্তির ফল, ঈশ্বরের নিকট কী কী প্রার্থনা করা উচিত, রণে যোদ্ধার বর্ণন, যুদ্ধকৃত্য নিরূপণ, যুদ্ধে পরস্পর ব্যবহারের প্রকার, বীরদেরকে উৎসাহ দেওয়া, রাজ্য প্রবন্ধের কারণ ও সাধ্য-সাধন, রাজার প্রতি ঈশ্বরোপদেশ, রাজ্যকর্মের অনুষ্ঠান, রাজা ও প্রজার কৃত্য, রাজা ও প্রজার সভায় পরস্পর ব্যবহার, প্রজা দ্বারা সভাপতির উৎকর্ষ করা, প্রজাগণের প্রতি সভাপতির প্রেরণা, প্রজা দ্বারা স্বীকার্য্য সভাপতির লক্ষণ, প্রজাও রাজসভার পরস্পর প্রতিজ্ঞা করা, সভাপতি স্বীকার করিবার প্রয়োজন, প্রজাসুখ হেতু সভাপতির কর্ত্তব্য কর্ম্মের অনুষ্ঠান, সভাপত্যাদিকের পত্নীদের কী করা উচিত, স্ত্রী-পুরুষের পরস্পর ব্যবহার, মাতা-পিতার প্রতি সন্তানদের কার্য্য এবং সভাপতির প্রতি প্রজাগণের উপদেশ বর্ণন, ইহাতে পঞ্চম অধ্যায়ে কথিত অর্থ সহ এই ষষ্ঠ অধ্যায়ের অর্থের সংগতি আছে, এমনই জানা উচিত ।
    ইতি শ্রীমৎপরিব্রাজকাচার্য়্যেণ শ্রীয়ুত মহাবিদুষাং বিরজানন্দ সরস্বতীস্বামিনাং
    শিষ্যেণ দয়ানন্দসরস্বতী স্বামিনা বিরচিতে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে
    সুপ্রমানয়ুক্তে য়জুর্বেদভাষ্যে ষষ্ঠোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত্বম॒ঙ্গ প্র শ॑ꣳসিষো দে॒বঃ শ॑বিষ্ঠ॒ মর্ত্য॑ম্ ।
    ন ত্বদ॒ন্যো ম॑ঘবন্নস্তি মর্ডি॒তেন্দ্র॒ ব্রবী॑মি তে॒ বচঃ॑ ॥ ৩৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত্বমঙ্গ ইত্যস্য গোতম ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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