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यजुर्वेद अध्याय - 6

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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - निचृत् आर्षी गायत्री, स्वरः - षड्जः
    155

    विष्णोः॒ कर्म्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे। इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विष्णोः॑ कर्म्मा॑णि। प॒श्य॒त॒। यतः॒। व्र॒तानि॑। प॒स्प॒शे। इन्द्र॑स्य। युज्यः॑। सखा॑ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विष्णोः कर्म्माणि। पश्यत। यतः। व्रतानि। पस्पशे। इन्द्रस्य। युज्यः। सखा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ सभाध्यक्षः सभ्यादीन् मनुष्यान् प्रति किं किमुपदिशेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे सभ्यजना! यूयं यथेन्द्रस्य युज्यः सखा विष्णोः कर्म्माणि पश्यन्नहं यतो विज्ञानेन मनसि व्रतानि सत्यभाषणादिनियमान् पस्पशे बध्नामि, तथा तेनैव विज्ञानेन तानि यूयं पश्यत, यतो राज्यकर्म्माणि सत्यानुष्ठातारो भवत॥४॥

    पदार्थः

    (विष्णोः) व्यापकस्य (कर्माणि) जगत उत्पत्तिस्थितिसंहृत्यादीनि (पश्यत) संप्रेक्षध्वम् (यतः) येन विज्ञानेन (व्रतानि) नियतसत्यभाषणादीनि (पस्पशे) बध्नाति, अत्र लडर्थे लिट्। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (युज्यः) युनक्ति सदाचारणेति युज्यः, अत्रौणादिकः क्यप्। (सखा) मित्रम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰३।७।१।१७) व्याख्यातः॥४॥

    भावार्थः

    नहि परमेश्वराविरोधसत्याचरणाभ्यां विना कश्चिदीश्वरगुणकर्मस्वभावान् द्रष्टुमर्हति, न तथाभूतेन विना राज्यकर्मणि यथार्थतया सेवितुं शक्नोति, नो खलु सत्याचरणमन्तरा राज्यं वर्धयितुं प्रभुर्भवति॥४॥

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    विषयः

    अथ सभाध्यक्षः सभ्यादीन्मनुष्यान्प्रति किं किमुपदिशेदित्याह ।।

    सपदार्थान्वयः

    हे सभ्यजनाः! यूयं यथा इन्द्रस्य परमेश्वरस्य युज्य: युनक्ति सदाचारेणेति युज्यःसखा मित्रं विष्णोः व्यापकस्य कर्म्माणि जगत उत्पत्तिस्थितिसंहृत्यादीनि पश्यन्नहं यतः=विज्ञानेन येन विज्ञानेन मनसि व्रतानि=सत्यभाषणादिनियमान् नियतसत्यभाषणादीनि पस्पशे=बध्नामि (बध्नाति) तथा तेनैव विज्ञानेन तानि यूयं पश्यत संप्रेक्षध्वम्, यतो राज्यकर्माणि सत्याऽनुष्ठातारो भवत ॥ ४॥ [विष्णो: कर्माणि पश्यन्नहं यतः=विज्ञानेन मनसि व्रतानि=सत्यभाषणादि नियमान् पस्पशे=बध्नामि]

    पदार्थः

    (विष्णो:) व्यापकस्य (कर्माणि) जगत् उत्पत्तिस्थितिसंहृत्यादीनि (पश्यत) संप्रेक्षध्वम् (यतः) येन विज्ञानेन (व्रतानि) नियतसत्यभाषणादीनि (पस्पशे) बध्नाति । अत्र लडर्थे लिट् (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य (युज्य:) युनक्ति सदाचारेणेति युज्य:। अत्रौणादिक: क्यप्(सखा) मित्रम्॥ अयं मंत्र: शत० ३ । ७ । १ । १७ व्याख्यातः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    नहि परमेश्वराविरोधसत्याचरणाभ्यां विना कश्चिदीश्वरगुणकर्मस्वभावान् द्रष्टुमर्हति, न तथाभूतेन विना राज्यकर्माणि यथार्थतया सेवितुं शक्नोति, नो खलु सत्याचरणमन्तरा राज्यं वर्धयितुं प्रभुर्भवति ॥ ६ । ४ ॥

    भावार्थ पदार्थः

    कर्माणि=ईश्वरगुणकर्मस्वभावान्। व्रतानि=सत्याचरणम्।।

    विशेषः

    मेधातिथिः । विष्णुः=ईश्वरः।। निचृदार्षी गायत्री । षड्जः॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब सभापति अपने सभासद् आदि को क्या-क्या उपदेश करे, यह अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे सभासदो! जैसे (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्यः) सदाचारयुक्त (सखा) मित्र (विष्णोः) उस व्यापक ईश्वर के (कर्माणि) जो संसार का बनाना पालन और संहार करना सत्यगुण हैं, उनको देखता हुआ मैं (यतः) जिस ज्ञान से (व्रतानि) अपने मन में सत्यभाषणादि नियमों को (पस्पशे) बांध रहा अर्थात् नियम कर रहा हूं, वैसे उसी ज्ञान से तुम भी परमेश्वर के उत्तम गुणों को (पश्यत) दृढ़ता से देखो कि जिस से राज्यादि कामों में सत्य व्यवहार के करने वाले होओ॥४॥

    भावार्थ

    परमेश्वर से प्रीति और सत्याचरण के विना कोई भी मनुष्य ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव को देखने के योग्य नहीं हो सकता, न वैसे हुए विना राज्यकर्मों को यथार्थ न्याय से सेवन कर सकता है, न सत्य धर्माचार से रहित जन राज्य बढ़ाने को कभी समर्थ हो सकता है॥४॥

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    विषय

    विष्णु की व्याख्या

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    तो उस परमपिता परमात्मा को वैदिक साहित्य में यज्ञोमयी स्वरूप माना हैक्योंकि जितना भी जड़ जगत अथवा चैतन्य जगत हमें दृष्टिपात आ रहा है, उस सर्वत्र ब्रह्माण्ड के मूल में प्रायः वो मेरा देव ही दृष्टिपात आ रहा हैजिस परमपिता परमात्मा के सम्बन्ध में, सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर के और वर्तमान के जगत तक मानो वो रहस्यमयी बना हुआ हैमानव उसका अनुसन्धान कर रहा हैआज नहीं, कल नहीं, सृष्टि के प्रारम्भ से गतिवान अपनी गति कर रहा हैउड़ानवेत्ता अपनी उड़ानें उड़ रहे हैपरमपिता परमात्मा को प्राप्त करने वाला साधक अपने में साधना करता रहता हैपरन्तु उसके पश्चात भी वे परमपिता परमात्मा का जो मूलन है वह अपने में रहस्यमयी बना रहता हैक्योंकि जब तक मानव जानता नहीं तब तक उसकी पिपासा में लगा रहता है, परिश्रम करता रहता है, अनुसन्धान करता रहता है, नाना प्रकार की साधनाओं में रत्त रहता हैपरन्तु जब उसे जान लेता है तो प्रायः उसी को प्राप्त हो जाता हैतो बेटा! वह इसीलिए रहस्य का विषय बना हुआ है क्योंकि वह इन्द्रियों का विषय नही कहलातावो इन्द्रियों से मानो दूर हो जाता है और जब इन्द्रियों का विषय नही तो इन्द्रियों से वर्णन करना ये बेटा! एक रहस्यमयी है

    तो आज का हमारा वेद मन्त्र, उस परमपिता परमात्मा के सम्बन्ध में अथवा उसकी विचित्र विचित्र उड़ाने उड़ने वालो ने भिन्न भिन्न प्रकार की उड़ाने सृष्टि के प्रारम्भ से उड़ी जा रही हैतो आओ, मेरे पुत्रो! आज मैं उस महान जो हमारा वेद मन्त्रः हमें भिन्न भिन्न प्रकार की उड़ाने उड़ा रहा थामैं आज तुम्हे वहीं ले जाना चाहता हूँ जहाँ ऋषि मुनि अपने में एकत्रित हो करके और भिन्न भिन्न प्रकार का विचार और उन भिन्नताओं को एकता के सूत्र में लाने वाला एक नृत्यः अपने में मानो अपनी आभा में ही प्राप्त होता रहा हैतो हमारा वेद का मन्त्रः बड़ी विचित्र उड़ाने उड़ता रहता है

    आज का हमारा एक वेदमन्त्र कह रहा था विष्णु यज्ञं प्रमाण ब्रहे वाचन गृही अश्रुतम् वेद का मन्त्र यह कहता है हे विष्णु! तू कल्याण करने वाला हैहमारे यहाँ विष्णु के सम्बन्ध में बड़ी विचित्र उड़ाने उड़ी ऋषि मुनियो ने और वेद के मन्त्रों के ऊपर अन्वेषण करते हुए ये कहा कि विष्णु नाम परमपिता परमात्मा का, जो हमारा रक्षक है और जो हमारी रक्षा कर रहा है, वह विष्णु कहलाता हैहे विष्णु! तू यज्ञोमयी विष्णु हैवैदिक वाक कहता है कि यज्ञोमयी विष्णु, शब्द केवल एक ही रहस्यमयी, कि वह रक्षा कर रहा हैतो याग भी हमारी रक्षा करता हैमानो देखो, यागां ब्राह्मण ब्रहेः याग कहते है जितने भी सुक्रियाकलाप है, जितने भी सुकर्म है, उन सर्वत्र का नाम एक याग माना गया है और वह हमारी रक्षा करने वाला है

    तो मुनिवरों! देखो, जैसे यज्ञशाला में, यज्ञमान अपने में बेटा! अपने सङ्कल्प के द्वारा याज्ञिक बन जाता है और वह कहता है कि यज्ञोमयी विष्णु तू आ, मेरे याग को तू शुद्ध और पवित्र बना क्योंकि तू श्रेष्ठतम हैमानो ये उद्गीत गाता हुआ यज्ञमान अपने सङ्कल्प के द्वारा याग कर रहा हैतो बेटा! वह यज्ञोमयी विष्णु हैतो हम उस परमपिता परमात्मा को यज्ञोमयी विष्णु स्वीकार करते हुए इस वायुमण्डल को अपने मानसिक प्रवृत्ति को, प्रायः अपने में ऊँचा बनाते रहे और अपनी उज्ज्वलता, प्रबलता को प्राप्त करते हुए इस संसार की प्रतिभा को प्राप्त होते रहे।

    आओ मुनिवरों! विज्ञानं विष्णुम् हे विष्णु! तू कल्याण करने वाला हैविष्णु कहते है परमपिता परमात्मा कोबेटा! विष्णु कहते है जो इस विज्ञान की याग के माध्यम से जो यज्ञ को जाना जाता हैऔर दुरिता को नष्ट कर देता हूँ और संसार का शुद्धिकरण करने वाला है तो वो याग कहलाता है चित्रो को बेटा! अन्तरिक्ष में परणित करा देता है द्यौ लोक से इसका समन्वय होता हैविचारार्थ होते हुए बेटा! महानता को प्राप्त होते रहे

    आओ, मेरे प्यारे! मैं विशेष विवेचना न देता हुआ क्योंकि यह तो विचारों का भयंकर वन हैपरन्तु केवल इतना वाक्य कि हम अपने प्रभु की याचना करते हुए कि हे विष्णु! तू पालक है, पालन करने वाला हैहमें भी अपनी आभा में से कुछ प्रदान कर, जिससे ज्ञान और विज्ञान का जान करके इस संसार सागर से पार हो जाएं, हमारी मृत्यु न आ जाएं

    तो मेरे प्यारे! आज का विचार क्या? आज बेटा! देखो, मैं तुम्हें विष्णु की विवेचना देने नहीं आया था क्याये विष्णु क्या हैं? ये केवल आज का वेदमन्त्र विष्णु की विवेचना कर रहा था कि विष्णु क्या हैं? तो विष्णु नाम बेटा! यज्ञ को भी माना हैवेदं ब्रह्माः देखो, कहते यज्ञोमयी मानो देखो, विष्णु जो कल्याणकारी है याग कैसे विष्णु है? भी पालना कर रहा हैयदि संसार से मानो याग की सुगन्ध और याग की क्रियायें समाप्त हो जाएगी तो मानवीयता का हृास हो जाएगामेरे प्यारे! देखो, इसीलिए यज्ञोमयी विष्णु हमारे यहाँ जो यज्ञं ब्रह्मा थे, यज्ञ विष्णु के रूप में परणित रहता है

    मेरे प्यारे! देखो, राम का उपदेश चल रहा था कि जब हम विद्यालयों में अध्ययन करते थे, तो महर्षि वशिष्ठ मुनि महाराज ब्रह्म की विवेचना करते हुए देखो, विष्णु की विवेचना करते रहते थे कि यह विष्णु कौन है? वैदिक आचार्यों ने, वैदिक परिभाषा में विष्णु नाम के बहुत से पर्यायवाची शब्द हैंजैसे बेटा! देखो, विष्णु नाम राजा को कहा गया है, वह राजा विष्णु है जो चार प्रकार की नियमावली का निर्माण करने वाला होमेरे प्यारे! देखो, सबसे प्रथम नियमावली में उनके यहाँ मानो देखो, पदम होना चाहिए, द्वितीय नियम में गदा होनी चाहिए और तृतीय नियम में उनके यहाँ मानो चक्र होना चाहिए और चतुर्थ में शङ्ख होना चाहिएराजा के राष्ट्र में पदम होना चाहिए, सुचरित्रता होनी चाहिए, मानो देखो, उसके पश्चात गदा होनी चाहिए, जो आततायियों को समाप्त करने के लिए, आततायियों को ऊँचा बनाने के लिए एक गद्दा होनी चाहिएऔर तृतीय जो नियम है, वह नियम यह कहता है कि शिक्षं ब्रह्मा ब्रहे मानो देखो, राजा के राष्ट्र में शिक्षा प्रणाली पवित्र होनी चाहिएमानो देखो, वह चक्र होना चाहिए, अपनी संस्कृति होनी चाहिएसंस्कृति का रूपान्तर करते हुए आचार्य ने कहा कि यह जो मानं ब्रह्मा व्रतम् मानो यह जो शङ्ख ध्वनि हैशङ्ख ध्वनि का अभिप्राय यह है, शङ्ख कहते हैं बेटा! नाद को, और शङ्ख कहते हैं वेदों के गान को, जो स्वरों से, ब्राह्मण द्वारा वेदों का गान गाने वाला है वह ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो करके बेटा! सागर से पार होता है।

    हे विधाता! आप तो विष्णु हैं, शेष नाग पर शयन करने वाले हैंहे भगवान्! हमारा वह कौन सा काल आए गाजब हम भी शेषनाग शैय्या पर शयन करने वाले बनेंगेहम मानव तो अवश्य हैं, परन्तु इतने अभागे नहीं, यदि अभागे होते तो आपके नियम के अनुकूल हमें यह मानव योनि प्राप्त न होती

    जहाँ विष्णु नाम, राजा को कहा है, वहाँ आत्मा को, योगी को विष्णु बनने के लिए आदेश दिया है, उन्होंने कहा है कि हे योगी! हे त्यागी तपस्वी! तू विष्णु बनमुनिवरों! कौन विष्णु होता है? हमारे यहो योगी को विष्णु कहते है, कौन से योगी को विष्णु कहते है, जो आत्मवेत्ता होते हैएक तो आत्मा को जानना प्राणों के द्वारा होता हैएक आत्मा को जानना बेटा! ज्ञान के द्वारा होता है, हमारे यहाँ कुछ ऐसा कहा हैमेरे प्यारे! महानन्द जी! ने मुझे एक समय वर्णन कराते हुए कहा है, क्या विष्णु महाराज तो अक्षय क्षीरसागर में रहते है, लक्ष्मी चरणो में ओत प्रोत है, नारद अपनी वीणा सहित ध्वनि कर रहें हैं और गन्धर्व गुणगान गा रहे है, प्रभु यह क्या है, तो मुनिवरों! मुझे इनकी वार्ता जब स्मरण आती है, तो मेरा हृदय प्रसन्न हो जाता हैऐसा इन्होने इनके वाक्यो की जो मीमांसा है, मुनिवरों! वह इस प्रकार मानी गई है, मुनिवरों! विष्णु नाम आत्मा को माना है, विष्णु नाम आत्मा का है, अक्षयक्षीर सागर नाम ज्ञान को कहते हैं, और मुनिवरों! देखो, यह शेष नाग की शैय्या पर, शेष नाग किसे कहते है? शेष नाग कहते है, जिसके पांच फण होते है, मानो पांच मुख होते है, बेटा! इसी मानव के शरीर में काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि ये पांच फणो वाला शेष नाग है बेटा! जो मानव को प्रत्येक स्थान पर मृत्यु के लिए तत्पर रहता हैआज मानव को अति काम की वासना आती है, तो मृत्यु को कार्य होता है, अभिमान होता है, वहाँ भी मृत्यु है, परन्तु इन विषयों मे से कोई सा विषय आ जाओ, वही मृत्यु में ले जाने वाला हैजब यह आत्मा अक्षयक्षीर सागर में होता है, मानो यह ज्ञान के सागर में होता है, ज्ञान और विवेक से इन काम क्रोध, मद, लोभ, आदि को नीचे दबा कर लिया जाता हैजब यह नीचे दब जाते है, इसके ऊपर ज्ञान में यही पवित्र आत्मा बेटा! ओत प्रोत हो जाता है, और यह जो लक्ष्मी है, यह चरणो में ओत प्रोत हो जाती हैआज इस लक्ष्मी के द्वारा मानव बेटा! ठगा जाता है, इसी लक्ष्मी के ऊपर मानव में नाना प्रकार की प्रवृत्तियां बन जाती हैवह प्रवृत्तियां शान्त होने के पश्चात, वह लक्ष्मी उनके चरणो में ओत प्रोत हो जाती हैक्योंकि आत्मवेत्ता पुरुष के चरणो में प्रायः लक्ष्मी हुआ करती है, इसी प्रकार आगे कहा कि नारद नाम हमारे यहाँ मन को कहा गया है, यह मन अपनी चञ्चल रूपी वीणा को ले करके, उस ज्ञानमयी आत्मा से कहा करता है, मैं भी आप के संग आ गया हूँमुझे मेरे ऊपर अनुपम कृपा करो।

    मुनिवरों! यह शेष नाग हमारा मन है, जिसमें यह काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह आदि हमें डसने वाले विष हैं, इन सबकी नेती बना करके, सबका सब शेष बन करके मन में लय हो जाएगा और आत्मा के अनुकूल कार्य करने लगेगाअर्थात जब मन अपने इन काम, क्रोध, मद, लाभ मोह आदि पर विजय पा लेता है और आत्मा के आधीन कार्य करने लगता है तो वही आत्मा का शेष नाम की शैय्या पर स्थिर होना कहा जाता है।

    यदि तेरा अनुकरण करता है तो राजा महान बन जाता है। मेरी माताएं तुझे कंठ में धारण कर लेती हैं तो उनके गर्भ में वह बालक उत्पन्न होते हैं जो देवता बन जाते हैं। आज तेरा अनुकरण करने वाले देवता बन जाते हैं आज तू सबको देवता बनाने वाली है। जिस समय मेरी प्यारी माताओं का अन्तःकरण पुकार कर कहता था, मानव का अन्तःकरण पुकार कर कहता था कि हम संसार में अपने भोगों को भोगने के लिए आएं हैं, हमें ऐसा कार्य नहीं करना है कि भोग ही हमें भोग लें।

    तो प्रभु का गुण गान गाने के पश्चात् प्रभु को रक्षक बनाते हैं। प्रभु हमें हिंसक प्राणियों से बचाओ। उनसे हमारी रक्षा करो। एक समय वह आता है, जब परमात्मा रक्षक बन जाता है और हमारा कल्याण करने लगता है।

    प्रभु मानव का कल्याण किस काल में करता है? जब हम प्रभु के आँगन में जाने योग्य हो जाते हैं माता अपने प्यारे पुत्रों को, लोरियों का पान किस काल में कराती है? जब प्यारे पुत्र व्याकुल हो जाते हैं और माता की याचना करते हैं तब वह माता अपने पुत्रों के भाव को जान लेती है कि मेरा पुत्र क्षुधा से व्याकुल है। जिसे अपनी लोरियों में लगाकर आनन्दित करा देती है। इसी प्रकार वह परमात्मा हमारी रक्षा किस काल में करता है जब हम व्याकुल हो जाते हैं और व्याकुल हो करके वैराग्य हो जाता है। केवल उस परमात्मा का ध्यान रहता है। उस काल में परमात्मा हमारा रक्षक बन करके हमारा कल्याण करता है।

    तो हे विद्या! तू हमारा कल्याण करने वाली है। माता! जब यह संसार तेरे आँगन में आ जाता है। राजा यदि तेरा अनुकरण करता है तो राजा महान बन जाता है। मेरी माताएं तुझे कंठ में धारण कर लेती हैं तो उनके गर्भ में वह बालक उत्पन्न होते हैं जो देवता बन जाते हैं आज तेरा अनुकरण करने वाले देवता बन जाते हैं आज तू सबको देवता बनाने वाली है।

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    विषय

    युज्यः सखा

    पदार्थ

    १. अपने जीवन के मार्ग को निश्चित करने के लिए गत मन्त्र के ‘आयुर्दृंह’ आदेश के अनुसार अपने जीवन को दृढ़ बनाने के लिए समझदार व्यक्ति प्रभु के कर्मों का विचार करता है और उन्हीं कर्मों को स्वयं करने का व्रत लेता है। यही व्यक्ति मेधातिथि = [ मेधया अतति ] समझदारी से चलनेवाला है। यह कहता है कि २. ( विष्णोः ) = उस व्यापक प्रभु के ( कर्माणि ) = कर्मों को ( पश्यत ) = देखो, ( यतः ) = जिन कर्मों के देखने से ही यह द्रष्टा ( व्रतानि ) = अपने जीवन-नियमों को ( पस्पशे ) = [ बध्नाति ] अपने में बाँधता है, अर्थात् अपने जीवन को भी उन्हीं कर्मों में लगाने का ध्यान करता है। 

    ३. यह ( युज्यः ) = [ युनक्ति सदाचारेण ] प्रभु के कर्मों का ध्यान करके अपने को उन कर्मों से जोड़नेवाला सदाचारी ही ( इन्द्रस्य ) = उस सर्वशक्तिमान् परमैश्वर्यशाली प्रभु का ( सखा ) = मित्र बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम प्रभु के कर्मों को देखें। उन्हीं व्रतों से अपने को बाँधें और व्रतों से अपने को जोड़नेवाले हम प्रभु के मित्र बनें।

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    विषय

    ईश्वर और राजा के कर्म ।

    भावार्थ

    -हे जनो ! (विष्णोः ) व्यापक ईश्वर के कर्माणि ) उन नाना कार्यों को जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था के कार्यों को ( पश्यत ) देखो ( धतः ) जिनके द्वारा वह ( व्रतानि ) नाना नियमों को ( पस्पशे ) बांधता है । वह परमेश्वर ( इन्द्रस्य ) घाटमा का ( युज्य : ) समाधि में उसके प्राप्त होने वाला ( सखा ) उसका मित्र है । अथवा हममें से प्रत्येक ईश्वर का मित्र है॥
     
    राजा के पक्ष में- ( विष्णोः कर्माणि पश्यत ) हे राजसभा के सभासदो ! राष्ट्र के व्यापक शक्तिवाले राजा के उन कर्मों को निरीक्षण करो । ( यतः ) जिनसे वह नाना नियमों को ( पस्पशे) बांधता है। तुममें से प्रत्येक ( इन्द्रस्य ) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा का ( युज्यः ) योगदायी ( सखा ) मित्र है ||

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिर्ऋषिः । विष्णुर्देवता । निचृदार्षी  गायत्री । षड्जः ॥ 

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    विषय

    अब सभापति अपने सभासद आदि मनुष्यों को क्या-क्या उपदेश करे, यह इस मन्त्र में कहा है।।

    भाषार्थ

    हे सभ्य जनो ! तुम लोग, जैसे मैं (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (युज्य:) सदाचार से युक्त (सखा) मित्र होकर (विष्णोः) सर्वव्यापक ईश्वर के (कर्माणि) जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहृति रूप कर्मों को देखता हुआ (यतः) जिस विज्ञान से मन में (व्रतानि) नियत सत्यभाषण आदि नियमों को (पस्पशे) बांधता हूँ, वैसे उसी विज्ञान से उन उत्पत्ति, स्थिति, संहृति आदि कर्मों को तुम लोग भी (पश्यत) देखो, जिससे राज्य कर्मों का सत्यतापूर्वक अनुष्ठान करने वाले बन सको।। ६।४।।

    भावार्थ

    परमेश्वर का अविरोध और सत्य आचरण के बिना कोई भी मनुष्य ईश्वर के, गुण, कर्म, स्वभावों को नहीं देख सकता, वैसा बने बिना कोई राज्य कार्यों का यथार्थ रूप में सेवन नहीं कर सकता, सत्य आचरण के बिना कोई भी राज्य को बढ़ाने में समर्थ नहीं होता ॥ ६। ४ ॥

    प्रमाणार्थ

    (पस्पशे) यहाँ लट्-अर्थ में लिट् लकार है। (युज्य:) यहाँ 'युज्' धातु से उणादि का 'क्यप्' प्रत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।७।१।१७) में की गई है।। ६। ४।।

    भाष्यसार

    सभाध्यक्ष का सभ्यजनों के प्रति उपदेश--हे सभ्य जनो! जैसे मैं परमेश्वर का सदाचार से युक्त सुयोग्य मित्र बन कर उस सर्वव्यापक ईश्वर के जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आदि कर्मों को देखता हूँ वैसे तुम भी देखो। किन्तु परमेश्वर का अविरोध (मित्रता) तथा सत्य आचरण के बिना कोई भी व्यक्ति ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावों को नहीं देख सकता, अतः परमेश्वर के सखा बनो तथा जिस विज्ञान युक्त मन से मैं सत्यभाषण आदि व्रतों का अनुष्ठान करता हूँ तुम लोग भी उसी विज्ञान युक्त मन से सत्य का आचरण करो। क्योंकि परमेश्वर का मित्र और सत्याचरणी बने बिना कोई भी व्यक्ति राज्य कार्यों की यथार्थरूप में सेवा नहीं कर सकता, सत्याचरण के बिना कोई भी व्यक्ति राज्य को बढ़ाने में समर्थ नहीं हो सकता ॥ ६ । ४ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वरभक्ती व सत्याचरण याखेरीज कोणताही माणूस ईश्वराचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणू शकत नाही व राज्याची कामे करताना योग्य न्यायही देऊ शकत नाही. असत्य धर्मी माणसे राज्याची उन्नती कधीच करू शकत नाहीत.

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    विषय

    सभापतीने आपले सभासद आदींना काय उपदेश द्यावा, हा विषय पुढील मंत्रात सांगितला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - सभापती (राष्ट्राध्यक्ष) सभासदांना (सभेतील सदस्यांना) उद्देशून म्हणत आहेत-हे सभासदगण, (इन्द्रस्य) परमेश्‍वराचा एक (युज्यः) योग्य व सदाचारी (सखा) मित्र म्हणून (विष्णोः) त्या व्यापक ईश्‍वराच्या (कर्माणि) कर्मांना म्हणजे जगदुत्यत्ती जगपालन व जगसंहार या त्याच्या सत्वगुणांकडे पाहून मी सभाध्यक्ष (यतः) ज्या मान व बुद्धिमत्तेने (व्रतानि) सत्यभाषण, सत्याचरण आदी नियमांचे (पस्पशे) बंधनात आहे. (सत्यनियमांचे पालन करून त्या प्रमाणे राज्यव्यवस्था करीत आहे). आपण सर्व सभा सदस्यांनी देखील माझ्याप्रमाणे परमेश्‍वराच्या उत्तम गुणांकडे (पश्यत) लक्षपूर्वक पहावे. (राज्याने निश्‍चित केलेल्या कायद्यांचे पालन करावे) यामुळे आपण सर्वांनी राज्याच्या संचालनात सत्य व्यवहार करावेत. ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - परमेश्‍वराविषयी प्रीतीभाव आणि जीवनात सत्याचरण यांशिवाय कोणी मनुष्य ईश्‍वराच्या गुण, कर्म आणि स्वभावाला जाणून घेण्यास पात्र होत नाही. तसेच त्या ज्ञानाशिवाय कोणीही राजा यथार्थ न्यायाने राजकर्म करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. तसेच सत्य धर्माच्या आचरणाशिवाय कोणीही राजा आपल्या राज्याचा विस्तार वा प्रगती करू शकत नाही. ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O men study Gods works of Creation, preservation and dissolution of the universe ; whereby He determines His laws. Each one of us is His close-allied friend.

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    Meaning

    Watch the divine acts of Vishnu, omnipresent lord of the universe, acts of creation, sustenance and annihilation of the world, wherein are manifested the inviolable laws of His dominion operative in nature. Therein I see the sacred rules of conduct and administration of my dominion too and I bind myself irrevocably as a friend of the lord of universal power and as an instrument of His will. Watch, meditate, learn and bind yourselves too to the rules of this dominion and His.

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    Translation

    Look at the accomplishments of the omnipresent Lord, who has ordered all in their several disciplines. He is the appropriate friend of the aspirant. (1)

    Notes

    Visnoh, of the omnipresent Lord. Paspa$e, यध्नति, binds; puts in order. Vratani, disciplines. Yajyah, योग्य:. , appropriate. Indra, the aspirant.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ সভাধ্যক্ষঃ সভ্যাদীন্ মনুষ্যান্ প্রতি কিং কিমুপদিশেদিত্যাহ ॥
    এখন সভাপতি নিজের সভাসদাদিকে কী কী উপদেশ করিবেন, তাহাই পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে সভাসদ্গণ! যেমন (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (য়ুজ্যঃ) সদাচারযুক্ত (সখা) মিত্র (বিষ্ণোঃ) সেই ব্যাপক ঈশ্বরের (কর্মাণি) সংসার নির্মাণ, পালন ও সংহার করা যে সত্যগুণ তাহা দেখিয়া আমি (য়তঃ) যে জ্ঞান দ্বারা (ব্রতানি) নিজের মনে সত্যভাষণাদি নিয়মগুলিকে বাঁধিয়া রাখিয়াছি অর্থাৎ নিয়ম করিতেছি সেইরূপ সেই জ্ঞান দ্বারা তুমিও পরমেশ্বরের উত্তম গুণগুলি (পশ্যত) দৃঢ়তা পূর্বক লক্ষ্য কর যে, যাহাতে রাজ্যাদি কর্মে সত্য ব্যবহারকারী হও ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- পরমেশ্বরের সহিত প্রীতি ও সত্যাচরণ বিনা কোনও মনুষ্য ঈশ্বরের গুণ, কর্ম ও স্বভাব দেখিবার যোগ্য হইতে পারে না, তদ্রূপ না হইয়া রাজ্য কর্ম যথার্থ ন্যায়পূর্বক সেবন করিতে পারে না, সত্য ধর্মাচার হইতে রহিত ব্যক্তিগণ রাজ্য বৃদ্ধি করিতে কখনও সক্ষম হইতে পারে না ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিষ্ণোঃ॒ কর্ম্মা॑ণি পশ্যত॒ য়তো॑ ব্র॒তানি॑ পস্প॒শে ।
    ইন্দ্র॑স্য॒ য়ুজ্যঃ॒ সখা॑ ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিষ্ণোঃ কর্ম্মাণীত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । নিচৃদার্ষী গায়ত্রী ছন্দঃ । ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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