यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 22
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - विराट ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
73
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा बृ॒हद्व॑ते॒ वय॑स्वतऽउक्था॒व्यं गृह्णामि। यत्त॑ऽइन्द्र बृ॒हद्वय॒स्तस्मै॑ त्वा॒ विष्ण॑वे त्वै॒ष ते॒ योनि॑रु॒क्थेभ्य॑स्त्वा दे॒वेभ्य॑स्त्वा देवा॒व्यं य॒ज्ञस्यायु॑षे गृह्णामि॥२२॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृहीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। बृहद्व॑त॒ इति॑ बृहत्ऽव॑ते। वय॑स्वते। उ॒क्थाव्य᳖मित्यु॑क्थऽअ॒व्य᳖म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। यत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। बृ॒हत्। वयः॑। तस्मै॑। त्वा॒। विष्ण॑वे। त्वा॒। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। उ॒क्थेभ्यः॑। त्वा॒। दे॒वेभ्यः॑। त्वा॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। य॒ज्ञस्य॑। आयु॑षे। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥२२॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोसीन्द्राय त्वा बृहद्वते वयस्वतऽउक्थाव्यङ्गृह्णामि । यत्तऽइन्द्र बृहद्वयस्तस्मै त्वा विष्णवे त्वैष ते योनिरुक्थेभ्यस्त्वा देवेभ्यस्त्वा देवाव्यँयज्ञस्यायुषे गृह्णामि मित्रावरुणाभ्यान्त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। इन्द्राय। त्वा। बृहद्वत इति बृहत्ऽवते। वयस्वते। उक्थाव्यमित्युक्थऽअव्यम्। गृह्णामि। यत्। ते। इन्द्र। बृहत्। वयः। तस्मै। त्वा। विष्णवे। त्वा। एषः। ते। योनिः। उक्थेभ्यः। त्वा। देवेभ्यः। त्वा। देवाव्यमिति देवऽअव्यम्। यज्ञस्य। आयुषे। गृह्णामि॥२२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
कीदृशं जनं सेनापतिं कुर्य्यादित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
धर्मार्थकाममोक्षानिच्छुरहं हे इन्द्र सेनापते! त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतो बृहद्वते वयस्वत इन्द्रायोक्थाव्यं त्वा त्वां गृह्णामि। यत् ते बृहत् वयस्तस्मै तत् पालनाय विष्णवे त्वा त्वां गृह्णामि। एष सेनाधिकारस्ते योनिरस्ति, उक्थेभ्यस्त्वा त्वां देवेभ्यो देवाव्यं त्वा त्वां यज्ञस्यायुषे वर्द्धनायापि गृह्णामि॥२२॥
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) सुनियमैरधीतविद्यः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते (त्वा) त्वाम् (बृहद्वते) प्रशस्तानि बृहन्ति कर्म्माणि यस्य तस्मै (वयस्वते) बहु जीवनं विद्यते यस्य तस्मै (उक्थाव्यम्) प्रशंसार्हाणि स्तोत्राणि शस्त्रविशेषाणि वा तस्य तमिव सेनापतिम् (गृह्णामि) (यत्) (ते) तव (इन्द्र) (बृहत्) (वयः) जीवनम् (तस्मै) (त्वा) त्वाम् (विष्णवे) परमेश्वराय यज्ञाय वा (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) स्थित्यर्थं स्थानविशेषः (उक्थेभ्यः) प्रशंसनीयेभ्यो वेदोक्तेभ्यः कर्म्मभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा (त्वा) त्वाम् (देवाव्यम्) उक्तानां देवानां पालकम् (यज्ञस्य) राज्यपालनादेः (आयुषे) जीवनाय (गृह्णामि)॥ अयं मन्त्रः (शत॰४। २। ३। १०-११) व्याख्यातः॥२२॥
भावार्थः
सर्ववेत्ता विद्वान् राज्यव्यवहारे सैन्यवीराणां पालनाय सुशिक्षितं शस्त्रास्त्रपरमप्रवीणं यज्ञकर्म्मानुष्ठातारं वीरपुरुषं सेनापतित्वेऽभियुञ्जीयात्। सभापतिसेनापती परस्परानुमत्या राज्यं यज्ञं च वर्द्धयेतामिति॥२२॥
विषयः
कीदृशं जनं सेनापतिं कुर्य्यादित्युपदिश्यते।।
सपदार्थान्वयः
धर्मार्थकाममोक्षानिच्छुरहं हे इन्द्र=सेनापते ! त्वमुपयामगृहीतः सुनियमैरधीतविद्यः असि, अतो बृहद्वते प्रशस्तानि बृहन्ति=कर्म्माणि यस्य तस्मै, वयस्वते बहुजीवनं विद्यते यस्य तस्मै, इन्द्राय परमैश्वर्यवते उक्थाव्यं प्रशंसार्हाणि स्तोत्राणि शस्त्रविशेषाणि वा तस्य तमिव सेनापतिंत्वा=त्वां गृह्णामि। यत् ते तव बृहद् वयः जीवनं तस्मै=तत्पालनाय [त्वा] त्वां, विष्णवे परमेश्वराय यज्ञाय वा त्वा=त्वां गृह्णामि। एषः=सेनाधिकारस्ते तव योनिः स्थित्यर्थः स्थानविशेषः अस्ति। उक्थेभ्यः प्रशंसनीयेभ्यो वेदोक्तेभ्यः कर्म्मभ्यः त्वा=त्वां देवेभ्यः विद्वद्भयो दिव्यगुणेभ्यो वा देवाव्यम् उक्तानां देवानां पालकं त्वा=त्वां यज्ञस्य राज्यपालनादे: आयुषे=वर्द्धनाय जीवनाय अपि गृह्णामि ॥ ७ । २२ ॥ [हे इन्द्र=सेनापते! त्वमुपयामगृहीतोऽसि, अतो......उक्थाव्यं त्वा=त्वां गृह्णामि, देवाव्यं त्वा=त्वां यज्ञस्यायुषे वर्द्धनायापि गृह्णामि ]
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) सुनियमैरधीतविद्यः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते (त्वा) त्वाम् (बृहद्वते) प्रशस्तानि बृहन्ति= कर्म्माणि यस्य तस्मै (वयस्वते) बहुजीवनं विद्यते यस्य तस्मै (उक्थाव्यम्)प्रशंसार्हाणि स्तोत्राणि शस्त्रविशेषाणि वा तस्य तमिव सेनापतिम् (गृह्णामि) (यत्) (ते) तव (इन्द्र) (बृहत्) (वयः) जीवनम् (तस्मै) (त्वा) त्वाम् (विष्णवे) परमेश्वराय यज्ञाय वा (त्वा) त्वाम् (एषः) (ते) तव (योनिः) स्थित्यर्थ: स्थानविशेष: (उक्थेभ्यः) प्रशंसनीयेभ्यो वेदोक्तेभ्यः कर्म्मभ्यः (त्वा) त्वाम् (देवेभ्य:) विद्वद्भयो दिव्यगुणेभ्यो वा (त्वा) त्वाम् (देवाव्यम्) उक्तानां देवानां पालकम् (यज्ञस्य) राज्यपालनादे: (आयुषे) जीवनाय (गृह्णामि)॥अयं मंत्रः शत० ४ । २ । ३ । १०-११ व्याख्यातः ॥ २२ ॥
भावार्थः
सर्ववेत्ता विद्वान् राज्यव्यवहारेसैन्यवीराणां पालनाय सुशिक्षितं शस्त्रास्त्रपरमप्रवीणं यज्ञकर्मानुष्ठातारं वीरपुरुषं सेनापतित्वेऽभियुञ्जीयात्। सभापतिसेनापती परस्परानुमत्याराज्यं यज्ञं च वर्द्धेयातामिति ।। ७ । २२ ।।
भावार्थ पदार्थः
उपयामगृहीतः=सुशिक्षितः। उक्थाव्यम्=शस्त्रास्त्रपरमप्रवीणम्। देवाव्यम्=वीरपुरुषम्।
विशेषः
वत्सारः काश्यपः। विश्वेदेवाः=विद्वांसो दिव्यगुणा वा। निचृदष्टिः मध्यमः।।
हिन्दी (4)
विषय
अब कैसे मनुष्य को सेनापति करे, यह अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सेनापते! तू (उपयामगृहीतः) अच्छे नियमों से विद्या को पढ़ने वाला (असि) है, इस हेतु से (बृहद्वते) जिसके अच्छे बड़े-बड़े कर्म्म हैं (वयस्वते) और जिसकी दीर्घ आयु है, उस (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले सभापति के लिये (उक्थाव्यम्) प्रशंसनीय स्तोत्र वा विशेष शस्त्रविद्या वाले (त्वा) तेरा (गृह्णामि) ग्रहण जैसे मैं करता हूं, वैसे (यत्) जो (ते) तेरा (बृहत्) अत्यन्त (वयः) जीवन है, (तस्मै) उसके पालन करने के अर्थ और (विष्णवे) ईश्वरज्ञान वा वेदज्ञान के लिये (त्वा) तुझे (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं और (एषः) यह सेना का अधिकार (ते) तेरा (योनिः) स्थित होने के लिये स्थान है। हे सेनापते! (उक्थेभ्यः) प्रशंसा योग्य वेदोक्त कर्मों के लिये (त्वा) तुझे (देवेभ्यः) और विद्वानों वा दिव्य गुणों के लिये (देवाव्यम्) उनके पालन करने वाले (त्वा) तुझ को (यज्ञस्य) राज्यपालनादि व्यवहार के (आयुषे) बढ़ाने के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥२२॥
भावार्थ
सब विद्याओं के जानने वाले विद्वान् को योग्य है कि राज्यव्यवहार में सेना के वीर पुरुषों की रक्षा करने के लिये अच्छी शिक्षायुक्त, शस्त्र और अस्त्र विद्या में परम प्रवीण, यज्ञ के अनुष्ठान करने वाले वीर पुरुष को सेनापति के काम में युक्त करें और सभापति तथा सेनापति को चाहिये कि परस्पर सम्मति कर के राज्य और यज्ञ को बढ़ावें॥२२॥
विषय
दिव्यता व यज्ञमय जीवन
पदार्थ
१. गत मन्त्र में जलों व ओषधियों से उत्पन्न सोम का वर्णन था। उसी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ( उपयामगृहीतः असि ) = प्रभु-उपासन के द्वारा तू यम-नियमों से स्वीकृत है। मैं ( त्वा ) = तुझे, जो तू ( उक्थाव्यम् ) = [ उक्थम् अवति ] प्रशंसनीय वस्तुओं की रक्षा करनेवाला है ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ। क्यों? [ क ] ( इन्द्राय ) = परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिए अथवा शत्रुओं के विदारण के लिए। सोम की रक्षा से ही ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान का ऐश्वर्य प्राप्त होता है, और हम रोगकृमि आदि शत्रुओं का संहार करनेवाले बनते हैं। [ ख ] ( बृहद्वते ) = [ बृहन्ति प्रशस्तानि कर्माणि विद्यन्ते यस्मिन् ] प्रशस्त कर्मोंवाले जीवन के लिए। सोमरक्षा से हमारी प्रवृत्तियाँ सुन्दर बनी रहती हैं और परिणामतः हमारे कार्य भी सुन्दर होते हैं। [ ग ] ( वयस्वते ) = प्रशस्त जीवन के लिए। ‘सोम रक्षा से ज्ञान व स्वास्थ्य की वृद्धि होकर जीवन उत्तम बनता है’ इस बात में तो सन्देह है ही नहीं।
२. हे ( इन्द्र ) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! ( यत् ) = जो ( ते ) = तेरा ( बृहद्वयः ) = वृद्धिशील जीवन है ( तस्मै ) = उसके लिए मैं ( त्वा ) = आपको स्वीकार करता हूँ। ( विष्णवे त्वा ) = [ यज्ञो वै विष्णुः ] अपने जीवन को यज्ञात्मक रखने के लिए मैं आपको स्वीकार करता हूँ। ( एषः ते योनिः ) = यह सोम ही आपकी प्राप्ति का कारण है।
३. मैं ( उक्थेभ्यः ) = स्तोत्रों के लिए, प्रशंसनीय कर्मों के लिए ( त्वा ) = तुझे ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ। ( देवेभ्यः ) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए ( त्वा ) = तुझे ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ। ( देवाव्यम् ) = [ देवान् अवति ] दिव्य गुणों की रक्षा करनेवाले तुझे ( यज्ञस्य ) = यज्ञ के ( आयुषे ) = जीवन के लिए ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ, अर्थात् सोम की रक्षा के द्वारा मैं दिव्यता का साधन करता हुआ यज्ञमय जीवन बिताता हूँ।
भावार्थ
भावार्थ — सोमरक्षा के द्वारा मेरा जीवन दिव्य व यज्ञमय बनता है।
विषय
इन्द्रपद का वर्णन ।
भावार्थ
हे उत्तम, वीर पुरुष ! तू (उपयामगृहीतः असि ) तू राज्य के उत्तम नियमों द्वारा ' गृहीत' अर्थात् बंधा है । ( उक्थाव्यम् ) उत्तम ज्ञानों की रक्षा करने वाले (त्वा) तुझ विद्वान् को मैं ( इन्द्राय ) परम ऐश्वर्य युक्त (बृहद्वते ) बड़े भारी राष्ट्र के कार्यों से युक्त ( वयस्वते ) अति दीर्घ जीवन वाले पद या राजा के लिये (गृह्णामि ) नियुक्त करता हूँ । हे ( इन्द्र ) इन्द्र परमैश्वर्यवान् । राजन् अथवा ! सेनापते ! ( यत् ते ) जो तेरा ( बृहत् ) महान् राज्य और ( वयः ) जो तेरा यह दीर्घजीवन साध्य कार्य है ( तस्मै ) मैं उसके लिये ( त्वा ) तुझको नियुक्त करता हूं । (विष्णवे त्वा) तुझे राज्यपालन रूप, विष्णु अर्थात् व्यापक राष्ट्र के पालन कार्य के लिये नियुक्त करता हूँ । ( एषः ते योनिः ) यह तेरा आश्रय स्थान या पद है : ( देवाव्यम् ) देव, विद्वानों,शासकोंऔर पदाधिकारियों के और अधीन राजाओं के रक्षक (त्वा ) तुझको ( देवेभ्यः गृह्णामि ) उन देवों अर्थात् विद्वान् पदाधिकारी, अधीन राजाओं की रक्षा के लिये भी ( गृह्णामि) नियुक्त करता हूं। और मैं तुझे ( यज्ञस्य ) इस 'यज्ञ ' अर्थात् राज्यव्यवस्था के ( आयुषे ) दीर्घजीवन के लिये भी (गृह्णामि ) नियुक्त करता हूँ । शत० ४ । २ । २ । १-१० ॥
टिप्पणी
२२ - ०' उक्था युवं ० " ०" देवायुव० ' ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वेदेवा देवताः । ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
अब कैसे मनुष्य को सेनापति करे, यह उपदेश किया है।।
भाषार्थ
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का इच्छुक मैं (राजा)--हे ( इन्द्र) सेनापते ! तूने (उपयामगृहीतः) ब्रह्मचर्य आदि श्रेष्ठ नियमपूर्वक विद्या का अध्ययन किया (असि) है, इसलिये (बृहद्वते) उत्तम कर्मों वाले (वयस्वते) बड़ी आयु वाले (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य से सम्पन्न (उक्थाव्यम्) प्रशंसा के योग्य शस्त्र-विशेषों से युक्त (त्वाम्) तुझको (गृह्णामि) सेनापति के रूप में ग्रहण करता हूँ, स्वीकार करता हूँ। और जो (ते) तेरी (बृहद्) बड़ी (वय:) आयु है (तस्मै ) उसकी रक्षा के लिये [त्वा] तुझको, तथा (विष्णवे) परमेश्वर वा शुभ कर्म की प्राप्ति के लिये (त्वा) तुझ को, (गृह्णामि) ग्रहण करता है ।(एषः) यह सेनाधिकार (ते) तेरा (योनिः) रहने का स्थान विशेष अर्थात् घर (अस्ति) है। (उक्थेभ्यः) प्रशंसनीय वेदोक्त कर्मों के लिये (त्वा) तुझको, (देवेभ्यः) विद्वानों वा दिव्य गुणों की रक्षा के लिये (देवाव्यम्) देवों के रक्षक (त्वा) तुझको तथा–(यज्ञस्य) राज्य के पालन आदि और (आयुषे) जीवन की वृद्धि के लिये भी (गृह्णामि) तुझको सेनापति रूप में ग्रहण करता हूँ ॥ ७ । २२ ॥
भावार्थ
सब विद्याओं को जानने वाला विद्वान् राजा राज्य व्यवहार में सेना के वीर पुरुषों की रक्षा के लिये सुशिक्षित, शस्त्र-अस्त्र विद्या में परम चतुर, यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले वीर पुरुषको सेनापति पद पर नियुक्त करें। और--राजा तथा सेनापति परस्पर अनुमति से राज्य और यज्ञ को बढ़ावें ।। ७ । २२ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । २ । ३ । १०-११ ) में की गई है ।। ७ । २२ ।।
भाष्यसार
राजा कैसे पुरुष को सेनापति बनावे--धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का इच्छुक, सब विद्याओं का वेत्ता विद्वान् राजा उत्तम ब्रह्मचर्य आदि नियमपूर्वक विद्या पढ़े हुये (सुशिक्षित), यज्ञ आदि प्रशस्त कर्म करने वाले, बड़ी आयु वाले, परम ऐश्वर्य से सम्पन्न, शस्त्र-अस्त्र विद्या में अत्यन्त चतुर पुरुष को सेनापति पद पर नियुक्त करे। और वह सेनापति सेना के वीर पुरुषों के महान् जीवन की रक्षा करे। परमेश्वर की प्राप्ति और यज्ञ आदि शुभ कर्मों की रक्षा के लिये सदा प्रयत्न करे। राजा के दिये सेनाधिकार को अपना घर समझे अर्थात् सदा उसमें निवास करे, उसका परित्याग कदापि न करे। प्रशंसनीय वेदोक्त कर्म, विद्वान् पुरुष और दिव्य गुणों की सदा रक्षा करे। राज्य की रक्षा तथा प्रजा की आयु-वृद्धि के लिये सतत प्रयत्न करे। इस प्रकार सभापति राजा और सेनापति परस्पर राज्य और यज्ञ आदि शुभ कर्मों की वृद्धि करें ।।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व विद्या जाणणाऱ्या विद्वानांनी सेनेतील वीर पुरुषांचे रक्षण करण्यासाठी राज्यांमध्ये प्रशिक्षित, शस्त्रास्त्र विद्येत पारंगत व यज्ञाचे अनुष्ठान करणाऱ्या वीर पुरुषाला सेनापती नियुक्त करावे व राजा आणि सेनापतीने परस्पर संमतीने राज्य व यज्ञ यांची वाढ करावी.
विषय
अशा प्रकारच्या मनुष्यास सेनापती करावे, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (इन्द्र) सेनापती, तू (उपयामगृहीत:) योग्य प्रकारे नियमपूर्वक विद्या शिकणारा वा उत्तम युद्धविद्या (असि) आहेस. यामुळे मी (धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची इच्छा करणारा मी एक विद्वान) (बृहद्वते) उत्तम कर्म करणार्या (वयस्वते) आणि दीर्घायू असलेल्या (इन्द्राय) परमेश्वर्यशाली सभाध्यक्षा (राष्ट्राध्यक्ष) करिता (त्वा) तुझे (गृहणीमि) ग्रहण करीत आहे, कारण की तू (उक्याव्यम्) प्रशंसनीय आहेस व शस्त्रविद्या विशेषत्वाने जाणतोस. तसेच (यत्) (ते) तुझे जे (बृहत्) महान (वय:) जीवन आहे (तस्मै) याच्या संगोपन-रक्षणासाठी आणि (विष्णवे) ईश्वराचे व वेदांचे ज्ञान प्राप्त करण्यासाठी (त्वा) तुझा (गृह्णामि) स्वीकार करीत आहे. (ईश्वरीय ज्ञान ने वेद त्या वेदांच्या प्रचार-रक्षणासाठी तुझ्या दीर्घजीवनाची कामना करीत आहे) (एष:) हा सैन्यप्रमुख होण्याचा (ते) तुझे अधिकार पद योग्य (योनि:) असे स्थान आहे. हे सेनापती! (उक्थेथ्य:) प्रशंसनीय वेदोक्त कर्म करण्यासाठी तसेच (देवंभ्य:) विद्वान व दिव्य गुणांच्या प्राप्तीसाठी मी (त्वा) तुला ग्रहण करीत आहे. तसेच (देवान्यम्) दिव्य गुणांचे पालन करणार्या अशा (त्वा) तुला (यज्ञस्य) राज्यशासन पालनरुप यज्ञ पूर्ण करण्यासाठी तुझ्या (आयुषे) दीर्घायुष्याची कामना करून (गृह्णामि) तुझा स्वीकार करीत आहे ॥22॥
भावार्थ
भावार्थ - सर्वविद्या विशारद विद्वानांसाठी हे उचित कर्त्तव्य कर्म आहे की त्यांनी राज्य-शासन व राज्य रक्षणासाठी तसेच वीर सैनिकांच्या सुरक्षेसाठी उत्कृष्ट प्रशिक्षणप्राप्त, शस्त्र-अस्त्र विद्यानिपुण अशा परमप्रवीण आणि याज्ञिक वीर पुरुषाला सेनाध्यक्षपदी नियुक्त करावे. तसेच सभाध्यक्ष आणि सेनापती या दोघांचेही कर्त्तव्य आहे की त्यांनी पारस्परिक सहमतीने राज्याचा विस्तार आणि यज्ञकार्याची वृद्धी करावी ॥22॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O General, I appoint thee, well versed in knowledge, the doer of valorous deeds, advanced in age, full of dignity, expert in the knowledge of arms, as Commander-in-chief of the forces. I direct thee to lead a grand life. I advise thee to be God-fearing. The command of the army is thy foremost duty. I enjoin thee to preserve the interests of the state, to perform praiseworthy vedic acts, cultivate and preserve noble qualities.
Meaning
Indra, meritorious man of arms, self-controlled and established in the rules of law, good conduct and service of the nation, I appoint you as commander of the army in the service of Indra, lord of the land — great is he, long-lived he be! Great is your work, a life¬ time undertaking. For that you are appointed. For Vishnu, lord supreme, for yajana, for the nation you are consecrated. For the lord’s songs of praise, to the noble people, to the health and continuance of the social yajna of the land, to the defence and advancement of the noble powers, you are dedicated. This is now your haven, your very being, the meaning and justification of your existence.
Translation
You have been duly accepted. I take you for the sake of resplendent Lord, whose deeds are great, who is the lord of vigour, and who is worth praising. O resplendent Lord, what great vigour is yours, for that I dedicate it. I dedicate it to the omnipresent Lord. (1) This is your abode. I dedicate you for the praises. (2) You are pleasing to Nature's bounties. (3) May the sacrifice have a long life. (4)
Notes
Ukthavyam, worth praising. Devavyam, pleasing to the bounties of Nature or the enlightened ones; also, cherished by the learned.
बंगाली (1)
विषय
কীদৃশং জনং সেনাপতিং কুর্য়্যাদিত্যুপদিশ্যতে ॥
এখন কেমন মনুষ্যকে সেনাপতি করিবে ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (ইন্দ্র) সেনাপতে । তুমি (উপয়ামগৃহীতঃ) নিয়মপূর্বক বিদ্যা পঠনকারী (অসি) হও, এই হেতু (বৃহদ্বতে) যাহার ভাল বৃহৎ কর্ম্ম (বয়স্বতে) এবং যাহার দীর্ঘ আয়ু সেই (ইন্দ্রায়) পরমৈশ্বর্য্য সম্পন্ন সভাপতির জন্য (উক্থাব্যম্) প্রশংসনীয় স্তোত্র বা বিশেষ শস্ত্রবিদ্যাযুক্ত (ত্বা) তোমার (গৃহ্নামি) গ্রহণ যেমন আমি করি, সেইরূপ (য়ৎ) যাহা (তে) তোমার (বৃহৎ) অত্যন্ত (বয়ঃ) জীবন (তস্মৈ) তাহার পালন করিবার অর্থ এবং (বিষ্ণবে) ঈশ্বর জ্ঞান বা বেদজ্ঞান হেতু (ত্বা) তোমাকে (গৃহ্নামি) স্বীকার করি এবং (এষঃ) ইহা সেনার অধিকার (তে) তোমার (যোনিঃ) স্থিত হইবার জন্য স্থান । হে সেনাপতে । (উক্থেভ্যঃ) প্রশংসনীয় বেদোক্ত কর্মের জন্য (ত্বা) তোমাকে (দেবেভ্যঃ) এবং বিদ্বান্ বা দিব্য গুণের জন্য (দেবাব্যম্) তাহাদের পালনকারী (ত্বা) তোমাকে (য়জ্ঞস্য) রাজ্যপালনাদি ব্যবহার (আয়ুষে) বৃদ্ধি করিবার জন্য (গৃহ্নামি) গ্রহণ করি ॥ ২২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সকল বিদ্যার জ্ঞাতা বিদ্বানের উচিত যে, রাজ্যব্যবহারে সেনার বীর পুরুষদিগের রক্ষাকারী সম্যক শিক্ষাযুক্ত, শস্ত্র ও অস্ত্রবিদ্যায় পরম প্রবীণ যজ্ঞের অনুষ্ঠানকারী বীর পুরুষকে তিনি সেনাপতির কর্ম্মে যুক্ত করুন এবং সভাপতি ও সেনাপতির উচিত যে, পরস্পর সম্মতি করিয়া রাজ্য ও যজ্ঞ বৃদ্ধি করাইবেন ॥ ২২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতো॒ऽসীন্দ্রা॑য় ত্বা বৃ॒হদ্ব॑তে॒ বয়॑স্বতऽউক্থা॒ব্যং᳖ গৃহ্ণামি । য়ত্ত॑ऽইন্দ্র বৃ॒হদ্বয়॒স্তস্মৈ॑ ত্বা॒ বিষ্ণ॑বে ত্বৈ॒ষ তে॒ য়োনি॑রু॒ক্থেভ্য॑স্ত্বা দে॒বেভ্য॑স্ত্বা দেবা॒ব্যং᳖ য়॒জ্ঞস্যায়ু॑ষে গৃহ্ণামি ॥ ২২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উপয়ামগৃহীতোऽসীত্যস্য বৎসারঃ কাশ্যপ ঋষিঃ । বিশ্বেদেবা দেবতাঃ । ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal