यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 44
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
96
अ॒यं नो॑ऽअ॒ग्निर्वरि॑वस्कृणोत्व॒यं मृधः॑ पु॒रऽए॑तु प्रभि॒न्दन्। अ॒यं वाजा॑ञ्जयतु॒ वाज॑साताव॒यꣳ शत्रू॑ञ्जयतु॒ जर्हृ॑षाणः॒ स्वाहा॑॥४४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। नः॒। अग्निः॒। वरि॒॑वः। कृ॒णो॒तु॒। अ॒यम्। मृधः॑। पु॒रः। ए॒तु॒। प्र॒भि॒न्दन्निति॑ प्रऽभि॒न्दन्। अ॒यम्। वाजा॑न्। ज॒य॒तु॒। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ। अ॒यम्। शत्रू॑न्। ज॒य॒तु॒। जर्हृ॑षाणः। स्वाहा॑ ॥४४॥.
स्वर रहित मन्त्र
अयन्नोऽअग्निर्वरिवस्कृणोत्वयम्मृधः पुर एतु प्रभिन्दन् । अयँ वाजाञ्जयतु वाजसातावयँ शत्रून्जयतु जर्हृषाणः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। नः। अग्निः। वरिवः। कृणोतु। अयम्। मृधः। पुरः। एतु। प्रभिन्दन्निति प्रऽभिन्दन्। अयम्। वाजान्। जयतु। वाजसाताविति वाजऽसातौ। अयम्। शत्रून्। जयतु। जर्हृषाणः। स्वाहा॥४४॥.
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ सङ्ग्रामे ब्रह्मोपासकैः शूरवीरैः कथं योद्धव्यमित्युदिश्यते॥
अन्वयः
अयमग्निः स्वाहा वाजसातौ नो वरिवस्कृणोतु। अयं प्रभिन्दन् मृधः पुर एतु। अयं वाजाञ्जयतु। अयं जर्हृषाणः सन् शत्रून् जयतु॥४४॥
पदार्थः
(अयम्) सर्वाभिरक्षकः (नः) अस्माकम् (अग्निः) वैद्यविद्याप्रकाशकः सर्वरोगनिवारकः सद्वैद्यः (वरिवः) सुखकारकं सेवनम् (कृणोतु) करोतु (अयम्) मुख्ययोद्धा (मृधः) सङ्ग्रामात् (पुरः) पुरस्तात् (एतु) गच्छतु (प्रभिन्दन्) विदारयन् (अयम्) वक्तृत्वेनोपदेष्टुं कुशलो योद्धा (वाजान्) वेगादिगुणयुक्तान् स्वसेनास्थान् वीरान् (जयतु) उत्कर्षतु (वाजसातौ) वाजानां सङ्ग्रामाणां संविभागे (अयम्) सर्वोत्कृष्टः (शत्रून्) धर्मशातकान् (जयतु) स्वोत्कर्षाय तिरस्करोतु (जर्हृषाणः) भृशमाह्लादितः (स्वाहा) वैद्यकयुद्धविद्यया शिक्षितया वाचा। स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११)। अयं मन्त्रः (शत॰४। ३। ४। १३) व्याख्यातः॥४४॥
भावार्थः
यदा युद्धकर्मणि चत्वारो वीरा अवश्यमेव भवेयुस्तेष्वेको वैद्यकक्रियाकुशलः सर्वरक्षकः, द्वितीयो हि शौर्य्यादिगुणप्रदेन व्याख्यानेन हर्षयिता, तृतीयः शत्रूणां तिरस्कर्त्ता, चतुर्थः शत्रुविघातुकः स्यात्, तदा सर्वा युद्धक्रिया प्रशस्ता भवेत्॥४४॥
विषयः
अथ संग्रामे ब्रह्मोपासकैः शूरवीरैः कथं योद्धव्यमित्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
अयं सर्वाभिरक्षकः अग्निः वैद्यविद्याप्रकाशकः सर्वरोगनिवारकः सद्वैद्यः स्वाहा वैद्यक युद्धविद्यया शिक्षितया वाचा वाजसातौ वाजानां=सङ्ग्रामाणां संविभागेनः अस्माकं वरिवः सुखकारकं सेवनः कृणोतु करोतु। अयं मुख्ययोद्धा प्रभिन्दन् विदारयन् मृधः सङ्ग्रामात् पुरः पुरस्तात् एतु गच्छतु । अयं वक्तृत्वेनोपदेष्टुं कुशलो योद्धा वाजान् वेगादिगुणयुक्तान् स्वसेनास्थान् वीरान् जयतु उत्कर्षतु। अयं सर्वोत्कृष्टः जर्हृषाणः भृशमाह्लादितः सन् शत्रून् धर्मशातकान्जयतु स्वोत्कर्षाय तिरस्करोतु ॥ ७।४४॥ [अयमग्निः स्वाहा वाजसातौनो वरिवः कृणोतु]
पदार्थः
(अयम्) सर्वाभिरक्षकः (नः) अस्माकम् (अग्निः) वैद्यविद्याप्रकाशकः सर्वरोगनिवारकः सद्यः (वरिवः) सुखकारकं सेवनम् (कृणोतु) करोतु (अयम्) मुख्ययोद्धा (मृधः) संग्रामात् (पुरः) पुरस्तात् (एतु) गच्छतु (प्रभिन्दन्) विदारयन् (अयम्) वक्तृत्वेनोपदेष्टुं कुशलो योद्धा (वाजान्) वेगादिगुणयुक्तान् स्वसेनास्थान् वीरान् (जयतु) उत्कर्षतु (वाजसातौ) वाजानां= संग्रामाणां संविभागे (अयम्) सर्वोत्कृष्टः (शत्रून्) धर्मशातकान् (जयतु) स्वोत्कर्षाय तिरस्करोतु (जर्हृषाणः) भृशमाह्लादितः (स्वाहा) वैद्यकयुद्धविद्यया शिक्षितया वाचा। स्वाहेति वाङ्नामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ११ ॥ अयं मंत्रः शत० ४ । ३। ४।१३ व्याख्यातः ॥ ४४ ॥
भावार्थः
यदा युद्धकर्मणि चत्वारो वीरा अवश्यमेव भवेयुस्तेष्वेको वैद्यकक्रियाकुशलः सर्वरक्षकः, [अयं वाजान् जयतु] द्वितीयो हि शौर्यादिगुणप्रदेनव्याख्यानेन हर्षयिता, [अयंजर्हृषाणःसन्शत्रून्जयतु] तृतीयः शत्रूणां तिरस्कर्ता, [अयं प्रभिन्दन् मृधः पुर एतु] चतुर्थ: शत्रुघातकः स्यात् तदा सर्वा युद्धक्रिया प्रशस्ता भवेत् ।। ७ । ४४।।
भावार्थ पदार्थः
अग्निः=वैद्यकः क्रियाकुशलः सर्वरक्षकः।।
विशेषः
आंगिरसः। प्रजापतिः=सद्वैद्यः। भुरिगार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सङ्ग्राम में परमेश्वर के उपासक शूरवीरों को किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
(अयम्) यह प्रथम (अग्निः) वैद्यक विद्या का प्रकाश करने वाला वैद्य (स्वाहा) वैद्यक और युद्ध की शिक्षायुक्त वाणी से (वाजसातौ) युद्ध में (नः) हम लोगों को (वरिवः) सुखकारक सेवन (कृणोतु) करे, (अयम्) यह दूसरा युद्ध करने वाला मुख्य वीर (प्रभिन्दन्) शत्रुओं को विदीर्ण करता हुआ (मृधः) सङ्ग्राम के (पुरः) आगे (एतु) चले, (अयम्) यह तीसरा वीर रसकारक उपदेश करने वाला योद्धा (वाजान्) अत्यन्त वेगादिगुणयुक्त वीरों को (जयतु) उत्साहयुक्त करता रहे, (अयम्) यह चौथा वीर (जर्हृषाणः) निरन्तर आनन्दयुक्त होकर (शत्रून्) धर्म्मविरोधी शत्रुजनों को (जयतु) जीते॥४४॥
भावार्थ
जब युद्धकर्म में चार वीर अवश्य हों उनमें से एक तो वैद्यकशास्त्र की क्रियाओं में चतुर सब की रक्षा करनेहारा वैद्य, दूसरा सब वीरों को हर्ष देने वाला उपदेशक, तीसरा शत्रुओं का अपमान करनेहारा और चौथा शत्रुओं का विनाश करने वाला हो, तब समस्त युद्ध की क्रिया प्रशंसनीय होती है॥४४॥
विषय
विजय
पदार्थ
१. गत मन्त्र में न्याय-मार्ग से धन कमाने का उल्लेख था, वस्तुतः धन देनेवाले तो प्रभु हैं। जीव को तो प्रभु से उपदिष्ट न्याय-मार्ग पर चलते चलना है। इसी बात को इन शब्दों में कहते हैं कि ( अयं अग्निः ) = सब उन्नतियों का साधक यह प्रभु ( नः ) = हमारे लिए ( वरिवः ) = धन ( कृणोतु ) = प्राप्त करे। प्रभु हमें उन्नति के लिए आवश्यक निवास आदि को सुन्दर बनाने के लिए सब धन देनेवाले हैं। हम पुरुषार्थ नहीं छोड़ते तो प्रभु हमें धन देते ही हैं।
२. ( अयम् ) = ये प्रभु ही ( मृधः ) = सब हिंसकों को ( प्रभिन्दन् ) = नष्ट करते हुए ( पुरएतु ) = हमें आगे ले-चलनेवाले हों। हमारा नेतृत्व प्रभु के हाथ में हो। प्रभु नेता और मैं अनुयायी। वे सब विघ्नों को दूर कर देंगे और इस प्रकार मेरी उन्नति निर्विघ्न होगी।
३. ( अयम् ) = ये प्रभु ही ( वाजसातौ ) = संग्रामों में ( वाजान् ) = अन्नों को ( जयतु ) = जीतें। इस जीवन-संग्राम में जब हम काम-क्रोधादि शत्रुओं के पराजय में व्यस्त होंगे तो हमारे खान-पान का ध्यान प्रभु करेंगे ही।
४. ये प्रभु ही ( जर्हृषाणः ) = हमें अत्यन्त हर्षित करते हुए ( शत्रून् जयतु ) = हमारे शत्रुओं को जीतें। काम-क्रोधादि का विजय भी वस्तुतः मुझे क्या करना? मुझे तो बस ( स्वाहा ) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पणमात्र करना है।
भावार्थ
भावार्थ — सब धनों का विजय व प्रापण करानेवाले प्रभु हैं। वे ही हमें संग्रामों में विजयी बनाते हैं।
विषय
प्रजाओं और सेनाओं का वर्गों में विभाग और प्रजाओं का निरीक्षण और सदस्यों द्वारा व्यवस्था ।
भावार्थ
( अयम् ) यह ( अग्निः ) अग्नि अग्रगामी, नेता पुरुष सेनापति ! ( नः ) हमारी ( वरिवः ) रक्षा ( कृष्णातु ) करे । अथवा ( नः वरिवः कृणोतु ) हमारे लिये ऐश्वर्य प्रदान करे। और ( अयम् ) यह ( मृधः ) संग्राम सम्बन्धी ( पुरः प्रभिन्दन् ) गढ़, पुरों, नगरों को तोड़ता हुआ ( एतु ) आवे । अथवा ( मृधः प्रभिन्दन् ) संग्रामों को विजय करता हुआ ( पुरः एतु ) आगे बढ़े। और ( वाजसातौ ) संग्राम के कार्य में ( वाजानू ) संग्रामों को और ( वाजान् ) धन, अन्न व ऐश्वर्य को भी ( जयतु ) विजय करे। और ( जहृषाणः ) खूब प्रसन्न हो होकर ( स्वाहा ) उत्तम आहुति, पराक्रम करता हुधा ( शत्रून् जयतु ) शत्रुओं को जीते ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।अग्निर्देवता । आर्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
अब संग्राम में परमेश्वर के उपासक शूरवीरों को किस प्रकार युद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
(अयम्) यह सबकी रक्षा करने वाला (अग्निः) वैद्यक विद्या का प्रकाशक, सब रोगों का निवारक उत्तम वैद्य (स्वाहा) वैद्यक-विद्या और युद्ध विद्या से सुशिक्षित वाणी के द्वारा (वाजसातौ) युद्धों के अवसर पर (नः) हमारी (वरिवः) सुखकारक सेवा (कृणोतु) करे। और— (अयम्) यह मुख्य योद्धा (प्रभिन्दन) शत्रु-दल का विदारण करता हुआ (मृध:) सङ्ग्राम के (पुरः) अग्रभाग में (एतु) बढ़ता जाये। और— (अयम्) भाषण के द्वारा उपदेश करने में कुशल यह योद्धा (वाजान्) वेग आदि गुणों से युक्त अपनी सेना के वीरों को (जयतु) उत्कृष्ट बनावें। और— (अयम्) यह सब से उत्कृष्ट (जर्हृषाणः) अत्यन्त प्रसन्न होकर (शत्रून्) धर्म का विनाश करने वाले शत्रुओं को (जयतु ) अपने उत्कर्ष के लिये तिरस्कृत करें ।। ७ । ४४ ।।
भावार्थ
जब युद्धकर्म में चार वीर अवश्य हों, उनमें— एक वैद्यक शास्त्र की क्रियाओं में कुशल, सबका रक्षक वैद्य हो, दूसरा शौर्य आदि गुणों को देने वाले व्याख्यान से वीरों को हर्षित करने वाला उपदेशक हो, तीसरा शत्रुओं को तिरस्कृत करने वाला शूर हो, चौथा शत्रुओं का घातक वीर हो, तब सबयुद्ध की क्रिया प्रशंसनीय होती है ।। ७ । ४४ ।।
प्रमाणार्थ
(स्वाहा) यह शब्द निघं० (१ । ११) में वाणी-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ३ । ४ । १३) में की गई है ।। ७ । ४४ ।।
भाष्यसार
संग्राम में ब्रह्मोपासक शूरवीर कैसे युद्ध करें-- संग्राम में चार प्रकार के वीर अवश्य हों :-- १. उनमें एक वैद्य हो, जो सब की रक्षा करने वाला, वैद्यक विद्या की क्रियाओं में चतुर हो। और वह वैद्यक विद्या और युद्ध विद्या में सुशिक्षित वाणी से युद्ध के विभागों में वीरों की सुखदायक सेवा करें । २. दूसरे वीर ऐसे हों जो वक्तृत्व कला में कुशल हों। वे शौर्य आदि गुणों को बढ़ाने वाले व्याख्यान से वेगादि गुणों से युक्त अपनी सेना के वीरों के मनोबल को ऊँचा उठावें, उनके मन को हर्षित करें । ३. तीसरे वीर ऐसे हों जो स्वयं सर्वोत्कृष्ट हों, सदा प्रसन्न रहने वाले हों वे धर्म का विनाश करने वाले शत्रुओं का तिरस्कार करें और अपने उत्कर्ष को बढ़ावें । ४. चौथे वीर ऐसे हों जो मुख्य योद्धा हों, शत्रु सेना का विदारण करने वाले हों, संग्राम में आगे-आगे बढ़ने वाले हों, शत्रुओं के घातक हों। जब ये चार प्रकार के वीर संग्राम में हों तभी युद्ध की प्रत्येक क्रिया प्रशंसनीय होगी, अन्यथा नहीं ॥ ७ । ४४ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
युद्धात चार प्रकारचे वीर आवश्यक असावेत. त्यापैकी एक वैद्यकशास्त्रात प्रवीण व सर्वांचे रक्षण करणारा असा वैद्य, दुसरा वीरांना आनंदित करणारा उपदेशक, तिसरा शत्रूंचा अपमान करणारा व चौथा शत्रूंचा विनाश करणारा असेल तर संपूर्ण युद्ध कार्य प्रशंसनीय ठरते.
विषय
परमेश्वराच्या उपासक शूरवीरांनी संग्रामामध्ये कशाप्रकारे युद्ध करावे, पुढील मंत्रात या विषयी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
(युद्धाच्या प्रसंगी चार प्रकारचे सैन्याधिकारी असावेत, त्यापैकी)^शब्दार्थ : (अयम्) हा पहिला (अग्नि:) वैद्यकशास्त्राचा प्रकांड (स्वाहा) वैद्यक शास्त्र आणि युद्धकलेचा ज्ञाता, सेनापती व प्रमुख सरदार आपल्या युद्धनीतीविषयीच्या वाणीद्वारे (यंत्रणा व मार्गदर्शनाद्वारे) वाजसातौ) युद्धक्षेत्रामध्ये (न:) आम्हांला (आम्हा सैनिकांना तसेच नागरिकांना) (वरिन:) सुखमय (कृणोतु) करो. (अयम्) हा दुसरा युद्धनिपुण प्रमुख वीर सरदार (प्रतिन्दन्) शत्रूंना छिन्न-भिन्न करीत (मृध:) संग्रामात सैन्याच्या स्वत: (पुर:) पुढे (एतु) राहून सर्वांचा नेता होणे. (अयम्) हा तिसरा सरदार आमच्या हृदयात वीररस वाढविणारा होऊन उपदेश देऊन आम्हा (वाजान्) अत्यंत वेगाने पुढे जाणार्या वीरांना (जयतु) विजयासाठी प्रोत्साहित करो. (अयम्) हा चौथावीर सरदार (जर्हृषाण:) नित्य निरंतर आनन्दयुक्त होऊन (अगदी सहजतेने) (शत्रून्) धर्मविरोधी शत्रुजनांना (जयतु) पराजित करो. ॥44॥
भावार्थ
भावार्थ - युद्धाच्या वेळी चार प्रकारचे वीर (सैन्यप्रमुख वा सरदार) अवश्य असावेत. त्यापैकी पहिला वैद्यकशास्त्रात (औषधीयोजना आणि शस्त्रक्रियेमध्ये) निपुण वैद्य असावा. दुसर सैन्यप्रमुख सर्व वीरांना आनंद व उल्हास देणारा उपदेशक असावा. तिसरा सैनानी शत्रूंना सर्वदृष्टीने पराभूत करून लज्जित करणार असावा आणि चवथा शत्रूंचा विनाश करणारा आसावा. असे असल्यानंतरच युद्धकर्म सफल होऊन विजय मिळतो.
इंग्लिश (3)
Meaning
This first warrior, the master of medical science, keeps us from disease on the battle field. This second warrior, the destroyer of foes, marches forth on the battle field. This third warrior, the preacher, should encourage the fast moving brave soldiers. This fourth warrior, full of delight, should subdue the irreligious foes.
Meaning
May this warrior, Agni, clear the path for us. May this warrior, breaking through the enemy lines in front, advance on and on. May this one, fighting in the thick of battle, win the battles one after another. And may this one win the victory over the enemies and rejoice. (May one look after the wounded and treat them with medicine. )
Translation
May this foremost adorable make us secure and march before us tearing down the enemies forces. May he win glories in the battle for glory; may he defeat the enemies in the joyful onslaught. (1)
Notes
See note V, 37.
बंगाली (1)
विषय
অথ সংগ্রামে ব্রহ্মোপাসকৈঃ শূরবীরৈঃ কথং য়োদ্ধব্যমিত্যুদিশ্যতে ॥
এখন সংগ্রামে পরমেশ্বরের উপাসক শূরবীরদের কী ভাবে যুদ্ধ করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (অয়ম্) এই প্রথম (অগ্নিঃ) বৈদ্যক বিদ্যার প্রকাশক বৈদ্য (স্বাহা) বৈদ্যক এবং যুদ্ধের শিক্ষাযুক্ত বাণী দ্বারা (বাজসাতৌ) যুদ্ধে (নঃ) আমাদিগকে (বরিবঃ) সুখকারক সেবন (কৃণোতু) করুক । (অয়ম্) এই দ্বিতীয় যুদ্ধ কারী মুখ্য বীর (প্রভিন্দন) শত্রুদিগকে বিদীর্ণ করিয়া (মৃধঃ) সংগ্রামের (পুরঃ) পুরভাগে (এতু) চলুক । (অয়ম্) এই তৃতীয় বীর রসকারক উপদেশক যোদ্ধা (বাজান্) অত্যন্ত বেগাদিগুণযুক্ত বীরদিগকে (জয়তু) উৎসাহ দিতে থাকিবে । (অয়ম্) এই চতুর্থ বীর (জর্হূষাণঃ) নিরন্তর আনন্দযুক্ত হইয়া (শত্রূণ্) ধর্ম্মবিরোধী শত্রুদিগকে (জয়তু) জয়লাভ করুক ॥ ৪৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যুদ্ধ কর্মে চারি প্রকার বীর অবশ্যই থাকিবে । তাহাদের মধ্যে একজন বৈদ্যকশাস্ত্রের ক্রিয়ায় চতুর সকলের রক্ষাকারক বৈদ্য, দ্বিতীয় সকল বীরদিগের হর্ষোৎপাদক উপদেশক, তৃতীয় শত্রুর অপমানকারী এবং চতুর্থ শত্রুদিগের বিনাশকারী হউক, তখন সমস্ত যুদ্ধের ক্রিয়া প্রশংসনীয় হয় ॥ ৪৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒য়ং নো॑ऽঅ॒গ্নির্বরি॑বস্কৃণোত্ব॒য়ং মৃধঃ॑ পু॒রऽএ॑তু প্রভি॒ন্দন্ ।
অ॒য়ং বাজা॑ঞ্জয়তু॒ বাজ॑সাতাব॒য়ꣳ শত্রূ॑ঞ্জয়তু॒ জর্হৃ॑ষাণঃ॒ স্বাহা॑ ॥ ৪৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অয়মিত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ভুরিগার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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