यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 12
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - गृहपतयो देवताः
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
85
यस्ते॑ऽअश्व॒सनि॑र्भ॒क्षो यो गो॒सनि॒स्तस्य॑ तऽइ॒ष्टय॑जुष स्तु॒तस्तो॑मस्य श॒स्तोक्थ॒स्योप॑हूत॒स्योप॑हूतो भक्षयामि॥१२॥
स्वर सहित पद पाठयः। ते॒। अ॒श्व॒सनि॒रित्य॑श्व॒ऽसनिः॑। भ॒क्षः। यः। गो॒सनि॒रिति॑ गो॒ऽसनिः॑। तस्य॑। ते॒। इ॒ष्टय॑जुष॒ इती॒ष्टऽय॑जुषः। स्तु॒तस्तो॑म॒स्येति॑ स्तु॒तऽस्तो॑मस्य। श॒स्तोक्थ॒स्येति॑ श॒स्तऽउ॑क्थ॒स्य। उप॑हूत॒स्येत्युप॑ऽहूतस्य। उप॑हूत॒ इत्युप॑ऽहूतः। भ॒क्ष॒या॒मि॒ ॥१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते अश्वसनिर्भक्षो यो गोसनिस्तस्य त इष्टयजुष स्तुतसोमस्य शस्तोक्थस्योपहूतो भक्षयामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। ते। अश्वसनिरित्यश्वऽसनिः। भक्षः। यः। गोसनिरिति गोऽसनिः। तस्य। ते। इष्टयजुष इतीष्टऽयजुषः। स्तुतस्तोमस्येति स्तुतऽस्तोमस्य। शस्तोक्थस्येति शस्तऽउक्थस्य। उपहूतस्येत्युपऽहूतस्य। उपहूत इत्युपऽहूतः। भक्षयामि॥१२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ गृहस्थानां मित्रतामाह॥
अन्वयः
हे प्रिय वीरपते! यस्त्वं मयोपहूतोऽश्वसनिर्गोसनिरसि, तस्य शस्तोक्थस्येष्टयजुषः स्तुतस्तोमस्योपहूतस्य तव यो भक्षोऽस्ति, तमुपहूता सत्यहं भक्षयामि। हे प्रिये सखे! या त्वमश्वसनिर्गोसनिरसि, तस्याः शस्तो कथाया इष्टयजुषः स्तुतस्तोमाया उपहूतायास्ते तव यो भक्षोऽस्ति, तमुपहूतोऽहं भक्षयामि॥१२॥
पदार्थः
(यः) (ते) तव (अश्वसनिः) अश्वानामग्न्यादिपदार्थानां वा सनिर्दाता (भक्षः) सेवनीयः (यः) (गोसनिः) संस्कृतवाचो भूमेर्विद्याप्रकाशादेः सनिर्दाता (तस्य) (ते) तव (इष्टयजुषः) इष्टानि यजूषिं यस्य (स्तुतस्तोमस्य) स्तुतः स्तोमः सामवेदगानविशेषो येन सः (शस्तोक्थस्य) शस्तानि प्रशंसितानि उक्थानि ऋक्सूक्तानि येन यस्य (उपहूतस्य) सत्कारेणाहूयोपस्थितस्य (उपहूतः) सम्मानित उपस्थितः (भक्षयामि) लेट् प्रयोगोऽयम्। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। ३। ११-१३) व्याख्यातः॥१२॥
भावार्थः
सदुत्साहवर्द्धकेषु कार्य्येषु गृहाश्रममाचरन्त्यः स्त्रियः स्वसखिस्त्रीजनान् गृहाश्रममिणः पुरुषा वा स्वेष्टमित्रबन्धुजनादीनाहूय यथायोग्यं सत्कारेण भोजनादिना प्रसादयेयुरन्योन्यमुपदेशं शास्त्रार्थं विद्यावाग्विलासं च कुर्य्युः॥१२॥
विषयः
अथ गृहस्थानां मित्रतामाह ॥
सपदार्थान्वयः
हे प्रिय वीरपते ! यस्त्वं मयोपहूतः सम्मानित उपस्थितः अश्वसनिः अश्वानामग्न्यादिपदार्थानां वा सनिः=दाता, गोसनिः गो:=संस्कृतवाचो भूमेर्विद्याप्रकाशादेः सनि:=दाता असि, तस्य शस्तोक्थस्य शस्तानि=प्रशंसितानि उक्थानि=ऋक्सूक्तानि येन तस्य इष्टयजुषः इष्टानि यजूंषि यस्य स्तुतस्तोमस्य स्तुतः स्तोम:=सामवेदगानविशेषो येन सः [तस्य] उपहूतस्य सत्कारेणाहूयोपस्थितस्य [ते]=तव यो भक्षः सेवनीय: अस्ति, तमुपहूता सत्यहं भक्षयामि । हे प्रिये सखि ! या त्वमश्वसनिःअश्वानामग्न्यादिपदार्थानां वा सनिः=दात्री गोसनिः गो:=संस्कृतवाचो भूमेर्विद्याप्रकाशादेः सनिः=दात्री असि, तस्याः शस्तोक्थायाः शस्तानि प्रशंसितानि उक्थानि=ऋक्सूक्तानि यया तस्याः इष्टयजुषः इष्टानि यजूंषि यस्या: स्तुतस्तोमायाः स्तुतः स्तोमः=सामवेदगानविशेषो यया सा [तस्याः]उपहूतायाः सत्कारेणाहूयोपस्थितायाः ते=तव यो भक्षः सेवनीयः अस्ति, तमुपहूता सम्मानितोपस्थिता अहं भक्षयामि ॥८ । १२॥ [हे वीरपते !......शास्तोक्थस्येष्टयजुषः स्तुतस्तोमस्योपहूतस्य [ते]=तव यो भक्षोऽस्ति तमुपहूता सत्यहं भक्षयामि, हे प्रिये सखि !.....उपहूतायास्ते=तव यो यक्षोऽस्ति तमुपहूताऽहं भक्षयामि]
पदार्थः
(यः)(ते) तव (अश्वसनिः) अश्वानामग्न्यादिपदार्थानां वा सनिर्दाता (भक्षः) सेवनीय: (यः)(गोसनिः) गो: संस्कृतवाचो भूमेर्विद्याप्रकाशादेः सनिर्दाता (तस्य)(ते) तव (इष्टयजुषः) इष्टानि यजूँषि यस्य (स्तुतस्तोमस्य) स्तुतः स्तोमः सामवेदगानविशेषो येन सः [तस्य] (शस्तोक्थस्य)शस्तानि=प्रशंसितानि उक्थानि=ऋक्सूक्तानि येन तस्य (उपहूतस्य) सत्कारेणाहूयोपस्थितस्य (उपहूतः) सम्मानित उपस्थित: (भक्षयामि)लेट्प्रयोगोऽयम् ॥ अयं मन्त्र: शत० ४ । ४ । ३ । ११-१३ व्याख्यातः ॥ १२॥
भावार्थः
सदुत्साहवर्द्धकेषु कार्येषु--गृहाश्रममाचरन्त्यः स्त्रियः स्वसखिस्त्रीजनान्, गृहाश्रमिणः पुरुषा वा स्वेष्टमित्रबन्धुजनादीनाहूय यथायोग्यं सत्कारेण भोजनादिना प्रसादयेयुरन्योऽन्यमुपदेशं, शास्त्रार्थं विद्याविवाग्विलासं च कुर्युः ॥ ८ । १२॥
विशेषः
भारद्वाजः । गृहपतय:=गृहस्थाः ॥ आर्षीपंक्तिः । पञ्चमः ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब गृहस्थों की मित्रता अगले मन्त्र में कही है॥
पदार्थ
हे प्रियवीर पुरुष मित्र! जो आप (उपहूतः) मुझ से सत्कार को प्राप्त होकर (अश्वसनिः) अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़ों और (गोसनिः) संस्कृत वाणी, भूमि और विद्या प्रकाश आदि अच्छे पदार्थों के देने वाले (असि) हैं, उन (शस्तोक्थस्य) प्रशंसित ऋग्वेद के सूक्तयुक्त (इष्टयजुषः) इष्ट सुखकर यजुर्वेद के भागयुक्त वा (स्तुतस्तोमस्य) सामवेद के गान के प्रशंसा करनेहारे (ते) आप का (यः) जो (भक्षः) चाहना से भोजन करने योग्य पदार्थ है, उस को आप से सत्कृत हुई मैं (भक्षयामि) भोजन करूं तथा हे प्रिय सखि! जो तू अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़ों के देने और संस्कृत वाणी, भूमि, विद्या, प्रकाश आदि अच्छे-अच्छे पदार्थ देने वाली है, उस प्रशंसनीय ऋक्सूक्त यजुर्वेद भाग से स्तुति किये हुए सामगान करने वाली तेरा जो यह भोजन करने योग्य पदार्थ है, उस को अच्छे मान से बुलाया हुआ मैं भोजन करता हूं॥१२॥
भावार्थ
अच्छे उत्साह बढ़ाने वाले कामों में गृहाश्रम का आचरण करने वाली स्त्री अपनी सहेलियों वा पुरुष गृहाश्रमी पुरुष अपने इष्टमित्र और बन्धुजन आदि को बुला कर भोजन आदि पदार्थों से यथायोग्य सत्कार करके प्रसन्न करें और परस्पर भी सदा प्रसन्न रहें और उपदेश, शास्त्रार्थ, विद्या, वाग्विलास को करें॥१२॥
विषय
सात्त्विक भोजन
पदार्थ
पिछले ग्यारह मन्त्रों में वर्णित सारी उत्तम बातें अन्ततोगत्वा भोजन की सात्त्विकता पर निर्भर करती हैं, अतः प्रस्तुत मन्त्र में उसी भोजन का उल्लेख करते हुए पत्नी कहती है कि १. ( यः ) = जो ( ते ) = तेरा ( भक्षः ) = भोजन ( अश्वसनिः ) = उत्तम कर्मेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाला है, अर्थात् तेरी क्रियाशक्ति को बढ़ानेवाला है, २. ( यः गोसनिः ) = जो भोजन उत्तम ज्ञानेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाला है [ अश्नुवते कर्मसु अश्वाः, गमयन्ति अर्थान् गावः ], अर्थात् जिस भोजन के द्वारा ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति बढ़कर ज्ञानशक्ति में वृद्धि होती है, ३. ( उपहूतः ) = जो भोजन उपहूत हुआ है, अर्थात् ‘अनमीवस्य, शुष्मिणः’ जिस नीरोग व शत्रुओं के शोषक बलवाले भोजन की प्रार्थना की गई है, उस भोजन को ( भक्षयामि ) = मैं तुझे खिलाती हूँ।
४. ( तस्य ते ) = उस आपको जो [ क ] ( इष्टयजुषः ) = यजुर्मन्त्रों से निरन्तर यज्ञ करनेवाले हो [ इष्टं यजुर्भिर्येन, तस्य ]। [ ख ] ( स्तुतस्तोमस्य ) = [ स्तुतं स्तोमैः साममन्त्रविशेषैर्ये ] साम-मन्त्रों से प्रभु का स्तवन करनेवाले हो। [ ग ] ( शस्तोक्थस्य ) = [ शस्तानि उक्थानि यस्य ] प्रशस्त ऋक् मन्त्रोंवाले हो। [ घ ] ( उपहूतस्य ) = उपासना द्वारा प्रभु का आह्वान करनेवाले हो।
भावार्थ
भावार्थ — भोजन वही ठीक है जो कर्मेन्द्रियों को क्रियाशील और ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्तिक्षम बनाता है और जिसकी वेद में इस रूप में प्रार्थना है कि यह नीरोगता व शत्रु-शोषण-शक्ति को देनेवाला हो। इससे पति का जीवन इतना सुन्दर बनेगा कि वे यजुर्मन्त्रों से यज्ञ करनेवाले बनेंगे। साममन्त्रों से प्रभु-स्तवन करेंगे तथा ऋङ्मन्त्रों का उच्चारण करनेवाले होंगे, अतः पत्नी ने पति व परिवार को सात्त्विक भोजन ही खिलाना है।
विषय
राजा के अधीन प्रजा का राष्ट्र भोग ।
भावार्थ
हे सोमराजन् ! ( यः ते ) जो तू ( अश्वसनिः ) अश्वों से युक्र है और (यः) जो तू ( गोसनिः ) गौ आदि पशुओं से युक्त ( भक्षः) बल या राज्य की रक्षा करनेवाला अन्नरूप राज्य का भोक्ता है ( तस्य ) उस ( इष्टयजुषः ) यज्ञशील, युद्धविजयी ( स्तुतस्तो मस्य ) प्रशस्त सेना संघ से युक्त और ( शस्तोक्थस्य ) उत्तम विद्वान् ब्राह्मण से युक्त ( उपहू- तस्य) आदरपूर्वक आमन्त्रित एवं राज्यपद में अभिषिक तेरे द्वारा ही ( उपहूतः ) आदरपूर्वक अनुज्ञा पाकर हम प्रजाजन भी ( भक्षयामि ) उक्त सामर्थ्य का भोग करें || शत्र० ४ । ४ । ३ । ११-१५ ॥
गृहस्थतन्त्र में - हे पते ! तू अश्वों और गौ आदि ऐश्वर्यों से युक्त, अथवा अश्व, कर्मेन्द्रिय गौ, ज्ञानेन्द्रियों से युक्त, अथवा अग्न्यादि, विद्या और भूमि का भोक्ता और दाता है उस तेरे तीनों वेदों में विद्वान् का आदर- पूर्वक निमन्त्रित कर शेष का मैं उपभोग करूं। इसी प्रकार पति अपनी विदुषी उदारपत्नि एवं अन्य बन्धुओं को आदरपूर्वक बुलाकर भोजनादि करावें ।
टिप्पणी
१२ – यस्ते देवाश्वसनि० ' ' ० क्थस्योपहूत उपहूतस्य भ० ' इति काण्व ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
धानाः गृहपतयो वा देवता: । आर्षी पंक्ति: । पन्चमः ॥
विषय
अब गृहस्थों की मित्रता का उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ
हे प्रिय, वीरपते ! जो आप मुझ से (उपहूतः) सम्मानित होकर उपस्थित हो सो (अश्वसनि:) अश्व अथवा अग्नि आदि पदार्थों के दाता और (गोसनिः) संस्कृत वाणी, भूमि तथा विद्याप्रकाश आदि के दाता (असि) हो, सो (शस्तोक्थस्य) ऋग्वेद के सूक्तों की प्रशंसा करने वाले, (इष्टयजुषः) यजुर्वेद से प्रेम करने वाले, (स्तुतस्तोमस्य) सामवेद के गानविशेष की स्तुति करने वाले, (उपहूतस्य) सत्कारपूर्वक बुलाने से उपस्थित हुये [ते] आप का जो (भक्षः) सेवनीय पदार्थ है उसी को (उपहूता) सम्मान से बुलाई हुई सेवन करती हूँ । हे प्रिये सखि ! जो तू (अश्वसनिः) अश्व अथवा अग्नि आदि पदार्थों की दात्री (गोसनिः) संस्कृत वाणी, भूमि तथा विद्या प्रकाश आदि की दात्री (असि) हो, सो (शस्तोक्थायाः) ऋग्वेद के सूक्तों की प्रशंसा करने वाली (इष्टयजुषः) यजुर्वेद से प्रेम करने वाली (स्तुतस्तोमायाः) सामवेद के गान विशेष का स्तवन करने वाली (उपहूतायाः) सत्कारपूर्वक बुलाने से उपस्थित हुई (ते) आपका, जो (भक्षः) सेवनीय पदार्थ है उसी को (उपहूता) सम्मान से बुलाने पर उपस्थित हुई मैं (भक्षयामि) सेवन करती हूँ ॥८। १२ ।।
भावार्थ
अच्छे उत्साहवर्द्धक कार्यों में गृहाश्रमी स्त्रियाँ अपनी सखी स्त्रियों को, अथवा पुरुष अपने इष्ट, मित्र, बन्धु जन आदि को यथायोग्य सत्कार एवं भोजन आदि से उन्हें प्रसन्न करें और परस्पर उपदेश शास्त्रार्थ, विद्या वाग्विलास किया करें ।। ८ । १२ ।।
प्रमाणार्थ
(भक्षयामि) यह लेट् लकार का प्रयोग है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।४।३।११-१३) में की गई है ॥ ८ । १२ ।।
भाष्यसार
गृहस्थों की मित्रता--गृहस्थ पुरुष उत्सव आदि कार्यों में अश्व अथवा अग्निआदि पदार्थों का दाता हो, शुद्ध वाणी, भूमि तथा विद्याप्रकाश आदि का भी दाता हो, अर्थात् परस्पर उपदेश, शास्त्रार्थ तथा विद्या से युक्त वाग्विलास का करने वाला हो, ऋग्वेद का प्रशंसक, यजुर्वेद का प्रिय, सामवेद का गायक हो। ऐसे श्रेष्ठ गृहस्थ पुरुषों को पारिवारिक उत्सवों में निमन्त्रित करके गृहस्थ लोग उनका यथायोग्य सत्कार करें, उन्हें भोजन आदि से प्रसन्न करें। गृहस्थ स्त्रियाँ भी इसी प्रकार से आचरण करें ।। ८ । १२ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
गृहस्थाश्रमी स्त्रीने कार्य करताना उत्साही बनून आपल्या मैत्रिणींना व पुरुषांनी आपले इष्टमित्र आणि नातेवाईक इत्यादींना आमंत्रित करावे व भोजन वगैरेनी त्यांचा सत्कार करून प्रसन्न करावे व परस्परही सदैव प्रसन्न राहावे. उपदेश, शास्त्रार्थ, विद्या वाग्विलासात जीवन घालवावे.
विषय
पुढील मंत्रात गृहस्थांच्या मैत्रीविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (पत्नी म्हणते) हे प्रिय वीर पुरुष माझे पती आणि मित्र, आपण (उपहूत:) माझ्याकडून सत्कार करण्यास पात्र आहात. आपण (घरासाठी) (अश्वसीन:) अग्नी आदी पदार्थ अथवा घोडे आदी पशू देणारे आहात आणि (गोसनि:) संस्कृत वाणी बोलणारे, भूमीची वृद्धी आणि विद्येचा प्रकाश करणारे (असि) आहात. (शक्तोस्शस्य) ऋग्वेदाच्या सक्तांनी युक्त (इष्टयजुष:) इष्ट सुखकारक यजुर्वेदाच्या भागाने संयुक्त आणि (स्तुतसोमस्य) सोमवेदगानाची प्रशंसा करणारे अशा (ते) ‘आपला जो (भक्ष:) प्रिय इष्ट भक्ष्य पदार्थ आहे, आपण तो मला देऊन माझा जो सत्कार केला आहे, त्या रुचिकर पदार्थाचे मी भोजन करतो. (पती म्हणतो) हे प्रिय पत्नी, माझी सखी, तू या घरात अग्नी आदी पदार्थांचा उपयोग करतेस, घोडे आदी पशूंचे पालन करतेस, आणि सुमधुर सुसंस्कृत वाणी बोलत विद्येचा विकास करतेस, प्रशंसनीय ऋक्सूत्र आणि सामगानाने तू ज्या भोज्य पदार्थांचे सेवन करतेस, त्या स्वादिष्ट पदार्थाचा सेवन करण्यासाठी तू जेव्हा मोठ्या आदराने मला बोलावतेस, तेव्हा मी मोठ्या आनंदाने त्याचे सेवन करतो. (पति-पत्नींनी एकमेकाच्या आवडीचे भोज्य पदार्थ एकमेकास आग्रह करून द्यावेत वाढावेत) ॥12॥
भावार्थ
missing
इंग्लिश (3)
Meaning
O affectionate and heroic husband, thou art the giver of scientific knowledge, polished speech, land and good instruction. Thou art conversant with the Yajur-Veda, the Sama Veda, and the Rig Veda. Thou art invited and honoured by the learned. Invited by thee I eat the delicious meal prepared by thee.
Meaning
Invited by you, blessed soul, to the celebration of your power of horses, your wealth of land and cows, and your culture of the divine voice, the Veda, admirer of the Rks, lover of the Yajus and singer of the Samans, I am delighted to enjoy what you have so generously offered.
Translation
O devotional bliss, I, being invited, hereby take your draught that is bestower of horses as well as of cows. This draught of yours is suggested by the Yajuh prose, is praised by Saman songs, and recommended and permitted by the Rk verses. (1)
Notes
Aévasanih, अश्वाना दाता, bestower of horses. Stoma, Saman songs. Uktha, praise-verses; rks.
बंगाली (1)
विषय
অথ গৃহস্থানাং মিত্রতামাহ ॥
এখন গৃহস্থদিগের মিত্রতা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে প্রিয়বীর পুরুষ মিত্র্র ! আপনি (উপহূতঃ) আমা হইতে সৎকার প্রাপ্ত হইয়া (অশ্বসনিঃ) অগ্নি আদি পদার্থ বা অশ্ব এবং (গোসনিঃ) সংস্কৃত বাণী, ভূমি ও বিদ্যা, প্রকাশাদি ভাল পদার্থের দাতা, সেই সব (শস্তোক্থস্য) প্রশংসিত ঋগ্বেদের সূক্তযুক্ত (ইষ্টয়জুষঃ) ইষ্ট সুখকার যজুর্বেদের ভাগযুক্ত বা (স্তুতস্তোমস্য) সামবেদের গান প্রশংসাকারী (তে) আপনার (য়ঃ) যে ইচ্ছানুসার ভোজন যোগ্য পদার্থ উহা আপনার দ্বারা সৎকৃত আমি (ভক্ষয়ামি) ভোজন করিব তথা হে প্রিয় সখি । তুমি অগ্নি আদি পদার্থ বা অশ্বকে প্রদানকারী ও সংস্কৃত বাণী, ভূমি, বিদ্যা, প্রকাশাদি ভাল-ভাল পদার্থ দাত্রী সেই প্রশংসনীয় ঋক্সূত্র যজুর্বেদ ভাগ দ্বারা স্তুত সামগানকারী তোমার এই যে আহার্য্য পদার্থ উহা সম্মানপূর্বক আহুত আমি ভোজন করিতেছি ॥ ১২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সম্যক্ উৎসাহ বৃদ্ধিকারী কর্ম্মে গৃহাশ্রমের আচরণকারী স্ত্রী নিজ সখি বা গৃহাশ্রমী পুরুষ, স্বীয় ইষ্টমিত্র ও বন্ধুজন ইত্যাদিকে ডাকিয়া ভোজনাদি পদার্থ দ্বারা যথাযোগ্য সৎকার করিয়া প্রসন্ন করিবে এবং পরস্পরও প্রসন্ন থাকিবে এবং উপদেশ, শাস্ত্রার্থ, বিদ্যা বাগ্বিলাস করিবে ॥ ১২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়স্তে॑ऽঅশ্ব॒সনি॑র্ভ॒ক্ষো য়ো গো॒সনি॒স্তস্য॑ তऽই॒ষ্টয়॑জুষ স্তু॒তস্তো॑মস্য শ॒স্তোক্থ॒স্যোপ॑হূত॒স্যোপ॑হূতো ভক্ষয়ামি ॥ ১২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়স্ত ইত্যস্য ভরদ্বাজ ঋষিঃ । গৃহপতয়ো দেবতাঃ । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ।
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